Monday, January 28, 2013

प्रिय तुम मुस्कुराती रहो

प्रिय,

इस तरह गुस्से से लाल होना कहाँ सीखा आपने? पल में इतने सारे रंग, इतने सारे भाव की खुद गिरगिट भी शर्मा जाए आपको देखकर। ये आपके अन्दर की नैसर्गिक कला हैं या सिखा हैं तुमने इन मगरमच्छो से भरी दुनिया में रहकर। तुम्हारा वो मुखचन्द्रकमल जो कभी चाँद को भी मात दे देता था आज अस्ताचलगामी सूरज की तरह हो गया था। वो रोद्ररूप, रणचंडी सा विशाल मुख क्रोध के कारण कितना कुरूप हो जाता हैं पता भी हैं तुम्हे। ऐसा भयावह की रक्तबीज भी गश खा के गिर जाय हमारी क्या मजाल हैं।
प्रिय तुम जब गुस्सा करती हो तो अच्छा लगता हैं लेकिन जब तुम क्रोध आता हैं ना तो तुम बिलकुल कुरूप हो जाती हो ठीक किसी चाँद की तरह जो पूर्णिमा के बाद सीधा अमावास देख लिया हो। प्रिय क्या क्रोध करना जरुरी हैं, क्या जरुरी हैं अपने इस मुख कमल को अनार की फुल की तरह बनाना।
प्रिय तुम हँसते हुए कितनी सुन्दर दिखती हो पता भी हैं तुम्हे। मन मयूर सा नाच उठता हैं तुम्हारे हँसते हुए चेहरे को देखकर। ऐसा लगता हैं जैसे बच्चे को मिल गया हो उसका सबसे बेहतरीन खिलौना। प्रिय आपका वो शांत चेहरा मुझे शकुन देता हैं तन्हाई में भी। जब भी मुझे परेशानी होती हैं या फिर होता हूँ उदास तुम्हारा वो हँसता मुस्कुराता चेहरा याद कर लेता हूँ और बस भर जाती हैं मेरे अन्दर एक नई चेतना एक नै स्फूर्ति। प्रिय तुम हमेशा मुस्कुराती रही ताकि खिल सके फुल बागों में और गा सके पंक्षी और नाच सके मोर। प्रिय तुम हमेशा मुस्कुराती रहे ताकि जी संकू मैं और जिन्दा रह सको तुम।

तुम्हारा
प्रिय

Thursday, January 17, 2013

एक छोटे सफ़र की छोटी दास्तान

Indian railway information

प्रिय,
याद हैं तुम्हे वो लोकल ट्रेन सहरसा से पटना के बीच की कितना हिलती थी यार, कभी कभी तो लगता था आगे वाला डब्बा हमें छोड़ कर आगे ना चले जाए। मालगाड़ी से भी ज्यादा हिचकोले खाती वो ट्रेन का डब्बा जब धगड़ धगड़ करके चलता तो एक मीठा सा डर और अजीब सा आनंद आ जाता था ना तुम्हे किस कदर चिपक के बैठ जाती थी तुम मुझसे। तुम्हारा सामीप्य और भी अधिक गहरा जाता था ना उन चंद घंटो में। तुम्हारी उँगलियों की वो छुअन मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ। वो गुदगुदाता एहसास, वो अजीब सी ख़ुशी कैसे भूल पाऊंगा। अब भी वो यादे किसी काली-सफ़ेद चलचित्र की तरह धुंधली धुंधली सी मेरे यादो में चलती रहती हैं। प्रिय ना तो अब वो छूअन हैं ना ही वो एहसास और अब पैसेंजर ट्रेन की शांति भी अजीब सी धक्का मुक्की में बदल गयी हैं। गाड़ियों की वो मंथर गति अब तेज रफ़्तार की ट्रेन में बदल गयी हैं। छुक छुक करता धुवां अब बिजली के तारों में उलझ कर रह गयी हैं, अब ना तो वो शांति हैं ना शुकून। पटरियों के साथ लगे वो पेड़ भी औधोगीकरण की मार से बेहाल हो दम तोड़ चुके हैं। अब सुबह सुबह ट्रेन में आँख खुलने से चिड़ियों की चहचाहट नहीं सुनाई देती अब बस सुनाई देती हैं ट्रेन का कोरस। अब पटना के पुल से गुजरते हुए या सिमराही घाट से गुजरते हुए गंगा का शुकून भी नहीं मिलता, जैसी मैली गंगा कातर भाव से कह रही हो अब नहीं सहा जाता। प्रिय कितना बदल गया हैं हमारा गाँव, एक छोटा सा क़स्बा जो कभी कोशी के किनारे शांत सा पड़ा रहता था गाड़ियों की धुक-धुक और धुल मिटटी से दब गया हो जैसे। अब आम कोल्ड स्टोरेज से आने लगे हैं, आम की मिठास कोल्ड स्टोरेज की बदबू में दबकर रह गयी हैं। अब रेलगाडी भी रेलगाड़ी नहीं रही अब तो वो पेलमपेल गाडी हो गयी हैं। हा हा हा मुझे पता हैं तुम हँसोगी ये शब्द सुनकर लेकिन अब कुछ ऐसा ही हैं अब, एक 72 सीट वाले डब्बो में हजारो लोग सफ़र करने लगे हैं। दूधिये का आंतक तो अलग ही हैं, अगर इन भीड़ से बचकर अगर कहीं खडकी के पास बैठ भी गए तो दूध और घास की गट्ठर ही दिखाए देंगे। ताज़ी हवा उन हजारो लोगो के पसीनो में दब कर रह जाती हैं। प्रिय कैसे बताऊँ तुम्हे मैं उस यात्रा को, कितना तकलीफदेह और दुखदाई हैं लेकिन फिर भी लोग सफ़र करते हैं इस आश में की उनकी जन्मभूमि पुकार रही होती हैं उन्हें हौले हौले से। और यही शब्द जैसे भर देता हो उनके अन्दर एक अलग जोश एक अलग जज्बा और यही उन्माद उसे जिन्दा रखता हैं उन अंसख्य लोगो के बीच और बस इसलिए नहीं निकल पाती उसी जान उससे क्योंकि मातृभूमि होती हैं उनके आँखों के करीब। प्रिय फिर कभी मिलो तो हम जरुर घूमेंगे फिर से उस मजेदार सफ़र में ... मैं और तुम सिर्फ मैं और तुम।

तुम्हारा प्रिय
 

Thursday, January 3, 2013

एक ख़त दामिनी के नाम

प्रिय दामिनी,

मुझे पता हैं, मेरे पिछले ख़त की तरह ये ख़त भी तुम्हे नहीं मिलेगा फिर भी मैं ये ख़त लिख रहा हूँ। दामिनी मुझे पता हैं की आजकल तुम बैकुंठ में विराज स्वर्गलोक का आनंद ले रहे होंगी। लेकिन फिर भी अगर समय मिले और ये ख़त मिले तो पूरा जरुर पढना। दामिनी मुझे पता हैं अब ब्रह्मषि नारद भी मर्त्यलोक का चक्कर नहीं लगाते, भूलोक का कृत्य देखकर अब वो भी लजाने लगे हैं लेकिन फिर भी लिखे जा रहा हूँ।
दामिनी बस ये पूछना चाहता था की क्यों इस तरह रात के अँधेरे में तुम हमें छोड़कर चली गयी। क्या इतना भी नहीं सोचा की कैसे जियेगा तुम्हारा ये भाई तुम्हारे बिन। बहन मुझे पता हैं पूस की ये रात तुम्हारे लिए दुष्कर और दुसहः था तुम्हारे लिए और उससे भी दुसहः था तुम्हारा वो दर्द जो उन पापियों ने दिया था तुम्हे, लेकिन इस तरह लाखो लोगो के आशाओं पर तुषारापात कर तुम्हे विदा नहीं लेनी चाहिए।
प्रिय बहन मुझे ये भी पता हैं की तुम नहीं जीना नहीं चाहती थी इस दुष्ट संसार में, सोच रही होंगी तुम की कैसे ढोंउगी मैं अपना ये अपवित्र देह। लेकिन बहन तुम क्यों भूल गई की गंगा कभी अपवित्र नहीं होती चाहे क्यों ना बहा दी जाए उसमे दुनिया जहान की गंदगी। क्यों तुम भूल गयी थी तुम पवित्र थी आज भी उतनी ही जितना थी पहले। एकदम गंगा की तरह साफ़ और निर्मल। बहन क्या दुष्टों की दुनिया से इस तरह मुँह छिपाकर अँधेरी रात में विदा लेना कायरता नहीं हैं। क्यों नहीं रुकी तुम इस दुनिया में उस दुष्टों के संहार के लिए, क्यों भूल गयी तुम की अनाथ हो जायेगी वो सारी अबला तुम्हारे बिन जिसके अरमान जगे थे तुम्हारे मुहीम से। हाँ बहन! तुम्हे पता हैं कितना आंदोलित हुआ हैं ये देश तुम्हारे साथ हुए अन्याय पर, कितना रोया हैं, कितना दर्द हुआ हैं, लेकिन दामिनी जो भी हो तुमने झंकझोर कर रख दिया उनकी आत्मा को, जो  कल तक  लाज की गठरी और चूड़ियाँ पहने घर में बैठी थी समाज और सरकार के डर से वो अब बाहर आ रही हैं; हक़ और इन्साफ के लिए।

प्रिय बहन तुम्हे पता हैं, तुम्हारी ये शहादत बेकार नही जाने वाली, देश की दामिनी अब जाग गयी हैं। जम्मू की खबर तो तुम्हे मिल ही गयी होगी किस तरह तुम्हारी बहादुर बहन ने गुंडों के को मुंह तोड़ जवाब दिया था। अब वो सब भी मुंह छिपाकर जुल्म और अत्याचार को नहीं सहती बल्कि सीना चौड़ा कर उसका सामना करने लगी हैं और ये सब सिर्फ तुम्हारे कारण हो पाया हैं।
प्रिय दामिनी एक बात और जो मैं तुमसे पूछना चाहता था - कभी मौका मिले तो पूछना उस भगवान् से की उसे तुम्हारी दारुण पुकार क्यों नहीं सुनाई दी थी। क्या हो गया था उस समय भगवान् को देश के लाखो लोग हाथो में मोमबत्ती लिए तुम्हारी सलामती की दुवा कर रहे थे? क्या उन लाखो लोगो की दुवा भी नहीं पहुँच पायी थी उन तक, अगर हाँ तो फिर क्यों नहीं भेज किसी हनुमान को तुम्हारे पास संजीवनी लेकार। या फिर देखने और सुनने की शक्ति कम हो गयी हैं उनकी। क्या वैद्धराज भी आकस्मिक छुट्टी पर चले गए थे जो नहीं कर पाए उनका इलाज़ सही समय पर। ऐसे कुछ सवाल हैं जिसे तुम जरुर पूछना।

अंत में, प्रिय मुझे पता हैं तुम खुद नहीं रहना चाहती थी इस जालिम समाज में जो जिन्दगी के बाद भी कदम-कदम पर तुम्हे उस गलती के लिए उलाहना देते जो तुमने किया ही नहीं था। बहन बस इतना कहना चाहूँगा की ये क्रांति की मशाल जो तुमने जलाई थी उसे खतम मत होने देना, और अगले जनम अगर मनुष्य देश मिले तो मेरी बेटी बनकर आना।