बिहार के इतिहासकारों ने बिहार के इतिहास को लिखते समय इतने निष्ठुर बन गए कि बिहार के हरेंक चौक पर शिवाजी महाराज की मूर्ती तो स्थापित हो गई लेकिन अपने यहाँ के एक भी वीर और प्रतापी राजा का वर्णन करने में अपनी तंगदिली दिखाई । दरभंगा महाराज के चर्चे भी कुछ ही किताबों में नजर आते हैं । ऐसे में उन छोटे राजे-रजवाड़ों का इतिहास दफन होना लाजिमी है। इतिहासकारों ने इतनी निष्ठुरता दिखाई की उन्होने एक ऐसे राजवंश को इतिहास में लिखना ही भूल गए जिनकी चौहद्दी उत्तर बिहार के लगभग 5 जिलों में थी । जी हाँ हम बात कर रहे हैं गन्धवरिया राजवंश की । इतना समृद्ध और शक्तिशाली राजवंश होते हुए भी इतिहास में इनकी चर्चा न के बराबर है । कुछेकु छोट-छोट इतिहसाकार ने इन्हे संकलित करने का प्रयास भी किया है तो बड़े लोगों ने इनके अस्तित्व को ही नकारने का प्रयास किया । लेकिन आज भी दुर्गापुर भद्दी से भीठभगवानपुर होते हुए सोनवर्षा तक इनका फैलाव इतिहासकारों को सोचने पर विवश करता है ।
स्व. श्री राधाकृष्ण चौधरी के अनुसार – स्वर्गीय पुलकित लाल दास ‘मधुर’ जी ने अथक परिश्रम करके गन्धवरिया के इतिहास को लिखकर श्री भोला लाल दास जी के यहॉं प्रकाशन के लिए भेजे थे । किसी कारणवश यह पाण्डुलिपी (जो कि उस समय जीर्णावस्थामें में था ) प्रकाशित नहीं हो सका । फिर बहुत दिनों के बाद ये पाण्डुलिपी श्री चौधरी जी को प्राप्त हुआ । उनके अनुसार ये इतिहास किंवदंती के आधार पर लिखा गया था । क्योंकि गंधवरिया के विषय में कहीं भी कुछ भी प्रामाणिक इतिहास सामग्री नही है । सोनवर्षा राज के केस में गन्धवरिया का इतिहास दिया गया है लेकिन उसमें से जो गन्धवरिया के लोग सोनवर्षा राज के विरोध में गवाही दिये थे उनमें से एक प्रमुख व्यक्ति स्वर्गीय श्री चंचल प्रसाद सिंह मरने से पहले श्री राधाकृष्ण चौधरी से मिले थे । उन्होंने व्यक्तिगत रूप से ये कहा था कि उनका बयान जो उस केज में हुआ था से एकदम उल्टा है । इसलिए गन्धवरिया के इतिहास के लिए उसका उपयोग करते समय उसको रिभर्स करके पढ़ा जाय । उसी केस में एक महत्वपूर्ण बात ये मिला जो गन्धवरिया के द्वारा दिया गया दानपत्र था । जिसमें से कुछ चुने हुए दानपत्र के अंग्रेजी अनुवाद का अंश ‘हिस्ट्री ऑफ मुस्लिम रूल इन तिरहूत’ में प्रकाशित किया गया है । सहरसा जिला में गंधवरिया वंश का इतना प्रभूत्व था तब भी उसका कोई उल्लेख ना ही पुराने वाले भागलपुर गजेटियर में है ना ही जब सहरसा जिला बना और उसका नया गजेटियर बना तब भी उसमें गन्धवरिया राजवंश की चर्चा मात्र एक पाराग्राफ में हुई । इस संबंध में बाबू धीरेन्द्र नारायण सिंह ने अथक प्रयास से जो गंधवरिया राजवंश की वंशावली एकत्र की है वो स्तुत्य है ।
गंन्धवरिया लोगों का गन्धवारडीह अभी भी शकरी और दरभंगा स्टेशन के बीच में है और वहां वो लोग अभी भी जीवछ की पूजा करते हैं । गंधवरिया डीह पंचमहला में फैला हुआ है । ये पंचमहला है – बरूआरी, सुखपुर, परशरमा, बरैल आ जदिया मानगंज । इन सबको मिलाकर पंचमहला कहा जाता है ।
दरभंगा विशेषत: उत्तर भागलपुर (सम्प्रति सहरसा जिला ) में गन्धवरिया वंशज राजपूत की संख्या अत्याधिक है । दरभंगा जिलांतर्गत भीठ भगवानपुर के राजा साहेब तथा सहरसा जिलांतगर्त दुर्गापुर भद्दी के राजा साहेब और बरूआरी, पछगछिया, सुखपुर, बरैल, परसरमा, रजनी, मोहनपुर, सोहा, साहपुर, देहद, नोनैती, सहसौल, मंगुआर, जम्हरा, धवौली, पामा, पस्तपार, कपसिया, विष्णुपुर एवं बारा इत्यादि गॉव बहुसंख्यक छोटे बड़े जमीन्दार इसी वंश के वंशज थे । सोनवर्षा के स्वर्गीय महाराज हरिवल्लभ नारायण सिंह भी इसी वंश के राजा थे । ये राजवंश बहुत पुराना था । इस राजवंश का सम्बन्ध मालवा के सुप्रसिद्ध धारानगरी के परमारवंशीय राजा भोज देव के वंशज से है । इस वंश का नाम ‘’गंधवरिया’’ यहाँ आ के पड़ा है । राजा भोज देव की 35वीं पीढ़ी के बाद 36वीं पीढ़ी राजा प्रतिराज साह की हुई । एक बार राजा प्रतिराज सिंह अपनी धर्मपत्नी तथा दो पुत्र के साथ ब्रह्मपुत्र स्नान के लिए आसाम गए थे । इस यात्रा से लौटने के क्रम में पुर्णियॉं जिलांतगर्त सुप्रसिद्ध सौरिया ड्योढ़ी के नजदीक किसी मार्ग में किसी संक्रामक रोग से राजा-रानी दोनों को देहांत हो गया ।
सौरिया राज के प्रतिनिधि अभी भी दुर्गागंज में है । माता-पिता के देहांत होने पर दोनों अनाथ बालक भटकते-भटकते सौरिया राजा के यहॉं उपस्थित हुए, और अपना पूर्ण परिचय दिए । सौरिया राज उस समय बहुत बड़ा और प्रतिष्ठित राज था । उन्होंने दोनो भाईयों का यथोचित आदर सत्कार किया । और अपने यहाँ दोनों को आश्रय प्रदान किये । बाद में सौरिया के राजा ने ही दौनों का उपनयन (जनेउ) संस्कार भी करवाया । उपनयन के समय उन दोनों भाईयों का गोत्र पता नहीं होने के कारण उन दोनों भाईयों को परासर गोत्र दियें जबकि परमार वंश का गोत्र कौण्डिल्य था । दोनो राजकुमार का नाम लखेशराय और पखेशराय था । दोनों वीर और योद्धा थे । सौरिया राज की जमीन्दारी कुछ-कुछ दरभंगा में भी पड़ता था । किसी कारण से एकबार वहां युद्ध शुरू हो गया । राजा साहेब इन दौनो भाईयों को सेनानायक बनाकर अपने सेना के साथ वहां भेजे । कहा जाता है कि दोनो भाई एक रात किसी जगह पर विश्राम करने के लिए रूके थे कि नि:शब्द रात में शिविर के आगें कुछ दूरी पर एक वृद्धा स्त्री के रोने की आवाज उन दोनों को सुनाई दी । दोनो उठकर उस स्त्री के पास गए । रोने का कारण पुछा । उस स्त्री ने बताया कि ‘’ हम आपदोनों के घर के गोसाई भगवती हैं । मुझे आपलोग कही स्थान (स्थापित कर) दे‘’ । इस पर उन दोनो भाईयों ने कहा हम सब तो स्वयं पराश्रित हैं । इसलिए हमलोगों को वरदान दीजिए कि इस युद्ध में विजयी हो । कहा जाता है उस स्त्री ने तत्पश्चात उन दोनों भाईयों को एक उत्तम खड़ग प्रदान किया, जिसके दोनों भागपर सुक्ष्म अक्षर में संपुर्ण दुर्गा सप्तशती अंकित था । ये खड़ग पहले दुर्गापुर भद्दी में था । उसके पश्चात सोनवर्षा के महाराजा हरिवल्लभ नारायण सिंह उसे सोनवर्षा ले आएं थे । उस खड़ग में कभी जंग नहीं लगता था । वो खड़ग एक पनबट्टा (पानदान – पान रखने का बॉक्स) में मोड़ कर रखा जाता था । और खोल कर झाड़ देने से एक संपुर्ण खड़ग के आकार में आ जाता था । उस खड़ग और देवी की महिमा से दोनो भाई युद्ध में विजयी हुएं । पुरा रणक्षंत्र मुर्दों से पट गया और लाश की दुर्गन्ध दूर-दूर तक व्याप्त हो गई । इससे सौरिया के राजा बहुत प्रसन्न हुए और इस वंश का ना ‘’गन्धवरिया’’ रख गया । यहाँ एक किवदन्ती और भी है कि इन्होने गन्ध अर्थात मलेच्छो के साथ युद्ध किया था और उनका अंत किया था इसलिये इनका नाम गंधवरिया हुआ । ये युद्ध दरभंगा जिलांतर्गत गंधवारि नामक स्थान में हुआ था । गंधवारी और कई और क्षेत्र इन लोगों को उपहार में मिला । लखेशराय के शाखा में दरभंगा जिलांतर्गत (अभी का मधुबनी) भीठ भगवानपुर के राजा निर्भय नारायणजी हुए । और पखेशराय के शाखा में सहरसा के गन्धवरिया जमीन्दार लोग हुए । सहरसा का अधिकतर भूभाग इसी शाखा के अधीन था । दुर्गापुर भद्दी इसका प्रमुख केन्द्र था ।
पखेशराय को चार पुत्र हुए । लक्ष्मण सिंह, भरत सिंह, गणेश सिंह, वल्लभ सिंह । बाबू गणेश सिंह और बाबू वल्लभ सिंह निसंतान हुए । बाबू भरत सिंह के शाखा में धवौली की जमीन्दार आई । लक्ष्मण सिंह के शाखा में सिहौल आया । लक्ष्मण सिंह को केवल एक पुत्र हुआ जिनके हिस्से में सिहौल आया । राजा नरसिंह सिंह को तीन पुत्र हुए – राजा रामकृष्ण सिंह, बाबू निशंक सिंह और बाबू माधव सिंह । इसमें माधव सिंह मुसलमान हो गए और नौहट्टा के शासक हुए । ‘निशंक’ के नाम पर निशंकपुर कुढ़ा1 परगना का नामकरण हुआ । पहले इस परगना का नाम सिर्फ ‘’कुढ़ा’’ था बाद में उसमें निशंकपुर जोड़ा गया । बाबू निशंक सिंह को चार पुत्र हुए – बाबू दान सिंह, बाबू दरियाव सिंह, बाबू गोपाल सिंह और बाबू छत्रपति सिंह । बाबू दरियाव सिंह के शाखा में बरूआरी, बाबू दानी सिंह की शाखा में परसरमा, बाबू गोपाल सिंह की शाखा में गोवड़ गढ़ा और बाबू छत्रपति सिंह की शाखा में कुमार डीह के गन्धवरिया आएं । इधर राजा रामकृष्ण सिंह को चार पुत्र हुए । राजा रंजीत सिंह, राजा वसन्त सिंह, राजा वंशमणी सिंह और राजा धर्मांगद सिंह । इनके हिस्से क्रमश: सिहौल, दुर्गापुर भद्दी, सुखसेना गढ़ी और मानगंज आया ।
वसंत सिंह को जहाँगीर से राजा की उपाधि मिली थी । राजा वसंत सिंह गंधवरिया से अपने राजधानी हटाकर सहरसा जिला में वसंतपुर नामक गाव में बसाएं और वहीं अपनी राजधानी बनाएं । वसंतपुर मधेपुरा से 18 से 20 मील पुरब है । वसंत सिंह को चार पुत्र हुए – राजा रामशाल, राजा वैरिशाल, बाबू कल्याण शाल, बाबू गंगाराम शाल । पहले बेटे का शाखा नहीं चला वो निसंतान हुए । वैरिशाल राजा हुए । बाबू कल्याण सिंह के शाखा में रजनी की जमीन्दारी आई । और बाबू गंगाराम सिंह के शाखा में बारा की जमीन्दारी आई । इन्होंने अपने नाम पर गंगापुर की तालुका बसाई । वैरीशाल को दो रानी हुए । जिसमें पहले वाली पत्नी से केसरी सिंह और जोरावर सिंह हुए और दुसरे पत्नी से पद्मसिंह हुए । जोरावर सिंह के शाखा में मोहनपुर और पस्तपार की जमीन्दारी आई । पद्मसिंह की शाखा में कोड़लाही की जमीन्दारी आई । राजा केसरी सिंह बड़े प्रतिभाशाली व्यक्ति थे । उनको औरंगजेब से उपाधि मिली थी । केसरी सिंह को धीर सिंह, धीर सिंह को कीरत सिंह और कीरत सिंह को हरिहर सिंह और गौतम सिंह नामक पुत्र हुए जो बड़े वीर, दयालू और प्रतापी थे । गंगापुर, दुर्गापुर और बेलारी3 तालुका इनके अधिकार में था ।
इधर राजा रंजीत सिंह से राजा केशरी सिंह, राजा केशरी सिंह से राजा रणभीम सिंह, राजा रणभीम सिंह से राजा सबल सिंह, राजा सबल सिंह से राजा अमर सिंह, राजा अमर सिंह से राजा अर्जुन सिंह, राजा अर्जुन सिंह से राजा प्रहलाद सिंह, राजा प्रहलाद सिंह से राजा फतेह सिंह, राजा फतेह सिंह से राजा नवाब सिंह, राजा नवाब सिंह से राजा मुसाहेब सिंह, राजा मुसाहेब सिंह से राजा वैद्यनाथ सिंह, राजा वैद्यनाथ सिंह से महाराजा हरिवल्लभ नारायण सिंह हुए । यहाँ एक बात की चर्चा और करनी जरूरी है कि राजा फतेह सिंह ही अपनी राजधानी पहली बार सोनवर्षा लाएं थे । लेकिन यहाँ के राजमहल का निर्माण महाराजा हरिवल्लभ नारायण सिंह के हाथों हुआ । कलक्ता की इंजीनियरिंग कंपनी ने चूने और सूर्खी से इस सुंदर महल का निर्माण किया । राजस्थांन से पत्थर मंगवाएं गए और लोहे की सुंदर सीढि़या कलकत्ता से मंगवाई गई । इस तरह महाराजा का भव्य महल तैयार हुआ ।
महाराजा हरिबल्लभ नारायण सिंह इस वंश के काफी प्रतापी राजा हुए । इनका जन्म 7 जुन 1846 ई0 में सोनवर्षा राज में ही हुआ था4 । इनकी दो रानिया थी महारानी तारावती और महारानी नौलखावती5 । महारानी तारावती नि:संतान रही और महारानी नौलखावती से इन्हे एकमात्र पुत्री हुई जिनका नाम रखा गया महाराज कुमारी पद्मावती । इनका विवाह सवाई माधोपुर के प्रिसली स्टैट चौथ का बरवारा में राजा राव लकट सिंह से हुआ । शादी में बारातियों का भव्य स्वागत हुआ था । गाँव के लोगों में जनश्रुति है कि एक महिने तक शादी की तैयारी चलती रही । बारातियों को चांदी के बने बर्तनों में खाना परोसा गया था । दहेज में हाथी और घोड़े भी दिये गए । विभिन्न तरह के आभूषण और रत्न भी सोनवर्षा से हाथियों पर लादकर चौथ का बरवारा भेजा गया । महारानी पद्मावती भी अल्पायु निकली और 20 मई 1915 को इनकी मृत्यु हो गई । ब्रिटिश लेखक रोपर लेथब्रिज ने अपनी किताब गोल्डन बुक ऑफ इंडिया में लिखा है – सोनवर्षा के महाराजा हरिवल्लभ नारायण सिंह को 1875 में राजा की उपाधी और 2 जनवरी 1888 को महाराजा की उपाधी से विभूषित किया गया । वहीं 1873-74 को आएं भूकंप में लोगों की सेवा के बदले में इन्हे राजा बहादुर की उपाधि से नवाजा गया । महारानी विक्टोरिया के भारत में ‘भारत की महारानी’ की घोषणा के समय बिहार के दो महाराजा को हेराल्डिक सिंबल से नवाजा गया था जिसमें हथवा के महाराज और सोनवर्षा के महाराज हरिवल्लभ नारायण शामिल थे । लेथब्रीज ये भी लिखते हैं कि इनके राज्य का चिन्ह एक झंडा था जिसपर हाथी बना हुआ था ।
शिक्षा और महाराज
महाराजा हरिवल्लभ नारायण सिंह के शिक्षा की चर्चा झरखण्डी झा ने अपनी किताब भागलपुर दर्पन में की है । बकौल झा महाराजा शिक्षा के लिये खुले मन से दान करते थे । इन्होने अपने राज्य में उस समय उच्च शिक्षा के लिये एक स्कूल की स्थापना की थी । इनके समय में बड़गाँव भी उच्च शिक्षा का केन्द्र हुआ करता था । सोनवर्षा महाराज ने उस समय कई हजार पुस्तकों के संग एक पुस्तकालय का भी निर्माण करवाया था । जो सभी छात्रों के लिये पुर्णतया नि:शुल्क था ।
1873-74 के अकाल के समय महाराजा ने दिखाई थी दरियादिली
बात 1873-74 की है, बंगाल प्रोविंस सहित समूचे उत्तर भारत में भयंकर अकाल पड़ा था । हालात बद से बदतर होती जा रही थी । भयंकर बारिस के वजह से सब कुछ तबाह हो गया था, अनाज से लेकर पेड़ पौधे तक सभी सड़ गए थे । लोग दाने दाने को मोहताज़ हो रहे थे । ब्रिटिश सरकार आफ़त में थी, अपने और अपनों में से चुनने में बड़ी परेशानी हो रही थी । ऐसा नही था कि मदद नही मिल रही थी, ग्लॉसगौ ने 4 लाख रुपए की मदद की थी, वहीं सेन फ्रांसिस्को के मेयर ने भी भरपूर मदद की थी । अकाल राहत कोष में उस समय 9 लाख रुपए जमा हो गए थे, लेकिन फिर भी ये रुपए उस आफत के लिए कम था ।
अपने लोगों को बचाने के किए प्रिंसली स्टेट के राजाओं ने तत्कालीन वायसराय से मदद की गुहार की । वायसराय लार्ड नॉर्थबूक ने तत्काल डलहौजी हॉउस में एक चैरिटेबल मीटिंग रखी और सभी राजाओं से मदद की मांग की । वायसराय ने खुद आगे बढ़कर 10 हज़ार रुपए की, उसके बाद भारत के कई राजाओं और कंपनियों के मालिक ने आगे बढ़कर मदद की । उपरांत वायसराय की अध्यक्षता में एक 15 सदस्यीय टीम बनाया गया जो अकाल राहत की मॉनिटरिंग करते । इस टीम में दरभंगा महाराज, बंगाल के महाराज, लाहौर के नवाब सहित अन्य लोग शामिल थे । कर्नल एटली इस टीम के सचिव बने और अकाल राहत पर तेजी से काम शुरू हुआ ।
हमारे सोनबरसा के महाराजा हरिबल्लभ नारायण सिंह ने भी उस समय 1000 रुपए की मदद अकाल राहत कोष में की । इसके अलावे उन्होंने अपने क्षेत्र में अपने भंडार का मुँह खोल दिया । लोगों को आसरा देने के लिए कई प्लेटफॉर्म का निर्माण करवाया और भी बहुत से काम किए । उनके इस अकाल राहत कोष के कार्यों से खुश होकर 1875 ई0 में इन्हें 'राजा' की उपाधि से सम्मानित किया गया ।
वह काली रात
बात एक अप्रैल 1907 की है । सोनवर्षा राज से 10 मील दक्षिण में कांप नामक सर्किल में महाराजा किसी काम से गए थे । वहाँ उनका राजसी टेन्ट लगा हुआ था । रात के साढ़े नौ बजे शौच से लौटते समय अज्ञात व्यक्ति ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी । उनकी हत्या की खबर उस समय देश के प्रतिष्ठित अखबार टाइम्स और इंडिया के साथ-साथ ब्रिटिश अखबार द होमवार्ड मेल6 में भी छपी थी । तत्कालिक मजीस्ट्रेट सर एन्ड्रयू फ्रेजर ने उस उनके मौत पर गहरी संवेदना व्यक्त की थी और इस मौत की गुत्थी को सुलझाने के लिये एक हाई लेवल इन्कवाइरी बिठवाई थी । चुकी राजा को कोई पुत्र नहीं था इसलिये राज्य को कोर्टस ऑफ वार्डस (Act IX of 1879 (B. C.) के अधीन करना पड़ा । महाराजा की दूसरी महारानी नवलखाबती महाराज के मृत्यु के बाद खिन्न हो गई थी और अपना बांकि का जीवन बनारस के घाट पर बिताने का निर्णय लिया । कंपनी सरकार ने इनके रहने और खर्चे के लिये 1000 रूपये प्रतिमाह का इंतजाम कर दिया तथा 100 रूपये प्रतिमाह पूजा के लिये अलग से दिया गया । कंपनी सरकार ने 19 सालों तक सोनवर्षा राज के शासन की बागडोर अपने हाथों में रखी । बाद में जब कुमार पद्मावती के बेटे राव राव बहादुर प्रताप सिंह बड़े हुए तो इन्होने कंपनी सरकार को कोटर्स ऑफ वार्डस तोड़ने के लिये अपील की । फलत: रूद्र प्रताप सिंह को सोनवर्षा की जमींदारी मिली । रूद्र प्रताप सिंह के तीन पुत्र हुए प्रथम कुमार दौलत सिंह द्वितीय कुमार सुख सिंह एवं तृतीय कुमार अलिमर्दन सिंह | 1949 में राजा राव बहादुर रूद्र प्रताप सिंह की मृत्यु के प्रश्चात उनके बड़े बेटे कुमार दौलत सिंह सोनवर्षा के राजा हुए । ये सोनवर्षा के अंतिम राजा भी हुए क्योंकि 1954ई0 में इस्टेट भारत सरकार के अधीन हो गया । 1956 ई0 में ये लोग सोनवर्षा राज छोड़कर सिमरी बख्तियारपुर के चपरांव कोठी को अपना निवास सथान बनाया । कुमार दौलत सिंह के दो पुत्र हुए कुमार मुनेश्वर प्रताप सिंह और कुमार शिव प्रताप सिंह । संप्रति इनके वंशज आज भी वहाँ निवास करते हैं ।
इतना सबकुछ होते हुए भी गन्धवरिया के वंश का कोई प्रमाणिक इतिहास नही बन पाया है । जो कुछ दानपत्र अंग्रेजी दानपत्र के अनुवाद से मिला है उसमें से भी ज्यादा भीठ-भगवानपुर राजा साहेब का । भीठ-भगवानपुर गन्धवरिया के सबसे बड़े हिस्से की राजधानी थी और उनलोगों का अस्तित्व निश्चित रूप से दृढ़ था और वो दानपत्र देते थे जिनका की प्रमाण है । दरभंगा के गन्धवरिया लोगों ने भी अपनी इतिहास की रूपरेखा प्रकाशित नहीं की है । इसलिए इस सम्बन्ध में कुछ कहना असंभव है । बकौल राधाकृष्ण चौधरी ओइनवार वंश के पतन के बाद ‘भौर’ क्षेत्र में राजपुत लोगों ने अपना प्रभुत्व जमा लिया था । और स्वतंत्र राज्य स्थापित करना चाहते थे । खण्डवला कुल से उनका संघर्ष भी होता रहता था7 । और इसी संघर्ष के क्रम में वो लोग भीठ-भगवानपुर होते हुए सहरसा- पुर्णियाँ की सीमा तक फैल गए । गन्ध आ भर (राजपुत) के शब्द मिलन से गन्धवारि बना और उसी गाँव को इन लोगों ने अपनी राजधानी बनाई । कालांतर में भीठ भगवानपुर इन लोगों को प्रधान केन्द्र बना । इतिहास की परंपरा का पालन करते हुए इन लोगों ने भी अपना सम्बन्ध प्राचीन परमार वंश से जोड़ा और ‘’नीलदेव’’ नामक एक व्यक्ति की खोज की । उसी क्रम में कोई अपने आप को विक्रमादित्य के वंशज तो कोई अपने आप को नान्यदेव के वंशज बतलाते हैं । राधाकृष्ण चौधरी के अनुसार – उनके पास भीठ भगवानपुर की वंश तालिका नहीं है । लेकिन सहरसा के गंधवरिया लोगों की वंश तालिका देखने से ये स्पष्ट होता है कि परमार भोज और नान्यदेव से अपने को जोड़ने वाले गन्धवरिया लखेश और परवेश राय को अपना पूर्वज मानते हैं । एक परंपरा ये भी कहती है कि नीलदेव गंधवरिया में आकर बसे थे और ‘जीवछ’ नदी को अपना कुलदेवता बनाए थे । कहा जाता है कि नीलदेव राजा गंध को मारकर अपना राज्य बनाए थे । सहरसा जिला में भगवती के आशीष स्वरूप राज मिलने की जो बात है इसमें भी कई प्रकार की किंवदंती है ।8
संदर्भ सूची
1) बात 1172-76 की है । मिथिला पर कर्नाटवंशीय राजा नान्यदेव का राज था, और उधर बंगाल में सेन वंश अपने चर्मोत्कर्ष पर था । बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले के कानसोना (कर्णसुवर्ण) के राजा आदिशूर (विजयसेन) के आदेश से उनके पुत्र बल्लालसेन ने मिथिला पर आक्रमण कर दिया ।
अनेक युद्ध हुए और अंततः नान्यदेव परास्त हुए और बल्लालसेन उन्हें बन्दी बना कर ले गए । बल्लालसेन के इस विजय के इनाम स्वरूप उन्हें 'निःशङ्कशंकर' की उपाधि मिली । और इसी उपाधि के बाद बल्लालदेव ने मिथिला में 'निशंकपुर कुढ़ा' परगना कायम किया । उनकी कचहरी भीठ-भगवान पुर में लगती थी । भागलपुर का ये परगना 'निशंकपुर' के नाम से सुविख्यात हुआ । जो बाद में अपभ्रंश होकर "निसंखपुर कुढ़ा" (सोनबरसा के आखिरी राजा विदआउट सन थे, इसलिए लोगों का मानना था की ये निशंख अर्थात जो पुत्रहीन है ) पड़ा । वैसे कुछ लोगों का मानना है कि निशंकपुर परगना का ये नाम गंधबरिया राजवंश के राजा निशंक सिम्हा के नाम पर पड़ा है । लेकिन वल्लालसेन के सनोखर शिलालेख से इस बात का पता चलता है कि बल्लालसेन का प्रभुत्व भागलपुर तक था । यह भी माना जाता है कि सेन वंश के शासन का केंद्रबिंदु निशंकपुर कोढ़ा ही था । माना जाता है कि नान्य वंश औऱ सेन वंश का मध्यबिंदु सहरसा ही था और दोनों राजा अक्सर भेंटवार्ता के लिए सहरसा ही आते थे ।
2) शाहजहाँ ने इन्हे दुर्गापुर भद्दी की सनद दी थी ।
3) एक जनश्रुति इस इलाके में विख्यात है कि उस समय दरभंगा राज की कोई महारानी कौशिकी स्नान के लिए आई थी । उन्हें जब ये पता चला कि ये दुसरे लोगों का राज्य है तो बोली – हम किसी दुसरे के राज्य में अन्न जल ग्रहण नहीं कर सकते हैं । उसके बाद जगदत्त सिंह तुरंत उनको बेलारी तालुका का दानपत्र लिख उनसे स्नान भोजन का आग्रह कियें । वो बेलारी तालुका अभी तक बड़हगोरियाक खड़ोडय बबुआन लोगों के अधिकार में था । उसके बाद राज दरभंगा का हुआ ।
4) The golden book of India, a genealogical and biographical dictionary of the ruling princes, chiefs, nobles, and other personages, titled or decorated, of the Indian empire BY SIR ROPER LETHBRIDGE, K.C.I. E. प्रकाशन वर्ष 1893, प्रकाशक - MACMILLAN AND CO. AND NEW YORK.
5) The High Court of Judicature at patna appeal no. 26 of 1923 Rao bhadur Man Singh vs Nawlakhbati and Another on 2 December, 1925
6) The Homeward Mail, 20 April 1907, London 7) मिथिलाक भाषामय इतिहास, लेखक मुकुन्द झा बख्शी
I AM P.hD RESEARCHER FROM BNMU HISTORY DEPARTMENT SANJAY KUMAR CONTACT -9709642488. IF YOU HAVE ANY MORE INFORMATION ABOUT GANDHWARIYA RAJPOOT OF PANCHMAHLA. PLZ SHERE IT . I WILL MANTION THIS IN MAY THESIS . KINDLY
ReplyDelete