Sunday, May 1, 2022

मिथिला भाषा रामायणक वैशि‍षट्य




रामायण हिन्दू धर्मग्रन्य थिक। एकर पाठो सँ धर्म होइत छैक एह धारणा लोकक अछि। मिथिला भाषा रामायण कवीश्वर चन्दा झाक प्रमुख कृति थिकनि। मिथिला में जनसाधारण पर हिनक ख्याति मुख्यतः एहि‍ पर आधारित छनि। एकर प्रकाशन 1892 ई० मे भेल। किन्तु ई लिखल गोल छओ वर्ष पूर्वहि ।

ई पुराण नहि, पौराणिक महाकाव्य थिक । एकर अद्यावधि सात गोट संस्करण प्रकाशित भेल अछि। एकर पहिल संस्करण कवीश्वरक जीवन काल में प्रकाशित भेल छल। पहिल म०म० चित्रधर मिश्रक तत्वावधान मे छपल छल जकर परिशिष्ट मे मिथिलाक कतिपय ख्यात, अल्पख्यात आ अज्ञात विद्वानक सूची एवं वश-परिचय अछि। प्रथम संस्करण अप्राप्य अछि। दोसर संस्करण कवीश्वरक मृत्युक पश्चात म० म० चित्रधर मिश्रक सम्पादकत्व मे प्रकाशित भेल जकर भूमिका मे एहि विषयक उल्लेख अछि, मुदा मुद्रण-तिथि नहि देल गेल अछि। अनुमानतः 1908 ई० सँ 1910 ई० क मध्य प्रकाशित भेल होएत । तेसर राजपण्डित बलदेव मिश्रक सम्पादकत्‍व मे 1927-28 ई० में प्रकाशित भेला । चारिम गुटका संस्करण पं० शशिनाथ झाक सम्पादन में 1948 ई० में प्रकाशित भेल। पाँचम बलदेव मिश्र आ रमानाथ झाक सम्पादन मे 1955 ई० में छपल ई सर्वाधिक शुद्ध संस्करण अछि। छठम मैथिली अकादमी 1977 ई० में पांचव संस्करण के आदर्श मानि प्रकाशित कएलक। एहि में चन्दा झाक चित्र आ हस्तलिपिक फोटो स्टेट कापी सेहो अछि।

मिथिला भाषा रामायणक सातम आकर्षक संस्करण साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली द्वारा 1999 ई० में प्रकाशित कएल गेल अछि। श्रेष्‍ठ साहित्यक पुनः प्रकाशन योजनाक अन्तर्गत अकादमी द्वारा प्रकाशित एहि नवीन संस्करण में डॉ० रामदेव झा लिखित गवेषणात्मक भूमिका मे कवीश्वर ओ हुनक साहित्यिक सम्बन्ध में अनेकशः नवीन तथ्य आ सूचना देल गेल अछि। एहू संस्करणक आधार राजपण्डित बलदेव मिश्र ओ रमानाथ झाक सम्पादन में 1955 ई० में प्रकाशित संस्करण अछि।

विवेच्य रामायण सात काण्ड में विभक्त अछि। प्रत्येक काण्ड में अनेक अध्याय छैक आरंभ में संस्कृत श्लोकमे वन्दना अछि। सम्पूर्ण ग्रन्थमे चौपाइ एवं दोहा छन्दक प्रधानता अछि किन्तु बीच बीच अनेकानेक छन्दक प्रयोग सेहो कएल गेल अछि । एकर भाषा सहज वर्णन शैली मोहक किन्तु कथा प्रवाह तीव्र अछि। एहि ग्रन्थक सफलताक पाछा कोन कोन तत्व अछि, ताहि प्रसंग डॉ० जयकान्त मिश्र कहैत छथि -

Wonderful mastery over the language, interspersed with appropriate proverbs, idioms and figures of speech, traditional Mithila enchanting rhythm and March of the lives and waters living characterization love of details, spiritual conviction of the ultimate victory of good over evil all these contributed of this success.

डॉ० जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सनक उक्ति छनि-Pandit chandranath Alice Chanda Jha whom I now to be one of the most learned men in part of India.

कवीश्वर चन्दा झा विरचित 'मिथिला भाषा रामायण के मैथिली भाषाक गौरव-ग्रन्थ सिद्ध करैत डॉ० रामदेव झाक कहब छनि - मिथिला भाषा रामायण कवीश्वर चन्दा झाक एहन महान एवं गम्भीर प्रबस्थ-रचना थिकनि जे हुनका पूर्ण यशस्वी ओ चिरस्मरणीय बनाए देलकनि। मैथिली साहित्यक ई गौरव-ग्रन्थ भारतीय वाड़मयक रामायणीय परम्परा मे सेहो एकटा स्थान बनाए लेलक अछि। मिथिला भाषा रामायण में गम्भीर दार्शनिक चिन्तक संगति काव्य तत्व ओ लोक तत्वक अद्भुत समन्वय भेल अछि। विभिन्न प्रसंग मे कविक कतोक मौलिक उद्भावना अतिशय चमत्कारपूर्ण अछि। प्रबन्धोपयोगी चौपाई, दोहा ओ सोरठाक अतिरिक्त पारम्परिक वार्णिक, मात्रिक मिथिला देशीय रागाधृत, विभिन्न भास ओ गीति-रीतिक शतधिक प्रकारक छन्दक प्रयोग ने केवल चन्दा झाक कवि कर्मक सिद्धहस्तताक घोतक अछि, अपितु ई मिथिला भाषा रामायणकेँ भारतीय भाषाक अन्य रामायण सँ भिन्ने ओ विशिष्ट बनाए देने अछि। पाठ्यधर्मी छन्दक संगहि राग-भास-बद्ध गेय गीतक समावेश, लोकप्रचलित सहज भाषा, लोकोक्ति-उपलक्षण इत्यादिक विशद प्रयोग एवं विविध धार्मिक प्रसंग ओ सम्वाद सभक कारण ई काव्यकृति अपन रचना-कालहि मे लोकप्रिय भए जनजीवन मे बसि गोल।

रामायणक रचनाकेँ ओकरा प्रकाशमे आनि कवीश्वर से प्रतिष्ठाक प्राप्त कयलनि जे विद्यापतिक पश्चात मैथिलीक आन कोनो कविके नहि भेटलनि । कवीश्वरक रामायणमे कल्पना-तत्व ततेक प्रबल नहि अछि जतेक बुद्धि‍-तत्व अथवा विचार तत्व । रामायणक कथावस्तु अधिकांशत: अध्यात्मक रामायणक शब्द नहि तँ छाया रूपेँ अनुवाद थिक, जे ठाम-ठाम किंचिंत आयासपूर्ण लगैत अछि । कवित्वक दृष्टि सँ ई एक गोट महत्वपूर्ण रचना छनि । रामक चरित लए एतेक गोट महाकाव्यक जाहि मे भक्ति भावना एतेक प्रबल अछि, योग दर्शन एहन सुन्दर प्रतिपादित अछि, लोकोक्ति ओ स्वाभावोक्ति एहन विलक्षण विन्यास जे कवीश्वर रचलनि ई सवर्था अभिनव वस्तु छलनि ।

कवीश्वर चन्दा झाक व्यक्ति‍त्व ओ कृतित्व




कवीश्वर चन्दा झा आधुनिक कालक सिंहद्वार पर अपन बहुमुखी प्रतिभा ओ बहुआयामी व्यक्ति‍त्वसँ सम्पन्न युगप्रर्वतक रचनाकार भेलाह, जे मैथि‍ली मे रामायणक रचना कs साहित्य जगतमे क्रांति आनि देलनि ।

डा0 अमरनाथ झाक कथन छनि ‘’विद्यापतिक समयसँ जे काव्य परम्परा मैथि‍लीमे चल आबि रहल छल से उन्नैसम शताब्दी‍ धरि अबैत-अबैत शक्तिवहीन भs गेल छल । तात्कलिक समाज ओ सामाजिक परिवेशक वास्तविक प्रतिनिधित्व ओ आब नहि कs रहल छल, तथा ओहिमे आब कृत्रि‍मता आबि गेल छल । चन्दा झा पहिल कवि भेलाह जे मैथि‍ली साहित्यक एहि गत्यावरोधकेँ चीन्हल तथा ओहिमे नवीन गति प्रदान कs ओकरा देश ओ समाजक अनुकूल बनाओल एवं नवीन खाढ़ीक कवि लोकनिक हेतु एकटा नव पथ प्रशस्त कयल ।

जन्म-मृत्यु ओ जन्मस्थान

चन्दा झाक जन्म शाके 1753 माघ शुक्ल सप्तमी बृहस्पतिकें, तदनुसार 20 जनवरी 1839 ई0 मे काश्यपगोत्रीय मड़रय रजौरा मूलक मैथि‍ल ब्राहम्ण वंशमे भेल । हिनक पैतृक निवासस्थान छल पिण्डारूछ । हिनक पिता महामहोपाध्याय पण्डि‍त भोला झा अपन समयक एक नैष्ठि‍क एवं सुप्रतिष्ठि‍त विद्वान छल । हिनक पैत्रि‍क वंश जेंका हिनक मातृवंश सेहो बड़ गौरवपूर्ण रहनि । हिनक मतामह बड़गामनिवासी पण्डित गिरिवरनारायण झा सरिसबे छाजन मूलक प्रसिद्ध विद्वान रहथि‍ । ओहि समय बड़गाम मिथि‍लाक एकटा विख्यात विद्याकेन्द्र रहय । कवीश्वरक जन्म अपन मातृकेमे भेल छल ।

डा0 अमरनाथ झा हिनक मृत्युक प्रसगेँ लिखने छथि जे – ‘’चन्दा झाक मृत्यु सतहत्‍तरि वर्षक अवस्था मे मार्ग शुक्ल नवमी शुक्र तदनुसार 14 दिसम्बर 1907 ई केँ रात्रि‍ शेषमे भेलनि ।

व्यक्तित्व –

कवीश्वर चन्दा झाक व्यक्तित्व बहुआयामी छल । ई कवीश्वर नामे बेस विख्यात भेलाह । ई मैथि‍लीक महाकवितँ रहबे करथि‍, संगहि संस्कृ‍त आ संगीत शास्‍त्रक प्रकाण्ड विद्वान सेहो रहथि‍ । रामायणमे तथा आनो ठाम हिनक कतेको संस्कृत श्लोक उपलब्ध अछि । ओहि श्लोक सभक आधारपर सहजेँ ई अनुमान लगाओल जा सकैछ जे जँ मातृभाषाक प्रति हिनक प्रगाढ़ अनुरक्ति नहि रहैततँ संस्कृ्त मे उत्कृष्ट कोटिक ग्रंथ लिखि‍ अमरता प्राप्त कs सकैत छलाह।

ई बड़ पैघ अनुसन्धानकर्ता छलाह । महाकवि विद्यापतिक विषयमे तथा अपन पूर्ववर्ती कतेको मैथि‍ल कवि ओ पंडितक विषयमे जाहि-जाहि तथ्यक अन्वेषण कयलनि से हिनक विशि‍ष्ट अनुसन्धान-क्षमताक ज्वलन्त प्रमाण थि‍क । यैह सर्वप्रथम व्यक्ति छलाह जे विद्यापतिकेँ मैथि‍ल प्रमाणि‍त करबाक दिशा मे आकृष्ट भेलाह । ई संगीत शास्त्रक गंभीर ज्ञाता छलाह । तेँ अपन रामायणमे मिथि‍लाक संगीतक अनुसार अनेकानेक रागक उल्लेख कयने छथि‍ । चन्दा झा सफल अनुवादक सेहो छलाह । विद्यापतिक संस्कृत ग्रंथ ‘पुरूष-परीक्षा’क गद्य-पद्यमय अनुवाद हिनक विलक्षण अनुवाद सामर्थ्यक परिचायक थि‍क । संपादन कार्यमे सेहो निष्णात छलाह । ततबे उच्च कोटिक विद्वान छलाह । हिनक गीत पर श्रोता झुमि उठैत छल । हिनक भक्ति‍ विषयक पद सेहो बड़ सुन्दर होइत छल -

‍हम पशुमति तोँह पशुपति देब के नहि त्रि‍जगत तुअ पद सेव

कवीश्वर सेहो जखन भगवती श्यामाक स्तुति करय लगैत छथि‍ तँ कहैत छथि‍ जे –

रे मन रटह श्यामा श्यामा
यावत जीवन कुशल रहब बसब जाहि ठामा ।
विधि‍ रमेश्वर ईश्वर वास किड़कर कोटिमे नामा ।।

कृतित्व

कवीश्वर चन्दा झा आधुनिक मैथि‍ली साहित्यक युग प्रवर्तक तँ छलाहे, तकर अतिरिक्त संस्कृत ओ हिन्दी‍ भाषामे सेहो बहुत रचना कयने छथि‍ । हिन्दी साहित्यिक इतिहास मे जे गौरव भारतेन्दु हरिश्चन्द्र केँ प्रदान कयल जाइत छनि तकर वास्तविक अधि‍कारी चन्द्रे नाथे झा थि‍काह ।

कवीश्वरक मुख्य साहित्यि‍क रचना निम्नलिखि‍त अछि –

1) वाताह्वान – एकर प्रकाशन 1883 ई0 मे भेल रहय । वाताह्न ओहि प्रकारक पद्य थिक जाहि प्रसंग लोक मे ई विश्वास छैक जे एकरा स्फुट रूपेँ पढ़लासँ हाबा जोरसँ बहय लगैत छैक आ गर्मी शान्त भs जाइत छैक ।

2) मिथि‍लाभाषा रामायण – कवीश्वरक ई सर्वाधि‍क महत्वपूर्ण ग्रंथ थि‍काह । यैह ग्रन्थ हिनका कालातीत बना देलक तथा हिनक कीर्तिध्वज सदा फहरबैत रहला । ई पुराण नहि पौराणि‍क महाकाव्य थि‍क ।

3) गीतिसुधा – एहि मे विविध भावपूर्ण छतीस गोट गीत संकलित अछि ।

4) महेशवाणीसंग्रह – डां0 गंगानाथ झा द्वारा सम्पादित एवं प्रकाशि‍त

5) अहल्याचरितनाटक – खण्ड रूप मे, मिथि‍लामिहिर 18 फरवरी 1912 ई0 में प्रकाशि‍त ।

6) चन्द्रपद्यावली – एहिमे संस्कृत, मैथि‍ली एवं हिन्दी भाषाक विविध भावपूर्ण 650 गोट पद्यक संग्रह अछि । ई हिनक स्फूट पद्यक सर्वप्रमुख प्रकाशि‍त ग्रन्थ थि‍क ।

7) लक्ष्मीश्वर विलास – ई महाराज लक्ष्मीश्वर सिंहक आज्ञासँ रचित संस्कृ्त ओ मैथि‍ली भाषाबद्ध विविध भावपूर्ण 36 गोट पद्यक संग्रह थि‍क ।

8) विद्यापति रचित पुरूषपरीक्षाक मैथि‍ली अनुवाद –

9) गीतसप्तशती – एकर प्रकाशन 1902 ई0 मे महाराजाधि‍राज महेश्वर सिंहक धर्मपत्नी महेश्वरलता देवीक द्रव्य सहाय्यसँ भेल रहय ।

एकर अतिरिक्त‍ हिनक रचित निम्न लिखि‍त ग्रन्थ सभ सेहो उल्लेख भेटैत अछि । किन्तु ई सभ अप्राप्त ओ अप्रकाशि‍त अछि ।

1) मूलग्रामविचार – एहिमे प्राय: पंजीकालीन मूल ग्रामसभक पता लगाओल गेल छल । चन्द्रपपद्यावलीक भूमिका मे राजपंडित बलदेव मिश्र एकर उल्लेख कयने छथि‍ ।

2) छन्दो्ग्रन्थक – राजपंडित बलदेवमिश्र चनद्रपद्यावलीक भूमिका मे तथा पंडित शशि‍नाथ झा मैथि‍ली रामायण (गुटका संस्करण) क भूमिका मे एहि ग्रंथक उल्ले‍ख कयने छथि‍ ।

3) रसकौमुदी – ई ब्रजभाषा मे लिखि‍त नायिकाभेदसम्बन्धी काव्यग्रन्थं थि‍क । डा0 ललितेश्वर झा एकर उल्लेख कयने छथि‍ ।

उपर्युक्त विवेचना सँ ई स्पष्ट भs जाइत अछि जे विद्यापतिक पश्चा‍त कवीश्वर चन्दा झा प्रथम कवि भेलाह जे समसामयिक समस्या‍केँ नीक-जकाँ चीन्हि ओकर प्रतीकारक हेतु जनसाधारणमे अपन रचनाद्वारा मिथि‍ला, मैथि‍ली ओ मैथि‍लीक प्रति अनुराग उत्पन्न करबाक प्रयास कयल, कविताक रूढ़िग्रस्त परंपराकेँ संशोधि‍त कs साहित्यिक गत्यावरोधकेँ हटाओल, काव्यकेँ तात्कालिक समस्याक प्रति चिन्तनशील बनाओल तथा गद्य लिखबाक मार्ग प्रशस्त कयल । कवि ओ कलाकार कs अपन युगक प्रति जे दायित्व रहैत छैक तकर निर्वाह कवीश्वर कयलनि ।

निष्कर्षत: हिनक व्यक्तित्व बहुआयामी छल व्यक्ति‍त्व ओ कृतित्व विवेचनाक पश्चात कहि सकैत छी जे ई अपन बहुमुखी प्रतिभाक विलक्षण लोक छलाह जे अपन अमूल्य कृतिक कारणे आधुनिक कालमे मैथि‍ली साहित्यमे वैह स्थान प्राप्त कयने छथि‍ जाहि स्थानके मैथि‍ली लेल आदिकाल मे महाकवि विद्यापति प्राप्त कयने छथि‍ ।

मैथिली कथा साहित्यक विकास

 
कथा साहित्यक, आधुनिक विद्या थिक । यद्यपि भारतीय वाड़मय मे कथा-साहित्य जन्म ऐतरेय ब्राह्मणक शुन: शेपक कथा सँ भए जाइत अछि जेकर विधिवत अगिला विकास थिक पंचतंत्र-कथा जकर प्रभाव आ प्रेरणा विश्व भरिक प्राचीन कथा साहित्य पर पड़ल अछि । किन्तु आधुनिक भारतीय कथाक प्रेरणा-भूमि यूरोप विशेषत: अंग्रेजी कथा-साहित्य रहल अछि सेहो निर्विवाद अछि ।

आधुनिक मैथिली कथा साहित्यक आरम्भ बीसम शताब्दीक प्रथम चरणमे मुख्यत: संस्कृ्त ओ बंग्ला तथा अंग्रेजीक विभिन्न कथा कृतिक छाया भावनुवाद सँ मानल जाइत अछि जाहिमे क्रमश: कालान्तर मे मौलिक कथाक बीजारोपनक प्रस्थान-बिन्दु परिलक्षित होमय लगैत अछि । डाँ जयकान्त मिश्र तथा डाँ दुर्गानाथ झा ‘श्रीश’ सँ भिन्न परवर्ती शोधक आधार पर डॉ. रामदेव झा मैथिलीक पहिल मौलिक कथा जनसीदन जीक 1917 मे लिखित ‘ताराक वैधव्य’केँ मानैत छथि । एहि प्रकारेँ ओ आधुनिक मैथिलीक मौलिक कथा-विकासक प्रस्थान-बिन्दुकेँ किछु पाछु लए जयबाक पक्षमे छथि जे सर्वथा समीचीन अछि । एहि तरहे आधुनिक मैथिली कथा-विकासक यात्रा बीसम शताब्दीक दोसर दशकक उत्तरार्द्ध सँ प्रारम्भ भए जाइत अछि जाहिमे 1930 ई क पश्चात तीव्रता सेहो अबैत अछि । पत्र-पत्रि‍काक प्रकाशनमे वृद्धि‍क संगहि कथाक विकास मे बेस प्रगति भेल । ई प्रगति परिमाण आओर परिणाम दुनू दृष्टि‍ए भेल ।

स्वाधीनतापूर्व केर मैथिली कथा आदर्श, भावुकता, करुणा, तथा सामान्यत: अविकसित शिल्पक घटना-प्रधान कथा-रचनाक कालखंड थिक जाहिमे उदेशात्मकताक स्वरक प्रमुखता रहैत छल । प्रारम्भिक‍ अनुवाद ओ आख्यान-आख्यायिकाक शिल्प-प्राकान्तर सँ बहराक जखन मैथिली-कथाक विकास यात्रा मौलिकता केर राजपथ पर आयल तँ 1940 ई0 धरि एकाध अपवादकेँ छोड़ि‍, समान्यत: अधि‍कांश कथाक पूर्वोक्तेँ स्थिति छल । अपवाद छल कुमार गंगानंद सिंहक ‘बिहाडि़’ नामक कथा जाहिमे आधुनिक कथा-शिल्पक अधिकांश विशेषता बीज-रूपमे वर्तमान अछि । सुखद आश्चर्य-एहि बातक अछि जे ओहि युगक ‘बिहाडि’ कथामे अगिला युगक यथार्थवादी युग-चेतना तथा परिवर्तित ग्रामीण परिवेश एवं विकसित शिल्पक कलात्मकता अछि ।

स्वाधीनता पूर्व केर मैथिली कथाकार आ कथा मे काली कुमार दासक ‘भीषण अन्याय’ हरिनन्दन ठाकुर सरोजक ‘कर्णफूल’ भूवन जीक ‘रौद छाया’, भीमेश्वर सिंहक ‘विसर्जन’, लक्ष्मीपति सिंहक ‘कबुलीवाला’ तथा सुमनजीक ‘वृहस्पतिक शेष’ आदि प्रमुख मानल गेल । एहि कालखंडक अन्य प्रमुख कथाकारमे छथि रमानन्द झा, श्री कृष्ण़ ठाकुर, कालीचरण झा, जगदीश मिश्र आदि । एहि युगक अधि‍कांश कथाक विषय छल विवाह आ वैवाहिक समस्या जाहिमे करूणा भावुकता तथा उपदेशात्मकता मूल रूप सँ रहैत छल । कथा-विकासक यात्रामे 1940 ई. क पछाति एकटा महत्वपूर्ण मोड़ उपस्थि भेल जखन प्रो. हरिमोहन झा, मनमोहन झा, किरण, उमानाथ झा, उपेन्द्र नाथ झा ‘व्यास’ आदि सन-सन कथाकार मैथिली कथा जगतमे प्रवेश कएलनि । यद्यपि एहि कथाकार लोकनिक अधि‍कांश कथाक विषय वस्तु, वैवाहिक समस्या आ भावुकता रहैत छल किन्तु कथा शिल्प अपेक्षाकृत विकसिक छल तथा घटना – प्रधान कथा होइतहुँ वातावरण निर्माण एवं चरित्रांकन मे एक प्रकार सँ संतुलन रहैत छल जकर विकास क्रमश: अगिला युगमे अधिक भेल । एहि कथाकार लोकनि मे प्रो. हरिमोहन झा अपन हास्य व्यंग्यक अद्भुत क्षमताक कारणे तथा मनमोहन झा अपन करूणा-सृष्टिक कारणे प्रसिद्ध भेलाह । प्रो. हरिमोहन झा अपन हास्य व्यंग्य लेखनक लेल मिथिलाक तत्कालीन अशिक्षा, अंध विश्वास, विरुपता ओ कुसंस्कारकेँ माध्यम बनाकेँ कथा साहित्य क रचना कएलनि‍ । ओहि मनोरंजनात्मक रचनाक कारणेँ मात्र मिथिले समाजमे नहि अपितु राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक रूपेँ लोकप्रि‍य भेलाह । एहि दृष्टि‍एँ ई विद्यापतिक पश्चात दोसर रचनाकार भेलाह जनिका करणे मैथिलीकेँ राष्ट्रीय अंतरराष्‍ट्रीय स्तर पर लोकप्रि‍यता भेटल आ प्रतिष्ठा भेटल । हास्य व्यंग्य सम्राट प्रो. हरिमोहन झाक कथा ‘कन्या जीवन’ आ पाँच पत्र नामक दुई गोट एहन कथा अछि जे अपन करूणा ओ मानवीय सम्वेदनाक संगहि मनोवैज्ञानिकताक कारणेँ अभिभूते नहि चकित कए दैत अछि । जे लेखकीय क्षमताक परिचायक थिक । स्वाधीनताक आसपास जे कथाकार लोकनि मैथिली कथा जगतमे प्रवेश कयलिन ताहिमे प्रमुख छथि राधाकृष्ण झा, डॉ शैलेन्द्र मोहन झा, ब्रज किशोर झा, राम कृष्ण झा किसुन, सुधांशु शेखर चौधरी आदि जनिका कथामे वास्तविक जीवनक यर्थाथ तथा कथा शिल्पक विकसित स्वरुप परिलक्षि‍त होमय लागल । स्व तंत्रनाथ झाक बाद जहिना जहिना विभिन्न पत्र-पत्रि‍काक प्रकाशनक सुविधा बढ़ल तहिना तहिना कथा विकासमे अभूतपूर्व प्रगति भेल तथा नवीन कथाकार लोकनिक मैथिली कथा जगत मे प्रवेश भेल । स्वाधीनताक पश्चात मैथिली कथा विकासमे आमूल परिवर्तन भेल । परिवर्तनक विषय विन्यास मे कथ्य ओ कथा-भंगिमा मे तथा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण-पद्धति मे भेल । पुरान परम्पराकेँ तोड़ि‍ वैवाहिक समस्या, उपदेशात्मक स्वर तथा घटनाक चमत्कारकेँ लोप भेल आ ओकरा स्थान पर कथ्य–विषयक विस्तार भेल । आब कथा मे घटना गौण भेल तथा वातावरण-निर्माण एवं चरित्रांकनक विशेषता प्रधान भेल ।

स्वाधीनताक पश्चात समकालीन मैथिली कथा अपन कथ्य, कथन भंगिमा ओ शिल्पक-विधानक कारणेँ समकालीन भारतीय कथा-विकासक समकक्ष ठाढ़ अछि । ई समकक्षताक सामर्थ देबाक श्रेय जाइत अछि स्वाधीनताक पश्चात कथाकार लोकनिकेँ जाहिमे प्रमुख छथि ललित, राजमकल चौधरी, लिली रे, धूमकेतु, सोमदेव, धीरेन्द्र, हंसराज, रमानन्द रेणु, गोविन्द झा, रामदेव झा, प्रभास कुमार चौधरी, गंगेश गंजन, जीवकान्त, राजमोहन झा, मनमोहन झा, महाप्रकाश, सुभाष, गौरी मिश्र, साकेतानन्द, अशोक कुमार झा, प्रदीप बिहारी, विभूति आनन्द, विश्वनाथ झा, तारानान्दक वियोगी, केदार कानन आदि । कथा विकासक क्रम मे महिला कथा लेखिकाक कुल संख्या लगभग दू सय सँ बेसी होयत । जिनकर लगभग सात सय कथा अद्यवधि‍ उपलब्‍ध अछि एहि महिला कथा मे गौरी मिश्र, शेफालिका वर्मा, लिली रे, सुभद्रा सुहासिनी, श्यामा झा, चित्रलेखा देवी, नीरजा रेणु, सुभद्रा कुमारी, उषाकिरण खान, विभा रानी, शकुन्तला चौधरी, नीता झा आदि कथालेखिका कथाक रसास्वासदन मैथिली पाठककेँ करेलनि अछि । आशा अछि जे मैथिली कथाक विकास क्रम केँ समुन्नत करबाक लेल अधिकाधि‍क संख्यामे महिला कथाकार लोकनिक डेग आगाँ बढ़त आ मैथिली कथामे संवर्धन होयत ।

मैथिली कथा साहित्य मे शिल्पक स्वरुप विधान




साहित्य समाजक दर्पण आ कथा समाजक प्रतिबिम्ब होइत अछि । ई चरितार्थ तखनहि भए सकैत अछि जखन कथामे शिल्पक अभिव्‍यक्ति नीक जेंका होए । कोनो युग विशेषक प्रतिनिधि कथाकार वैह होइत अछि जे एकर सीमित परिधि‍मे नियंत्रित आकारमे सुन्दर चित्र प्रस्तुत करैत छथि । कथा रचनाक प्रवृति मे शिल्पकक विधान अत्यन्त महत्वपूर्ण अछि । मैथिली कथा साहित्यक प्रारम्भिके अवस्था सँ एकर महत्ता देखल जा सकैत अछि । एहि प्रमुख विधानक माध्यमहि सँ कोनो रचनाकार, जनिकामे प्रतिभाक प्रचूरता रहैत अछि समाज मे होइत परिवेश ओ वातावरण मे परिवर्तनशीलताकेँ स्पष्ट रूप सँ पाठकक समक्ष रखैत छथि ।

शिल्पक विभिन्न स्वरूप -

मैथिली कथा साहित्यक प्रारंभ सँ लए कए आइ धरि कथाकारक कतेको पीढि़ सक्रि‍य भए मैथिली कथा साहित्य केँ समृद्ध कए रहल अछि । विभिन्न स्तर पर होमयबला बदलाल रचनाकारक रचना मे परिवर्तन आनैत छैक । संचार माध्यमक सापेक्षता मे साहित्यक अभिविद्धि‍ सामाजिक सांस्कतिक एवं राजनीतिक स्थिति में परिवर्तन कथाक शिल्पकेँ विकसित करैत अछि । आरम्भिक अवस्थामे पंचतंत्र ओ आख्यानक शिल्प मैथिली कथा साहित्यके प्रभावित कयलक अछि । डॉं रमानंद झा रमणक अनुसार मैथिली कथा साहित्यमे सात प्रकार शिल्पक विकास भेल अछि ।

1) प्रलापीय शिल्प – कोनो कथाक मुख्यक पात्र नायक अथवा नायिका द्वारा बाजल गेल एक-एक शब्द कथाक दिशा निर्धारित करैत अछि । ओ आन कोनो पात्र जेका अपशब्द अथवा अनैतिक शब्दक प्रयोग प्राय: नहि करैत छथि एकरे प्रलापीय शिल्प कहल जाइत अछि ।

2) आर्वतक शिल्पी – एहिमे कथाक प्रारम्भ अंत सँ होइत अछि । एकर दू प्रकार होइत अछि –

क) भावक आवर्तक ख) भाषिक आवर्तक


जाहि कथामे विचारकेँ भावक माध्यम सँ प्रकट कएल जाए ओ भेल भावक आवर्तक तथा जाहिमे भाषाक प्रगाढ़ता द्वारा कथाक आरम्भ ओ अंत होए ओ भेल भाषिक आवर्तक ।

3) एकहि संग अनेक कथाक समावेश – मैथिलीमे अधिकांश कथा एक घटना विशेष पर आधारित रहैत अछि तथापि कतेको एहन कथा अछि जाहिमे एक संग अनेक कथा चलैत अछि । जेना – राजमोहन झाक युद्ध... युद्ध...युद्ध... । एहि मे भाई-बहिन, भारत-पाकिस्तान आ पति-पत्नीक बीच एक संग युद्ध चलैत रहैत अछि ।

4) सांकेतिक शिल्प – सामान्यतया कथाकार मोनक अन्तर्द्वन्द केँ सांकेतिक भाषा द्वारा स्‍पष्‍ट करैत अछि । गरीबीक मारिसँ ठमकल मोन, सामाजिक विषमता अथवा कोनो कार्यकेँ पूर्णरुपेण करबाक क्षमता होयतहुँ कथा पात्रमे अक्षमताक बोध प्राय: एहि शिल्पक माध्यम सँ स्पष्ट भए जाइत अछि । एहिमे लीली रेक ‘चन्द्र्मुखी’, सोमदेवक ‘भात’ आ गंगेश गुंजनक ‘जीवनक रस’ एकर सर्वोत्तरम उदाहरण मानल जा सकैत अछि ।

5) प्रतीकात्मक शिल्प – कखनो-कखनो कथामे भावक उद्बोधन वा वास्तविक स्थितिकेँ स्पष्ट करबाक हेतु प्रतीकात्मक रूप मे भाषाक प्रयोग कएल जाइत अछि । प्रतीकात्मक कथाक माध्यम सँ पाठकक बौद्धि‍क क्षमता मे विकास होइत अछि – ‘गाड़ी पर नाँव’, ‘धुँआ’ आदि कथा एहि शिल्प विधानक उदाहरण रूपमे कहल जा सकैत अछि ।

6) कथानायकक दू व्यक्तित्‍वक नीरुपण – कतेको कथामे नायकक दू प्रकारक व्यक्ति‍त्वकेँ उजागर कएल जाइत अछि । एक तँ ओकर वास्त्विक व्यक्तित्‍व भेल आ दोसर परिस्थितिजन्य व्यक्ति‍त्व । वास्तविक व्यक्तित्व भेल ओकर मूल स्वभाव आ परिस्थितिजन्य व्यक्ति‍त्व भेल समयानुकूल परिवर्तित स्थि‍ति पर बदलल मनोभाव । राजमोहन झाक ‘अपन लोक’ कथा क नायकक व्यक्ति‍त्व एहि प्रकारक अछि ।

7) बिम्बात्मक शिल्प – मैथिली कथा साहित्यतमे अनेको कथा बिम्बात्मक शिल्प मे लिखल गेल अछि । ओहि सभ कथामे स्थि‍ति ओ मनोभावक वर्णन अत्यन्त भावुकता संग कएल जाइत अछि – ‘साँझक गाछ’ कथा एकर उत्कृष्ट प्रमाण अछि । 

एहि प्रकारें आइ मैथिली कथा साहित्यक जे विकसित परम्परा हम देखि रहल छी ओकर विकास मे शिल्पक महत्वपूर्ण भूमिका अछि । कथाक ई प्रमुख प्रभेद रोचकता आनैत अछि, मार्मिकताक संग भावक उद्बोधन करैत अछि आ संस्कारगत व्यवहारिकताक ठोस आधारशिला रखैत अछि ।

Monday, April 18, 2022

भावनामे भसिआइत आ' सम्हरैत मनमहोन झाक सुकेशी



आधुनिक मैथिली साहित्यमे श्री मनमोहन झा एक विशिष्ट कथाकारक रूपमे प्रतिष्ठित छथि । दीर्घ लेखन-जीवनमे हुनका अभिज्ञता प्राप्त भेलनि जकरा ओ अपन साहित्य साधनामे नियोजित कएलनि । हिनक कथाक पृष्ठभूमि पूर्णतः सामाजिक रहैत अछि । बुझि पडैत अछि लेखक मुख्यतः समाजहिसँ अपन कथाक प्रेरणा पबैत छथि । वास्तवमे आधुनिक गल्पकलाक प्रधान लीलाभूमि समाजेक धरातल पर अधिष्ठित छैक । समाजमे अति निम्न वर्ग अथवा मध्यम वर्गक लोक लेखकक कल्पनाक विषय होइत अछि । . कथाक उद्देश्य होइत अछि मानव जीवनक विभिन्न परिस्थिति ओ मानव मनक विशिष्ट रहस्यक उद्घाटन करब, जाहिसँ जीवनक व्याख्या होअए । जीवनमे उषा आ संध्या, मिलन आ विरह सदृश सुखक संग दुःख अनिवार्य होइत अछि । मनमोहन झाक कथा सब एहि शाश्वत सत्यके सहज रूपें उपस्थापित करैत अछि । हिनक रुना, झगड़ा, चन्द्रहार आदि कथा दुःखान्त अछि । मुदा वीरभोग्या, सुकेशी, ईर्ष्या, सप्तपदी बलिदानक एक मर्मस्पर्शी कथा थिक ।

मनमोहन झाक प्रसिद्ध कथा 'सुकेशी' एक नारीक जीवनक कथा थिक । झाजीक अधिक कथाक केन्द्रमे नारी-चरित्रक प्राधान्य अछि । सौन्दर्य ओ प्रेमक चित्रणक लेल नारी चरित्रक निरूपण अनिवार्य अछि । सुकेशी कथा पत्र-शैलीमे अछि, जकरा सुकेशी अपन प्राणप्रिय सखी प्रभाकै लिखने छथि । हुनक केशसँ मोहित भएके रमेश प्रेम निवेदन करैत छथि । सुकेशीके देखि हुनक अधिक काल एकटा प्रश्न होनि, “सुकेशी, अहाँ खोपा किएक ने बन्हैत छी ?" सुकेशीक उत्तर, "खोपा हम किएक बान्हब । कुमारि कन्या तँ अधिक काल केश खोलनहि रहैत अछि ।" तखन रमेश कहथिन, "अहाँ शीघ्र विवाह कए लिअ, नहि तँ एहि केशक ससरफानीमे हम मरि जाएब ।" एहि प्रकारे

ओ परोक्षमे अपन प्रेम निवेदन करैत छथि । मुदा एक गामक होएबाक कारणे दुनू गोटाक मिलन नहि भेलनि । हमरा लगैत अछि एतए लेखक सामाजिक परम्परामे जकड़ल छथि । हुनका अनुसार एक गामक रहनिहार सम्बन्धमे भाइ-बहिन होइत अछि । मुदा एक नारी जीवनक प्रथम प्रेमके कखनो बिसरि नहि सकैत छथि । सुकेशी सेहो प्रेमी रमेश विवाहक बादो नहि बिसरैत छथि । हुनक हृदयमे रमेशक लेल स्थान सुरक्षित छनि । रमेशक प्रति एकटा भावनात्मक लगाओ, जे कुमारिमे भेलनि, अक्षुण्ण छनि । झाजी सुकेशी कथामे नारी मनक अनेक भावावेग नीक जकाँ सूक्ष्मतासँ वर्णन कएने छथि । सुकेशीक सफल दाम्पत्य जीवनमे एकटा समस्या छनि पतिक अनुपस्थिति । हुनक पतिक बदली भए गेल छलनि । अधिक काल ओ डेरासँ दूर रहैत छलाह । सुकेशी अपन नि:संगता व्यक्त कए प्रभाकें लिखैत छथि, "एकसर रहैत छी तखन कोनादन लगैत अछि । दिन तँ कोनहुना काटिओ लैत छी किन्तु राति तँ एतुका पहाड़ भए जाइत अछि ।" विवाहक बाद पति-पत्नीक मध्य दूरी भेलासँ एक पत्नीक मनमे अनेक तरहक अनुराग एवं विराग उत्पन्न होइत छैक । सुकेशीक लग हुनक पाँच वर्षक कन्या रीताक अतिरिक्त आर केओ नहि छलनि जकरा संग ओ एकसर जीवनके बाँटि सकथि ।

कथामे पम्पा नामक चरित्र मध्य कथाकार समाजक एक नकारात्मक प्रथाकै उजागर कएलनि अछि । पम्पा एक वारांगना थिक । ककरो दिस कटाक्ष कए, ककरोसँ हँसी कए, ककरो नाक ऐंठि ओ परपुरुषकै आकर्षित करैत सकेशी सदिखन पम्पाकै खिड़कीसँ देखैत छथि । हुनक भरल-पुरल जीवनमे जेना कोनो अभाव खटकए लगैत मनके एक विचित्र भय आच्छन्न कए दैत छनि । पम्पा एवं सुकेशी समाजक दू स्तरके उपस्थापित करैत छैक । निम्नवर्गीय बाजारू वारांगना, तँ दोसर एक साधारण गृहिणी, गृहलक्ष्मी, एक जननी; जकर संसार पति आ बेटीमे सीमित छैक । एक दिन अचानक पुरान प्रेमी रमेशकै सोझाँ देखि सुकेशीक मनमे अनेक तरहक भावना उठए लगैत छनि । पहिल भावना छल गौरवक । अपन रूप पर हुनका घमण्ड भेलनि । ई स्वाभाविक थिक । हुनक सुन्दर रूपक कारणे रमेश अपन प्रेमिकाकै एतेक वर्ष धरि नहि बिसरि सकल छथि । सुकेशी आसक्तिवश रमेशक भावनामे प्रवेश कएलनि । रमेशक चिर-कुमार रहबाक कारणे सुकेशी मनहि मन प्रसन्न भेलीह । ओ भावना विभोर भए उठलीह । सुकेशी बिसरि गेलीह जे ओ एक व्यक्तिक पत्नी छथि । सीमित परिधिसँ यदि आगाँ डेग बढ़ओतीह तँ कुलक मर्यादा भंग होएत । रमेश हुनक केश पर अपन हाथक स्पर्श करए लगलाह आ सोचए लगलाह जे सुकेशीक आत्मामे एखन धरि हुनक स्थान सुरक्षित छनि ।

सकेशीक मन तन्द्राग्रस्त छलनि । हुनक मनमे एक विचित्र भाव उठि रहल छलनि । प्रेमीक संग अभिसारक अभिप्राय मनमे छलनि । एक विवाहिता स्त्रीक परपुरुषक आकर्षण हुनका लेल पाप छलनि । सुकेशीक मन बाजारु वारागंना पम्पाक सन भए गेल छलनि । मुदा पाँच वर्षक बेटीक प्रश्न, "माए पम्पा तो चिन्हैत छही ? .......ओकरा तोरे सन केश छैक आ जहिना रमेश मामा तोहर केशर्के छुबैत छलथुन्ह तहिना होटलबला ओकरो केशके छुबैत रहैत छैक" । सुकेशी आसक्तिकै क्षणमे दूर कए देलनि । हुनक पातिव्रत्य एकाएक जागि उठल । मनक आकाशके जे मोहक कुहेस आच्छन्न कएने छल, बेटीक एके शब्दक आलोकसँ छिन्न-भिन्न भए गेल । रमेश एक कामासक्त व्यक्ति अछि । समाजमे एहि तरहक लोक बहुतो भेटैत अछि । प्रेम शाश्वत एवं चिरन्तन होइत अछि । किन्तु रमेश यथार्थमे प्रेमी नहि छथि । सुकेशीक आत्मासँ अधिक ओ हुनक शरीरके प्राथमिकता देने छथि । तकर प्रमाण अछि रमेश द्वारा अपन व्याकुलता ओ पराजयके शान्त करबाक लेल सुकेशीके पाषाणीक उपाधि देब ।

कथाक शेष भाग बहुत मार्मिक अछि । जाहि केशकै रमेशक लोलुप हाथ स्पर्श कएने छल तकरा सुकेशी काटिके फेकि देलनि । एहिठाम लेखकक तात्पर्य हमरा बुझबा योग्य नहि भेल । सुकेशीक आत्मा निर्मल ओ पवित्र छलनि । भए सकैत अछि सुकेशी अपन गलतीक प्रायश्चित करबाक प्रयास कएलनि । सुकेशी अपन स्वामीक प्रति समर्पिता छथि । आन केओ स्त्री होइत तँ एहि घटनाक चर्चा पतिक समक्ष करबाक साहस नहि करैत, मुदा सुकेशीक हृदय साफ आ पवित्र छनि तें ओ एहि घटनाक सम्पूर्ण विवरण अपन पतिक सोझाँ कहबाक क्षमता रखैत छथि । हुनका विश्वास छनि जे हुनक पति हुनका स्वीकार करथिन आ हुनक प्रेमक बन्धन आओर मजगूत बनतनि ।

सुकेशी एक नारी मनक कथा थिक । कथाकार रमेश नामक चरित्रक माध्यमसँ सुकेशीक परीक्षा लैत छथि । भावनामे भसिआ कए सुकेशी किछु क्षणक लेल विचलित अवश्य होइत छथि । बुझि पडैत अछि विवेकक संग आसक्तिक लड़ाइ होइत अछि । भावनामे भसिआइत सुकेशी सम्हरैत छथि । अन्तमे विवेकक जीत होइत अछि ।

कथामे श्री मनमोहन झा नारीक लावण्य, आकर्षण, प्रेमाख्यान, समर्पण आदि विभिन्न रूपक वर्णन मध्य सर्वत्र नारीक आदर्शक उपस्थापन करबाक प्रयास करैत छथि । एहि कथाक नारी चरित्रमे समाजक सत्य उजागर भेल अछि। सुकेशीक चरित्रक सहज ओ मर्मस्पर्शी निरूपणमे कथाकारक विशिष्टता निहित अछि । कथाकार सकेशीक मनमे एक नव प्रभातक सूचना दैत छथि जाहिमे नव चेतना आ नव कर्मठताक रंग छैक । ओ सुकेशीसँ छिन्नकेशी भए गेली सदा मनमे अपराधबोधक भावना एको रत्ती नहि छनि, प्रायश्चित जे कए लेने छथि । पूर्व क्षितिजमे सूर्यक प्रकाश जेहन निर्मल ओ उज्ज्वल होइत अछि सुकेशीक मनमे तेहने पवित्र नारीत्वक सृष्टि भए रहल छनि ।



मनमोहन झाक वीरभोग्यामे एकटा युगचेतना छल




मनमोहन झा माने मैथिली साहित्यक अनन्य करुण कथाकार । ओ अपन कोनो कथामे करुणरससँ विलग नहि भेलाह । चाहे अश्रुकण हो या वीर भोग्या, गंगापुत्र हो वा मिथिलाक निशापुरमे । सभ ठाम एके धारा, एके प्रवाह । हुनक सभ कथामे जीवनक बाट भेटैत अछि, ओहि समयक इतिहास भेटैत अछि, एकटा नव उपदेश भेटैत अछि मुदा से सब अश्रुकणक संग ।

मैथिली कथाकार मध्य मनमोहनबाबू एकटा भिन्न पथ पकड़ने छथि मुदा से रोचकताक संग । हुनका कोनो आन कथाकार संग तुलना नहि कए सकैत छी । कारण एहि पथ पर चलनिहार विरले भेटताह । हिनक कथा पाठकक माथसँ बेशी हृदयके छुबैत अछि । हमरा विश्वास अछि पाठकके हिनक कथा पढ़लासँ संतोष नहि होइत अछि । एक बेर पढ़लासँ जिज्ञासा आओर बढ़ि जाइत अछि । हिनक कथा पढ़लासँ लगैत अछि जेना कोनो पात्रसँ आत्मीयता भए गेल हो आ ई घटना हमरेसंग भेल हो तेना बुझाइत अछि ।

हरिमोहन झा कथाक शिल्प थिक हास्य ओ व्यंग्य तहिना मनमोहन झा कथाक शिल्प थिक करुणा । जहिना हरिमोहन झाके हास्य सम्राट कहल जाइत अछि तहिना हिनको करुण-सम्राट कहल जाइछ । प्रसिद्ध कथाकार मायानन्द मिश्र हिनका नोरक कथाकार कहलनि अछि । एकरा व्यंग्य नहि बुझबाक चाही । ओ बुझैत छलाह जे ई हिनक शिल्प थिकनि । तखन नोरक कथाकार कहियनि वा करुण सम्राट बात एके । से हिनक कथा पढ़लासँ मर्म सहजहिं बुझबामे आओत ।

मनमोहन बाबूक वीरभोग्या गल्प संग्रहमे सात गोट स्त्री प्रधान कथा संग्रहीत अछि । ताहिमे बेसी पत्रक माध्यमसँ कहल गेल कथा थीक । सुकेशी, एक पत्र : एक प्रेरणा आ वीरभोग्या जाहिमे प्रसिद्ध अछि । कथाकार स्वयं सेहो एहि सभ विषय पर कहने छथि जे एहि संग्रहमे अधिक पत्र कथा अछि जे समय-समय पर कोनो क्षणक मर्मसँ अनुप्राणित भए हम लिखल अछि । एहि कथा संग्रहमे आओर प्रमुख कथा अछि से थिक- ताजक निर्माण, चाँपकली, रीवर्स मीट ओ सप्तपदी ।

मनमोहन झाक गल्पसंग्रह वीरभोग्या मैथिलीक मौलिक गल्पसंग्रहक थीक । डॉ. अजय मिश्र द्वारा 1991 ई. मे संपादित ओ प्रकाशित कएल गेल अछि । एहि गल्पसंग्रहक प्रथम कथा थीक सुकेशी जे नामहिसँ कथाकारक रसिकतासँ परिचय करबैत अछि । ई पत्रात्मक शैलीमे एक सखी द्वारा दोसर अपन प्रिय सखी के लिखल गेल पत्र-कथा थीक । एहि कथा मध्य मिथिलाक सुकेशी कन्या कोना छिन्नकेशी भऽ गेलीह तकर मार्मिक वर्णन कएल गेल अछि । सुकेशी माने 'लुधकी लागल औंठिया केश' । सुकेशीक गार्हस्थ्य जीवनमे विवाहक पाँच वर्षक बाद अपन समक्ष रमेश रूपी पूर्व प्रेमी अबैत अछि । दुनू एक दोसरासँ ओहिना प्रेम करैत अछि जहिना पूर्वमे करैत रहथि । सुकेशी अपन मर्यादा बिसरि जाइत छथि । रमेशक सान्निध्यमे ओ बिसरि जाइत छथि जे हमर विवाह भए गेल अछि आ हम पाँच वर्षक बेटीक माय छी । ओ निर्विकार रूपें रमेशक सान्निध्यमे आबए लगैत छथि । मुदा पाँच वर्षक अबोध बेटी द्वारा मायके सचेत

कएल जाइत अलि । सुकेशीक बेटी रीता अपन मायक तुलना पम्पा नामक वेश्यासँ करैत अछि आ कहैत अछि जे माय तोरो केश पम्पे सन छौ । जहिना तोहर केशके रमेश मामा छुबैत छलथुन्ह तहिना पम्पाक केशके होटलबला छुबैत रहैत छैक । सुकेशीके अपन बेटी द्वारा कहल गेल गप्पसँ चेतना जगलन्हि आ ओ बुझि गेलीह हम पाप कऽ रहल छी । ओकर बाद रमेशक सोझा नहि गेलीह आ अपन केशके कैंचीसँ काटि छिन्नकेशी भए गेलीह । नव चेतना आ नव कर्मठतास बुझा पड़लन्हि जे हृदयमे अनुभूत विश्वास आ पवित्र नारीत्वक सृष्टि भए रहल अछि । आ ओ आत्मग्लानिस मुक्त भए गेलीह ।

मनमोहन झाक कथामे एक विशिष्ट धारा प्रवाहित होइत अछि । हिनक सब कथा पाठक एक नव युगचेतनासँ परिचित करबैत अछि । हिनक कथामे नवीनता आ युगीनता भेटैत अछि । अधिकांश कथा त्रिभुजीय प्रेम पर अछि जाहिमे प्रमुख रूपसँ 'सुकेशी' ओ 'वीरभोग्या'के देखल जा सकैत अछि । 'सुकेशी मे सुकेशीक विवाहोपरान्त रमेशक आगमन होइत अछि तऽ 'वीरभोग्या मे चण्डीक पहिल प्रेम सुधाकरबाबूक वीरगति प्राप्त कएलाक उपरान्त चन्द्रकान्तबाबूक । गल्पकार सब कथामे नायक ओ नायिकाकै दृढ़तासँ अमर्यादित बनवासँ रोकने रखने छथि । मर्यादाक हनन कतहु नहि भेल अछि । 'वीरभोग्या' कथा एहि बातकें लक्षित करैत अछि जे मैथिल लोकनि अपन देशक प्रति समर्पित रहैत छथि । आ मैथिलानी लोकनि अपन सर्वस्व त्यागकए हुनका लोकनिक संग दैत छथि । - 'ताजक निर्माण' कथामे लेखक सम्राट शाहजहाँके ललकारलन्हि अछि । हुनक बुद्धि विवेकपर कटाक्ष कएलन्हि अछि । एक दिश भारतक करोड़ो लोक भूखसँ छटपटाइत अछि आ दोसर दिश करोड़ो टाकासँ ताजमहलक निर्माण भेल अछि । यदि ओहि टाकासँ कोनो कल-कारखाना खोलल जइतैक तऽ कतेको लोककें रोजगार भेटि जइतैक

आ ओ सभ सुखसँ भोजन कऽ सकितथि । लेखकक कथा नव कहथु वा पुरान, अपन तकनीकमे ओ सभसँ धनिक छथि । सभ कथामे एकटा संदेश छोड़ि जाइत छथि । ।

मनमोहन झाक कथा यात्रा निरन्तर समतलीय आ सम्हरल रहल । कथाक शरीर बदलत गेलनि, आत्मा ओएह र हलनि । पूर्वहि कथा जकाँ हिनक 'एक पत्र : एक प्रेरणा' कथामे मातृभूमि-प्रेमके देखाओल गेल अछि । कथाक नायक उर्मिलाक प्रेममे उपेक्षित भए गंगामे कूदि मरबाक निश्चय करैत छथि मुदा बीचहिमे एकटा एहन घटना होइत अछि जे, निश्चय बदलि लैत छथि आ कहैत छथि, मरब हम अवश्य लेकिन गंगामे कुदिके नहि अपन मातृभूमिक सेवा करैत-करैत ।

नारी मनोदशाक एतेक सूक्ष्म विश्लेषण कोनो साहित्यकारे कए सकैत अछि, से गुणमे निष्णात छथि मनमोहन झा । 'चॉपकली मे लेखक नायिकाक पहिल प्रेमके तिरस्कृताक रूपमे देखौने छथि तऽ 'रीवर्समीट'मे नायकक पहिल प्रेमक पुनः मिलान कए पत्नीत्त्वक रूपमे सीताक छाया उपस्थित कएने छथि । 'सप्तपदीमे सेहो लेखक नायिका द्वारा अपन पतिकै मिथिलाक प्रेमक पाठ पढ़ौने छथि ।।

मनमोहन झाक कथा भाव ओ भाषामे, रंग ओ ढंगमे, शिल्प ओ रसमे, अभिधारणा ओ अभिव्यक्तिमे उत्कर्ष लगभग एके बिन्दु पर ठाढ़ अछि । एही कारणे ई एक भिन्न कोटिक कथाकारक रूपमे स्थापित भेल छथि । विशुद्ध मैथिली शब्दक प्रयोग कए शब्दक जादूगर भए गेल छथि । हिनक कथामे गाम-घर, नगर-उपनगर सभ समाहित अछि । वास्तवमे बुझना जाइत अछि जे ई सभ पृष्ठभूमि पर कथा लिखबामे सिद्धहस्त छथि । हिनक कथामे गामक कथा हो वा नगरक कथामे स्त्रीक प्रधानता अवश्य रहैत अछि । लेखकक कल्पनाक उड़ान अद्भुत अछि, जेना लगैत अछि सभटा अपने भोगने होथि । बुझा नहि पडैत अछि जे मिथिलाक एकटा खाँटी गाममे एक जमीन-जथावला मध्यवर्गीय कुलमे जनमल होथि ।

वास्तव में मनमोहन झा विशिष्ट पंक्तिक विशिष्ट लेखक छलाह । एक विशिष्ट धाराक कथाकार छलाह । अपन धारामे ई सामाजिक सत्यक नहि, मिथिलाक सत्यक नहि अपितु व्यक्तिक सत्यक कथा कहल । ई मनुष्यक संवेदनाक कथा कहल आओर कथा कहैत ई ओकर परिवेशक सांस्कृतिक स्थितिके ओकर मनोदशाकें सर्वथा कुशलतासँ रखैत रहलाह । तें हिनक कथामे नाटकीयता यथार्थमे लगैत अछि । अपन विलक्षण क्षमतासँ वास्तविकता झाँपि देने छथि । नारी-चरित्रक बहुलता ओ उद्दाम वासनाक रहितहुँ हिनक कथामे कतहु मर्यादाक हनन नहि भेल अछि । ते एकटा बात ध्यान राखब आवश्यक जे ई कतौ यथार्थवादी होइतो आदर्शके नहि छोड़ने छथि । लोकप्रियताक एकटा चिरंतन सत्यक उद्घाटन करब मनमोहन झाक कथाक उल्लेखनीय विशेषता थिक । अतः उपर्युक्त विषयक अवलोकन कएलाक उपरान्त एहि निष्कर्ष पर पहुँचैत छी जे हिनका नारी हृदयक अन्तस्थलमे प्रवेश करबाक अपूर्व कौशल अछि । हिनक कथामे कल्पना, करुणा एवं रोमांटिक संवेदनशीलताक प्रधान गुण रहैत अछि आओर सभ कथामे आद्यन्त भावुकता भरल अछि ।

मनमोहन झाक कथा संग्रह वीरभोग्या


मनमोहन झाक कथा मे आधुनिक तकनीक, शैली, पृष्ठभूमि तथा मनोवैज्ञानिक विश्लेषणात्मक चित्रण एवं चरम विन्दु रहैत अछि । लगभग सभ कथा करुण-रस प्रधान होइत अछि, मुदा से कथाक अन्तमे बुझबाक योग्य होइत अछि, जखन कि अनायास अश्रुपूर्ण भऽ उठैछ । कथा प्रेम, शृंगार, संयोगसँ प्रारम्भ होइछ आ अन्त दुखान्त भऽ उठैत अछि । वियोग एवं असफल प्रणयक वेदनासँ कथाक चरित्रक संगहि पाठक सेहो दुखी भऽ उठैत छथि । मुदा मनमोहन झाजीक सभ कथा दुखान्ते नहि छनि, किछु सुखान्तो छनि । कथानक रोमान्स आ नायक-नायिकाक बीच सहज आकर्षण-प्रत्याकर्षणसँ भरल रहैछ ।

हिनक कथा-संग्रह 'वीरभोग्या'क प्रकाशन 1991 ई.मे भेलनि । एहि संकलनमे सेहो सात गाट कथा- सुकेशी, ताजक निर्माण, एकपत्र : एकप्रेरणा, चाँपकली, रीवर्स मीट, सप्तपदी तथा वीरभोग्या संकलित अछि। मैथिली-साहित्यक विद्वान् समीक्षक प्रो० रमानाथ झा एहि संकलनक 'चॉपकली' शीर्षक कथाकै मनमोहन झाक सर्वोत्कृष्ट कथा मानैत छथि । एहि सातो गोट कथाक अंत दुःखान्त अछि तथा करुण-रस प्रधान अछि । कथाकार मनमोहन झा रससिद्ध साहित्यकार छथि । साहित्य-शास्त्री लोकनि करुण रसके प्रधान मानैत छथि ।

एहि संग्रहक प्रथम कथा 'सुकेशी' पत्रात्मक शैलीमे लिखल गेल अछि । सुकेशी अपन कथा अपन प्रिय सखी प्रभाकै लिखैत 'छिन्नकेशी' कोना भऽ जाइछ तथा संयोगक सभ स्थिति प्राप्त रहितहुँ कोना एकाएक वियोग उपस्थित भऽ जाइत छैक से पढ़ि कोन पाठकक हृदय एकबेर द्रवित नहि भऽ उठतैक तथा आँखिसँ दू ठोप नोर नहि खसि पड़तैक !

परञ्च दुखान्त होइतहुँ ई कथा एक गोट नीक संदेश दऽ जाइत अछि जे विवाहिता युवतीकै दोसर प्रेमी पुरुषसे शारीरिक सम्बन्ध नहि बनेबाक चाही । सुकेशीक जाहि सुन्दर केशपर ओकर प्रेमी रमेशक लोलुप हाथ स्पर्श कयने छलैक, तकरा ओ कैंचीसँ खप दऽ काटि दैत अछि । आ क्षण भरिमे सुकेशीसँ छिन्नकेशी बनि जाइत अछि । सम्पूर्ण वातावरणमे कचोटक संग-संग एक नव चेतनाक द्वारिपर पवित्र नारीत्वक सृष्टि भऽ जाइत छैक । करुण रसक सम्बन्यमे ई स्मरणीय थिक जे ओकर रसानुभूति दुखद हेबाक संग-संग कखनहुँ-कखनहुँ सुखद सेहो भऽ जाइत छैक । एहिं प्रकारक कथानकक कल्पना करवामे मनमोहन झा माहिर छथि ।

दोसर कथा 'ताजक निर्माण' दू प्रकारक दृश्यक निर्माण करैत अछि,-एक आगराक यमुनाक एकदिस वैभव एवं विलासिताक तँ दोसर दिस एक गोट गरीब किसानक अकिंचन हेबाक स्थितिक । ताजमहल प्रथम स्थितिक सृष्टि करैत अछि तँ दोसर दिस किसानक पत्नीक दुखद निधनक । कथा एक गोट क्रांतिक संदेश दऽ जाइछ । किसानक पत्नी मरबाकाल अपन पतिकें कहि जाइत छैक जे ओकर स्मरण करबाक लेल ताजमहल तँ नहि बनाओल जा सकैत छैक मुदा ओ अपन छोट खेतमे डाहल जाय एवं ओकर छाउर खेतमे छिडिआओल जाइक । किसान अपन पत्नीक चितापर एकटा सिनुरिया आमक गाछ रोपि दैत छैक आ ओहि गाछपर जखन वसंतमे कोइली-मधुमय ध्वनि भरैत अछि तँ ओहिस मुगल सम्राट द्वारा अपन प्रियतमा मुमताजक चितापर बनाओल गेल ताजमहल गुंजित भऽ उठैत अछि । ओहि कोइलीक ध्वनिक संग एक गोट नवीन, कर्मठ, क्रियाशील, भारतक नव पीढ़ीक जन्म होइत छैक ।

'एकपत्र : एक प्रेरणामे' एक प्रेमी अपन प्रेयसीक उपेक्षासँ प्राणोत्सर्ग करबाक लेल गंगाक जलमे कूदय चाहैत अछि । मुदा ओही क्षणमे ओ आंध्रप्रदेशक स्थापनाक लेल अनशन करैत प्राण देनिहार रामुलुक समाचार अखबारमे पद्वैत अछि आ ओकर संकल्प बदलि जाइत छैक । आब ओ युवक अपन मातृभूमि मिथिलाक माटि, संस्कृति, भाषाक उत्थानक लेल कोनो कारागारक कोठलीमे किंवा राजभक्त पुलिसक गोलीसँ अपन उत्सर्ग करय चाहैत अछि । एक गोट प्रेयसीक क्षुद्र शरीरक प्राप्तिक बदला एकटा महान ओ उदात्त उद्देश्यक सफलताक लेल अपन प्राण निछावर करब कतेक पैघ उपलब्धि थिक, तकर ज्ञान ओकरा भऽ जाइत छैक ! एहू कथाक अन्त दुख ओ सुख दुनूक मिश्रणसँ होइत अछि ।

'चॉपकली' एक गोट असाधारण कथा अछि । एहि कथाक जे कथानक अछि ताहिसँ हमरा में ट नहि भेल छल । एतय छथि उमा आ मंजुकेशी । विवाहक किछुए दिनक बाद उमाक पति समीरनाथ बम्बई जाकय चार्टर्ड एकाउंट्स पढ़य जयबाकाल उमाक अपन मायक द्वारा देल गेल एकेटा सोनक गहना 'चॉपकली' अपन नवोढ़ास लए बेचय चाहैत छथि । उमा तैयार नहि भेलथिन । समीर चल गेलाह दोसर दिन उमा देखैत छथि जे गहनाक कंतोरमे 'चॉपकली' नहि आछि । ओ विश्वास का लेलनिजे हुनक पति ओ गहना चोराकलऽ गेलाह । मुदा तथ्य किछु दोसर रहैक । 'चॉपकली' उमाक पिता श्याम सुन्दर बाबू अपन एक प्रेयसी वारांगनाकें चुपचाप चोराकऽ दऽ अयलथिन । ई भेद तखन खूजल जखन उमा पटनामे रहैत मंजुकेशीक गरदनिमे 'चॉपकली के देखलनि ।

एहि क्षण उमा एवं हुनक माय, मात्र माय आ बेटी नहि छलीह-ओ दू गोट नारी छलीह । दुनूक हृदयक ताप, झोभ ओ दुःख एके रंगक भऽ गेल छलनि । माय बजलीह-एखन दुनूगोटे दू टा नारी छी, मर्मक वेदना एके तरहक अछि । दुनू गोटेक ऑखिर्स नोर बहय लगलनि ।

'रीवर्समीट' सेहो एक गोट प्रणयक सम्बन्धमे कथा कहैत अछि । टाटानगरक "रीवर्समीट" ओहि स्थानकें कहल जाइत छलैक, जतय स्वर्णरेखा ओ खरकाइ नदीक संगम छैक । रमेश आ सुषमा युगल प्रेमी 'रीवर्समीट' पर तँ जाइत छथि, मुदा ओतय आनन्दक बदलामे क्षोभ आ दुख हाथ लगैत छनि । कारण ओतय सुषमार्के अपन सौतिन लीली-दाइक विषयमे जानकारी प्राप्त भऽ जाइत छनि ।

मुदा कथाक अन्त सुखान्त अछि । बहुत दिनक बाद प्रेमी लीली-दाइके छोड़ि अपन पत्नी जिनकास वैदिक रीतिसँ विवाह भेल छलनि, ओहि सुषमा मानगोक स्वर्णरेखाक पुलपर लऽ जाय चाहैत छलाह आ बजलाह-"हमरा विश्वास अछि अहाँक पवित्र प्रतिच्छाया ग्रहण करबाक लेल किछु काल स्वर्णरेखाक जल अवश्य स्थिर भऽ जाइत ।"

गल्पकार झाजी कथाक अन्तमे एक गोट पवित्र एवं उदात्त भावनाक सरिता बहबैत कहैत छथि-"एहि जीवनक पंचवटीमे कतेक ने लीली-दाइ औतीह, आ कते बेर पथभ्रान्त व्यक्ति हुनक शृंगारजाल दिस आकृष्ट होइत, किन्तु जतय पवित्र-पत्नीत्वक रूपमे सीताक छाया उपस्थित रहतैक ओतय मानव मानवे रहत ।"

एहि संग्रहक 'सप्तपदी' बहुत आकर्षक कथा अछि । ई एक गोट ऐतिहासिक कथा थिक तथा बंगालक आदिसूर एवं मिथिलाक संप्रभुता-सम्पन्नक कर्णाट वंशीय नान्यदेवक समयक कथा कहैछ । देवव्रत नामक एक व्यक्ति बंगालक राजाक द्वारा षड्यंत्र करबाक लेल मिथिला पठाओल गेल छथि । ओ मैथिल छलाह ओ तत्कालीन मैथिल विद्वान गंगेश उपाध्यापक पाठशालामे पढ़बाक उपक्रम करैत रहय लगलाह । संयोग एहेन छलैक जे ओही विद्यापीठमे हुनक विवाहिता पत्नी भेटि गेलथिन, जिनका ओ वेदीपरसँ विना सप्तपदी पूरा केनहि छोड़ि भागि आयल छलाह । कारण हुनक पत्नी-विवाहे कालमे बेहोश भऽ गेलथिन आ हुनका भेलनि जे कनियाँ मिर्गीक रोगसँ ग्रस्त छथि, देवव्रत मात्र चारि फेरा लगौने छलाह आ विवाहके पूर्ण हेबामे तीन पद आओरो चलब आवश्यक छलैक । पत्नी महाश्वेता आ देवव्रत, पति ओ पत्नीक भेंट भऽ जाइत अछि तथा महाश्वेताक प्रेरणासँ पति बंगालक पक्षमे षड्यन्त्रकै छोड़ि मिथिला अपन मातृभूमिक भक्त बनि जाइत छथि । तीन पद चलि गुरुकें प्रणाम करबाक लेल पहुँचि जाइत छथि ।

'वीरभोग्या' एहि संकलनक अन्तिम कथा थिक । इहो कथा पत्रात्मक शैलीमे लिखित अछि । चण्डी अपन सखी मीराकें पत्र लिखैत छथि । चण्डी आजुक जाग्रत महिला जेकाँ घरक दुआरि एवं कतिपय पुरान एवं रूढ़िवादी विचारस ग्रस्त समाजक सीमाकै लाघि व्यापक एवं पसरल बाहरक दुनिया देखय चाहैत छथि, चण्डी ओकरे कथा कहैत छथि। हुनका अपन भाउजक भाइ सुघाकरसँ प्रेम भऽ गेल छनि । सुधाकर यदा-कदा अपन बहिनीक ओतय अबैत रहैत छथि। एहि खेप सुधाकर अपन मसियौत भाइ चन्द्रकान्तक संगे अयलाह । चन्द्रकान्त सेहो चण्डीसँ आकर्षित छथि । एहिठाम एक पुष्प आ दूगोट भँवरक स्थिति उत्पन्न भऽ गेल अछि । दुनूमे एक गोट इहो समान बात छनि जे दूनू गोटे फौजी जवान छथि। . सुधाकर बंगाल राइफल्सक जवान रहथि । एहि बेर दुनू गोटे जखन चण्डीक ओतय जाय लागल रहथि तँ खूजल खिड़कीसँ भोरक पहर चण्डीक अस्तव्यस्त शरीरके देखैत रहथि । सुधाकर पठानकोट इंडो-पाक युद्धक फ्रन्टपर विदा भेल छलाह । ओ जयबाकाल चण्डीक हाथ जोरसँ दबैत बाजि उठल रहथि जे एक दिन ओ हुनका अपना रहताह ।

चण्डी अपन सखीक लिखैत छथिन-सखि ! ओ राति कोना बीतल से सखीके कोना कहू ? जीवनक "एहेन "क्षण जे स्नेहदान संग अमूल्य वस्तु देलक, सएह आब-विरहक परिताप सेहो संगहि अनलक" चिर मिलनक आशा आ तत्कालीन विरहक स्थितिक संयुक्त वातावारणक निर्माण करबामे मनमोहन झा बहुत दक्ष छथि ।

मुदा नियति किछु आओर सोचैत छल । पठानकोट गेलाक एक सप्ताहक अभ्यन्तर लाहौरक इच्छोगिल नहरिक पाकिस्तानी मोर्चापर सुधाकर शहीद भऽ गेलाह । छह वर्षक बाद चन्द्रकान्त सेहो बंगलादेशक मुक्तिवाहिनीक संग पाकिस्तानी आततायीसँ लड़बाक लेल विदा भेलाह ओ एहि युद्धमे आहत भेलाह, दहिना हाथ बारूदक विषसँ बेकार । भऽ गेलनि आ सैनिक अस्पतालमे हुनक ओ हाथ काटि देल गेलनि ।

बंगलादेशक मेघनाक तटपर सैनिक अस्पतालमे चन्द्रकान्त जीवन ओ मृत्युक बीच घूमि रहल छथि । चण्डी अपन सखीसँ लिखलनि जे सदासँ चन्द्रकान्तसँ घृणा करैत रहलहुँ, मुदा आइ ओ ओतय जाय हुनक हाथ अपन हाथमे लऽ वीरभोग्या बनतीह ।

एहू कथामे करुणा अछि, मुदा एक गोट उच्चकोटिक आदर्शके सेहो ई कथा स्थापित करैछ । सत्साहित्यक उद्देश्य इएह छैक जे ओ जीवनक एक गोट उदात्त एवं नैसर्गिक भावना, कर्तव्य परायणता एवं नव युगक स्वर्णिम विहान कथामे शाश्वत करुणाक उदयक संकेत करय । झाजीक प्रत्येक कथामे शाश्वत करुणा एवं सहज रूपसँ आयल व्यथाक चित्रणक संग-संग सुखानुभूतिक नव किरणक प्रकाश भेटैत अछि ।

एहि कथा संग्रहक कथा सबहक विषयमे हम अपन मित्र प्रो० सदन मिश्रक एहि कथनसँ जे-"वीरभोग्याक सभ कथा थाकल, हारल, व्यक्ति मनके आह्लादित करबाक अद्भुत क्षमता रखैत अछि" से अक्षरशः सहमति प्रकट करैत छी।

कोनो कथाक परीक्षण ओकर कथावस्तु, चरित्रचित्रण, क्लाइमेक्स, अंत करबाक स्थिति, हृदयके स्पर्श करबाक कोनो एक स्थितिक निर्माण आ अंतमे भाषापर अधिकार राखब पर कयल जाइत अछि । झाजीक कथा एहि सभ विन्दुपर अपन आभाक स्पष्ट झलक देखबैत अछि । हिनक कथाक विषयमे आरसीबाबू ठीके लिखैत छथिजे- "कथावस्तुक मध्य किञ्चितो अवकाश भेटलापर कथाकारक भाव-प्रवण हृदय कविताक मन्दाकिनीमे विहार करय लगैछ ।" मनमोहन झाक प्रायः प्रत्येक कथाक केन्द्रमे नारीक चित्रण भेल अछि । हम जखन आधुनिक नारीक सशक्तीकरण तथा पुरुषक संग समानताक आधारपर सभ क्षेत्रमे कार्य करबापर सोचैत छी, तँ मनमे होइत अछि जे स्थितिमे इंजन चलेनिहारि, वायुसेना आ स्थल सेनामे कार्य केनिहार एवं अन्यान्य सभक्षेत्रमे कठोरसँ-कठोर कार्यमे निरत नारीक सौन्दर्य, लावण्य, भ्रू-भंगिमा, आकर्षण, कोमल अंग, प्रेमाख्यान आ समर्पण भवनाक की स्थिति होयत ? मुदा मनमोहन झाक कथाक नारी एहि सभ गुणसँ सम्पन्न रहितो कर्त्तव्य-पथपर कोना आजुक समाजमे आगाँ बढतीह तकर समुचित आदर्श उपस्थित करबाक प्रयास करैत रहलाह ।

मैथिली साहित्यक शिल्पी आचार्य सुरेन्द्र झा 'सुमन'




मैथि‍ली भाषा आ सहित्यक ई सौभाग्य छल वा ई कही जे ई दैवी संयोग रहलैक जे प्रत्येक कालखंड मे एकरा कोनो न कोनो एकटा विशि‍ष्ठ महापुरूषक नेतृत्व ओ अभि‍भावकत्व प्राप्त होइत रहलैक अछि आ ताहि द्वारे मैथि‍ली अपन प्रगति यात्रा पर सदति आगू बढ़ैत रहलीह अछि । मैथि‍लीक आधुनिक कालक नेतृत्व कवीश्वर चन्दा झा सँ प्रारंभ भेल । 1907 मे हुनक मृत्यु सँ पहिने मिथि‍ला-मोदक माध्यम सँ म0 म0 मुरलीधर झा सन प्रखर-मुखर व्यक्‍ति‍त्‍वक नेतृत्व भेटलैक । 1930 मे मुरलीधर झाक मृत्युपरांत किछु काल शुन्‍यक स्थिति रहल । मुदा 1935 ई0 मे मैथि‍लीक मंच पर तेहन प्रखर तेजोमय व्यक्तित्‍व सँ मैथि‍ली प्रकाशमान भेलीह कि कतोक दशक धरि उर्जस्वि‍त-प्रकाशि‍त होइत रहलीह । जिनक व्य‍क्ति‍त्व ओ कृतित्व मैथि‍लीक एकटा युगक सर्जन कयलक । ओ विराट व्यक्तित्‍व दोसर केओ नहि आचार्य सुरेन्द्र झा ‘सुमन’ छलाह ।

आचार्य श्री सुरेन्द्र झा सुमन प्राचीनता ओ नवीनताक संधि‍ स्थल पर ठाढ़, कविक कवि, संस्कृत कs गलाकs मैथि‍लीक श्रंगार कयनिहार, रससिद्ध कवि छलाह । अहाँ नहि केवल मैथि‍लीक शीर्षस्थ महाकवि छलहुँ अपितु यशस्वी सम्पाकदको बनि मैथि‍लीक शुन्याताकेँ भरबाक काज केलनि‍ । उत्कृष्ट कोटिक कथाकर आ समालोचक संगे सुविख्यात प्राध्यापकों छलनि । संस्कृट आ बांग्ला ग्रन्थक सफल अनुवादक संग-संग धाराप्रवाह सुसंस्कृत- चित्‍ताकर्षक वक्ताक रूप मे सेहो सुप्रसिद्ध छलाह । साहित्यिक अतिरिक्तओ हिनक जीवनक राजनीतिक पक्ष सेहो छल, ई बिहार विभानसभा तथा लोकसभा मे दरभंगा क्षेत्रक प्रतिनिधि‍त्व कयने छलाह‍ । सुरेन्द्र बाबू 1983 सँ साहित्य अकादमी दिल्लीमे मैथि‍ली भाषाक प्रतिनिधि‍ आ ओकर कार्यकारी सदस्य सेहो छलाह । ओ एहि पद पर 1987 धरि रहलाह । मैथि‍ली साहित्य परिषदक पूर्व मे ई महामंत्री रहि‍ चुकल छथि‍ । एहन बहुमूखी प्रतिभाक ओ एकमात्र व्यक्ति ‍ छलाह जे कवि, साहित्यकार, अनुवादक, आलोचक, समालोचक प्रध्यापक आ राजनेता रहि चुकल छल ।

समस्तीपुर जिलाक बल्लीपुर नामक गाममे हिनक जन्म 1910 ई0 मे आश्वि‍न शुक्ल पंचमी तिथि‍ कs तदनुसार 1 अक्टूबर कs भेलनि । संस्कृत साहित्यक ई अत्यन्‍त मेघावी छात्र छलाह तथा धर्मसमाज संस्‍कृत कॉलेज, मुजफ्फरपुरसँ साहित्याचार्य कयलनि । आरंभमे किछु दिन एकटा उच्च विद्यालयमे अध्यापन कयलनि पुन: 1934 मे मिथि‍ला मिहिरक सम्पादक भs दरभंगा आबि गेलाह । एहि पद पर ओ 1944 धरि रहलाह । 1946 मे चन्द्रधारी मिथि‍ला महाविद्यालयमे मैथि‍ली विभागमे प्राध्यापक रूपमे प्रवेश कयलनि आ ओतय अपन विलक्षण ज्ञान प्रतिभा सँ विश्वविद्यालयक स्नातकोत्तर मैथि‍ली विभागाध्यक्षक पद धरि कs गौरवान्वित कयलनि । अवकाश-ग्रहण कयलाक बाद साहित्यि ओ राजनीतिक काजमे ई अपनाकेँ समर्पित कs देलनि । अपन एकनिष्ठ साधनाक बल पर 15 अगस्त 1972 सँ दैनिक ‘स्वदेश’ क पुन: प्रकाशन आरम्भ कयलनि जे 84 क पूर्वाध धरि चलैत रहल ।

संस्कृत आ हिन्दी‍-रचनामे सेहो हिनका समान गति छनि, मुदा अपन सम्पूर्ण सेवा मैथि‍लीकेँ समर्पित कs देने छलाह । हिनक महत्वक एक कारण ईहो अछि जे हिनके प्रेरणा पाबि कतेको प्रतिभाशाली साहित्यकार मैथि‍ली दिस आकृष्ठ भेलाह तथा अपन बहुमूल्य अवदानसँ एकर भण्डार कs भरैत गेलाह । परवर्ती तँ सहजहिँ जे हिनक समकालीन कविचूड़ामणि‍ श्री काशीकान्ता मिश्र ‘मधुप’ तथा कविवर उपेन्द्र ठाकुर ‘मोहन’ सेहो हिनक प्रेरणासँ मैथि‍ली-लेखन दिस उन्मुख भेलाह ।

तीस गोट मौलिक काव्य-पुस्तक हिनक प्रकाशि‍त अछि तथा अनूदित आ सम्पा‍दित कृतिक संख्या लगभग पन्द्रह अछि । एहि मे किछु महत्वतपूर्ण मौलिक काव्य -संग्रहक नाम थिक – प्रतिपदा, अर्चन, साओन-भादव, अंकावली, अन्तर्नाद, भारत-वन्दना, पयस्वनी तथा उत्तरा । जाहि में हिनका पयसवनी लेल 1971 ई0 में साहित्य अकादमी भेटल छल । आ उत्तरा लेल 1981 में विद्यापति पुस्कार भेटल छल ।

हिनक मुख्य अनुदित पोथीमे पुरूष-परीक्षा, अनुगीतांजलि, ऋतुश्रंगार आ बड़की दाइ प्रमुख अछि । हिनक सम्पादित प्रमुख पोथी थीक वर्णरत्नाकर, पारिजात-हरण, कृष्ण जन्म, आनन्द विजय, गोविन्दगीतांजलि, मैथि‍ली प्रबन्ध काव्‍य आदि ।

आचार्य सुरेन्द्र संस्कृदत साहित्यक प्रकाण्ड विद्वान छलाह तेँ हिनक कवितामे संस्कृत काव्यक गरिमाक सहजहिं दर्शन होइछ । हिनक दृष्टि‍ आधुनिक छनि, तेँ हिनक काव्यमे आधुनिकताक विचारधाराक झलक सदिखन देखेबामे अबैत अछि । ई खास राजनीतिक विचारधाराक प्रबल-प्रवक्ता छलाह ते हिनक किछु कवितामे अनायासे ओहन स्वर-झंकार सुनबा मे आबि जाइछ ।

मैथि‍लीक आलोचक लोकनि हिनका प्राचीनता ओ नवीनताक संगम पर ठाढ़ पबैत छथि‍ । ओतहि प्रो0 जयदेव मिश्रक कहब छनि जे ‘ई संस्कृरत कs गलाकs मैथि‍लीक श्रृंगार करैत छथि‍’ । वास्तिव मे हिनक कवितामे भारतीय संस्कृकतिक जेहन झांकी भेटैत अछि, से अन्यत्र दुर्लभ अछि । डॉ0 शैलेन्द्र सेहो हिनक पोथीक बारे मे कहने छथि‍ जे, ‘आचार्यक अर्चना मैथि‍ली मन्दि।रक एकटा भक्ति‍ प्रधान काव्य‍ अछि । गंगातरंगिणी, मैथि‍लीवन्दना ओ मिथि‍ला-महिमा ई तीनू कविक एहन कृति अछि जकर आधार मूलत: सांस्कृतिक अछि । परन्तु एकर वर्णनमे कवि जाहि पौराणि‍क गाथाक उल्लेख कयने छथि‍ ओ इतिवृत मात्र नहि भs अपन काव्य-चम्त‍कारक बलेँ अती आकर्षक ओ महत्वपूर्ण भs गेल अछि । केओ हिनका बारे मे कहने छलाह जे ई संस्कृतक स्थि‍र किनार कs छोड़ि‍ आधुनिक प्रवाहमे ओतवहि दूर जाइत छथि‍ जतय सँ पुन: फिरिकs अयवामे कठिनता नहि होइत छनि ।

आचार्य रामानाथ झाक अनुसारेँ, ‘ई प्राचीन बेसी छथि‍, नवीन कमतर, आ आधुनिक सोरहो आना छथि‍’ । हिनक आधुनिकता थि‍क प्राचीनताक नवीनीकरण । चमत्कारपूर्ण सूक्ष्म कल्पाथनसँ निबद्ध हिनक प्रत्येक रचनामे उक्त ‍वक्रता भेटैत अछि, किछु नव बात उत्प‍न्न‍ करबाक क्षमता भेटैत अछि । हिनक विषय क्षेत्र व्यापक छल, प्राय: कोनो वाद-प्रवाद नहि छूटल होइत जाहि आधार पर ई रचना नहि कयने होथि‍ । वर्णनक पाण्डि‍त्यिपूर्ण उत्कर्षक कारणें हिनक रचना सर्वसाधारणक हेतु दुरूह अछि । भाषा हिनक तत्समबहुल ओ उक्ति पाण्डि‍त्यपूर्ण वक्रता हिनका सर्वसाधारणक कवि नहि बनय दैत अछि । सुमनजीक वास्तिविक महत्व काव्यधाराक कोनो ‘बाद’ क वृतक अन्तर्गत नहि अछि, प्रत्युत कविताक ओहि भावभममि पर प्रतिष्ठि अछि जाहि हेतु कवि युगातीत कहल जाइत छथि‍ ।‘’ एकठाम त आचार्य रामानाथ झा हिनका ‘कविक कवि’ कहने छथि‍ । हुनक कहब छनि जे वास्तवमे हिनक कविताक रसास्वादक लेल एक गोट कविक हृदय चाही । डॉ0 शैलेन्द्र’ मोहन झाक शब्दमे ‘’सुमनजीक समस्त काव्यक–साधना पर विचार कयने देखब जे आधुनिक युगक विविध काव्यधाराक सामंजस्य यदि कोनो कविमे अछि तँ ओ सुमने जी मे अछि ।

वास्तवमे हिनक गद्य की, पद्य की, सभमे वैह गूढ़ार्थ-बोधक भाषा, वैह माजल शि‍ल्प-शैली, वैह ‘तिल-तिल नूतन होय’क चमत्कार, वैह मनोमोहक वर्णन-विन्यास, वैह पांति-पांतिमे बिहारीक गम्भीरता । निष्कर्षत: कहल जाए त आचार्य सुरेन्द्र झा ‘सुमन’ एक मे अनेक वा अनेक मे एक छल । ओ अपन स्वयं मे एकटा विराट संस्था छलाह । एकटा अप्रि‍तम साधक छलाह जनिका मे एक्के संग पत्रकारिता, साहित्य, अध्यापन, समाजसेवा ओ राजनीति सबकेँ साधि‍ सकबाक क्षमता छलनि ।

Sunday, April 17, 2022

राजशेखर कृत कर्पूरमंजरी क भाषा





कर्पूरमंजरी संस्कृतक प्रसिद्ध नाटककार आ काव्यमीमांसक राजशेखर द्वारा रचित प्राकृत भाषामे लिखल नाटक अछि । प्राकृत भाषाक विशुद्ध साहित्यिक रचनामे एहि कृतिक विशिष्ट स्थान अछि। ई मूलत: एकटा सट्टक अछि । साहित्यदर्पणक अनुसार सट्टक आदि सँ अंत धरि प्राकृत भाषामे रचित होइत अछि, संस्कृतक नाटक जेंका एहिमे खाली किछु पात्र प्राकृत भाषामे रचित नहि होइत अछि । एहिमे अद्भुत रसक वैशिष्ट्य होइत अछि । अंकक लेल जवनिकांतर शब्दक प्रयोग होइत अछि । शेष गपमे सट्टक प्राय: नाटिका जेना होइत अछि । दुनूमे शीर्षक नायिकाक नाम पर होइत अछि।

प्राकृत भाषामे पाँचटा सट्टकक प्रसिद्धि अछि । ई अछि विलासवती, चंदलेहा, आनंदसुंदरी, सिंगारमंजरी आओर कर्पूरमंजरी । एहिमे विलासवतीक अलावे सभटा ग्रन्‍थ उपलब्ध अछि । एहिसभमे कर्पूरमंजरी सर्वोत्कृष्ट आओर प्रौढ़ रचना अछि । राजशेखरक संस्कृत आओर प्राकृत भाषा पर असाधारण अधिकार छल । ओ सर्वभाषानिषणण कहल जाइत छलाह । कर्पूरमंजरीक प्राकृत प्रौढ़ आ प्रांजल अछि । पहिने कहल जाइत छल जे एकर पद्यभाग शौरसेनी प्राकृत मे अछि मुदा डॉ॰ मनमोहन घोष एकरा अपन मत सँ अमान्य सिद्ध कए देलनि । एहिमे मुख्यत: शौरसेनीक प्रयोग भेल अछि । एहिमे कवि स्रग्धरा, शार्दूलविक्रीडित, बसंततिलका आदि संस्कृतक छंदकेँ प्रौढ़ आ सफल प्रयोग केलनि अछि । प्राकृतक छंद सेहो एहिमे अछि । प्राकृतमे एहि सट्टककेँ लिखबाक कारण कर्पूरमंजरीमे कवि बतेलनि जे संस्कृत बंध पुरुष होइत अछि आओर प्राकृत भाषाक बंध सुकुमार। दुहुमे पुरुष आओर ललनाक समान अंतर अछि । प्राकृत भाषाक प्रौढ़ आद्यंत प्रयोगक कारण एहि सट्टकमे देखाओल गेल अछि जे राजा चंद्रपाल कुंतलराजपुत्री कर्पूरमंजरी सँ विवाह ककए चक्रवर्तीपद प्राप्त केलनि । ऐंद्रजालिक भैरवानंद इंद्रजाल द्वारा एहिमे अद्भुत रसक योजना केलनि अछि ।

विद्यापतिक परवर्ती रचनाकार पर प्रभाव



 

विद्यापति बहुमुखी प्रतिभा सम्‍पन्‍न व्‍यक्‍ति‍ छलाह । ओ कैकटा राजाक दरबारक शोभा बढ़ेलनि आ कैकटा पोथीक निर्माण केलनि । कतओक पदावलीसँ मैथिलीक समृद्ध केलीह । मुदा हुनक काव्‍य जतबे दरबारमे पसिन कैल गेल ततबे साधारण लोकमे ।

'दुर्भाभक्तितरंगिणी' महाराज भैरव सिंहक आज्ञा सं लिखल गेल छल । पदावली आदि ओ स्वयं लिखलनि । ओ राजा-रानीक संग रहितहुँ राज-दरबार धरि सीमित नहि रहलाह । हुनक काव्य आ लेख जतबे दरबार में पसिन कएल गेल ततबे साधारण लोक मे । ई हुनक प्रभावक कारण थिक जे मिथिला मे छओ सए वर्ष व्यतीत भेलाक पश्चातहु हुनक नचारी आ व्यावहारिक गीत, विवाह, द्विरागमन, उपनयन, मुण्डन प्रभूति संस्कार पर सभ शिक्षित आ अशिक्षित द्वारा गाओल जाइत अछि । हुनक गीतक प्रशंसा करैत जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन लिखैत छथि

"Even when the sum of Hindu religion is set, when belief and faith in Krishna and in that medicine of deases of existance the hymn of Krishna's love is extinct stilll the love bome for the songs of vidyapatti in which he tells of Krishna and Radha will never diminish.

अर्थात् हिन्दू धर्मक सूर्य अस्त भए: सकैत अछि, कृष्णक प्रति विश्वास उठि सकेत अछि, कृष्णक प्रेम गीत जे एहि भवसागरक रोगक औषधि थिक समाप्त भए सकैत अछि मुद्रा विद्यापतिक गीतक प्रति लोकक आस्था एवं प्रेम जाहिमे राधा-कृष्णक वर्णन अछि, कखनो कम नहि भए सकैत अछि । एहि प्रकारे हुनक गीत लोक एवं साहित्य संसारमे अपन एक पैघ स्थान बनाए लेलक । इएह कारण थिक जे ओ अपन प्रतिभा सँ मैथिली साहित्यके ओहिना प्रदीप्यमान करैत छथि जहिना शेक्सपियर आ मिल्‍टन इंगलिश लिटरेचर केँ, गालिय आ दाग उर्दू अदब के आओर सूर आ तुलसी हिन्दी साहित्य केँ । अपन प्रतिभाक कारण ओ मैथिली केर अनेको कवि लोकनि के प्रभावित कएलन्हि । कविकण्ठहार विद्यापतिक प्रभाव मिथिलाक संग-संग समस्त पूर्वांचल पर पड़ल । मिधिला मे हिनक पद चरवाहा सँ लए पैघ पैघ पण्डित ओ उद्भट विद्वान केँ मुग्ध कएलक । वयःसन्धि पर ठाढ़ि कामिती सँ लए जीवनक सांध्यवेला में बैसल बूढ लोक धरि‍ हिनक गीत गाबि आनन्दित होइत छथि । विद्यापति संस्कृतक अभेध गढ़ के तोड़ि जनभाषामे रचना कए सर्व-साधारणकेँ साहित्यिक अभिव्यक्तिक हेतु सरल-सुगम साधन उपलब्ध करओलनि । मिथिला मे हिनक रचनाक भाव, भाषा, शैली, छन्द आदि सभ वस्तुक अनुकरण पर विशाल गीत राशिक जनम भेल । हिनक प्रभाव एतेक बढ़ि गेल जे कविलोकनि 'पति' शब्दस युक्त नाम धारण कएलन्हि । यथा-उमापति, नन्दीपति, रमापति, कृष्णपति, श्रीपति, हरिपति, महिपति आदि । विद्यापतिक समकालीन ओ परवर्ती कवि-समुदाय क्रमशः भानुकवि, गजसिंह, विष्णुपुरी, यशोधर, लक्ष्मीनाथ हरिदास भगीरथ कवि, रमापति, नन्दीपति, हर्षनाथ आदि हिनक अनुकरण कएल । एहि मे सभ सँ बेसी प्रभाव महाकवि गोविंददास पर पड़लनि । ओ विद्यापति के अपन गुरू मानने छथि...

"विद्यापति पद युगल सरोरुह निस्यन्दित मकरनन्दे
तसु मझु मानस मातल मधुकर पिबइत करू अनुबन्धे ।"

स्फूट रूप से रचित गीत होअए किंवा नाटकमे प्रयुक्त गीत, सभ पर विद्यापतिक प्रभाव लक्षित होइत अछि । उमापतिक 'पारिजातहरण' नाटक में प्रयुक्त निम्न गीतके देखल जाए सकैत अछि

"कि कहब माधव तनिक विषेशे, अपनहु तनु धनि पाय कलेशे ।"

आजुक कविगण सेहो हिनक प्रभाव पड़ल अछि । आधुनिक युगक प्रवर्तक 'मिथिलाभाषा रामायण' क शिल्पी कवीश्वर चन्दा झा सेहो विद्यापति सँ बड़ प्रभावित रहलाह । ओ हुनक कृति 'पुरुष-परीक्षा' क मैथिली अनुवाद कएने रहथि । कविवर सीताराम झा हास्य-व्यंग्यक क्षेत्र में विद्यापति सँ बड़ प्रभावित छलाह । विद्यापति सँ प्रभावित भए काव्य-सृजनमे प्रवृत्त भेनिहार मे टटका नाम अबैत अछि- डॉ. इन्द्रकान्त झाक । ओ महाकवि विद्यापतिसँ प्रभावित भए 'पाहुन विलमि जाउ' नामक पद-संग्रह रचना कए हुनकहि कर-कमल सं नि:सृत केलनि ।

"सुअन पसंस्सई कव्व मझु, पुज्जन बोलइ मंद ।
अवसओं विषहर विस वमइ, अमिय विमुक्कई चंद ।"

एहि में कोनो अतिशयोक्ति नहि अछि जे मैथिलीक कवि लोकनि आइयो विद्यापति सँ प्रेरणा लैत छथि आओर भविष्यो मे लैत रहताह । विद्यापतिक पद

कवरी-भय चामरि गिरि कन्दर मुख भये चाँद अकासे,
हरिन नयन भय स्वर भय कोकिल गति भय गज राजे
तुअ भय इह सब दूरहि पराएल तहु पुनि काहि डरासि ।

डॉ० इन्द्रकान्त झाक पद

चान लजागेल छ हमरे आनन के देखला सं यो
भागि गेलै धरती सं आ समा गेलै गगनांचल मे यौ

विद्यापतिक प्रभाव मिथिले धरि सीमित नहि रहल । भाषा काव्यक आदर्श मानि ओ समस्त पूर्वांचल मे समादुत भेलाह । 'तिल तिल नूतन होय'क अनुराग सँ दीप्त ओ प्रवाहमान गेयत्वक लहरि सँ उच्छलित हिनक पद-समूह बंगाल, आसाम आ उडीसाक साहित्यिक रचनाकेँ प्रभावित कएलक । प्राचीन समयमे मिथिला दर्शनशास्त्रक, दार्शनिक विधाक केन्द्र छल जतए देशक विभिन्न भाग सँ विद्वान लोकनि आबि ज्ञानोपार्जन करैत छलाह । विद्यापतिक प्रभाव जे बंगाल मे एतक व्‍यापक भेल तकर कारण इएह दार्शनिक लोकनि छथि । बंगाली विद्वान लोकनि आबि ज्ञानोपार्जन मे सिद्धि प्राप्त कए अपन देश घूमि जाइत छलाह । जएबाकाल ओ लोकनि मस्तिष्क मे दर्शनक गूढ विषयक रहस्य एवं ठोर पर विद्यापतिक दुइ-चारि मधुर गीत लए जाइत छलाह । एहि प्रकारक परम्परा बहुत दिन धरि रहल आओर बंगाली विद्वानकेँ मैथिलीक ई गीत सभ बड़ प्रियगर लगैत रहलनि, फलतः एकरहि आधारपर ओ लोकनि रचना सेहो करए लगलाह जाहि सँ बंगालमे एकटा कृत्रिम भाषा- मैथिली एवं बंगला मिश्रित भाषा ब्रजबुलिक जन्म भेल । एही प्रसंग डॉ. सुभद्र झा अपन शोध-प्रबन्ध में लिखैत छथि

"Charmed at the sweetness of this language (Maithili), some of the Bengali poets went so far sa to compose verses in Maithili, which received the name of Brajbuti language in Medieval times".

बंगालमे ब्रजबुलि रचना आधुनिक युग धरि चलैत रहल । यथा-जनमेजय मित्र, बंकिमचन्द्र चटर्जी, रासकृष्ण राय ओ रवीन्द्रनाथ ठाकुर । श्री ठाकुर 'भानुसिंह' उपनामसं बीस गोंट पदक रचना कएलनि । तेँ आनन्द शंकर रायकर कथन "After Kalidas, Vidyapati seems to have most influnced Ravindra Nath Tagore, thesethree Indian Poets are in the same tradition though their languages differ". बड़ सटीक भेल अछि । रवीन्द्रनाथ ठाकुर कविकोकिलक गीतसं कतेक प्रभावित भेलाह ताहि प्रसंग स्वयं लिखने छथि

"His (Vidyapati's) poems and songs were on of the earlies delights that stirred my youthful imagination".

विद्यापतिक प्रभाव बंगालमे जे पडल ताहि प्रसंग ई उद्धरण द्रष्टव्य अछि

"Vidyapati's fame in Bengal, rested on two scores; first that he was probably an old Bengali classic and second that he was a great 'Vaisnava singar', Bankim and Tagore respected him in the first manner, Chaitanya and subsequent vaisnava in the second.

आसाममे वैष्णव साहित्यक अभ्युदय प्रकारान्तर सँ विद्यापतिक प्रभावक परिणाम थिक । आसामक प्रसिद्ध वैष्णव सन्त ओ समाज सुधारक शंकरदेव अपन तीर्थयात्रा-क्रममे अनुभव कएलनि जे वैष्णव धर्मकेँ व्यापक ओ प्रभावकारी बनएयामे विद्यापतिक गीतक चामत्कारिक भूमिका अछि । फेर ओ अपन धर्म-प्रचारक निमित्त ओकरहि अनुसरण कए काव्य-रचनामे प्रवृत्त भेलाह । एहि प्रयास मे मैथिली ओ असमियाक मिश्रण सँ भाषाक एकटा नव रूप गठित गेल । आरम्भ में तँ वैष्णव साहित्यक एहि नव वाक्सरणि के ब्रजावली कहल गेल मुदा आब साहित्यक इतिहास मे इहो ब्रजबुलिक नामसँ प्रचलित अछि । तथापि बंगाल ओ आसाम मे ई नाम सामान्य रहितहुँ परस्पर पर्याप्त अन्तर रखैत अछि । आसामक ब्रजबुलिमे विद्यापति ओ मैथिली साहित्यक जे अंशदान अछि ओहिमे बंगाल कोनो रूपमे माध्यम नहि रहल । आसाम मे एकर विकास विद्यापति एवं मैथिली काव्य-परम्परा सँ स्वतंत्रता सम्पर्कक परिणाम थिक ।

आसामक वैष्णव-साहित्यमे असमियाक अतिरिक्त ओकर विपुल अंश एही ब्रजबुलि मे अछि । एकरा असमिया साहित्‍यक मेरूदण्ड कहल जाइछ । एकरे द्वारे आम साहित्यमे रस-समृद्धि भेल । एहि ब्रजवुलिमे रचित साहित्यक दू गोट प्रकार अछि- 'वर गीत' ओ 'अंकीया नाट' । वैष्णव साधक लोकनिक मानसमधन स कौस्तुभमणि सदृश उद्भूत भए ई दूनू काव्यरूप जेना समस्त असमिया साहित्य के आलोकित कए देलक ।

एनाहिते उड़ीसाक आ नेपाल धरि विद्यापतिक लोकप्रि‍यता पसरल आ ओहिमे कतओक तरहक गीतक निर्माण भेल । उपरोक्‍त विवेचन सँ ई स्‍पष्‍ट भए जाइत अछि जे अमर गायक विद्यापतिक प्रभाव पूर्वीय आर्यावर्त्‍तक कोना प्रान्‍त आ भाषा पर नहि पड़ल ? अगर कही जे प्राय: सब पर तँ कोनो तरहक अतिशि‍योक्‍ति‍ नहि ।



विद्यापतिक पदावलीमे अभिसार वर्णन


 

 
अभिशरणं तु अभिसारः । चलय, आगा बढ़ब, अभिसरण करव, अभिसार थिक । अंगार रसक एहि विभेद मे नायक नायिक द्वारा गुप्त रूपे, निर्धारित स्थान पर मिलनक हेतु अभिसरण प्रेमक विभिन्न चरणक एक अंश थिक ।

अभिसार-प्रेम परीक्षाक एक कसौटी थिक । एहि सं प्रियतमक प्रति प्रमोद्देगक संग-संग जीवनक उपेक्षा वा बलिदानक परिचय प्राप्त होइत अछि । प्रेमक धारा मे कोनो प्रकारक रुकावट आबि गेला सँ कोन प्रकारे प्रेम प्रवाह मे व्याकुलता, आवेगक तीव्रता, सीमोल्लंघन होइत छैक वा कोन प्रकार सँ अपन प्राणकेँ हाथ पर राखि कय ओकरा संग खेलबा मे उमंग आबैत अछि । एकर उदाहरण अभिसारे मे भेटैत छैक । एहि हेतु श्रृंगारि‍क कवि अभिसारक वर्णन बहुत मार्मिक ढंग सं कयलनि अछि ।

अभिसार तीन प्रकारक होइत अछि - शुक्लाभिसार, कृष्णाभिसार तथा दिवसाभिसार ।

विद्यापतिक अभिसार साहित्य शास्त्र-वर्णित भौतिक अभिसारे धरि सीमित नहि अछि । | प्रत्युत ओकर लक्ष्य विशेष कए आध्यात्मिक एकता अछि । कृष्णक सभ प्रकारक अभिसारकेँ विद्यापति सिद्धिदायक बुझैत छथि । हुनका अनुसार प्रेमक साधना अभिसारक साधन सँ सिद्ध होइत छैक । यथा

सबहि सुन्दरि साहस सार, तेहि तेजि के करय पार ।
सफल अभिसार सिद्धदायक, रूपे अभिनव कुसुमसायक । ।

ई जानितहुँ जे अभिसार प्रेमक सिद्धिदायक मंत्र छैक, कुल कामिनी राधा लोक लाजक भय सँ मंत्र-सिद्धिक पथ पर अग्रसर होयबा मे सशंकित भय रहल छथि । एक दिस नव अनुरागक उद्वेग अछि तँ दोसर दिस उपहासक भय । एहि प्रकारक अतर्द्वन्द्व सं राधाक हृदय जर्जर भय रहल अछि:

ओ भरे लागल नव सिनेहा, ए भरे कुलक गारि ।
सकल प्रेम सम्भारि न होएत, हठे विनासति नारि । ।

जाहि प्रकार सँ व्याधक डर सँ भीत हरिणी चारू दिस चौंकैत बचबाक उपाय ताकैत रहैत अछि, ओहि प्रकार सँ राधा एहि इन्द्र सँ बचबाक उपायकेँ शून्य दिशा मे ताकैत अछि :

अगमने प्रेम गमने फुल जाएत चिन्ता पज्ञ लागलि करिनी ।
मजे अवला दह दिस भमि झाँकेओ जनि उपाय डरे भिरू हरिनी । ।

प्रेमोद्विग्न राधा लोकापवाद सँ एतेक कुपित अछि जे अंतरंग सखीक द्वारा प्रियतमक लग पत्र पठेबामे सेहो डर लागि रहल छैक जे कतहु केओ ओकरा पत्र लए जाइत देखि ने लैक । एहि हेतु ओ चन्द्रमा सं अनुनय-विनय करैछ जे हे चन्द्रमा, आइ राति मे अहाँ नहि ऊगू । मात्र लोकापवादक कारण ओ साओन सँ अभिसार करवाक विचार रखैत अछि:

चन्दा जनि उग आजुक राति, पिआ के लिखिआ पठाओब पाँति ।
साओन स हम करब पिरीत, जत अभिमत अभिसारक रीति ।

साओन सँ हम करय पिरीत 'आ' 'कोटि रतन जलधर तोहे लेह' स व्यंजित होइत अछि जे ई आषाढ़क मास छैक । यद्यपि मेघ घेरने छैक तथापि राति ओतेक अन्हार नहि अछि जतेक कृष्णाभिसारिकाक हेतु अभीष्ट छैक । एहि हेतु तँ ओ साओन मास सँ प्रेम करबाक बात करैत अछि । अतएव नायिका कहैत अछि जे हे मेघ! पूर्ण आडम्बर सँ आजुक रातिकेँ भीषण अंधकारावृत कय दिअ आ हम ओकर बदला मे करोड़क करोड, रत्न देयौक । विद्यापति कहैत छथि जे अभिसार शुभ होयत, किएक ते सज्जन व्यक्ति दोसरक उपकार करैत अछि ।

एतावता ज्ञात होइत अछि जे कतय राधा पत्र लिखि साओन सँ अभिसार करय कहैछ मुदा वर्षाकाल में अभिसारक हेतु विवश भय जाइछ । किएक तँ प्रणयक प्रतिज्ञा-पूर्तिक चिन्ता मे ओ सोचौत अछि जे

'आशादय नहि करिए निरासे
'भल-न कएल मोजे देल बिसवासा' ।

विश्वास देबाक कारण प्रियतम कृष्ण अवश्य संकेत स्थल पर आबिकय उपस्थित होयत । वर्षाक एहि भयावह राति मे घनघोर वृष्टि भय रहल छेक, दसो दिसा कारी से पोतल अछि । आब की करबाक चाही? समय अभिसारक हेतु उत्तेजित कय रहल अछि । कृष्णकेँ निमंत्रित कय निराश करब सेहो ठीक नहि अछि । हुनकर स्मरण सँ प्राण व्याकुल भय रहल अछि । प्रज्वलित आगिक सदृश बिजली चमकि रहल छैक । वज्रपातक भयंकर शब्द भय रहल अछि । तथापि घर में रहल नहि जाइछ:

झर झर सघन जल धार,
दस दिश सबहुँ भेल अन्धियार ।
ए सरिश किए करब परकार,
अब जनि बारए हरि अभिसार । ।

नायिका जानैत अछि जे प्रेम पथ मे आपदा-बाधा, विघ्न आ व्याघात होइछ । मुदा एहि सँ की? यश-अपयश, विपदा आ बाधा सब के अंगीकार करैत नायिका कहैत अछि जे प्रेमक कारण चन्द्रमा अपन कोरा मे हरिणकेँ धारण कय राहुक ग्रास सहन नहि करैछ । आय जे होयवाक होयत हम अभिसार करवे करव । एकर कारण इहो अछि जे एकान्त जीवन दुस्सह भय रहल अछि । लोकापवादक कारण एहन नीक मुहूर्तकेँ नहि गमायब । एहन हालतमे अभिसार नहिं करब से अनर्थ होयत:

रयनि काजर बम भीम भुअज्भम कुलिस परए दरवार ।
गरज तरज मन रोसे बरिस घन संसअ पड् अभिसार

नायिका अपन देहक ओ रूप बनाय लैत अछि जे चन्द्रमाक किरणक सदुश ओकर देहक कान्ति चमकैत अछि । एहि हेतु सखी कहैत अछि जे आँखि पसारि कय हम सम्पूर्ण संसार में देखलहूँ मुदा तोरा सनक कोनो दोसर रमणी नहि भेटल । तँ अन्हारकेँ अपन दोस्त नहिं बुझू किएक तँ तोहर मुंह चन्द्रमाक सदृश छैक चन्द्रमा आ अन्हार मे मैत्री असंभव अछि । चन्द्रमा आ अन्हारमे स्वाभाविक विरोधकेँ छोडि कृष्णक समीप चलु । नायिका दूतीक वाक्यकेँ हितकर बुझलक आ ओहि मे कामदेव चालकक काज कयलक । अर्थात दूतीक वाक्य, प्रेममिलनक उद्भावना का संचालित कयलक तथा नायिका ओहि पथ पर अग्रसर भेल ।

विद्यापतिक नायिका पुरूषक भेष मे अभिसार करैत अछि । चन्द्रमा उदयाचल पर चठि कय तरूणीकेँ अभिसारक लेल प्रेरित करैत अछि । चन्द्रमाक किरण आकाश में पहुँच गेल छैक । नायिका नव प्रेमक चोटकेँ सहि नहि सकलनि । ओ पुरूष रूपधारण कए अभिसार कयल । केशकेँ साधुक समान खोपा बान्हलक । पुरूषक अनुकूल वस्त्र पहिरलक । मुदा स्थूल कुच वस्त्र सँ झापलो पर नहि झपायल । अतएव सितारकेँ हृदय सँ लगौलक । एहि वेष में नायिका कृष्ण लग आयलि । मुदा कृष्ण चीन्हि नहि सकलाह । कृष्ण संदेह मे पड़ि गेलथि, मुदा स्पर्श करितहि दुविधा दूर भय गेल ।

अंबहु राजपथ पुरजन जागि ।
चाँद किरन नभमंडल लागि ।
सहए न पारए नव-नव नेह ।
हरि हरि सुन्दरि पडिल संदेह ।

वास्तव में विद्यापतिक अभिसारक सफलता ओकर गोपनीयतामे अछि । एतय कविवरक कल्पना से कोनो कारण नहि रहि जाइछ जाहि सँ रहस्योद्घाटनक भय होयत । एतबे नहि विद्यापतिक नायिका अपन प्रेमक कारण दिनहिमे अभिसार करैत छथि । जखन की अभिसरण कार्यमे दिनक समय अनुपयुक्त होइत अछि आ बड़ कठिन होइत अछि । तथापि कने विद्यापतिक दिवसाभिसारिका के देखू :

राहु मेघ भए गरसल सूर, पथ परिचय दिवसहि भेल दूर ।
नहि बरिसए अवसन नहि होए, पुर परिजन संचर नहि कोए ।
...भनइ विद्यापति कवि कंठहार, कोटिहुँ न घट दिवस अभियार ।

कवि विद्यापति दिवासाभिसारणक खूब पक्षापाती छथि । उपर्युक्त पदमे दिवसाभिसारिकाक हेतु परिस्थिति किछ आरो अछि । मेघ सघन घटाटोप छैक जाहि सँ दिनमे रातुक भान होइत अछि । लोकक बाट पर आयब जायब बन्द अछि । मुदा एक दोसर दिवसाभिसारिका तँ लाज धाख छोडि टहाटही रोद वला दिन मे अभिसार कए अपन प्रेमक परिचय देछ:

तपनक ताप तपत भेलि महितल.
तातल बालू दहन समान ।
चढ़ल मनोरथ श्भामिनी पथ
ताप तपत नहिं जाना
प्रेमक गति दुरबार ।

Thursday, April 14, 2022

विद्यापतिक पदावलीमे मान वर्णन




प्रणयी एव प्रणयनीक प्रेम-लीलामे मानक एकटा प्रमुख स्‍थान रहैत छैक । प्रेमक अस्‍त्रागार मे मान एकटा महास्‍त्र अछि । ई दूधारी तलवार अछि । एकर चोट प्रहार करयवला आ जेकरा पर प्रहार करल जाइत छैक दुनू पर एकहि समान पड़ैछ ।

रससिद्ध कवि विद्यापति अपन पदावलीक मान प्रकारण मे सभ भेदोपभेदक आकर्षक विवेचन कयने छथि । विद्यापतिक नायिका मान-करबाक पद्धति सँ एखन अपरिचित अछि । एहि हेतु सखी ओकरा ओहि प्रणाली से अवगत करवैत अछि । सखी नायिका के बुझबैत अछि जे जखन नायक लग आबय तें महग भय जाएब...

खनहि खन महौष भइ किछु अरूण नयन कइ,
कपट धरि मान सम्मान लेही ।
कनक जयाँ प्रेम कसि पुनि पलटि बाँफ हसि
आधि सय अधर मधु-पान देही ।


अनेक यातना झेलि कए आ संकटक समुद्र पार कए राधा संकेत-गृह पहुँचैत अछि । प्राणाधारकेँ ओतय नहि पाबि व्याकुलताक संग प्रतीक्षामे जखन निराश भय गेलि तखन अभिसारक दिस उन्मुख करयवाली सखीक भर्त्सना तँ करबे कयलक संग-संग अपन प्रियतमक सेहो अनाप-सनाप सुनौलक राधाक उपालम्भ देख:

सखी हे बूझल कान्ह गोआरे ।
पितड़क टाँड़ काज दहु कओन लह, गुपर चकमक सार ।
हम तौँ कएल मन गेलहि होएत भल हम छल सुपुरूष भाने ।
तोहरे वचन सरखि कएल औखि देखि अमिय भरमे विष पाने । ।


राधा निराश भय घर घूमि जाइत अछि । प्रेमक विफलता क्रोधकेँ उभारैवला होइछ । तें जाहि प्रकार सँ 'गोहीक' कहला सँ लक्षणा द्वारा कोनो व्यक्तिक जड़ता एवं मदता स्पष्ट होइत अछि ओहि ओही प्रकार सँ एहि दूनू पद मे सेहो (गो + प) शब्द सँ कृष्णक मूर्खता लक्षित कयल गेल छैक । कृष्णकेँ काम-कला मे दक्ष बुझिए कए तेँ नायिका वा राधिका हुनका लग रमणक हेतु गेल छलि, मुदा ओकर आशा पर तुषारापात भय गलैक । एक चरवाहा काम-कला सदृश सूक्ष्म वस्तुकेँ की जानय गेल? वास्तवमे कृष्णक मूर्खत सँ नायिकाक एतेक सुन्दर राति व्यर्थमे बीत गेलि-कतक अनर्थ भेल ।

तखन कृष्ण दोसर प्रेमिकाक संग राति विताय कय राधाक समक्ष उपस्थित होइछ । कुंज भवनमे अनुपस्थितिक कारण अपन वाक्य चातुर्य सँ कहैत राधा के मनावय चाहैत छथि:

सुन सुन सुन्दरि कर अवधान, बिनु अपराध फहसि काहे आन ।
पूजनौं पशुपति जामिनी जागि, गमन विलम्ब भेल तेहि लागि ।
लागत मृगमद कुंकुम दाग, उचरइत मंत्र अधर नहि राग ।
नयन उजागर लोचन घोर, ताहि लगे तोहि मोहे बोलसि चोर
नव कविसेखर कि कहब तोय, सपथ करह तब परतीत होय ।


कृष्ण प्रेमक कारण झूठ बाजैत छथि से ओ कहैत छथि जे हम भरि राति जागि कय महादेवक पूजा कयलहुँ अछि तँ हमर ई हाल भेल अछि । तथापि राधाक विश्वास नहि होइछ । एहन समयमे विद्यापतिक नायिका कहैत अछि जे हे माधव! तो शपथ खा तखन तोहर बात पर विश्वास करब ।

मानिनि! अरून पुरष दिसि बहलि सगरि निसि गगन मलिन भेला चन्दा ।
मुदि गेलि कुमुदिनि तहआओ तोहर धनि मुनल मुख अरविन्दा । ।


एतबो पर राधा प्रसन्न नहि होइत अछि । कृष्ण घबराय जाइत छथि । ओ राधाक चरण छूए चाहेत छथि, मुदा साहस नहि होइत छनि । अन्तमे हाथ जोडि, फराकमे ठाइ भए राधाक मुँहक दिस ताकय लगैत छथि । यथा

परसइते चरण साहस ने होए, कर जोडि ठाढ़ वदन पुन जोए ।


मुदा राधा के अपमानक स्मरण होइत अछि । ओ बुझाइत अछि जे सदत होमय जनिते ने अछि । कृष्ण हारि कय राधाक लग सँ विदा होइत-होइत प्रेमोन्माद मे भौराक सम्बोधन कय कहैत छथि:

अरे अरे भमरा तोजे हित हमरा बंउसि आनह गज गामिनी रे ।
आजुकि रूसलि कालि जं बंउसब बितीति होइति मधु जामिनि रे । ।


तथापि राधाक मान भंग नहि भेलैक । निराश भय कृष्ण चल गेलाह । तखन कृष्णक दूती सैह राधा का अनेक प्रकार से बुझा रहल अछिः

विरह व्याकुल वकुल तरूअर, पेखल नन्द कुमार रे ।
नील नीरज नय सय सखि, हरइ नीर अपार रे ।


अर्थात सखी राधा सँ कहैत अछि- वकुलक गाछ तरमे वियोग सँ व्यथित कृष्णकेँ हम देखल । हुनका ऑखि सँ अत्यधिक अश्रुपात भय रहल छल । घसल चानन, कस्तूरी, कमल आ कपूरकेँ देखिकए ओ ऑखि मुनि धरती पर खसि परैत छथि । कामक लेल शीतलता प्रदान करयवला वस्तु हुनका लेल दुख:दायी अछि ।

तथापि राधा मानिनी बनल बैसलि रहलि । तखन सखी राधा सँ कहैत छथि जे हे मानवती । आब बेसीकाल मान करब उचित नहि थिक । एखन जे मिलनक समय अछि ओ फेर नहि भेटत । वर्तमान अवसर पर प्रिय-समागमक जे सुख होयत ओ सुख प्राप्त करयवाली जानि सकेत अछि । सभ गोपी अपन-अपन पतिक भोजन कराय देलक । मात्र तोरे टा पति भूखल अछि:

मानिनि आब उचित नहि मान ।
एखनुह रंग एहन सन लगइछ, एहन समय नहि आन ।
एहि अवसर पिय मिलन जेहन सुख, जकरहि हो से जान ।
अपन अपन पहु सबहु खोआओलि, भूखल तुअ जजमान ।


हे मानिनी! तोहर व्याकुल पति भीख माँगि रहल अछि । तेँ अपन सर्वस्व दान कए दे । जेना तीर्थस्थान पर पंडा यात्री सँ दान मागैत अछि आ पंडाक यात्री स्थानक पवित्रताक ध्यानमे राखि दान दैछ ठीक ओहिना राधाक सखी रति-दानक हेतु प्रेरित कय रहल अछि । एहन कृष्णकेँ पंडाक समान आ संभोगके प्रतिग्रहक समान कहल गेल छैक ।

दूतीक वचनकेँ राधा ठोकरा दैत अछि । तखन दूती कृष्णकेँ कहैत छथि जे हे माधव! मानवती राधाक मान अजेय छैक । हम ओकर विपरीत चरित्रकेँ देखि आश्चर्यित छी । ओ 'श्याम' रूपक दू अक्षर कए सुनय नहि चाहैत अछि । ओ एहि रूपके शत्रु बुझैत छैक । तोहर रूपक सदृश दोसर व्यक्ति सँ बातों धरि नहि करैत अछि । हम कोनाक आनि कय मिलायब ।

ओ अपन नील रंगक सन्न वस्तुकेँ त्यागि स्वेत वस्तु सँ विभूषित भय गेल अछि । छातीक श्याम चिन्ह (गोदना) केँ चाननक लेप-से आच्छादित कय देलक । चिंबुक पर जे तिल (कारी चिन्ह) छल तकरा चानन लगा झापि देलक । मेघ के नहि देखबाक हेतु चादरि सँ घेरि लेलक । जतेक श्याम वर्ण सखी छल सभ के अपना लग सँ हटा देलक । तमाम वृक्ष केँ चून सं ढौराय देलक । भ्रमरक डर सँ सुन्दरी चम्पा फूल तर चल गेल -

माधव, दुर्जय मानिनि मानि ।
विपरीत चरित परित्र चकरित भेल, न पुछा आधहु बानि ।
तुअ रूप साम अखर नहि सुनए. तुअ रूप रिपु सम मानि ।


जाहि नायिकाक मान मेरू पर्वत सदृश आ क्रोध सुमेरू पर्वत सदुश छैक ओकरा मनेयाक हेतु हे कृष्ण! स्वयं प्रस्थान करब तखनहि राधाक मान भंग होयत ।

दूतीक बात सुनि किंकर्तव्यविमूढ़ भय गेलाह । जे कृष्ण कोनो समयमे ब्रजवासीक डूबैत काल नह पर गोवर्धन पर्वत उठाय कए बचौने छलाह ओ स्वयं आय डूबि रहल छथि । हुनक उद्धार ओहि ब्रजबालाक हाथ मे आबि गेल अछि, की चमत्कार छैक ।

अन्ततोगत्वा तं राधा प्रेमक प्रतिमा अछि । प्रियतमक प्रेमकेँ कखन धरि रोकि सकितय? अनेक प्रकार सँ सखी द्वारा सम्बोधित भेला पर प्रेम सँ बताहि भेलि राधा स्वयं प्राणाधार कृष्ण लग दौड़ि जाइछ :

गगन गरज मेघा जामिनि घोर, रतनहु लागि ने संचरू चोर । ।
हना नेजि अएलहुँ निअ गेह, अपनहु न देखिअ अपनुक देह । ।


विद्यापति काव्य-जगतमे अभिनय भाषाक पादुर्भाव कयने छथि । नायिकाक मानक वर्णन सर्वत्र भेटेत अछि, मुदा नायकफ मानक वर्णन कदाचित कतहु भेटैत की नहि । एकाएक कृष्णकेँ अपन अपमानक स्मरण भेलनि । ओ स्वयं मान कय बैसि गेलाह ।

राधा माधव रत नहि मंदिर नियसय सययनक सूख ।
रस रस दारूण दंद उपजल, कान्ह चलल सब रूख ।


मान भंग भेलाक बाद रति रस में तल्लीनताक वर्णनक कल्पनाक वातक अनुभव के कहत? सौन्दर्योपासक विद्यापतिक एहि गीत में कल्पनाक गगनांगन उड़ानक भूरि-भूरि प्रशंसा करय पाबैत अछि । एहि पद मे श्लेषक कतेक सुन्दर चमत्कार लौकप्रलय मे सेहो प्रणयक चित्र के देखय आ देखावयवला एक मात्र कवि विद्यापति टा छथि ।

महाकवि विधापति एहि मान वर्णन मे नायिका एवं नायकक मानकेँ चरमोत्कर्ष पर पहुंचा देलनि अछि । नायक नायिका स्वयं मान भंग करवाक हेतु प्रस्तुत होइत छथि । मुदा मान भंग होइत अछि कृष्णक स्त्री वेष धारण कय राधा सं मानरूपी-रत्न माँगला पर । राधा सहर्ष मान रूपी रत्न दान दैत छथि । दूनूक पूर्णरूप सँ मान भंग होइत अछि । दूनू रति-क्रीड़ा मे लीन होइत-छथि ।

कवि विद्यापति कृष्णक मानक वर्णन कय साहित्य संसार मे एक नवीन सिद्धान्त स्थापित कयलनि अछि । विद्यापतिक श्रृंगार संबंधी पदावली मे मान वर्णन अपन विशेष स्थान रखैत अछि । मानक विविध रूप, विभिन्न स्थिति ओ वर्णनक चातुर्य हिनक वर्णनक वैशिष्ट्य थिक ।

विद्यापतिक पदावली मे भक्ति भावना





विद्यापतिक पदावली में एहन अनेक पद अछि जे भक्ति भावना से ओत-प्रोत अछि । प्रायः विद्यापतिक प्रत्येक पदावलीक प्रारम्भ भगवतीक गीत सँ कएल गेल अछि:

जय जय भैरवि असुर भयाओनि पसुपति भामिनि माया ।
सहज सुमति वर दिअ हे गोसाओनि अनुगति गति तुअ पाया ।
घन घन घनन घुघुरू कत बाजए हन हन कर तुअ काता,
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक पुत्र विसरि जनु माता ।

विद्यापतिक कथन छनि जे ब्रह्मा आ सावित्रीक जन्म सेहो शक्तिएं सं भेलनि इएह दुनू मिलि कय वेद (ज्ञान) क प्रचार-प्रसार कएलनि । एहि हेतु चारू वेदक रूपमे शक्तिए प्रकट भेल छथि:

जय जय भगवति भीमा भयानी ।
चारि वेदे अवतरू ब्रह्मवादिनी ।
हरिहर ब्रह्मा पुछइते भने ।
एकओ ने जान तुअ आदि मरमे ।

कवि अपन अनेक पदमे राधा-कृष्णक नख-शिख वर्णन कयने छथि । ओ सभ पदके ग्रियर्सन वैष्‍णव पद कहैत छथि :

It now remains to consider the matter of vidyapati's poems. They are nearly all vaishnava hymns or Bhajans ........

वास्तव में विद्यापति राधा-कृष्णक भक्त छलाह:

विद्यापति एहो भाने, गुजरि भजु भगवाने ।

पुनश्च-

भनहि विद्यापति सुनु वर जोवति हरिक चरण करू सेवा ।

पुनश्च

धन्य धन्य तोर भाग गोआलिनि हरि भजु रुपय हुलसिया । ।

एतबय नहि विद्यापति का दृढ़ विश्वास छलनि व ज कपट छोड़ि कय कृष्णक भजन कयल जायत तँ अन्तमे मुक्ति अवश्यम्भावी अछि:

भनहि विद्यापति सुनहे सुचेतनि हरि सओ कइसन मान है ।
कपट तेज कए भजह जे हरि सजे अन्तकाल होए ठाम है ।

एहि प्रमाणक अतिरिक्त एकटा आरो स्पष्ट प्रमाण पदावलीमे अछि जे विद्यापति कृष्णक भक्त अवश्य छलाह । ओ अपन जीवनक अन्तिम समय मे पश्चाताप भरल विनयमे कष्णकेँ सम्‍बोधन कयलनि अछि । हाथमे तुलसी आ तिल लय ओ हुनके चरण पर राखैत छथि । किएक तँ भव सागर सँ उद्धार वएह कय सकैत छथिः

संसारक नश्वरता विद्यापतिक हृदयकेँ निर्वेद सँ भरि देछ । ओ पश्चाताप आ आत्मग्लानि व्यक्त करैत भगवान कृष्ण सँ अपन उद्धारक प्रार्थना करैत छथि । हम अहाँक शरण मे छी । अहाँक अतिरिक्त हमरा हेतु कतहु गति नहि अछि । अहीं अनाथक नाथ कहबैत छी । अतएव हमरो उद्धारक भार अहीं पर अछि । कवि-कृष्णक सौन्दर्य के अनुपमेय कहैत छथि:

माधव कत तोर करब बड़ाइ ।
उपमा तोहर कहव ककरा हम, कहितहुँ अधिक लजाई ।
जौ श्रीखंड सौरभ अति दुरलभ, तौँ पुनि काठ कठोरे ।

ई कृष्ण कीर्तनक श्रेष्ठ गीत थिक । कवि ठीक ओहिना राधाक अपार आ अनन्त सौन्दर्य-राशिक वर्णन कय हुनक वन्दना कयलनि अछि:

देख देख राधा रूप अपार ।
अपरूप के बिहि आनि मिलाओल,
खिति-तल लावनि-सार । ।
अंगहि अंग-अनंग मुरझाएत,
हेरए पड़ाए अधीर ।

भक्तकवि विद्यापति कहैत छथि जे जहिना राधाक रूप के देखि नहि जानि कतेक अपार सौन्दर्यमयी लक्ष्मी सेहो आत्मविभोर भय हुनक चरण-तल पर अपना का समर्पित कय देत छथि‍ तहिना हमर मोन हुनका चरण कमल पर राति-दिन लागल रहैत अछि । कविक जानकी वन्दना देखूः

रे नरनाह सतत भजु ताहि, जाहि नहि जननि जनक नहि जाही । ।
वसु नइहरवा ससुरा के नाम, जननिक सिर चढ़ि गेलि ओहि गाम । ।

एहि पदमे विद्यापति सीताजीकेँ पृथ्वी सँ जन्म, सासुर आ पुनः पृथ्वी मे समा जयबाक वर्णन करैत छथि । एहि पदमे सीताजी सँ संबंधित पौराणिक कथाक समावेश कयल गेल अछि ।

विद्यापतिक सब सँ बेसी पद शिव विषयक छनि । शिवक प्रति लिखल पद प्रार्थना आ नचारीमे ओ शिव आ पार्वतीक स्तुति भाव-विभोर भय करैत छथि:

जय-जय संकर जय त्रिपुरारि
जय अध पुरूष जयति अध नारि । ।

विद्यापतिक शिव आ विष्णु एक छथि:

भल हरि भल हर भरल तुअ कला ।
खन पीत वसन खनहि बघशला ।
खन पंचानन खन भुज चारि ।
खने संकर खन देव मुरारि ।

शिवजीक प्रति लिखल गेल पदमे तँ कविक भाव-तन्मयता एवं देन्य भावनाविशेष मुखरित भेल अछि । किएक ते ओ शिवक भक्त छलाह:

हरि नहि बिसरब मो ममिता
हम नर अधम परम पतिता ।
जम के द्वार जवाब कओन देव ।
जखन बुझत निज गुन कर बतिया ।

कवि विद्यापति एक पद में गंगाक पौराणिक उत्पत्तिक वर्णन करैत छथि:

ब्रह्म कमंडल यास सुवासिनि, सागर नागर गृह वाले ।
पातक महिष विदारण कारण, धृत करवाल बीचि माले ।

क्रमशः देखू कविक गंगा स्तुति:

बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे ।
छोड़इत निकट नवन वह नीरे ।

एतय कविक गंगाक प्रति हार्दिक भक्ति-भावना प्रदर्शित अछि । विद्यापति अपन अंतिम समय जानि कय गंगाक दर्शन हेतु चलि देल । शारीरिक विवशताक कारण तट धरि नहि पहुँच सकलाह । हनका तखन गंगा क दर्शन सँ पहिनहि रूकय पड़लनि । कहल जाइछ जे ओतहि प्रस्तुत पदक सृजन कयल । ओ कहैत छथि जे हे ज्ञानमयी मातेश्वरी! हम अहाँक जगक स्पर्श पैर सँ कयने छी । अंहाँ हमर एहि अपराध के क्षमा कय देव । हमरा तँ बुझाइत अछि जे जप तप ध्यान आदि सभ व्यर्थ थिक । एहिसँ कोनो लाभ नहि भेल । किएक त अहाँक जल मे एक बेरि स्नान कएला-सँ जीवन कृतार्थ भय जाइत छैक । तँ हम अहाँक बारम्बार प्रार्थना करैत छी जे अन्तिमकाल हमरा बिसरि नहि जायय ।

कहल जाइत अछि, जे गंगा महाकवि विद्यापतिक भक्ति भावना सँ प्रसन्न भय स्वयं पहुचि गेलथिन । ओतहि हुनक-कल कल करैत जलधारामे विद्यापति प्राण त्याग कयलनि । बादमे ओतय स्वयं शिवलिंग उदित भेल छल । वर्तमान मे ओतय शिवमंदिर विराजमान अछि । ओहि स्थानक नाम विद्यापति नगर पड़ल अछि । विद्यापतिक भक्‍ति‍ पद सभक अवलोकन सँ ज्ञात होइत अछि जे ओ हिन्‍दू देवी-देवताक यथार्थ रूपसँ परिचित छलाह । हुनक रचनामे कोनो देवी-देवताक लेल भेद-भावना नहि छल । ओ अपन देवी देवताक समग्र रूपें वर्णन केने छथि ।


विद्यापतिक पदावली मे श्रृंगार भावना




महाकवि विद्यापति मुख्यतः श्रृंगार रसक कवि छथि । हुनका प्रेम आ सौन्दर्यक कवि आ जीवनक राग, रंग आ रसक गायक कहल जाइत छनि । हुनक श्रृंगारिक वर्णन पर दू प्रकार पूर्ववर्ती ग्रन्‍थक प्रभाव अछि- 1. शास्त्रीय ग्रन्थ 2. काव्य ग्रन्थ । शास्त्रीय ग्रन्थ मे छहटा सामुद्रिक कामशास्त्र आ काव्यशास्‍त्रक ग्रन्थ । कामशास्‍त्रक ग्रन्थमे काम सूत्र, रति रहस्य, अनंग रंग तथा नगर सर्वस्य । ई ग्रंथ विशेष सँ कामिनी लक्षण आ कन्या विश्रम्भण क उल्लेख करयवला अछि । काव्य ग्रंथ अनेक अछि । यथा-गीत गोविन्द, अमरूक शतक, गाहा सत्तसइ । विद्यापति स्वयं अपन रचनाक उद्देश्य प्रकट करैत कहैत छथिः

'रस सिंगार सरस कवि गाओल'

पुनश्च:

'सुरत रस रंग संसार सारा'

कीर्तिलतामे श्रृंगार रस के कवि सर्वश्रेष्ठ कहलनि अछि:

कवि मह नव जयदेव कवि
रसमह एहु सिंगार,
...तीनिजु त्रिभुवन सार । ।

तेँ तं श्रृंगार रस रसज्ञ कवि विद्यापति नीबि बंध खोलबाक आधारक श्रेय अपन आश्रय दाता आ नायककेँ देत छथि । एहन कामुक पुरुषकेँ चतुरा नायिका हाट-बाजारमे या बार चलैत अपन क्रीत दास बनाय लैत छलि । ऑखिक मटको पावि कय पुरुष अपनाके ओहि रमणी हाथै बेचि दैत छल । आ ई सौदा समाज में नुकाय कय नहि, समाजक लोकके गवाही राखि कय तय होइत छलैक । एहि भौतिक क्रय-विक्रयक एक चित्र देखः

बड़ कौशलि तुअ राधे । फिनल कन्हाइ लोचन आधे ।
प्रातुपति हटबइ नहि परमादी । मनमथ मधथ उचित मुलवादी । ।
द्विज पिक लेखक मसि मकरनन्दा । काँप भमर पद साखी चन्दा ।
बहि रति रंग लिखापन माने । श्री शिव सिंह सरस कवि भाने ।

वन, कथन अछि:- 'निवि बंध करल उदेस विद्यापतिक मनोरथ सेस ।' ओ श्रृंगार रसक आ विप्रलम्भ दूनू प्रकारक वर्णन कयने छथि । हुनक श्रृंगार रसक अन्तर्गत वय सन्धि, नख-शिख, सधःस्नाता, दूती, नोक-झोंक, सखी, मिलन, सखीशिक्षा, सखी-संभाषण, कौतुक, अभिसार, छलना, मान, मानभंग, विदग्ध विलास, विरह- भावोललास, वसन्त आदि अबैत अछि ।

विद्यापति राधा-कृष्णक प्रेम-लीलाक वर्णन करबाक हेतु श्रृंगार रस का माध्यम बनौने छथि । ओ सौन्दर्यक वाह्य आ आभ्यान्तर दूनू रूपक वर्णन केलनि अछि । हुनका द्वारा वाह्म सौन्दर्य-वर्णनक अन्तर्गत विभिन्न अंगक वर्णन कयल गेल अछि । ओ आभ्यान्तर सौन्दर्यवर्णनक अन्तर्गत अपन मनोवैज्ञानिक ज्ञानक आधार पर नायिकाक मोन में उठयवला विभिन्न भावक उद्घाटन कयने छथि ।

नायिकाक बाह्य सौन्दर्य मे नख-शिख वर्णन, वेशभूषा, सुकुमारता, आकृति-प्रकृति आदिक वर्णन भेल अछि । नख-शिखक सम्बन्ध लौकिक आलम्बन से होइत छैक । विधापतिक सौन्दर्य वर्णनक सभसँ पैघ विशेषता थिक विम्‍ब । नायिकाक अनुपम रूप-भावक अवतारणा करैत ओ लिखैत छथि जे रूपसीक स्वाभाविक मुस्कुराहट प्रसन्न मुख-मण्डलक झांकी हृदयकेँ पुलकायमान करयबाला अछि । ओकर झलक मात्र सँ मुख-मदिराक तरल तरंग उठय लगैछ । आकाश आ पातालक दूरी पर रहयवाला चन्द्रमा आ कमल एक संग फुलाइत अछि आ दूनू एक भय जाइछः

सहज प्रसन मुख दरस हृदय सुख लाचन तरल तरंग ।
आकाश पाताल बस से जो कइसे भेल रस चाँद सरोरूह संग ।

एतय श्रृंगार रसक भावानुभाव, संचारी भावक अभिव्यक्ति करैत श्रृंगार रसक सजीव वर्णन भेल छैक । प्रत्येक शब्द रति-स्थायी भाव के उदीप्त करयवाला अछि । एक पद में कविक रूपकातिशयोक्ति अलंकारक आधार पर देखूः

पल्लवराज चरन-युग सोभित, गति गजराजक भाने
कनक कदलि पर सिंह समारल ता पर मेरू समाने

नारी सौंदर्यक केन्द्र बिन्दु उरोज अछि । उरोजक वर्णन मे विद्यापति सर्वप्रथम स्थान पर आसीन देखल जाइछ । यथा ---

1) पीन पयोधर दूबरिगता ।
मेरू डपजल कनकलता ।

2) कुच युग परसि चिकुर फुजि पसरल ता अरुझायल हारा ।
जनि सुमेरू ऊपरमिलिउगल चाँद बिहिन सय तारा ।

अस्तु विद्यापति काव्य में वर्णित उरोज नारी-सौन्दर्य, आसक्ति, भोग आ प्रेमक केन्द्र अछि । हुनक उरोज सम्बन्धी परिकल्पना श्रृंगारक उच्चतम सीमा स्पर्श करैछ ।

किशोर एवं यौवनक संधि बेला मे युवक युवतीक एक विलक्षण दशा भय जाइछ । युवतीक काया में अज्ञात रूप से अनंग प्रवेश कय उत्पात करय लगैत अछि । अंग-पप्रत्यंग मे काम भावनाक आगमन सँ शरीरक विभिन्न अंग में परिवर्तन होमय लगैछ । परिवर्त्ततक कारण रतिक प्रवेश अछि । अपनहि अंग के देखि आश्चर्यित भय जाइछ । कवि विद्यापति नायिकाक उरोज मे श्रृंगारक प्रवेश कराय नायिका के श्रृंगारिक बना दैत छथि ।

सैसव यौवन दुहु मिलि गेल
श्रवणक पथ दुहु लोचन लेल ।

काम प्रवेश सं वयः सन्धिक नायिकाक उरोज उपर बढ्य लगैछ । ओ अपन स्तनकेँ कखनहु देखैत अछि त क्षणहि झापि दैत छैक । ओकर परेशानी बढ़ि जाइछ । शरीरक एक अंग दोसर अंगकेँ अपन अधिकार मे लय लैत अछि:

मदनक भाष पहिल परचार,
भिन जन देल भिन्न अधिकार ।
कटिक गौरव पाओल नितम्ब,
एकक विकास अओक अवलम्ब ।
प्रकट हास अब गोपुत भेल,
उरज प्रगट अब तन्हिक लेल ।

विद्यापति अंजन अंजित सुन्दरीक आँखिक वर्णन एहि प्रकारक अधि:

चंचल लोचन बान्धे निहारए अंजन शोभा ।
जनि इन्दीवर पवले पेखल अलि भरे उलटाय
उनत उरोज चिरे झपावस पुनपनु दरसाय ।
जइओ जतने पिआए चाहत हिमगिरि न नुकाय ।

एहि प्रकार से कवि मनोवैज्ञानिक प्रभावक रसमय लक्षणक काव्यात्मक विवेचन कय नायिकाक हृदय के कामुक बनेयाक चेष्टा कयलनि अछि ।

विद्यापतिक सघःस्नाता जे मुनि पर्यन्तक मोन मे कामदेव के जगाय दैत छधिः

कामिनि करए सनाने हेरितहि हृदय हनए पंचवाने ।
चिकुर गरए जलधारा । जनि मुख-ससि उर रोआए अंधारा ।
कुच-जुग चारू चकेवा । निअ कुल मिलिअ आनि कोन देवा ।
तें सका भुज-पासे बाधि धएल उड़ि जाएत अकासे ।
तितल बसन तनु लागु । मुनिहुफ मानस मन्मथ जागु ।

विद्यापतिक वर्णनकेँ इएह विशेषता छनि जे ओ जे कोनो वर्णन करैत छथि, ओकर साकार-प्रतिमा पाठकक समक्ष प्रस्तुत कय दैत छथि । हमरा लगैत अछि जे विद्यापति श्रृंगारिक सधः स्नाताक वर्णन कए विद्यापति अपन आश्रयदाता शिवसिंह का दिल्लीश्वरक कैद सं छोड़ाय अनने छलाह । कवि अपन कल्पना जगत मे सेहो काम भाव जगाय देत छथि:

सजनी निहुरि फूकू आगि ।
तोहर कमल भमर मोर देखल
मदन उठल जागि ।
जौ तोहे भामिनि भवन जएवह
ऐबह कोन बेला ।
जौं एहि संकट सौ जिव बाँचत
होयत लोचन मेला ।

एक दोसर सद्य स्नाताक कुच ट्वय पर भीजल वस्त्र एना लगैत अछि जेना कनकलता पर हिम पसरल हो । ओ (वस्त्र) के नायिका स ततेक प्रेम भय गेल छेक जे ओ अपना के ओकरा स्नेह सँ विमुक्त नहि होमय चाहेछ । एतय वस्त्रक मानवीकरण कय देने छथि:

....न जाइत पेखाल नहाएलि गोरी । .
....... सजल चीर रह पयोधर सीमा ।
कनक-बेल जनि पड़ि गैल होमा ।
ओ नुकि करतहि चाहि किए देहा ।
अबहि छोड़व मोहि तेजब नेहा ।

प्रेम-प्रसंग- प्रेम प्रसंग मे राधा-कृष्ण (नायक-नायिका) क परस्पर प्रेम प्रसंगक वर्णन में श्रृंगार रसक समावेश स्वतः भय जाइछ । एक दोसर का देखला से मनसिज जागि जाइछ प्रेम-लीला शुरू भय जाइत अछि:

पथ गति मिलल राधा कान ।
दुहु मन मनसिज पूरल साधा
दुहु मुख हेरइत दुहु भेल भोर ।
समय ने बूझए अचतुर चोर ।
विदगधि संगिनि सय रस जान ।
कुटिल नयन कयलन्हि समधान ।

सखी शिक्षा-

परकीया नायिकाक समागम करेबा मे सखीक बहुत पैघ हाथ रहैछ । काम-कला निष्णात सखीएटा एहि प्रसंग मे अपन योगदान कय सकैत अछि । प्रथम समागम सँ पहिने नायिकाक अपेक्षा नायकक हृदय में बहुत बेचौनी रहैछ । ओ रति क्रीडाक सोपान पर सर्वप्रथम चढ़त, एहि हेतु 'की होयत' एहि सँ भयभीत रहैत अछि । एहन परिस्थिति में कामकला विशारद सखी रति-क्रीड़ाक पाठ पढ़ाय नायिकाकेँ तैयार कय दैछ । प्रस्तुत प्रसंग में राधाकेँ सखी बुझाय रहल छथि जे प्रथम समागमक अवसर पर नायकक संग केहन व्यवहार करवाक चाही:

प्रथमहि अलक तिलक लेब साजि ।
चंचल लोचन काजर आजि ।

सब शिक्षा देलाक बाद सखी कहैत छथि जे जखन रति-लीला करबाक अवसर आयत तखन कामदेव स्वयं गुरू यनि एकर भेद कहत । एक पद मे सखी कामदेवक संग कोना दोकानदारी करबाक चाही तकरो प्रेरणा नायिका के देल जाइछ:

सुनु सुन्दरि नव मदन पसार, जन गोपह आओब बनिजार ।
रोस दरस रस राखब गोए, धएले रतन अधिक मूल होए ।

एक अन्य पद मे सखी नायि‍काक शिक्षा दैत छथि जे जेना लोक तीत औषध खाइत अछि आ बीमारी सँ त्राण पाबैत अछि तहिना सुरत रसक आनन्द प्राप्त करवाक हेतु बिना दु:ख अपनौने सुख नहि होयत । एक क्षणक प्रथम समागम मे किछु पीड़ा होइत छैक, मुदा तत्पश्चात सुख-सुख-होयत -

तिल आध दूख जनम भरि सूख ।
इथे लागि धनि किए होइ विमूख ।
तिल एक मूनि रहु दुई नयान ।
रोगि करइ जइसे औषध पान ।

मिलन-

मिलन प्रसंग मे सरस कवि विद्यापति नायक-नायिकाक प्रथम समागमक मनमोहक वर्णन कयने छथि । सखी द्वारा नायिका के जबर्दस्ती विलास भवन मे नायकक लग पहुँचा देल जाइछ ।

सुन्दरि चललिहु पहु घर ना ।
चहु दिस सखी सब कर धर ना ।
जाइतहि हार टुटिए गेल ना ।

अभिसार-

विद्यापति नायिकाक काम भावना शान्त करवाक हेतु दिन रातिक्‍ अन्तर विसरि जाइत छथि । तँ ओ कृष्णाभिसारिका, शुक्लाभिसारिका, दिवसाभिसारिका श्रृंगारिक वर्णन कयने छथि । कामशास्त्र मे वर्णित अभिलाषा, चिन्ता, गुण कथन, स्मरण, उद्देग, प्रलाप आदि विरह दशाक वर्णन सेहो विद्यापतिक पदावली मे उपलब्ध अछि । यथा

स्मरण-कतदिन चाँद कुसुम हव मेलि ।
कतदिन कमल -भ्रमर करू कॅलि ।

एहि रूप से विद्यापति मान भंग, नोंक झोंक आदि मे श्रृंगार रसक निर्झरिणी यहि गेल अछि ।

उपरोक्‍त विवेचनक आधार पर कहल जा सकैत अछि जे विद्यापति एकटा शृंगारिक कवि छलाह आ हिनक पदमे शृंगारिक भाव कुटि-कुटिकए भरल छल ।

Wednesday, April 13, 2022

तिरहुता लिपिक महत्व




सभ्य मानव आ लिपिक बहुत पुरान संबंध रहल अछि । लोकक समझ, इच्छा, भाव आदिक अभिव्यक्ति करैत अछि । एहि अभिव्यक्तिक सभक सुरक्षित रखबाक लेल मानव शुरूए सँ एकगोट स्मृति, चेन्ह, साधन आ माध्यमक रूपमे प्रयोग करैत रहल अछि । जे पहिने चित्राक्षर, पुनः मानव समाजक प्रगतिक संगे प्रतीकाक्षरक रूपमे विकसित भेल जे वस्तुतः मानव सभ्यताक विकासक परिचायक थिका तेँ लिपिक अपन विशिष्ट महत्व अछि।

तिरहुता वा मिथिलाक्षरक एकटा दीर्घ इतिहास आ पंरपरा रहल अछि । एहि लिपिक उद्भवक आधार जं ब्राह्मी लिपि आदि तऽ एकर निर्माण आ विकास मनुष्यक विविध अंगक, आकार, वैदिक कर्मकाण्डमे व्यवहार कवल गेल मंडप, त्रिकोण, चतुष्कोण आ तांत्रिक प्रयोगक वस्तुसभक आधारपर भेला जे एक तरहें मिथिला संस्कृतिक प्रतिनिधित्व सेहो करैत अछि ।

तिरहुताक किछु विलक्षणता एकरा महत्‍वपूर्ण बनाबैत अछि जेना- एकर चित्राकार रूप एकरा अनेको लिपिस सरल, सुबोध आ सुन्दर बनाबैत अछि । एकर चित्रात्मकता एकर प्राचीनताके सेहो प्रमाणित करैत अछि ।

मिथिलाक्षर त्रिकोण वा चतुष्कोण आकार होयबाक कारणे लिखबामे विशेष सुलभ अछि । नागरादिक लिपिक वर्ण वृत्ताकारक होइत अछि तथा एकटा त्रिभुज बनयबाक अपेक्षा एकटा वृत्र बनायब अवश्य कठिन होइत अछि ।

जेना

देवनागरी : द, ध, प, ब, य, र ष, तिरहुता : मैथिलीक मात्रक हेतु अपन एहन सुलभ एवं सुन्दर लिपिक उपयोग करैत रहब नितान्त आवश्यक अछि । अपन संस्कृतिक संवर्द्धनक हेतु, अपन पूर्वजक द्वारा मिथिलाक्षरमे लिखित पोथीक अध्ययन हेतु ओकरा रोज पढ़बाक चाही, एहि लिपिसँ मिलैत जुलैत अन्य लिपि, यथा, बंगला, असामी, उड़ियाक सिखबाक हेतु तथा अपन प्रतिष्ठाक रक्षा हेतु प्रत्येक मैथिलक ई परम कर्त्तव्य अछि जे ओ अपन लिपिक संबंधमे पर्याप्त ज्ञान अर्जित कय ओकर निरंतर व्यवहार करथि । विशेषस विशेष व्यक्ति द्वारा एकर उपयोग भेने लिपिमे चिकनाहटि अऔतैक, ओकर क्लिष्टता हटतेक । मैथिली भाषाक चिरध्यायी एवं स्वतंत्र अस्तित्व बनओने रखवाक हेतु आत्मनिर्भर रहब आवश्यक अछि आ ताहि हेतु प्रयोजन अछि अपन लिपिक निरंतर व्यवहार ते मैथिल लोकनिक अपन लिपिक अपन अन्तर्दृष्टिस ओझन नहि करबाक चाही । ई गप कखनो नहि विसरबाक चाही जे भोजपुरी, अवधी, ब्रज, मगही भाषाक बीच जखन मैथिलीके आठम अनुसूची मे शामिल कयल गेल तखन सबसँ प्रमुख कारण बनल एकर अपन स्वतंत्र लिपि होयब, जे तिरहुता अछि ।