Sunday, September 26, 2021

सोनवर्षा के गंधवरिया राजवंश का इतिहास




बिहार के इतिहासकारों ने बिहार के इतिहास को लिखते समय इतने निष्‍ठुर बन गए कि बिहार के हरेंक चौक पर शि‍वाजी महाराज की मूर्ती तो स्‍थापित हो गई लेकिन अपने यहाँ के एक भी वीर और प्रतापी राजा का वर्णन करने में अपनी तंगदिली दिखाई । दरभंगा महाराज के चर्चे भी कुछ ही किताबों में नजर आते हैं । ऐसे में उन छोटे राजे-रजवाड़ों का इतिहास दफन होना लाजिमी है। इतिहासकारों ने इतनी निष्‍ठुरता दिखाई की उन्‍होने एक ऐसे राजवंश को इतिहास में लिखना ही भूल गए जिनकी चौहद्दी उत्‍तर बिहार के लगभग 5 जिलों में थी । जी हाँ हम बात कर रहे हैं गन्‍धवरिया राजवंश की । इतना समृद्ध और शक्‍ति‍शाली राजवंश होते हुए भी इतिहास में इनकी चर्चा न के बराबर है । कुछेकु छोट-छोट इतिहसाकार ने इन्‍हे संकलित करने का प्रयास भी किया है तो बड़े लोगों ने इनके अस्‍ति‍त्‍व को ही नकारने का प्रयास किया । लेकिन आज भी दुर्गापुर भद्दी से भीठभगवानपुर होते हुए सोनवर्षा तक इनका फैलाव इतिहासकारों को सोचने पर विवश करता है ।


स्व. श्री राधाकृष्ण चौधरी के अनुसार – स्वर्गीय पुलकित लाल दास ‘मधुर’ जी ने अथक परिश्रम करके गन्धवरिया के इतिहास को लिखकर श्री भोला लाल दास जी के यहॉं प्रकाशन के लिए भेजे थे । किसी कारणवश यह पाण्डुलिपी (जो कि उस समय जीर्णावस्थामें में था ) प्रकाशि‍त नहीं हो सका । फिर बहुत दिनों के बाद ये पाण्डुलिपी श्री चौधरी जी को प्राप्त हुआ । उनके अनुसार ये इतिहास किंवदंती के आधार पर लिखा गया था । क्योंकि गंधवरिया के विषय में कहीं भी कुछ भी प्रामाणि‍क इतिहास सामग्री नही है । सोनवर्षा राज के केस में गन्धवरिया का इतिहास दिया गया है लेकिन उसमें से जो गन्धवरिया के लोग सोनवर्षा राज के विरोध में गवाही दिये थे उनमें से एक प्रमुख व्यक्ति‍ स्वर्गीय श्री चंचल प्रसाद सिंह मरने से पहले श्री राधाकृष्ण चौधरी से मिले थे । उन्होंने व्यक्त‍िगत रूप से ये कहा था कि उनका बयान जो उस केज में हुआ था से एकदम उल्टा है । इसलिए गन्धवरिया के इतिहास के लिए उसका उपयोग करते समय उसको रिभर्स करके पढ़ा जाय । उसी केस में एक महत्वपूर्ण बात ये मिला जो गन्धवरिया के द्वारा दिया गया दानपत्र था । जिसमें से कुछ चुने हुए दानपत्र के अंग्रेजी अनुवाद का अंश ‘हिस्ट्री ऑफ मुस्लिम रूल इन तिरहूत’ में प्रकाशि‍त किया गया है । सहरसा जिला में गंधवरिया वंश का इतना प्रभूत्व था तब भी उसका कोई उल्लेख ना ही पुराने वाले भागलपुर गजेटियर में है ना ही जब सहरसा जिला बना और उसका नया गजेटियर बना तब भी उसमें गन्धवरिया राजवंश की चर्चा मात्र एक पाराग्राफ में हुई । इस संबंध में बाबू धीरेन्‍द्र नारायण सिंह ने अथक प्रयास से जो गंधवरिया राजवंश की वंशावली एकत्र की है वो स्‍तुत्‍य है ।



गंन्धवरिया लोगों का गन्धवारडीह अभी भी शकरी और दरभंगा स्टेशन के बीच में है और वहां वो लोग अभी भी जीवछ की पूजा करते हैं । गंधवरिया डीह पंचमहला में फैला हुआ है । ये पंचमहला है – बरूआरी, सुखपुर, परशरमा, बरैल आ जदिया मानगंज । इन सबको मिलाकर पंचमहला कहा जाता है ।


दरभंगा विशेषत: उत्तर भागलपुर (सम्प्रति सहरसा जिला ) में गन्धवरिया वंशज राजपूत की संख्या अत्याधि‍क है । दरभंगा जिलांतर्गत भीठ भगवानपुर के राजा साहेब तथा सहरसा जिलांतगर्त दुर्गापुर भद्दी के राजा साहेब और बरूआरी, पछगछिया, सुखपुर, बरैल, परसरमा, रजनी, मोहनपुर, सोहा, साहपुर, देहद, नोनैती, सहसौल, मंगुआर, जम्‍हरा, धवौली, पामा, पस्तपार, कपसिया, विष्णुपुर एवं बारा इत्यादि‍ गॉव बहुसंख्यक छोटे बड़े जमीन्दार इसी वंश के वंशज थे । सोनवर्षा के स्वर्गीय महाराज हरिवल्लभ नारायण सिंह भी इसी वंश के राजा थे । ये राजवंश बहुत पुराना था । इस राजवंश का सम्बन्ध मालवा के सुप्रसिद्ध धारानगरी के परमारवंशीय राजा भोज देव के वंशज से है । इस वंश का नाम ‘’गंधवरिया’’ यहाँ आ के पड़ा है । राजा भोज देव की 35वीं पीढ़ी के बाद 36वीं पीढ़ी राजा प्रतिराज साह की हुई । एक बार राजा प्रतिराज सिंह अपनी धर्मपत्नी तथा दो पुत्र के साथ ब्रह्मपुत्र स्नान के लिए आसाम गए थे । इस यात्रा से लौटने के क्रम में पुर्ण‍ियॉं जिलांतगर्त सुप्रसिद्ध सौरिया ड्योढ़ी के नजदीक किसी मार्ग में किसी संक्रामक रोग से राजा-रानी दोनों को देहांत हो गया ।



सौरिया राज के प्रतिनिधि‍ अभी भी दुर्गागंज में है । माता-पिता के देहांत होने पर दोनों अनाथ बालक भटकते-भटकते सौरिया राजा के यहॉं उपस्थ‍ित हुए, और अपना पूर्ण परिचय दिए । सौरिया राज उस समय बहुत बड़ा और प्रतिष्ठि‍त राज था । उन्होंने दोनो भाईयों का यथोचित आदर सत्कार किया । और अपने यहाँ दोनों को आश्रय प्रदान किये । बाद में सौरिया के राजा ने ही दौनों का उपनयन (जनेउ) संस्कार भी करवाया । उपनयन के समय उन दोनों भाईयों का गोत्र पता नहीं होने के कारण उन दोनों भाईयों को परासर गोत्र दियें जबकि परमार वंश का गोत्र कौण्ड‍िल्य था । दोनो राजकुमार का नाम लखेशराय और पखेशराय था । दोनों वीर और योद्धा थे । सौरिया राज की जमीन्दारी कुछ-कुछ दरभंगा में भी पड़ता था । किसी कारण से एकबार वहां युद्ध शुरू हो गया । राजा साहेब इन दौनो भाईयों को सेनानायक बनाकर अपने सेना के साथ वहां भेजे । कहा जाता है कि दोनो भाई एक रात किसी जगह पर विश्राम करने के लिए रूके थे कि नि:शब्द रात में शि‍विर के आगें कुछ दूरी पर एक वृद्धा स्त्री के रोने की आवाज उन दोनों को सुनाई दी । दोनो उठकर उस स्त्री के पास गए । रोने का कारण पुछा । उस स्त्री ने बताया कि ‘’ हम आपदोनों के घर के गोसाई भगवती हैं । मुझे आपलोग कही स्थान (स्थापित कर) दे‘’ । इस पर उन दोनो भाईयों ने कहा हम सब तो स्वयं पराश्रि‍त हैं । इसलिए हमलोगों को वरदान दीजिए कि इस युद्ध में विजयी हो । कहा जाता है उस स्त्री ने तत्पश्चात उन दोनों भाईयों को एक उत्तम खड़ग प्रदान किया, जिसके दोनों भागपर सुक्ष्म अक्षर में संपुर्ण दुर्गा सप्तशती अंकित था । ये खड़ग पहले दुर्गापुर भद्दी में था । उसके पश्चात सोनवर्षा के महाराजा हरिवल्लभ नारायण सिंह उसे सोनवर्षा ले आएं थे । उस खड़ग में कभी जंग नहीं लगता था । वो खड़ग एक पनबट्टा (पानदान – पान रखने का बॉक्स) में मोड़ कर रखा जाता था । और खोल कर झाड़ देने से एक संपुर्ण खड़ग के आकार में आ जाता था । उस खड़ग और देवी की महिमा से दोनो भाई युद्ध में विजयी हुएं । पुरा रणक्षंत्र मुर्दों से पट गया और लाश की दुर्गन्ध दूर-दूर तक व्याप्त हो गई । इससे सौरिया के राजा बहुत प्रसन्न हुए और इस वंश का ना ‘’गन्धवरिया’’ रख गया । यहाँ एक किवदन्‍ती और भी है कि इन्‍होने गन्‍ध अर्थात मलेच्‍छो के साथ युद्ध किया था और उनका अंत किया था इसलिये इनका नाम गंधवरिया हुआ । ये युद्ध दरभंगा जिलांतर्गत गंधवारि नामक स्थान में हुआ था । गंधवारी और कई और क्षेत्र इन लोगों को उपहार में मिला । लखेशराय के शाखा में दरभंगा जिलांतर्गत (अभी का मधुबनी) भीठ भगवानपुर के राजा निर्भय नारायणजी हुए । और पखेशराय के शाखा में सहरसा के गन्धवरिया जमीन्दार लोग हुए । सहरसा का अधि‍कतर भूभाग इसी शाखा के अधीन था । दुर्गापुर भद्दी इसका प्रमुख केन्द्र था ।



पखेशराय को चार पुत्र हुए । लक्ष्मण सिंह, भरत सिंह, गणेश सिंह, वल्लभ सिंह । बाबू गणेश सिंह और बाबू वल्लभ सिंह निसंतान हुए । बाबू भरत सिंह के शाखा में धवौली की जमीन्दार आई । लक्ष्मण सिंह के शाखा में सिहौल आया । लक्ष्‍मण सिंह को केवल एक पुत्र हुआ जिनके हिस्‍से में सिहौल आया । राजा नरसिंह सिंह को तीन पुत्र हुए – राजा रामकृष्ण सिंह, बाबू निशंक सिंह और बाबू माधव सिंह । इसमें माधव सिंह मुसलमान हो गए और नौहट्टा के शासक हुए । ‘निशंक’ के नाम पर निशंकपुर कुढ़ा1 परगना का नामकरण हुआ । पहले इस परगना का नाम सिर्फ ‘’कुढ़ा’’ था बाद में उसमें‍ निशंकपुर जोड़ा गया । बाबू निशंक सिंह को चार पुत्र हुए – बाबू दान सिंह, बाबू दरियाव सिंह, बाबू गोपाल सिंह और बाबू छत्रपति सिंह । बाबू दरियाव सिंह के शाखा में बरूआरी, बाबू दानी सिंह की शाखा में परसरमा, बाबू गोपाल सिंह की शाखा में गोवड़ गढ़ा और बाबू छत्रपति सिंह की शाखा में कुमार डीह के गन्‍धवरिया आएं । इधर राजा रामकृष्‍ण सिंह को चार पुत्र हुए । राजा रंजीत सिंह, राजा वसन्‍त सिंह, राजा वंशमणी सिंह और राजा धर्मांगद सिंह । इनके हिस्‍से क्रमश: सिहौल, दुर्गापुर भद्दी, सुखसेना गढ़ी और मानगंज आया ।


वसंत सिंह को जहाँगीर से राजा की उपाधि‍ मिली थी । राजा वसंत सिंह गंधवरिया से अपने राजधानी हटाकर सहरसा जिला में वसंतपुर नामक गाव में बसाएं और वहीं अपनी राजधानी बनाएं । वसंतपुर मधेपुरा से 18 से 20 मील पुरब है । वसंत सिंह को चार पुत्र हुए – राजा रामशाल, राजा वैरिशाल, बाबू कल्याण शाल, बाबू गंगाराम शाल । पहले बेटे का शाखा नहीं चला वो निसंतान हुए । वैरिशाल राजा हुए । बाबू कल्याण सिंह के शाखा में रजनी की जमीन्दारी आई । और बाबू गंगाराम सिंह के शाखा में बारा की जमीन्दारी आई । इन्होंने अपने नाम पर गंगापुर की तालुका बसाई । वैरीशाल को दो रानी हुए । जिसमें पहले वाली पत्नी से केसरी सिंह और जोरावर सिंह हुए और दुसरे पत्नी से पद्मसिंह हुए । जोरावर सिंह के शाखा में मोहनपुर और पस्तपार की जमीन्दारी आई । पद्मसिंह की शाखा में कोड़लाही की जमीन्दारी आई । राजा केसरी सिंह बड़े प्रतिभाशाली व्यक्त‍ि थे । उनको औरंगजेब से उपाधि‍ मिली थी । केसरी सिंह को धीर सिंह, धीर सिंह को कीरत सिंह और कीरत सिंह को हरिहर सिंह और गौतम सिंह नामक पुत्र हुए जो बड़े वीर, दयालू और प्रतापी थे । गंगापुर, दुर्गापुर और बेलारी3 तालुका इनके अधि‍कार में था ।

इधर राजा रंजीत सिंह से राजा केशरी सिंह, राजा केशरी सिंह से राजा रणभीम सिंह, राजा रणभीम सिंह से राजा सबल सिंह, राजा सबल सिंह से राजा अमर सिंह, राजा अमर सिंह से राजा अर्जुन सिंह, राजा अर्जुन सिंह से राजा प्रहलाद सिंह, राजा प्रहलाद सिंह से राजा फतेह सिंह, राजा फतेह सिंह से राजा नवाब सिंह, राजा नवाब सिंह से राजा मुसाहेब सिंह, राजा मुसाहेब सिंह से राजा वैद्यनाथ सिंह, राजा वैद्यनाथ सिंह से महाराजा हरिवल्‍लभ नारायण सिंह हुए । यहाँ एक बात की चर्चा और करनी जरूरी है कि राजा फतेह सिंह ही अपनी राजधानी पहली बार सोनवर्षा लाएं थे । लेकिन यहाँ के राजमहल का निर्माण महाराजा हरिवल्लभ नारायण सिंह के हाथों हुआ । कलक्ता की इंजीनियरिंग कंपनी ने चूने और सूर्खी से इस सुंदर महल का निर्माण किया । राजस्थांन से पत्थर मंगवाएं गए और लोहे की सुंदर सीढि़या कलकत्ता से मंगवाई गई । इस तरह महाराजा का भव्य महल तैयार हुआ ।



महाराजा हरिबल्‍लभ नारायण सिंह इस वंश के काफी प्रतापी राजा हुए । इनका जन्‍म 7 जुन 1846 ई0 में सोनवर्षा राज में ही हुआ था4 । इनकी दो रानिया थी महारानी तारावती और महारानी नौलखावती5 । महारानी तारावती नि:संतान रही और महारानी नौलखावती से इन्‍हे एकमात्र पुत्री हुई जिनका नाम रखा गया महाराज कुमारी पद्मावती । इनका विवाह सवाई माधोपुर के प्रि‍सली स्‍टैट चौथ का बरवारा में राजा राव लकट सिंह से हुआ । शादी में बारातियों का भव्‍य स्‍वागत हुआ था । गाँव के लोगों में जनश्रुति है कि एक महिने तक शादी की तैयारी चलती रही । बारातियों को चांदी के बने बर्तनों में खाना परोसा गया था । दहेज में हाथी और घोड़े भी दिये गए । विभि‍न्‍न तरह के आभूषण और रत्‍न भी सोनवर्षा से हाथियों पर लादकर चौथ का बरवारा भेजा गया । महारानी पद्मावती भी अल्‍पायु निकली और 20 मई 1915 को इनकी मृत्‍यु हो गई । ब्रिटिश लेखक रोपर लेथब्रि‍ज ने अपनी किताब गोल्‍डन बुक ऑफ इंडिया में लिखा है – सोनवर्षा के महाराजा हरिवल्‍लभ नारायण सिंह को 1875 में राजा की उपाधी और 2 जनवरी 1888 को महाराजा की उपाधी से विभूषि‍त किया गया । वहीं 1873-74 को आएं भूकंप में लोगों की सेवा के बदले में इन्‍हे राजा बहादुर की उपाधि‍ से नवाजा गया । महारानी विक्‍टोरिया के भारत में ‘भारत की महारानी’ की घोषणा के समय बिहार के दो महाराजा को हेराल्‍डि‍क सिंबल से नवाजा गया था जिसमें हथवा के महाराज और सोनवर्षा के महाराज हरिवल्‍लभ नारायण शामिल थे । लेथब्रीज ये भी लिखते हैं कि इनके राज्‍य का चिन्‍ह एक झंडा था जिसपर हाथी बना हुआ था ।



शि‍क्षा और महाराज

महाराजा हरिवल्‍लभ नारायण सिंह के शिक्षा की चर्चा झरखण्‍डी झा ने अपनी किताब भागलपुर दर्पन में की है । बकौल झा महाराजा शि‍क्षा के लिये खुले मन से दान करते थे । इन्‍होने अपने राज्‍य में उस समय उच्‍च शि‍क्षा के लिये एक स्‍कूल की स्‍थापना की थी । इनके समय में बड़गाँव भी उच्‍च शि‍क्षा का केन्‍द्र हुआ करता था । सोनवर्षा महाराज ने उस समय कई हजार पुस्‍तकों के संग एक पुस्‍तकालय का भी निर्माण करवाया था । जो सभी छात्रों के लिये पुर्णतया नि:शुल्‍क था ।


1873-74 के अकाल के समय महाराजा ने दिखाई थी दरियादिली

बात 1873-74 की है, बंगाल प्रोविंस सहित समूचे उत्तर भारत में भयंकर अकाल पड़ा था । हालात बद से बदतर होती जा रही थी । भयंकर बारिस के वजह से सब कुछ तबाह हो गया था, अनाज से लेकर पेड़ पौधे तक सभी सड़ गए थे । लोग दाने दाने को मोहताज़ हो रहे थे । ब्रिटिश सरकार आफ़त में थी, अपने और अपनों में से चुनने में बड़ी परेशानी हो रही थी । ऐसा नही था कि मदद नही मिल रही थी, ग्लॉसगौ ने 4 लाख रुपए की मदद की थी, वहीं सेन फ्रांसिस्को के मेयर ने भी भरपूर मदद की थी । अकाल राहत कोष में उस समय 9 लाख रुपए जमा हो गए थे, लेकिन फिर भी ये रुपए उस आफत के लिए कम था ।


अपने लोगों को बचाने के किए प्रिंसली स्टेट के राजाओं ने तत्कालीन वायसराय से मदद की गुहार की । वायसराय लार्ड नॉर्थबूक ने तत्काल डलहौजी हॉउस में एक चैरिटेबल मीटिंग रखी और सभी राजाओं से मदद की मांग की । वायसराय ने खुद आगे बढ़कर 10 हज़ार रुपए की, उसके बाद भारत के कई राजाओं और कंपनियों के मालिक ने आगे बढ़कर मदद की । उपरांत वायसराय की अध्यक्षता में एक 15 सदस्यीय टीम बनाया गया जो अकाल राहत की मॉनिटरिंग करते । इस टीम में दरभंगा महाराज, बंगाल के महाराज, लाहौर के नवाब सहित अन्य लोग शामिल थे । कर्नल एटली इस टीम के सचिव बने और अकाल राहत पर तेजी से काम शुरू हुआ ।



हमारे सोनबरसा के महाराजा हरिबल्लभ नारायण सिंह ने भी उस समय 1000 रुपए की मदद अकाल राहत कोष में की । इसके अलावे उन्होंने अपने क्षेत्र में अपने भंडार का मुँह खोल दिया । लोगों को आसरा देने के लिए कई प्लेटफॉर्म का निर्माण करवाया और भी बहुत से काम किए । उनके इस अकाल राहत कोष के कार्यों से खुश होकर 1875 ई0 में इन्हें 'राजा' की उपाधि से सम्मानित किया गया ।



वह काली रात
बात एक अप्रैल 1907 की है । सोनवर्षा राज से 10 मील दक्षि‍ण में कांप नामक सर्किल में महाराजा किसी काम से गए थे । वहाँ उनका राजसी टेन्‍ट लगा हुआ था । रात के साढ़े नौ बजे शौच से लौटते समय अज्ञात व्‍यक्‍ति‍ ने गोली मारकर उनकी हत्‍या कर दी । उनकी हत्‍या की खबर उस समय देश के प्रतिष्‍ठि‍त अखबार टाइम्‍स और इंडिया के साथ-साथ ब्रि‍टि‍श अखबार द होमवार्ड मेल6 में भी छपी थी । तत्‍कालिक मजीस्‍ट्रेट सर एन्‍ड्रयू फ्रेजर ने उस उनके मौत पर गहरी संवेदना व्‍यक्‍त की थी और इस मौत की गुत्‍थी को सुलझाने के लिये एक हाई लेवल इन्‍कवाइरी बिठवाई थी । चुकी राजा को कोई पुत्र नहीं था इसलिये राज्‍य को कोर्टस ऑफ वार्डस (Act IX of 1879 (B. C.) के अधीन करना पड़ा । महाराजा की दूसरी महारानी नवलखाबती महाराज के मृत्‍यु के बाद खिन्‍न हो गई थी और अपना बांकि का जीवन बनारस के घाट पर बिताने का निर्णय लिया । कंपनी सरकार ने इनके रहने और खर्चे के लिये 1000 रूपये प्रतिमाह का इंतजाम कर दिया तथा 100 रूपये प्रतिमाह पूजा के लिये अलग से दिया गया । कंपनी सरकार ने 19 सालों तक सोनवर्षा राज के शासन की बागडोर अपने हाथों में रखी । बाद में जब कुमार पद्मावती के बेटे राव राव बहादुर प्रताप सिंह बड़े हुए तो इन्‍होने कंपनी सरकार को कोटर्स ऑफ वार्डस तोड़ने के लिये अपील की । फलत: रूद्र प्रताप सिंह को सोनवर्षा की जमींदारी मिली । रूद्र प्रताप सिंह के तीन पुत्र हुए प्रथम कुमार दौलत सिंह द्वितीय कुमार सुख सिंह एवं तृतीय कुमार अलिमर्दन सिंह | 1949 में राजा राव बहादुर रूद्र प्रताप सिंह की मृत्‍यु के प्रश्‍चात उनके बड़े बेटे कुमार दौलत सिंह सोनवर्षा के राजा हुए । ये सोनवर्षा के अंतिम राजा भी हुए क्‍योंकि 1954ई0 में इस्‍टेट भारत सरकार के अधीन हो गया । 1956 ई0 में ये लोग सोनवर्षा राज छोड़कर सिमरी बख्‍ति‍यारपुर के चपरांव कोठी को अपना निवास सथान बनाया । कुमार दौलत सिंह के दो पुत्र हुए कुमार मुनेश्‍वर प्रताप सिंह और कुमार शिव प्रताप सिंह । संप्रति इनके वंशज आज भी वहाँ निवास करते हैं ।


इतना सबकुछ होते हुए भी गन्धवरिया के वंश का कोई प्रमाणि‍क इतिहास नही बन पाया है । जो कुछ दानपत्र अंग्रेजी दानपत्र के अनुवाद से मिला है उसमें से भी ज्यादा भीठ-भगवानपुर राजा साहेब का । भीठ-भगवानपुर गन्धवरिया के सबसे बड़े हिस्से की राजधानी थी और उनलोगों का अस्‍ति‍त्‍व निश्च‍ित रूप से दृढ़ था और वो दानपत्र देते थे जिनका की प्रमाण है । दरभंगा के गन्धवरिया लोगों ने भी अपनी इतिहास की रूपरेखा प्रकाशि‍त नहीं की है । इसलिए इस सम्बन्ध में कुछ कहना असंभव है । बकौल राधाकृष्ण चौधरी ओइनवार वंश के पतन के बाद ‘भौर’ क्षेत्र में राजपुत लोगों ने अपना प्रभुत्व जमा लिया था । और स्वतंत्र राज्य स्थापित करना चाहते थे । खण्डवला कुल से उनका संघर्ष भी होता रहता था7 । और इसी संघर्ष के क्रम में वो लोग भीठ-भगवानपुर होते हुए सहरसा- पुर्ण‍ियाँ की सीमा तक फैल गए । गन्ध आ भर (राजपुत) के शब्द मिलन से गन्धवारि बना और उसी गाँव को इन लोगों ने अपनी राजधानी बनाई । कालांतर में भीठ भगवानपुर इन लोगों को प्रधान केन्द्र बना । इतिहास की परंपरा का पालन करते हुए इन लोगों ने भी अपना सम्बन्ध प्राचीन परमार वंश से जोड़ा और ‘’नीलदेव’’ नामक एक व्यक्त‍ि की खोज की । उसी क्रम में कोई अपने आप को विक्रमादित्य के वंशज तो कोई अपने आप को नान्यदेव के वंशज बतलाते हैं । राधाकृष्ण चौधरी के अनुसार – उनके पास भीठ भगवानपुर की वंश तालिका नहीं है । लेकिन सहरसा के गंधवरिया लोगों की वंश तालिका देखने से ये स्पष्ट होता है कि परमार भोज और नान्यदेव से अपने को जोड़ने वाले गन्धवरिया लखेश और परवेश राय को अपना पूर्वज मानते हैं । एक परंपरा ये भी कहती है कि नीलदेव गंधवरिया में आकर बसे थे और ‘जीवछ’ नदी को अपना कुलदेवता बनाए थे । कहा जाता है कि नीलदेव राजा गंध को मारकर अपना राज्य बनाए थे । सहरसा जिला में भगवती के आशीष स्वरूप राज मिलने की जो बात है इसमें भी कई प्रकार की किंवदंती है ।8


संदर्भ सूची



1) बात 1172-76 की है । मिथिला पर कर्नाटवंशीय राजा नान्यदेव का राज था, और उधर बंगाल में सेन वंश अपने चर्मोत्कर्ष पर था । बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले के कानसोना (कर्णसुवर्ण) के राजा आदिशूर (विजयसेन) के आदेश से उनके पुत्र बल्लालसेन ने मिथिला पर आक्रमण कर दिया ।

अनेक युद्ध हुए और अंततः नान्यदेव परास्त हुए और बल्लालसेन उन्हें बन्दी बना कर ले गए । बल्लालसेन के इस विजय के इनाम स्वरूप उन्हें 'निःशङ्कशंकर' की उपाधि मिली । और इसी उपाधि के बाद बल्लालदेव ने मिथिला में 'निशंकपुर कुढ़ा' परगना कायम किया । उनकी कचहरी भीठ-भगवान पुर में लगती थी । भागलपुर का ये परगना 'निशंकपुर' के नाम से सुविख्यात हुआ । जो बाद में अपभ्रंश होकर "निसंखपुर कुढ़ा" (सोनबरसा के आखिरी राजा विदआउट सन थे, इसलिए लोगों का मानना था की ये निशंख अर्थात जो पुत्रहीन है ) पड़ा । वैसे कुछ लोगों का मानना है कि निशंकपुर परगना का ये नाम गंधबरिया राजवंश के राजा निशंक सिम्हा के नाम पर पड़ा है । लेकिन वल्लालसेन के सनोखर शिलालेख से इस बात का पता चलता है कि बल्लालसेन का प्रभुत्व भागलपुर तक था । यह भी माना जाता है कि सेन वंश के शासन का केंद्रबिंदु निशंकपुर कोढ़ा ही था । माना जाता है कि नान्य वंश औऱ सेन वंश का मध्यबिंदु सहरसा ही था और दोनों राजा अक्सर भेंटवार्ता के लिए सहरसा ही आते थे ।

2) शाहजहाँ ने इन्‍हे दुर्गापुर भद्दी की सनद दी थी ।

3) ए‍क जनश्रुति‍ इस इलाके में विख्यात है कि उस समय दरभंगा राज की कोई महारानी कौशि‍की स्नान के लिए आई थी । उन्हें जब ये पता चला कि ये दुसरे लोगों का राज्य है तो बोली – हम किसी दुसरे के राज्य में अन्न जल ग्रहण नहीं कर सकते हैं । उसके बाद जगदत्त सिंह तुरंत उनको बेलारी तालुका का दानपत्र लिख उनसे स्नान भोजन का आग्रह कियें । वो बेलारी तालुका अभी तक बड़हगोरियाक खड़ोडय बबुआन लोगों के अधि‍कार में था । उसके बाद राज दरभंगा का हुआ ।

4) The golden book of India, a genealogical and biographical dictionary of the ruling princes, chiefs, nobles, and other personages, titled or decorated, of the Indian empire BY SIR ROPER LETHBRIDGE, K.C.I. E. प्रकाशन वर्ष 1893, प्रकाशक - MACMILLAN AND CO. AND NEW YORK.

5) The High Court of Judicature at patna appeal no. 26 of 1923 Rao bhadur Man Singh vs Nawlakhbati and Another on 2 December, 1925

6) The Homeward Mail, 20 April 1907, London 7) मिथिलाक भाषामय इतिहास, लेखक मुकुन्‍द झा बख्‍शी

Friday, September 10, 2021

मैथि‍ली पत्रकारिता का इतिहास




मैथिली में पत्रकारिता का अपना गौरवशाली इतिहास है । हितसाधन से लेकर मिथि‍ला आवाज तक की अपनी विशेषता और विविधता रही है । लेकिन मैथि‍ली पत्रकारिता के इतिहास को संकलित करने का काम बहुत कह ही लोगों ने किया । पंडित चन्द्रनाथ मिश्र "अमर" की ‘’मैथिली पत्रकारिता का इतिहास” और डॉ यॊगानन्द झा की “ मैथिली पत्रकारिता के सौ वर्ष“ के साथ साथ विजय भाष्‍कर लिखि‍त ‘’बिहार मे पत्रकारिता का इतिहास’’ इस विषय में उल्लॆखनीय संदर्भ स्रॊत है ।

सबसे पहले 1905 में मैथि‍ली हितसाधन का प्रकाशन मासिक के रूप में जयपूर में हुआ । संभावनाओं के विपरीत विशाल मैथि‍ली आबादीवाले प्रदेश में इसकी नींव नहीं पड़ी, न ही शुरूआती प्रसार का कार्य यहाँ हुआ । अन्‍य स्‍थान पर ग्रहण कर पल्‍लवित और पुष्‍पि‍त होने के लिए ये बिहार जरूर आई । मैथि‍ली हितसाधन के संपादकीय बोर्ड के प्रमुख थे विद्यावाचस्‍पति मधुसूदन झा । पत्र‍िका ने उँचे आदर्श तय कर रखे थे । सामग्री में व्‍यापक विभिन्‍नता और साहित्‍यि‍क संपन्‍नता थी । फिर भी मैथि‍ली हितसाधन तीन साल से ज्‍यादा नहीं चल पाया । मैथि‍ली प्रकाशन की इस विफलता से पहले ही बनारस के मैथि‍ल विद्वानों का ध्‍यान अपनी ओर खींचा । यहाँ से मैथि‍ल विद्वानों ने 1906 में मिथलिामोद मासिक पत्र की शुरूआत की । इसके संपादक बने महामहोपाध्याय पंडित मुरलीधर झा और अनूप मिश्र एवं सीताराम झा । पंडित मुरलीधर झा ने तब एक समृद्ध पत्रि‍का की नींव रखी । इसकी टिप्‍पणि‍यो, आलोचनाओं, ‍विषय में व्‍यापक विभि‍न्‍नता और व्‍यंगात्‍मक शैली ने मैथि‍ली पाठकों का ध्‍यान बरबस आकृष्‍ट किया और पाठकों के बीच इसने अच्‍छी पैठ बना ली थी । लगभग 14 वर्षो तक निरंतर पंडित मुरलीधर झा इसका संपादन करते रहे । 1920 से 1927 तक इसका संपादन अनूप मिश्र और सीताराम झा ने किया । 1936 में पत्रि‍का को नया स्‍वरूप दिया गया और इसकी नई श्रंखला का संपादकीय दायित्‍व सौंपा गया उपेन्‍द्रनाथ झा को । नए स्‍वरूप में भी पत्रि‍का ने अपनी पुरानी अस्‍मिता कायम रखी । इस पत्रि‍का को टोन शुरू से अंत तक साहित्‍य‍िक ही रहा ।

1908 वह वर्ष है जब मिथि‍ला मिहिर ने प्रकाशन की दुनिया में दस्‍तक दी । बतौर मासिक शुरू हुई इस पत्रि‍का ने तीन वर्षों में अपना स्‍वरूप बदलकर साप्‍ताहिक कर लिया । 1911 से साप्‍ताहिक मिथि‍ला मिहिर का प्रकाशन शुरू हुआ हो गया । यह दरभंगा महाराज की मिल्‍कियत थी । पर 1912 तक आते-आते लगने लगा कि केवल मैथि‍ली भाषा की पत्रि‍का का चलना शायद मुश्‍कि‍ल हो । इसलिए पत्रि‍का को द्व‍िभाषी बनाकर इसमें हिंदी को भी शामिल कर लिया गया और मिथि‍ला मिहिर मैथि‍ली और हिंदी दोनों की पत्रि‍का हो गई । मिथि‍ला मिहिर के साथ किए गए निरंतर प्रयोगों से यह साफ जाहिर है कि प्रबंधकों का आत्‍मविश्‍वास डगमगाने लगा था और दो साल 1930-31 में इसमें अंग्रेजी मिलाकर इसे त्रिभाषी कर दिया गया । आजादी से पूर्व के इतिहास में दो ही पत्रि‍काएँ ऐसी मिलती है जो द्विभाषी से आगे त्रि‍भाषी अवधारणा लेकर सामने आई । इसके पूर्व राममोहन राय बंगाल में बंगदूत के साथ अभि‍नव प्रयोग कर चुके थे, जिसमें एक साथ अंग्रेजी, बँगला, फारसी और हिंदी के प्रयोग किए गए थे । पर 1930-31 के बाद मिथि‍ला मिहिर अपने द्व‍िभाषी स्‍वरूप में लौट आया और 1954 तक निर्बाध चलता रहा । बाद में यह एक और प्रयोग से गुजरा । 1960 में यह सचित्र साप्‍त‍ाहिक के रूप में सामने आया । बिहार की की पत्रकारिता के इतिहास में यह सबसे प्रयोगधर्मी पत्र साबित हुआ । इसके संपादकों में पंडित विष्‍णुकांत शास्‍त्री (1908-12), महामहोपाध्‍याय परमेश्‍वर झा, जगदीश प्रसाद, योगानंद कुमार (1911-19), जनार्दन झा ‘जनसीदान’ (1919-21), कपिलेश्‍वर झा शास्‍त्री (1922-35) और सुरेन्‍द्र झा सुमन (1935-54) शामिल थे । 1970 के दशक में इसके संपादन का जिम्‍मा सुधांशु शेखर चौधरी पर था । पत्रि‍का के कई संग्रहणीय विशेषांक निकले, जिनमें ‘मिथि‍लांक’ (अंक अगस्‍त 1935) मैथि‍ली पत्रकारिता के लिए एक अमुल्‍य योगदान माना जाता है ।

1920 के दशक में मैथि‍ली प्रकाशन के प्रयत्‍न बिहार के अलावा बाहर से भी होते रहे । इससे यह भी पता लगता है कि तब भी मिथि‍ला के लोग बाहर भी काफी संखया में फैले हुए थे । प्रकाशनों की अपेक्षा थी कि बाहर रहने के बावजूद अपनी माटी और बोली से एक समर्पण का भाव उनमें मौजूद होगा । इसी भावनात्‍मक लगाव की अभिव्‍यक्‍त‍ि 1920 में मथुरा से प्रकाशि‍त मिथि‍ला प्रभा में हुई, जिसे रामचंद्र मिश्र जैत ने निकाला । अक्‍तूबर 1929 में अजमेर से मैथि‍ल प्रभाकर का प्रकाशन शुरू हुआ । इन पत्रों का उद्देश्‍य समाज हित मे आवश्‍यक सूचनाओं का आदान-प्रदान करने के साथ मैथि‍ल समाज को अपनी जड़ों से जोड़े रखना था । पर मैथि‍ल लोगों के सरंक्षण के अभाव और उदासीनता ने दोनों पत्रों को असमय बंद होने पर मजबूर किया । मिथि‍ला-प्रभा अगस्‍त 1920 से दिसंबर 1924 तक चली और मैथि‍ल प्रभाकर अक्‍तूबर 1929 से दिसंबर 1930 तक । उत्‍साहजनक पाठकीय संरक्षण के अभाव के बावजूद तत्‍कालीन मैथि‍ल पत्रकारों ने हार नहीं मानी, बल्‍कि‍ उन्‍हें इस दिशा में और कोशि‍श करने के लिए प्रेरित ही किया । पर मैथि‍ली पत्रकारिता को अपेक्षाकृत समृद्ध और समर्थ मैथि‍ल समाज का वह स्‍नेह कभी नहीं मिला, जो अपेक्षि‍त था । बहुत साहस और स्‍वत: स्फूर्त प्रेरणा से मिथि‍ला के दो विद्वानों उदित नारायण लाल राय और नंदकिशोर लाल दास ने 1925 में श्री मैथि‍ली का प्रकाशन शुरू किया । उन्‍होंने तत्‍कालीन समय के हिसाब से लोकप्रिय शैली में पत्रि‍का निकाली और एक पेशेवर रंग-रूप देते हुए पूर्व के विपरीत गैर-साहित्‍यि‍क आलेख भी शामिल किए । पर पत्रि‍का केवल दो साल ही चल पाई । यह दौर ऐसा था जिसमें मैथि‍ली पत्रों के संपादक संभवत: यह तय नहीं कर पा रहे थे कि पत्रों का स्‍वरूप साहित्‍यि‍क रखा जाए या गैर साहित्‍यि‍क ? दोनों तरह की पत्रि‍काऍं पहले निकाली जा चुकी थीं और विफल रही थी । बावजूद इसके 1929 में पंडित कामेश्‍वर कुमार और भोला लाल दास ने 1924 में मिथि‍ला नाम की साहित्‍यि‍क पत्र‍िका का प्रकाशन शुरू किया और इसके शि‍ल्‍प में सामाजिक-सांस्‍कृतिक विषय भी शामिल किए । इसका प्रकाशन लहेरिया सराय, दरभंगा विद्यापति प्रेस से शुरू हुआ । इसके संपादकों ने अवैतनिक काम किया और मिथि‍ला ऐसा पत्र बना, जिसने समाज-सुधार को लक्ष्‍य कर कार्टून का प्रकाशन शुरू किया, पर सामाजिक- सांस्‍कृतिक और साहित्‍य‍िक स्‍वरूपवाली पत्रि‍का भी पाठकीय रुचि परिवर्तन करने में विफल रही और 1931 में इसे बंद कर देना पड़ा ।

बनैली के राजा कुमार कृष्‍णानंद सिंह ने अपने सद्प्रयास से मैथि‍लीं पत्रों को उबारने की एक कोशि‍श की । 1931 में उनके संरक्षण में मिथि‍ला मित्र का प्रकाशन शुरू हुआ, पर इसे उसी साल बंद करना पड़ा । कृष्‍णानंद सिंह ने हिंदी पत्रकारिता को संरक्षण देने में अच्‍छी भुमिका निभाई थी और विशेषांक निकालने के प्रति वे काफी गंभीर रहते थे । इसलिए उनके संरक्षण में निकली हिंदी पत्रि‍का गंगा का पुरातत्‍वांक विशेषांक हो या इस नई-नई मैथि‍ली पत्र‍िका का ‘जानकी-नवमी विशेषांक’, आज तक समृद्ध विरासत के रूप में संरक्षि‍त है । मिथि‍ला-मित्र को प्रकाशन के वर्ष 1931 में ही बंद करना पड़ा, पर पाठकों को यह एक संग्रहणीय विशेषांक दे गया । एक और महत्‍वपूर्ण कोशि‍श हुई बिहार के बाहर से । अजमेर से पंडित रधुनाथ

प्रसाद मिश्र ‘पुरोहित’ ने मैथि‍ली बंधु की शुरूआत की । पंडित मिश्र ने इस पत्रि‍का का शि‍ल्‍प तय करने में पर्याप्‍त सावधानी बरती । इसके शि‍ल्‍प से ऐसा लगता है कि विफल रहे मैथि‍ल पत्रों का उन्‍होंने व्‍यापक अध्‍ययन किया और अपने हिसाब से कमियों को पूरा करने की कोशि‍श की । पत्रि‍का का फलक व्‍यापक कर इसके शि‍ल्‍प में समाज और संस्‍कृति‍ के अलावा साहित्‍य विषय तो रखे ही गए, इतिहास को भी इसमें शामिल करके पत्रि‍का को अनुसंधान की दृष्‍ट‍ि से महत्‍वपूर्ण बनाया गया । इस पत्रि‍का की स्‍वीकार्यता पहे के मुकाबले बढ़ी, जिससे इस बात को बल मिलता है कि गंभीर और अनुसंधानात्‍मक सामग्री में मैथि‍ली पाठकों ने अपेक्षाकृत ज्‍यादा रूचि ली । इसलिए पहले चरण में यह चार वर्ष (1939-1943) तक आबाध चली । बीच में इसका प्रकाशन दो वर्षों के लिए स्‍थगित करना पड़ा । 1945 में इसका प्रकाशन पुन: शुरू हुआ और दस वर्षों तक देशव्‍यापी मैथि‍ल समाज का प्रि‍य पत्र बना रहा ।

दुसरी ओर बिहार में मैथि‍ल पत्रों को लेकर कोशि‍श जारी रही । भुवनेश्‍वर सिंह भुवन ने 1937 में मुजफ्फरपुर से विभूति का प्रकाशन शुरू किया, जो महज एक साल चला । भोला दास ने 1937 में ही दरभंगा से भारती मासिक का प्रकाशन शुरू किया, जो कुछ ही समय चल पाया । 1938 में अजमेर से मैथि‍ली युवक का प्रकाशन शुरू हुआ, जो 1941 तक चला । आगरा से ब्रज मोहन झा ने जीवनप्रभा 1946 में शुरू की, जो 1950 तक चली । एक क्षणि‍क परिवर्तन पत्रि‍काओं के नामकरण में देखने में आया । पहले मैथि‍ल पहचान के लिए ‘मैथि‍ल’ या ‘मिथि‍ला’ शब्‍द पत्रि‍काओं के नाम के लिए आवश्‍यक समझे जाते थे । उस मिथक को इधर के प्रकाशनों ने विभूति और भारती निकालकर तोड़ने की कोशि‍श की ।

पटना में भी मैथि‍ली पत्रों को लेकर गतिविधि‍याँ बंद नहीं हुई थी । बाबू दुर्गापति सिंह ने संस्‍थापक-संपादक और लक्ष्‍मीपित सिंह ने बतौर प्रबंध-निदेशक के एक सुप्रबंधि‍त माहौल में मिथि‍ला-ज्‍योति का प्रकाशन शुरू किया, पर 1948 में शुरू हुई इस पत्रि‍का को सुप्रबंधन भी 1950 से आगे तक नहीं ले जा पाया ।

पंडित रामलाल झा ने 1937 में मैथि‍ली साहित्‍य पत्रि‍का की शुरूआत की । इस पत्रि‍का ने साहित्‍य समालोचना के क्षेत्र में एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्‍तुत किया । यह पत्रि‍का भी महज दो साल चल पाई ।

दरभंगा से प्रकाशि‍त मासिक वैदेही, कोलकाता से प्रकाशि‍त मासिक मिथि‍ला दर्शन, इलाहाबाद से प्रकाशि‍त मैथि‍ली बाल पत्रि‍का बटुक और मैथि‍ल समाचार पांडू, असम से प्रकाशि‍त संपर्क सुत्र और कानपुर से प्रकाशित मासिक मिथि‍ला दूत मैथि‍ली पत्रकारिता की अपवाद रहीं, जिन्‍होंने दो-तीन दशकों तक अपनी उपस्‍थि‍ती बनाए रखी । इनमें वैदैही का संपादन कृष्‍णकांत, अमर आदि ने ;किया । मिथि‍ला दर्शन के संपादन का दायि‍त्‍व डॉ.प्रबोध नारायण सिन्‍हा और डॉ. नचिकेता पर था । इसके अलावा ऐसे मैथि‍ली पत्रों की संख्‍या दर्जनाधिक थीं, जिन्‍होंने जितना हो सका, अपने पत्रकारिता दायित्‍व का निर्वाह किया । मैथि‍ली पत्राकारिता का इतिहास कम से कम –से-कम इनके उल्‍लेख की तो माँग करता है । इनमें दरभंगा से प्रकाशि‍त और सुरेन्‍द्र झा द्वारा संपादित स्‍वदेश 1948, निर्माण (साप्‍ताहिक) और इजोता (मासिक संपादन सुमन और शेखर) स्‍वेदश दैनिक (संपादक-सुमन), दरभंगा से ही प्रकाशि‍त साप्‍ताहिक जनक (संपादन –भोलानाथ मिश्र), यहीं से प्रकाशि‍त मासिक पल्‍लव (संपादक –गौरीनंदन सिंह), कोलकाता से प्रकाशि‍त साप्‍ताहिक सेवक ( संपादक –शुंभकात झा और हरिश्‍चंद्र मिश्र ‘मिथि‍लेंदू’), दरभंगा से प्रकाशि‍त त्रैमासिक परिषद पत्रि‍का (संपादक – सुमन और अमर), मासिक बाल पत्रि‍का धीया-पुता (संपादन-धीरेन्‍द्र), मासिक मैथिली परिजात (संपादक – रामनाथ मिश्र ‘मिहिर’), कोलकाता से प्रकाशि‍त त्रैमासिक कविता संकलन मैथि‍ली कविता ( संपादक – नचिकेता), मासिक (संपादक –कृति नारायण मिश्र और वीरेन्‍द्र मलिक ), दरभंगा से प्रकाशि‍त साप्‍ताहिक मिथि‍ला वाणी (संपादक –योगेन्‍द्र झा), गाजियाबाद से प्रकाशि‍त मैथि‍ली हिंदी द्व‍िभाषी पत्रिका प्रवासी मैथि‍ली ( संपादक –चिरंजी लाल झा) शामिल है । एक साहित्‍य‍िक डाइजेस्‍ट सोना माटी का प्रकाशन पटना से 1969 में शुरू किया गया । बिहार गजट ने मैथि‍ली पत्रों की असफलता का मुख्‍य कारण पाठकों का अभाव तो बताया ही है, साथ ही इस विरोधाभास पर आशर्च्य व्‍यक्‍त किया है कि उत्‍तरी बिहार और नेपाल की तराई की मैथि‍ली बहुल आबादी क्रय शक्‍त‍िसंपन्‍न शिक्षि‍त मैथि‍ल परिवारों के औधोगिक नगरों, मसलन राँची, धनबाद, जमशेदपुर, राउरकेल, मुंबई, वाराणसी और इलाहाबाद में अच्‍छी उपस्‍थि‍ति के बावजूद किसी मैथि‍ली पत्रि‍का ने स्‍थायित्‍व ग्रहण नहीं किया । दरअसल, मिथिला मिहिर के बंद होने के बाद नयी पीढी मैथिली में अखबार का पन्‍ना कैसा होता है, वो भूल चुकी थी । कोलकाता से प्रकाशि‍त मिथि‍ला समाद ने इस कमी को भरा और लोगों को फिर से मैथि‍ली में समाचार पढने का सुख मिला । फिर सौभाग्‍य मिथि‍ला आया जिसने पहली बार टेलिविजन मैथि‍ली समाचार से लोगों को अवगत किया । फिर मिथि‍ला आवाज का दौर आया । मिथि‍ला में हर्ष ध्वनी हुई । लोगों को पहली बार रंगीन मैथि‍ली अखबार पढ़ने का सुख मिला । लेकिन इसे मैथि‍लों की फूटी किस्‍मत ही कही जाय की अपने आरंभ से मात्र दूसरे वर्ष में इसने दम तोड़ दिया । मैथि‍ली पत्रकारिता का ये अंत था । लोगो को अब कागज पर मैथि‍ली अखबार पढ़ना सपने जैसा हो गया है । हलाँकि वेब मीडिया इसमें कुछ हद तक सफल हो पायी है लेकिन कागज पर अखबार पढ़ने का सुख तीन करोड़ मैथि‍लों को कब तक मिलेगा ये कहना मुश्‍कि‍ल है ।

मैथिली मे वेब पत्रकारिता

भारत के लगभग समस्त भाषा मे अखबार, पत्रिका के संग संग उसका ऑनलाइन वर्जन भी बाहर आया है । लेकिन मैथिली में वेब पत्रकारिता अभी भी शैशवाकाल में है । मैथिली में दैनिक पत्र के साथ साथ वेब पत्रिका कि‍ वर्तमान स्थिति अति दयनीय एवं चिन्तनीय है । अखबारी रिपोर्ट के अनुसार विश्वमे लगभग तीन करोड़ मैथिली भाषी है । स्वभाविक रुप से इसके पाठक वर्ग की संख्या अधिक होगी । लेकिन स्थिति दुखद है ! विपुल साहित्य भंडार से हम सब गौरवान्वित होते है । प्रतिभाशाली युवा मैथिल हरेक सेक्टर मे अपनी प्रतिभा का लॊहा मना रहा है । उसके बाद भी सूचना प्रौद्योगिकी के इस युगमे मैथिली मे अखबारी प्रकाशन की समस्या यथावत बनी हुई है । पत्र पत्रिका की कमी हमेशा खटक रही है । मि‍थि‍ला समाद और मिथि‍ला आवाज का ऑनलाइन संस्करण का स्थायी स्थगन भी मैथिली वेब पत्रकारिता के इतिहास में बहुत बड़ी छति थी ।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि मैथि‍ली में साहित्‍यि‍क पत्र पत्रि‍का की भरमार रही है । लेकिन ऑनलाइन पत्रकारिता के क्षेत्र में हम अन्‍य भाषाओं की अपेक्षा काफी पीछे छुट गए है । वेब पत्रकारिता की स्थिति और उपस्थिति ना के ही बराबर है । कुछ जोशि‍लो युवा है जो अपनी तकनीनकी और पत्रकारिय ज्ञान को लेकर इंटरनेट पर सक्रि‍य है । मिथि‍ला से लेकर कोलकाता और दिल्‍ली मुंबई के मैथि‍ल इस कार्य मे लगे हैं । मिथिला मैथिली से संबंधित समस्त राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, आर्थिक मुद्दों की बात इन्टरनेट पर ब्लॉगिंग के माध्यम से सामने ला रहे हैं । इतना ही नहि, किछु मिथिला-मैथिली प्रेमी मैथिलीमे न्यूज पॊर्टल भी चला रहे हैं । ऐसे न्यूज पोर्टलों में ई-समाद, मिथिमीडिया, प्राईम न्यूज, मिथि‍ला जिंदाबाद, मिथिला मिरर,ऑनलाईन मिथि‍ला और नव मिथिला कुछ उल्लेखनीय नाम है ।

प्रारंभिक मैथिल ब्लॉगर ई-समाद, मिथिमीडिया, मिथिला मिरर, मिथिला प्राइम, नव मिथिला आदि मैथिली न्यूज पोर्टलों की गतिविधि, इसके उद्देश्य और उपलब्धी की विवेचना के उपरान्त ये बात स्पष्ट है कि इन्टरनेट पर मिथिला में वेब आधारित पत्रकारिता का उज्जवल भविष्य आने वाला है । जिस तरह से युवा वर्ग मैथि‍ली ब्‍लॉगिंग की और आकर्षीत हो रहे हैं इसमें कोई दो राय नहीं है कि आने वाला समय मैथि‍ली वेब पत्रकारिता का स्‍वर्णि‍म युग लाएगा ।




Monday, February 8, 2021

मैथिली भाषाक भाषोत्पत्ति सिद्धांतक विवेचन

 


मानव, पशु, पक्षी, पेड पौधा सभ सजीव पदार्थ प्रकृति प्रदत्त अछि । जेना जेना मनुष्य क विकास भेल,  ओहि संगहि भाषाक उत्पति ओ विकास होमय लागल।

भाषाक उत्पत्ति सं दू पक्ष अभिप्रेत होएत अछि –

1. भाषण अर्थात ध्वनि किम्बा बजबाक शक्ति क उत्पत्ति।

2. उच्चारित ध्वनि, संकेत तथा अर्थ मे परस्पर संसर्ग- स्थापन क्षमताक आरम्भ।

 

जतए धरि ध्वनि क प्रश्न अछि,  ओ अनगिनत पशु पक्षी क संगहि आब गाछ - बृक्ष मे सेहो ध्वनि पाओल जाएत अछि - जेना, कुकुर झाॅउ झांउ करैत अछि,  बिलाय म्याऊँ म्याऊँ बजैत अछि, महिष डिकरैत अछि, और गाछ - बृक्ष सांय सांय बहैत अछि । ( एहि सांय सांय मे बृक्ष वैज्ञानिक ओकर ध्वनि मानैत छथि । मुदा एहि ध्वनि मे अर्थ क सार्थकता क अभाव अछि । एहि कारणें  ई स्वरूप मानवीय  भाषाक अध्ययन के क्षेत्र मे नहि अबैत अछि । प्रारंभिक काल मे मनुष्य क ध्वनन कें यैह स्थिति रहल हैत, मुदा मनुष्य क्रमशः अपन भाव विचार के विनिमय हेतु अर्थ सापेक्ष ध्वनि के विकास केने हैत । ध्वनि ओ अर्थ क संसर्ग -- स्थापने मानव भाषक चरम उपलब्धि अछि । का - का सं काक पुनः कौआ क वाचक मानव द्वारा मानल गेल, कू-कू सं कोयली, झर - झर ध्वनि सं झरना सं सम्बद्ध कए मनुष्य एहन सूक्ष्म ओ महत्वपूर्ण अभिव्यंजना पद्धति केर विकास कए, ओ अन्य जीव प्राणी सं भिन्न कोटिक जीव प्राणी भ गेल।


एतय ई प्रश्न उठैत अछि जे. ध्वनि संग अर्थ क संयोग करब मनुष्य कहिया सिखल अर्थात शब्द अर्थ क वाचक मानव कहिया भेल?

 

भाषाक उत्पति क सम्बन्ध मे कतेको भाषा वैज्ञानिक, मानव वैज्ञानिक, इतिहासकार एवं दार्शनिक लोकनि अनेक प्रकार क मतक प्रतिपादन कएलनि अछि । किन्तु ओ सब सिद्धांत अनुमान - प्रसूत अछि । आधुनिक भाषा वैज्ञानिक लोकनि तं आब एहि पर विचारे करब छोडि देने छथि । मुदा एहि प्रसंग मे प्रारम्भिक ज्ञान राखब आवश्यक अछि ।

 

दिव्योत्पत्ति सिद्धांत

संसार मे समस्त वस्तु यथा जड चेतन अथवा स्थावर जंगम सभ वस्तु प्रकृति प्रदत्त अछि । एहि कोटि क सिद्धांत कार क मत छनि जे, ईश्वर निर्मित योनि मे मनुष्य सर्व श्रेष्ठ मानल जाएत अछि।जखन चेतना सम्पन्न मनुष्य क निर्माण कएलनि तं भाषा सेहो संगहि ईश्वर प्रदत्त भेल हैत ।

 

मह यैह हेतु बिभिन्न धर्म क अनुयायी लोकनि अपन अपन धर्म ग्रंथ सं भाषाक उत्पति सिद्ध करबाक प्रयास कएलनि अछि ।

 

हिन्दू धर्म क अनुयायी संस्कृत भाषा कें देववाणी भाषाक संज्ञा दैत सब भाषाक जननी मानैत छथि ।

त्रृग्वेदक एक गोट मंत्र अछि -

"देवी वाचमजनयन्त देवा

तां विश्वरूपाः पशवो वसन्त।"

                 त्र्रृग्वेद, 8-- 100 -11

अर्थात बाग्देवी (वाणी) कें देवता सभ उत्पन्न कएलनि,  और वैह सभ प्राणी बजैत अछि ।

एतय मंत्र मे वाणी कें असंदिग्ध शब्द मे दिव्योत्पत्ति मानल गेल अछि । महर्षि पाणिनी द्वारा प्रस्तुत चौदह प्रत्याहार सूत्र शिवजी क डमरू क निनाद सं उत्पन्न मानैत छथि । एहि मंत्र कें दिव्योत्पत्ति केर रूपान्तरण मानल गेल अछि ।

 

अनीश्वरबादी बुद्ध और महावीर जैन क अनुयायी लोकनि अपन अपन त्रिविष्टक क पालि ओ अर्द्ध मागधी भाषाकें आदि भाषा मानैत छथि । किएक तं बुद्ध और महावीर तीर्थंकर यैह भाषा मे उपदेश दैत छलाह ।

 

ईसाई ओल्डटेस्टामेन्टक हिब्रू भाषाकें अपन ईश्वर प्रदत्त आदि भाषा मानैत छथि । ईसाई लोकनिक मान्यता छनि जे ईश्वर आदम और हौआ कें हिब्रानी भाषा द कए पृथ्वी पर पठौने छलाह । जौं मनुष्य अपन महत्वाकांक्षाक कारणें स्वर्ग धरि जएबाक प्रयास केने रहितथि तं बाबुलक मीनार बला घटना नहि होएत, और आइ जे विश्व मे भाषा भेद दृष्टि गोचर होइत अछि ओ नहि होएत । सर्वत्र एकहि गोट हिब्रानी भाषा रहितैक।

 

मुसलमान लोकनि अपन अरबी भाषा मे लिखल कुरानक भाषाकें आदि भाषा मानैत छथि ।

 

एकटा पद अछि - - - बिनु हरि कृपा  तृनहु नहि डोलय

एहि तरहें अधिकांश मत एहि आधार पर मानल गेल अछि ।

 

 

दिव्योत्पत्ति सिद्धांत क समीक्षा।

जॅ मनुष्य क भाषा ईश्वर प्रदत्त अछि - तखन एतेक भेद प्रभेद कोना छैक ?अन्य पशु सभक भाषा तं सम्पूर्ण विश्व मे एकहि रंग क अछि । सम्पूर्ण विश्व मे कुकुर एकहि समान भूकैत अछि, घोडा एके समान हिनहिनबैत अछि । पशु पक्षी क भाषा मे एकरूपता बुझि पडैत अछि, तखन मानव सभक भाषा मे किएक नहि?

 

एहि शंकाक समाधान करबा मे दिव्योत्पत्ति सिद्धांत असक्षम देखल जाइछ । आस्तिकता क संग आस्था काज करैत छैक और वैज्ञानिकता संग तर्क। दूनू दृष्टि भिन्न अछि । एहि हेतु श्रद्धा स्पूत दिव्योत्पत्ति सिद्धांत मे तर्क केर स्थान नगण्य अछि । मुदा एतबा बुझल जा सकैत अछि जे, आखिर मनुष्ये मे एहन चेतना, मानसिक समृद्धि और ध्वन्यातमक अवयव किएक भेटलैक।

 

एहि दृष्टि कोण सं वैज्ञानिकता केर अभाव रहितहु मुदा विश्वास क भाव सं किछु अंश मे एहि सिद्धांत कें स्वीकार कएल जा सकैछ ।

 

संकेत सिद्धांत

 किछु विद्वान क मत छनि जे, प्रारम्भ मे मनुष्य पशु पक्षी जंका माथ, ऑखि, हाथ , पैर क संचालन द्वारा अपन विचार अथवा भावके अभिव्यक्त करैत हैत । एहि असुविधा कें दूर करबाक लेल और अपन  वक्तव्य क पूर्णता और स्पष्टता सं व्यक्त करबाक भावना सं प्रेरित भ कए मनुष्य परस्पर विचार विनिमय द्वारा ध्वन्यात्मक भाषाक उत्पति ओ विकास कएलक ।

 

संकेत सिद्धांत क समीक्षा

एहि सिद्धांत मे अनेको प्रकार क विसंगति देखल जाइछ ।

1. एहि सिद्धांत द्वारा मानल जाएत अछि जे.  एक समय एहन छल जे मनुष्य कें भाषा नहि भेटल हेतैक, मुदा जौं भाषा नहि छलैक तखन ओकर अनुभव मनुष्य कें कोना भेल हेतैक ? आइयो बानर अथवा  बरदकें एहन अनुभव कहां भ रहल छैक ?

2. भाषाक अभाव मे ओहि मानव महासभा मे विचार विमर्श कोन माध्यम सं भेल हेतैक? जखन लाखो  लोक वाणी विहीन मनुष्य एकत्रित भेल हैत तं तर्क वितर्क क माध्यम की रहल हेतैक?

3. उक्त लोक महासभा मे विभिन्न अर्थ क वाचक विभिन्न शब्द क संकेत कोन आधार पर तय कैल गेल हैत  ? सभ्यता क आदिम काल मे एहन एकता कोना संभव भेल हेतैक?

4. जौं बिनु भाषाक एतेक महत्वपूर्ण विचार विमर्श और निर्णय संभव छलैक तखन भाषाक आवश्यकता क अनुभव किएक भेलैक ।

एहि प्रसंग मे आचार्य भामह लिखलनि अछि जे

            इयन्त  ईदृशा वर्णा ईदृगर्थाभिधायिनः

            व्यवहाराय लोकस्य प्रागित्थं समयः कृत।।

अर्थात सृष्टि क आरम्भे मे लोक व्यवहार क लेल एहन वर्ण , अर्थ और बोध करएबाक संकेत कैल गेल हैत । प्रश्न उठैत अछि जे सृष्टि क प्रारम्भ मे एहि प्रकारक संकेत के सुनिश्चित केने छलाह, जखन संकेत स्थिर नहि भेल छल तखन लोक व्यवहार मे कोना आबि गेल ?

 

 

उत्तर भाषोत्पत्ति केर रणन सिद्धांत

एहि सिद्धांत क प्रथम व्याख्या प्लेटो केने छलाह। और मैक्समूलर एकर विस्तृत व्याख्या केने छलाह । एहि सिद्धांत क अनुसार शब्द ओ अर्थ मे एक प्रकार क नैसर्गिक सम्बन्ध अछि संसार मे प्रत्येक वस्तु मे एक प्रकार क विशिष्ट ध्वनि अन्तरनिहित रहैत छैक जे कोनो दोसर वस्तु क सम्पर्क मे अएला पर ध्वनित होइत अछि । यथा - हथौरा सं कोनो धातु, लोहा, लकरी, पत्थर किम्बा शीशा आदि पर चोट  केला सं, ओहि संगहि विभिन्न प्रकार क ध्वनि उत्पन्न होएत छैक,  और ओ ध्वनि सुनि कए बुझबा मे आबि जाएत अछि जे ई कोन वस्तु ककिस ध्वनि थिक। अन्हारो मे शीशा अथवा स्टील के गिलास नीचा खसला पर स्वतः बुझबा मे आबि जाएत अछि जे शीशा क गिलास खसलइ अथवा स्टील क ।

 

सृष्टि क आरम्भ मे मनुष्य बाणी विहीन छल, किन्तु जखन ओ विभिन्न वस्तु क सम्पर्क म आएल तखन ओहि वस्तु सभक प्रभाव ओकर मानस पटल पर अंकित भेल गेल जाहि सं अनायासे वस्तु क वोधक शब्द मनुष्य क मुख सं निसृत भए गेल।जेना  तेजगामी पशुकें देखि अश्व बाहर भ गेल हैत, तेज जल प्रवाह कें देखि एकाएक नदी शब्द निकलि गेल हैत ।

 

एहि तरहें संसार क सब वस्तु क लेल शब्द बनि गेल।भाषाक निर्माण भ गेलाक पश्चात मनुष्य क एहन सहज शक्ति समाप्त भ गेल।जेना एक वस्तु सं दोसर वस्तु क आवाज भिन्न होएत अछि, ओहि तरहें एक वस्तु क वाचक शब्द सं दोसर वस्तु क वाचक शब्द स्वभाविक रूप सं भिन्न भ गेल।नदी वाचक शब्द पर्वत वाचक शब्द सं भिन्न ताहि तरहें गज वाचक शब्द अश्व वाचक शब्द सं भिन्न भ गेल।

 

 

रणन सिद्धांत क समीक्षा

एहि सिद्धांत मे शब्द ओ अर्थ मे नैसर्गिक सम्बन्ध क मान्यता अछि, जे तर्क संगत सं बेशी रहस्यात्मक बुझि पडैत अछि ।एतय एहिना बुझि पडैत अछि जे , जेना कोनो जादूगर जादूक छडी देखा करिश्मा दर्शक कें देखा दैत छैक ओहि तरहें मनुष्य वाह्य वस्तु क सम्पर्क मे आबि के शब्द बनबैत चलि गेल और जाहि सॅ सब शब्द निष्पन्न भेल, ओहि संगहि ओकर शक्ति सेहो समाप्त भ गेल । स्पष्ट दृष्टि गोचर होइत अछि जे एहि मे वैज्ञानिकता क अभाव देखना जाइछ । वाह्य वस्तु मे एहन प्रतिक्रया नहि होएत अछि । ई पूर्णरूपेण काल्पनिक ओ यादृच्छिक अछि । एकर कोनो सुसंगत आधार नहि अछि ।

 

जे मैक्समूलर महोदय प्रारंभ मे एहि सिद्धांत क व्याख्याता छलाह, ओ स्वयं एहि मे दोषक अनुभव कए एहि सिद्धांत कें छोडि देलनि ।

 

अंग्रेजी मे डिड्ग डाॅगं घंटी क ध्वनि कें कहल जाएत छैक । एहि हेतु घंटी क ध्वनि क सदृश्य मनुष्य क मुख सं उच्चरित ध्वनि क लेल एहन शब्द क प्रयोग कएल गेल । मैथिली मे एखनहु छोट घंटी की ध्वनि कें टन टन अथवा रूण रूण बाजल जाएत छैक ।

 

 

आवेग सिद्धांत (पुह पुह वाद )

 

एहि सिद्धांत कें मनोरागव्यंजकशब्दमूलकतावाद अथवा मनोभावाभिव्यंजकतावाद सन कठिन नामसं भाषा विज्ञान मे सेहो अभिहित कएल जाइछ ।

 

एहि सिद्धांत क अनुसार हर्ष, शोक, विस्मय, क्षोभ, क्रोध घृणा आदि मनोभाव क सहज अभिव्यक्ति सं जे ध्वनि उत्पन्न होएत अछि,  ओहि सं भाषाक उत्पति भेल अछि । संवेदना किम्बा मनोभाव क उत्तेजना भेलाह सं स्वभाविक रूपें अथवा स्वतः ध्वनि उच्चारित भ जाएत अछि यथा  शोकाकुल वातावरण मे स्वतः आह, विस्मय क स्थिति मे छी- छी, तिरस्कार क भाव मे दुत्त् , हर्षक समय बाह बाह आदि।

 

जखन भाषाक विकास नहि भेल छल तखन मनुष्य एहि प्रकारक ध्वनि सं अपन मनोभाव कें व्यक्त करैत  हैत । क्रमशः भाषा शक्ति क विकास भेल और भाषाक निर्माण भेल।

 

 

आवेग सिद्धांत क समीक्षा

एहि सिद्धांत मे अनेको विसंगति देखल जाइछ । आवेगक अतिरेक सं बहरहाल शब्द क सम्बन्ध स्वभाविक अभिव्यंजना सं नहि होएत अछि । अतः ओ शब्द संप्रेषण प टीए प्रधान भाषाक अंग नहि भ सकैत अछि ।

 

एहि शब्द सभक सम्बन्ध मानसिक संतुलन  सं बेशी शारीरिक प्रतिक्रया सं अछि । एहन शब्दावली सोचि विचारि कए नहि बाजल जाइछ । आवेगक अतिरेकक स्थिति मे स्वतः उच्चारित भ जाएत अछि ।

 

कखनहु काल आवेगात्मक ध्वनि उच्छ्वास द्वारा उच्चारित भ जाएत अछि । आवेगक तीव्रता काल मे मुख विवर खुजल रहैत अछि तखन आ, ओ अथवा ऐं ध्वनि निसृत भ जाइछ । भाषा क चिन्तन सं घनिष्ठ संबंध होएत अछि, और एहन आवेग व्यंजक शब्द मे चिन्तन क सर्वथा अभाव रहैत अछि ।

 

आवेग बोधक शब्द क संख्या अत्यल्प अछि । संगहि एहन शब्द भाषाक अंग नहि भ सकैत अछि । वाक्य मे एहन शब्द का प्रयोग नहिए जंका रहैत अछि ।

 

विभिन्न भाषा मे एहि वर्ग क शब्द में एकरूपता सेहो नहि अछि ।यथा - - हर्षक लेल अंग्रेजी मे हुर्रा (Hurrah), शोक हेतु एलास (Alus), तिरस्कार क लेल फाई (Fie), पीडाक लेल जर्मनी भाषा में आउ (Au), फ्रेंच भाषा मे आहि (Ahi).

 

एहि सं स्पष्ट होइत अछि जे आवेगात्मक प्रतिक्रया मे विभिन्न भाषा भाषी क प्रतिक्रया एकसमान नहि अछि । प्रत्येक भाषा मे देखल जाइछ जे मूल शब्द सं अनेक शब्द निष्पन्न होइत अछि । आवेग बोधक शब्द एहि दृष्टि सं अनुपयोगी अछि ।

आवेग बोधक शब्द कें यथा स्वरूप लिपि बद्ध नहि कएल जा सकैछ ।

 

श्रम ध्वनि सिद्धांत

श्रम करबाकाल स्वभाविक तया श्वास प्रश्वास क क्रिया अधिक तीव्र भ जाएत अछि । जाहि परिणाम स्वरूप शरीरक मांसपेशी क संगहि स्वर तंत्र क संकुचन और प्रसारण होमय लगैत अछि , और कम्पन बढि जाएत छैक । अतः अनायासे किछु ध्वनि निकलि जाएत अछि।यथा - - - - कपडा साफ करबाकाल धोबी हियो --हियो किम्बा छियो छियो बजैत रहैत अछि । एहि तरहें नाव खेबैत काल मलाह , पालकी ल कए चलबा काल कहार आदि श्रमिक लगे जोर हइया आदि क उच्चारण करैत रहैत अछि ।

 

प्रारंभिक काल मे मनुष्य सामुहिक रूप सं काज करैत छल।प्रसिद्ध मानव वैज्ञानिक मेलीनोव्यस्की किछु वन्य प्राणी क आचार व्यवहार क अध्ययन कए प्रमाणित कएलनि जे मनुष्य प्रारंभिक काल मे एसगरे काम करब पसिन्न नहि करैत छल,  एहि अपेक्षा कृत समूह मे काज करबाक सहज प्रवृत्ति रहल अछि । सभ्यता क विकास क संग संग एहन प्रवृत्ति मे क्रमशः ह्रास होएत गेलैक और मनुष्य आत्म केन्द्रित होएत गेल। एक प्रकारे वौद्धिक कार्यक विकासक अनिवार्य परिणाम छल।शारीरिक काज समूह मे कएल जा सकैछ मुदा वौद्धिक काज नहि। एहन मान्यता एखनहु देखल जाएत अछि जे मजदूर मे एसगरक अपेक्षा कृत समूह मे काज करबाक प्रवृत्ति अधिक अछि जेना    पंजाब जएबाक समय मजदूर कतबो भीड रहैत छैक मुदा एकहि डिब्बा मे घुसबाक प्रयास करैत अछि,  ओहि ठाम तथाकथित पढल लिखल लोक स्लीपर अथवा  एसी डिब्बा मे एसगरे रहए चाहैत छथि।

 

कोनो प्रकारक उच्चारित कए एक संग काज करबा मे अधिक शक्ति  क अनुभव करैत अछि । जेना कोनो भारी समान उठएबा काल  लगे जोर भैया कहला सं सुविधा होएत छैक, तैं श्रमक संग उत्पन्न श्रम ध्वनि सिद्धांत कहल जाएत अछि । एहि सिद्धांत कें श्रम परिहरण मूलकतावाद सिद्धांत सेहो कहल जाएत अछि । प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक न्वारे   (Noire ) श्रम ध्वनि सिद्धांते सं भाषाक उत्पत्ति मानैत छथि ।

 

श्रम ध्वनि सिद्धांत क समीक्षा

आवेग बोधक ध्वनि केर  समाने एहि प्रकारक ध्वनि मे सार्थकता अभाव दृष्टि गोचर होइत अछि।हियो हियो अथवा हूँ हूँ सं कोनो अर्थ नहि निकलैत अछि ।

 

आवेग बोधक ध्वनि क सम्बन्ध भावक तीव्रता सं अछि, और श्रमध्वनि क शारीरिक क्रिया सं अन्यथा तात्विक दृष्टि कोण सं दूनू एकहि अछि । निरर्थक ध्वनि सं सार्थक भाषाक उत्पति कल्पना युक्तिसंगत नहि।

 

 

अनुकरण सिद्धांत (Bow  Bow Theorey)

कुकुरक भौं भौं केर अंग्रेजी रूपान्तर अछि अंग्रेजी क बोउ बोउ ।एहि सिद्धांत क नाम मैक्समूलर महोदय बिनोद पूर्वक  रखलनि अछि। एहि सिद्धांत क वास्तविक नाम ओनोमेटिक पीक थ्योरी अछि । किछु विद्वान एहि सिद्धांत कें एकोइक थ्योरी रखने छथि । भारतीय भाषा मे एहि सिद्धांत कें शब्दानुकरणमूलकतावाद कहल जाएत अछि ।

 

एहि सिद्धांत क अनुसार वस्तु क नामकरण ओहि सं उत्पन्न होमय बला प्राकृतिक ध्वनि क आधार पर भेल अछि अर्थात जाहि वस्तु सं जेहन ध्वनि उत्पन्न भेल और ओ सुनल गेल ओकर ओहि ध्वनि क अनुकरण पर नाम राखि देल गेल।यथा - - - - - का   का सं कौआ, कू   कू सं कोयली, झर - - झर सुनि कए झरना आदि।

 

एहि तरहें मिमिआएव गुनगुनाएव, झन झन, चटपट , कलकल ,झमा झम, गिरगिराएव,गरगराएव, बडबडाएव, हरबराएव, सुडकब, हिनहिनाएव  खटखटाएव, खडखडाएव, तरतराएव आदि शब्द ध्वनि साम्यक आधार पर प्रयोग मे आएल।

ध्वनि क समान चाक्षुष साम्यक आधार पर अनेक समान शब्द बनल अछि जेना चकमक चकाचक , झकाझक, जगमग आदि।  विद्यापतिक पंक्ति छनि - - - - - - " घन घन घनन घुंघरू कत बाजय,

                                              हन हन कर तुअ काता।"

 

अनुकरण सिद्धांत क समीक्षा

एहि सिद्धांत क द्वारा मनुष्य वाणी विहीन बुझि पडैत अछि । एहि सिद्धांत क द्वारा भाषाक आरम्भ पशु पक्षी किम्बा प्राकृतिक संसाधन क ध्वनि क अनुकरण सं मानल गेल अछि । परिणामतः भाषाक दृष्टि सं मनुष्य पशु पक्षियो सं हीन कोटि क जीव सिद्ध होयत अछि । कल्पना क दृष्टि सं अग्राह्य बुझि पडैत अछि । पहिल मनुष्य सं पहिने पशु पक्षी कें भाषा प्राप्त भेलैक और तखन ओहि सं मनुष्य अनुकरण कएल।

 

दोसर जखन मनुष्य मे बजबाक शक्ति नहि छलैक तखन मनुष्य मे ध्वन्यात्मक अनुकरण करबाक सामर्थ्य कोना प्राप्त भेलैक ।

 

अनुकरणात्मक ध्वनि क शब्द का संख्या अत्यल्प छैक जाहि सं समृद्ध भाषाक विकास संभव नहि बुझि पडैत अछि । आवेग बोधक शब्द क समान अनुकरणीय मक शब्द क रूप विभिन्न भाषा मे भिन्न भिन्न अछि-

संस्कृत       मैथिली       अंग्रेजी             जर्मन         रूसी

निर्झर      झरना          स्ट्रीम                 स्ट्रोम         रूचेइ

 

अनुकरण मूलक अथवा ध्वन्यार्थव्यंजक शब्द मुख्यतः भाषाक अलंकरण पक्ष मे अबैत अछि, भाषाक आधार प्रस्तुत नहि करैत अछि।

 

एहि सिद्धांत क अनुसार कोनो भाषाक शब्दावली क सीमित अंशक विकास क व्याख्या करैत अछि सम्पूर्ण भाषाक उत्पति क नहि।

 

इंगित सिद्धांत (जेस्चर थ्योरी )

इंगित सिद्धांत क अनुसार मनुष्य अपनहि अंग द्वारा किम्बा आशिंक चेष्टाक वाणी द्वारा अनुकरण कएल और ओही सं भाषाक उत्पति भेल।जेना पानि पीबाकाल दूनू ओष्ट कें सटला सं और श्वास लेबाक समय पा -- पा ध्वनि ध्वनित भेल तं 'पा 'ध्वनि क अर्थ पीब क्रिया मानि लेल गेल। एहि तरहें अनेक ध्वनि ध्वनित भेल

 

समीक्षा

इहो सिद्धांत अन्य सिद्धांत समान कोनो अर्थ मे समीचीन नहि बुझि पडैत अछि । दोसरा सं अनुकरण कएल जएबाक विषय तं संभवो मानल जा सकैछ मुदा अपनहि सं अपन अनुकरण विनोदपूर्ण बुझना जाइछ । अपन अनुकरण के करैत अछि ? वस्तुतः अनुकरण शब्दे अन्य सापेक्ष अछि ।

 

अपन हाथक, पैरक अनुकरण क की अर्थ हेतैक ? पशु पक्षियो सेहो एना नहि करैत अछि , तखन मनुष्य एहन वौद्धिक प्राणी एहि तरहें कोना कएल ?

 

 

समन्वय सिद्धांत

किछु भाषा वैज्ञानिक लोकनि सभ सिद्धांत क समीक्षा करैत सभक समन्वय कें भाषोत्पत्ति क आधार मानलनि अछि । तात्पर्य जे कोनो एक सिद्धांत सं भाषाक उत्पति क आरम्भक मानब उचित नहि।जेना हम विचार कएल अछि जे किछु शब्द अनुकरण सं उत्पन्न भेल अछि, किछु आवेग क तीव्रता सं और किछु शब्द श्रमक साहचर्य सं।

 

एहि तरहें एक एक सिद्धांत कें अलग अलग नहि मानि, अपितु सभक समन्वय सं भाषाक उत्पति क कारण मानब अधिक उचित और व्यापक अछि ।

 

समन्वय सिद्धांत क समीक्षा

सब सिद्धांत कें समन्वित कए देलो पर  भाषाक अत्यंत अल्प अंशक समाधान भेटैछ। उदाहरण स्वरूप देखल जाइछ ' भाषा और विचार क उत्पत्ति क प्रश्न मानव समाज क विकास क संगहि अनिवार्य रूप सं संयुक्त अछि । एहि छोट सन वाक्य मे एहन एकोटा शब्द नहि अछि जे उपर्युक्त सिद्धांत सं सम्बन्धित रूप सं निष्पन्न मानल जा सकैछ।भाषाक व्यापकता और गंभीरता कें देखैत सभ सिद्धांत कल्पना विलास बुझि पडैत अछि ।

 

उपर्युक्त सिद्धांत सं स्पष्ट होइत अछि जे प्रारंभ मे मनुष्य मूक छल,  एहन विषय शारीरिक और मानसिक रूपे उचित नहि बुझि पडैत अछि । चिडै चुरमुन्नी कें बाणी भेटि गेल छलैक और चेतना सम्पन्न मनुष्य बाणी विहीन छल, अनसोहात लगैत अछि । पशु पक्षी बाणी संग ओहि ठाम रहि गेल और मनुष्य समृद्ध समर्थ अभिव्यक्ति क प्रणेता भ गेल।

 

सूक्ष्म अमूर्त भाषाक व्यंजक शब्द क उत्पत्ति क ब्याख्या उपर्युक्त सिद्धांत मे नहि भेटैछ । मात्र स्थूल शब्द ओ अर्थ सं भाषाक उत्पति कथमपि नहि मानल जा सकैछ ।

 

एहि सिद्धांत क समीक्षा सं स्पष्ट होइत अछि जे तथ्य सं बेसी कल्पना कें आधार मानल अछि जे उचित नहि बुझना जाइछ ।