Monday, December 24, 2012

दामिनी तुम्हे उठना होगा

प्रिय दामिनी,

एक सवाल कौंध रहा हैं मेरे मन में, पिछले कुछ दिनों से जब से घटी हैं वो मर्मान्तक घटना तुम्हारे साथ। लुट लिया था कुछ दरिंदो ने तुम्हारी अस्मत, घायल कर दिया था तुम्हारी अस्मिता को, और फेक दिया था सड़क के किनारे पूस की उस रात में नील आसमान के निचे। दमिनी तब से सोच रहा हूँ मैं, एक नासूर बन कर पनप रहा हैं वो सवाल मेरे भीतर .... की क्यों नहीं आई तुम्हे याद की तुम्ही हो चंडी जिसने वध किया था चंड और मुंड जैसे दैत्यों का, तुम्ही हो काली जिसने चूस लिया था रक्त-बीज का लहू, और तुम्ही हो दुर्गा जिसने किया था उस दुरात्मा महिष का वध। क्या भूल गयी थी तुम झाँसी की रानी को जिसने अंग्रेजो के छक्के छुडा दिए थे। क्या किरण बेदी का आत्मविश्वास भी तुम्हे याद नहीं आया था या तुम भूल गयी थी मलाल के जिगर को। दामिनी ; क्या तुम्हे किसी जामवंत की याद आन पड़ी थी उस समय जो याद दिलाता तुम्हे तुम्हारी शक्तियों का तुम्ही हो बुद्धि, बल और विद्या की देवी। जब वो भूखे भेड़िये टूट पड़े थे तुम पर जैसे कुत्ते टूटते हैं हड्डियों पर तो तुमने क्यों नहीं दिखाया था अपना रोद्र रूप जिसे देखकर देवता भी काँप जाते हैं। या तुम इन्तेजार में थी उस कृष्ण की जिसने द्वापर में बचाया था द्रोपदी की लाश। दामिनी तुम भूल गयी की वो द्वापर थे इसलिए कुछ पुण्य बचा था। ये कलयुग हैं जहाँ पाप ही पाप हैं। जहाँ देवता भी कतराते हैं अवतार लेने से। आने की बात तो दूर उन्होंने सुनी भी नहीं होगी पुकार क्योंकि दब गई होगी तुम्हारी चीख, उन टायरो के शोर में, बस की घड्घडाहट में और पापियों की अनंत शोर के बीच। प्रिय दिल्ली के इस प्रदुषन के बीच कृष्ण का श्याम स्वरूप कही काला ना पड़ जाए इस डर से नहीं आये थे तुम्हारे कृष्ण कन्हैया। लेकिन तुम्हे तो होना चाहिए न अपने बाज़ुओ पर भरोसा। जब वो दरिन्दे नोच रहे थे तुम्हारी अस्मत तब कहा गुम गयी थी तुम। बोलो जवाब दो। बताओ दुनिया को। क्योंकि तुम्हारी चुप्पी रोज एक दमिनी को जन्म देगी। और रोज एक लड़की होती रहेगी इन भूखे भेडियो के हवस का शिकार। रौंदी जाएगी लडकियाँ सिर्फ तुम्हारे चुप रहने से। तुम्हे उठाना ही होगा। तुम्हे देना ही होगा आवाम को ठोस जवाब। तुम्हे फिर से उठाना होगा एक शेरनी की माफिक और देना होगा जवाब उस दुरात्मा को। तुम्हे जागना होगा क्योंकि तुम नहीं चाहोगी की लाखो लड़की ऐसे ही रोज दामिनी बनती रहे। सरे राह, बीच बाज़ार, और बसों की अगली सीट पर। तुम्हे उठना होगा ताकि नहीं हो लग सके फिर किसी लड़की की बोली। तुम्हे उठाना होगा क्योंकि नहीं सह सकती तुम इंडिया गेट पर कड़ी उन लडकियों की पीड़ा जो सरकार के कोप का शिकार हो रहे हैं तुम्हारे हक़ के लिए। तुम्हे उठाना होगा अपने लिए नहीं अपितु उस आवाम के लिए जो पलक पावडे बिछाए हैं अपने प्यारी "दामिनी" के लिए।

तुम्हारा
एक अज्ञात लेकिन अन्दर ही अन्दर झुलसता लेखक

प्रिय तुम डरो मत, तुम दुर्गा, चंडी, और काली हो

प्रियतम,

याद हैं तुम्हे दिल्ली की वो ताजातरीन बलात्कार की घटना, कितना उद्धेलित कर दिया था ना उस घटना ने तुम्हे, रोक नहीं पायी थी तुम अपने आँसुओ को, सरोवर समुन्द्र स विशाल बन गया था तुम्हारे आंसू की धार से। लेकिन प्रिय तुम्हे समझना होगा की स्त्री आज भी उतनी ही हैं विचलित है, जितना हुआ करती थी सतयुग, द्वापर और त्रेता में। याद हैं तुम्हे अहिल्या का, पत्थर की बन रह गयी थी बेचारी उफ़ तक नहीं किया, और बन गयी पत्थर की उस पाप के लिए जिसको उसने किया ही नहीं। क्योंकि नारी तब भी सिर्फ सहनशीलता और त्याग की ही ही मूर्ति थी। फिर आया त्रेता, सब ने सोचा राम राज्य हैं । महिलाओं को अब मिलेगा मान-सम्मान लौटेगा उनका खोया हुआ स्वरूप, फिर स पूजी जाएगी महिला उसी रूप में जिसके लिए वो हैं वांछित। लेकिन प्रिय राम ने मर्यादापुरषोत्तम की लाज ही नहीं रखी, दसरथ ने जिस पुत्री को ठुकरा दिया दिया था उसे ना ला सके वापस। फेर लिया मुंह शांता से । और शांता चुप रही क्योंकि उसने सुन रखी थी सती की कहानी अपनी माँ से, ताकती रही बाट लेकिन एक बार भी नहीं मिल सकी अपने भाई या पिता से। सब सह गयी चुपचाप। फिर आयी सीता, लोगो ने सोचा दसरथ ने जो प्यार बेटी को नहीं दिया उससे ज्यादा बहु को मिलेगा, राम-राज्य स्थापति होगा, स्त्रियाँ फिर से सर उठाकर जी सकेगी। लेकिन प्रिय सीता नहीं छोड़ सकी अपनी पति का साथ, या फिर स्त्री होने का बोझ, निभाया उनहोंने स्त्री होने का धर्म ( प्रिय यहाँ धर्म ही कहूँगा क्योंकि शास्त्रों को तो ये लोग अपनी उंगलिया पर नचाते हैं) और चल पड़ी अपने पती के पीछे जंगल तक, लेकिन क्या सिला दिया राम ने उसके सती प्रेम का, पहले ली अग्नि परीक्षा और फिर फ़ेंक दिया जंगल में एक धोबी के कहने पर। क्या यही कहता हैं राज धर्म ? की क्या पत्नी कुछ भी नहीं होती राज के सामने क्या इतना प्रिय था उन्हें अपनी गद्दी। या फिर सीता ने सिर्फ चुकाया था अपने स्त्री होने की कीमत। की क्या इसलिए चढ़ी आग पर ताकि वो एक स्त्री थी। क्या राम ऐसा कुछ कर सकते थे अपने पिता या भाइयो के साथ। नहीं प्रिय क्योंकि स्त्री हमेशा से सहने के लिए होती हैं। कितने रूपों में ना जाने कितने कीमत चुकाती हैं। कभी माँ, कभी बेटी और कभी बहन के रूप में कितने जीवन एक ही जीवन में जीती हैं। और प्रिय द्रोपदी की वो करूण पुकार तो आज भी गूंज रही होगी ना तुम्हारे कानो में की किस तरह उनके ही बंधू बांधवों ने लुट ली थी उनकी अस्मत। किस तरह वो करूण क्रदन नहीं सुनाई दिया था भीष्म पितामह और घ्रितराष्ट्र को। क्या हो गया था उस भरी सभा को, क्यों मार गया था लकवा, क्योंकि सिर्फ वो स्त्री थी। प्रिय सोचो क्या होता अगर भगवान् नहीं आते उस पुकार को सुन कर। क्या मिशाल देते लोग, एक राजा सिर्फ इसलिए जुए में हार गया अपने बीवी को क्योंकि वो स्त्री थी। और प्रिय ये तो फिर भी कलयुग हैं। पुण्य जहाँ मंदिरों में भी नहीं रहते हैं। वहां लोगो से क्षमा और मर्यादा की क्या बात करे। प्रियतम उस लड़की ने जो सहा वो उसका नसीब हैं ये कह कर इस जघन्य अपराध को टाला नहीं जा सकता हैं। क्योंकि स्त्री सहती आई हैं, सतयुग, त्रेता और द्वापर से ;अहिल्या, सीता और द्रोपदी के रूप में तो कलियुग की क्या बिसात, ये सोच कर हम चुप नहीं रह सकते। हम लड़ेंगे तब तक जब तक नहीं मिल जाती लडकियों को उनका खोया हुआ सम्मान। प्रिय याद हैं तुम्हे बल, बुद्धि और विद्या की देवी स्त्री हैं। फिर क्यों ये स्त्री इतनी अबला हैं। प्रिय कभी कभी तो लगता हैं की इन्हें भी जरुरत हैं किसी जामवंत की जो हनुमान की तरह याद दिला सके इन्हें इनका भुला हुआ ज्ञान, और बल। बता सके इन्हें की तुम झाँसी की रानी थी जिसने छुड़ाया था अंग्रेजो के छक्के। तुम्ही थी वो मैत्रयी  जिसके आगे पराजित हुए थे शंकराचार्य भी। बस प्रिय जिस दिन इनकी अन्दर की भावना जाग गयी ना उस दिन नहीं कर सकेगा कोई भी हिम्मत इनकी और आँख उठाने का। फिर नहीं होगी बलात्कार की शिकार किसी बस या किस होटल में। फिर नहीं लुटेगी स्त्रियों की अस्मत सरे आम बाज़ार में और कुछ लोग हिजड़ो की तरह खड़े होंगे हाथ बांधे। फिर नहीं बहा सकेगा कोई इनके अस्मत लुटने के बाद घड़ियाली आंसू। फिर नहीं लगेगी बेटियों की बोली। नहीं बिकेगी कोई स्त्री बाज़ार में। नहीं समझी जायेगी स्त्रियाँ मर्दों के पावों की जूतियाँ। और नहीं फैलेगा कोई जनसैलाब इंडिया गेट और जंतर मंतर पर इनके अधिकारों के लिए क्योंकि प्रियतम ये जो इनका हक़ हैं उन्हें किसी संवैधानिक मुहर की जरुरत नहीं हैं, क्योंकि ये खुद तय कर सकती हैं समाज की दशा और दिशा।

प्रिय अंत में इतना ही कहूँगा की तुम्हे अहिल्या, सीता, और द्रोपदी बनने की जरुरत नहीं हैं। तुम्हे जरुरत हैं वक्त के साथ रणचंडी बनने की जिसने ना जाने कितने रक्तबीज का संहार कर दिया। जरुरत हैं झाँसी की रानी बनने की जिसने छुड़ा दिया था अंग्रेजो के छक्के। तभी प्रिय तुम रह सकोगी इस समाज में, जिसमे मनुष्य की खाल में छिपे भेड़िये स्त्रीयों को देखकर उसी प्रकार लार टपकाते हैं जैसे हड्डी को देखकर कुत्ता।

तुम्हारा
प्रिय



Thursday, December 13, 2012

प्रिय मुझे गर्व हैं तुम पर

प्रियतम,

देखा हैं हमने सूरज के आग को, किस तरह से हो जाता हैं लाल। जब होता हैं वो अपने पुरे शबाब पर। मुझे पता हैं की नहीं हैं जलना उसकी नियति, फिर भी वो जलता रहता हैं घुट घुट कर। उसी तरह प्रिय मैंने देखा था तुम्हे कल अपने पुरे आवेश में। कैसे हो गयी थी तुम लाल सूरज की तरह जब खोया था तुमने एक अदना सा वस्तु। तुम्हारा अधेर्यापन दिखा था मुझको जब तुम हो रही थी उतावली उसे पाने के लिए। तुमने तो जैसे ख़त्म ही कर ली थी अपनी जीने की जिजीवषा उस छोटे से वस्तु  के पीछे, क्या सचमुच उतना अनमोल था वो। या अर्थ में तौलने जा रही थी तुम अपने प्यार को।

प्रिय मुझे पता हैं, बड़े अरमानो से बचाया था तुमने वो चंद कागज के टुकड़े, दिन रात एक करके, पाई-पाई जोड़कर ताकि तुम खरीद सको 'हमारी माँ' के लिए एक मुट्ठी ख़ुशी। लेकिन प्रिय क्या तुम भूल गई की पैसे से खुशिया नहीं खरीदी जा सकती, खरीदे जा सकते हैं कुछ बेजान सी वस्तु जिसमे नहीं होता प्यार और जो होता है क्षणभंगुर माया की तरह। लेकिन क्या तुम्हे पता हैं वो भी हुई होगी उतनी ही विकल जब तुमने सुनाया होगा अपने सपनो के अंत की दारुण कथा। उस माँ के लिए बेटी की ख़ुशी ही होगी नव वर्ष का सबसे कीमती उपहार। प्रिय मुझे याद हैं जब रोते हुए दिल को तुमने बड़ी मन्नतो से समझाया होगा की छलका ना देना आँखों से मोती की बुँदे उस माँ के सामने जो इन्तेजार में हैं पलक पाँवड़े बिछाए अपने बेटी के की वो लाएगी खुशिया और भर देगी मेरी झोली एक बार फिर से जो की ख़तम हो गयी थी उसके बेटे के अरमानो तले।

प्रिय तुम्हारा वो गमनीम चेहरा जो अन्दर ही अन्दर खुद से लड़ रहा था को देखकर अनायास ही याद आ गया मुझे उस बड़े शायर का शेर की ' हल्का सा तव्व्सुम लफ्ज़ ए मासूम पर लगाकर भींगी हुई पलकों को छुपाना भी एक हुनकर हैं'. प्रिय किस तरह पीया होगा तुमने आँशु के वो घुट, कैसे रोक पाया होगा तुमने अपने दर्द को, भगवान् शंकर को भी नहीं हुआ होगा उतना दर्द जब उसने पिया था हलाहल का प्याला। उस घडी कैसे रोका होगा तुमने अपने कांपते होठों को। कैसे संयत की होगी तुमने अपने चेहरे की भाव भंगिमा। कैसे भूल पाऊंगा तुम्हारे अन्दर के उस उम्दा कलाकार को  जिसने एक ही पल में दिखा दिया था अपने अभिनय का बेजोड़ प्रदर्शन।

प्रिय मुझे याद हैं माँ भाप गई थी तुम्हारे दिल की कशमकश को, समझ गयी थी की बेटी परेशान हैं, गले से लगा लिया था उन्होंने, और गोद में सिर रखकर हौले से सहलाते हुए प्यार से पूछा था  तुमसे "बेटा क्या हुआ तुझे ?" हाँ बेटा ही तो थी तुम उनके लिए, एक बेटे जैसी अपेक्षाएं और आकांक्षा ही तो पाल रखा था उन्होंने तुमसे।

प्रिय मन ही मन में रो पड़ता हूँ जब याद करता हूँ वो दृश्य, ठीक किसी चलचित्र की भांति आज भी हो जाती हैं जीवंत मेरे आँखों के सामने जब माँ के प्यार भरे शब्द सुनते ही छलक गई थी तुम्हारी आँख, वो मोतियों की बुँदे जो ना जाने कब से कैद थी तुम्हारे पलकों के बीच। और माँ के गोद में सर छुपये रोती रही थी तुम अविरल और निर्बाध। और फिर तुम्हारा वो आंशुओ से भरा चेहरा जब माँ ने लिया था अपने दोनों हाथो में और प्यार से पोछते हुए आँशु पूछा था ये सवाल "बेटा सब ठीक तो हैं".

प्रिय अजीब अंतर्द्वंद में फस गई थी ना तुम, की कैसे बताएं माँ को की मैं ना खरीद सकी उनके खुशियों को, की खुशियों की चाभी जिस तिजोरी में बंद थी वो तिजोरी ही गम गई। की इस नादान बेटी ने चूर-चूर कर दिया उन सपनो को जिसे माँ की आँखों ने देखा था एक बेटे के रूप में तुम्हारे अन्दर।

प्रिय, तुमने हौले से अपना सर उठाते हुए सिर्फ दो शब्द कहे थे "कुछ नहीं माँ बस आज रोने का मन कर रहा था" क्योंकि तुमने  देखा लिया था चमक अपने माँ के आँखों में और जिसे नहीं होने देना चाहती थी तुम मद्धम किसी भी कीमत पर।

प्रिय तुम्हारा वो आत्मविश्वास फिर से जी उठा, उस एक शब्द ने, उन दो आँखों ने फिर से भर दिया तुम्हे जोश से और तुम चल पड़ी फिर से अपने माँ के सपनो को पूरा करने। प्रिय मुझे गर्व हैं तुम पर और संग में मेरी सुभकामना भी।

तुम्हारा
प्रिय

Monday, December 10, 2012

पहले मिलन पर प्रियतम के नाम


प्रिय प्रियतम,

नहीं भूल पाऊंगामैं , हमारा वो पहला मिलन। जब हम मिले थे पहली बार वातानुकूलित कमरे के उस लाल मकान में। की जब चमक गई थी तुम्हारी आँखे मुझे देखकर उसी तरह, की जैसे मिल गया हो, मोरनी को मोर, और चाँद को चकोर। की जैसे बन के आया होऊं मैं वो उसके बूंद जिसके लिए तरसती हैं सीपियाँ भी चातक से ज्यादा। जगमग करते उस कमरे की हज़ार वाट की लाईट भी पर गई थी मद्धम जब चमकी थी तुम्हारी आँखे, और तुम्हारी वो हँसी मुझे अब तक याद हैं, की खिड़की से झांकता चाँद भी छुप गया था शरमाकर बादलो के बीच।

और प्रिय मुझे दिख गया था तुम्हारा वो नम चेहरा भी, जब दिल की बात पहली दफे आई थी तुम्हारे जुबान पर। सर्द होंठो के अल्फाज अब भी गूंज रहे हैं मेरे कानो में जब तुमने हौले से पूछा था 'क्यों करते हो मुझसे इतना प्यार' . और मैं चुप सा देखता रह गया था तुम्हारी उन आँखों को। प्रिय तुम्हारी वो आँखे; सुनी होते हुए भी इन बंद होठो से जवाब मांग रही थी। तब मैंने सुनी थी तुम्हारी दिल की धड़कन भी जैसे चल रहा हो कोई मालगाड़ी किसी पथरीली जमीं पर। मुझे पता हैं तुम्हे ये दो पल की ख़ामोशी दो साल लगा होगा। प्रिय मैंने देखा था तुम्हारा वो गुलाब सा खिला चेहरा जैसे सूरजमुखी को मिल गया हो चार किरणे सूरज की, और वो मुश्किल से झलकने वाली मोतियों जैसे दांत जब निकलती थी तो शर्मा जाती थी वो ट्यूबलाईट भी इन सफ़ेद मोतियों के आगे। और जब धक् से रुक गई थी तुम्हारी को मालगाड़ी की धक्-धक् जब मैंने थमा था तुम्हारा हाथ अपने हाथों में याद हैं ना तुम्हे, कैसा अजीब सा शुकून अजीब सा प्यार छलक रहा था तुम्हारे चेहरे पर, चुप रहते हुए भी जैसे बहुत कुछ कह गए हो हम दोनों एक दुसरे से।

और प्रियतम कैसे भूल पाओंगे तुम भी वो मिलन की बेला, जब एक दुसरे से लिपटे हुए हम हो गए थे एकाकार, और वो पहला चुम्बन की होठो को छूते ही शर्म की लाली करने लगी थी तुम्हारे चेहरे पर अठखेलियाँ, और लाख थामने के बाद  भी धडकने लगा था तुम्हारा दिल जम्बो जेट की स्पीड से। लेकिन फिर भी तुम थी शांत, स्थिर मेरे बाहों में खुद को देती सांत्वना, की मैं हम महफूज़ अपने प्रियतम के पास।

और प्रिय मुझे याद हैं वो बिछुड़ने की बेला भी जब अधूरे मन से विदा किया था मैंने आपको आपके घर एक पुनर्मिलन की आकांक्षा के साथ की हम फिर मिलेंगे इसी जगह, इसी तरह, एक नए सिरे से प्यार के कुछ नए पल लिए। और प्रिय हम बिछड़ गए फिर मिलने के लिए। क्योंकि बिछड़ कर मिलने का अपना अलग ही मज़ा होता हैं। प्रिय तुम फिर मिलना क्योंकि भूल नहीं पाऊंगा मैं उस याद को तब तक, जब तक की हम मिल न ले दुबारा फिर से

तुम्हारा
प्रिय





Sunday, December 9, 2012

गाँव मैं लौटूंगा

 गाँव मैं लौटूंगा
अपना वादा निभाने
जो कर के गया था
तुझसे बिछड़ते समय
की हम मिलेंगे दोबारा
एक नए जज्बे
एक नए जोश के संग
जब मैं लिखूंगा
इतिहास तुम्हारा
एक नए सिरे से
और तुम फिर से
मुझे अपने बाँहों में
भरकर करना
उतना ही प्यार
जितने के लायक हूँ मैं।
क्योंकि 'माँ' मुझे पता हैं
पुत्र कुपुत्र हो सकते हैं
माता कुमाता नहीं होती।
गाँव मैं लौटूंगा
मेरे वादा हैं तुमसे









Wednesday, November 28, 2012

एक राजा जो निरंकुश नहीं था



डॉ सर कामेश्वर सिंह और डॉ राजेंद्र प्रसाद
महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह, खंड्वाला, दरभंगा पर जमींदार की हैसियत से साशन करने वाले अंतिम वंशज था। महामहोपाध्याय महेश ठाकुर ने 1576 इ0 में मुग़ल वंश के राजा अकबर से तिरहुत पर राज करने का आदेश लिया था। उसके बाद वो राजा और महाराजा से सम्बंधित होने लगे। शोत्रीय समुदाय से मैथिल समुदाय में आने के कारण उनको अपना टाइटल ठाकुर से बदल कर सिंह करना पड़ा। इस वंश के आखिरी महाराजा सर कामेश्वर सिंह ( 1907-1962) हुए। वह बिना किसी कारण के मरे हालाँकि उनकी विधवा महारानी कामसुन्दरी उर्फ़ कल्याणी देवी अभी भी जिन्दा हैं। उन्होंने किसी भी वारिस को गोद नहीं लिया।

दरभंगा किसी समय में भारत की सबसे बड़ी जमींदारी थी। इसका विस्तार 2400वर्ग मील था, जिसमे 7500 गाँव पूर्ण रूप से और 800 गाँव आंशिक रूप से जुड़े थे। इसमें 6000 से ज्यादा स्टाफ इस पुरे जमींदारी की देख-रेख के लिए थे। इस जमींदारी की रूचि व्यापार में भी थी। इनके खुद के 14 विभिन्न उत्पादों जैसे एविएशन, पब्लिशिंग, प्रिंटिंग, सुगर, कॉटन, जुट, बैंकिंग, शिपिंग, और शेयर ट्रेडिंग आदि के उधोग थे जिनसे सालाना आय 50 करोड़ आती थी।

महाराजा के वंश में सभी पढ़े लिखे समझदार और परोपकारी थे। इनके परोप्कारो के लाभार्थी में भारतीय कांग्रेस, बीएचयु, कलकत्ता विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, मिथिला विश्वविद्यालय, पटना चिकित्सा विश्वविद्यालय,एवं अस्पताल, दरभंगा विश्वविद्यालय, मुज्जफरपुर नगरपालिका, मुजफ्फरपुर न्यायालय आदि हैं। इसके अलावा सैकड़ो इंस्टिट्यूट और हज़ारो व्यक्तिगत उपकार भी इनके खाते में हैं।

महाराजाधिराज के व्यक्तिगत रूप से किये गए कार्य निम्न हैं।
चिट्ठी, चित्र, भाषण और आलेखों से महाराजाधिराज दरभंगा का व्यक्तित्व का पता चलता हैं, वह भारत के सबसे बड़े जमींदार बने साथ ही साथ वह एक बड़े उधोगपति भी थे जिनके अधिकार में चीनी, सूती, लोहा और इस्पात, विमानन, और प्रिंट मीडिया जैसे 14 से अधिक उधोग थे। दरभंगा राज 2500 वर्ग मील में फैला था जिसमे 4595 गाँव थे जो बिहार और बंगाल के 18 सर्किल में फैला हुआ था। 7500 से अधिक अधिकारी इनके राजकाज को सँभालते थे, जबकि 12000 से अधिक गाँवों में इनके शेयर थे।

महाराजाधिराज ना केवल सिर्फ एक बड़े जमींदार और उधोगपति थे बल्कि मिथिला के शिक्षा और विकास के लिए एक उपयुक्त व्यक्ति भी थे। एक हाथ से जहाँ उन्होंने शिक्षा के लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, बिहार विश्वविद्यालय, और कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, मिथिला रिसर्च इंस्टिट्यूट दरभंगा के निर्माण में बहुत बड़ी राशि दान की वहीँ राजनैतिक पार्टियों जैसे कांग्रेस पिछड़े वर्ग के नेता तथा स्वयमसेवी संस्था  जैसे YMCA और YWCA के बराबर और वृहत दान दिए। एक तरफ जहाँ उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में वायुसेना को तीन लड़ाकू विमान दिए थे वही दूसरी तरफ उन्होंने सिख और हिन्दू सैनिको को 5-5 हज़ार रूपये त्यौहार मनाने के लिए दिए थे। साथ ही साथ 50 एम्बुलेस सेना के मेडिकल टीम को दिया था। जीवन के हरेक डगर में वो हरेक का साथ देते थे। उनके द्वारा लाभार्थी व्यक्तियों में डा0 राजेंद्र प्रसाद, मौलाना अबूल कलाम आजाद, सुभाष चन्द्र बोस, महत्मा गाँधी, महाराजा ऑफ़ जयपुर, रामपुर के नवाब, और दक्षिण अफ्रीका के स्वामी दयाल सन्यासी शामिल हैं।

स्वतंत्रा सेनानी और बिहार विधान सभा के सदस्य जानकी नंदन सिंह कहते हैं की एक बार जब महत्मा गाँधी, मालवीय जी और डा0 राजेंद्र प्रसाद जी के साथ दान लेने के लिए दरभंगा आये तो उन्होंने महाराजाधिराज से एक लाख रूपये दान की अपेक्षा की थी, लेकिन उस समय वो हतप्रभ रह गए जब उन्हें सात लाख का चेक मिला। वो लोग भी महाराजाधिराज के दान देने के प्रवृति के कायल हो गए।

वह एक अच्छे राजनेता भी थे वो दो 1931 और 1934 में राज्य-परिषद् के सदस्य चुने गए। साथ ही एक बड़े अंतर से 1937 में परिषद् के सदस्य चुने गए। वे संविधान सभा, कुछ समय के लिए राज्य सभा और उसके बाद 1962 में अपनी मृत्यु तक राज्य सभा के सदस्य बने।

महराजधिराज के बारे में कुछ रोचक तथ्य :-
  • 1931 में  लन्दन में हुए गोलमेज सम्मेलन के सबसे कम उम्र के प्रतिनिधि
  • 24 साल की उम्र में भारत के सबसे कम उम्र के विधायक
  • 1932 से राज्य परिषद, संविधान सभा के अंतरिम संसद और राज्य सभा के सदस्य 1962 तक
  • चर्चिल की भतीजी से महात्मा गांधी की पहली प्रतिमा बनवाएं और फिर प्रदर्शन के लिए भारत की वायसराय के समक्ष प्रस्तुत 1940 में प्रस्तुत किया
  • 1942 में ब्रिटिश सरकार ने स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ लड़ने के लिए महाराजाधिराज से मदद मांगी थी और महाराजाधिराज ने  किसी भी प्रकार से मदद करने को  इनकार कर दिया था
  • स्वतंत्रता संघर्ष के लिए कांग्रेस को कई लाख रूपये दान दिए
  • दक्षिण अफ्रीका में स्वामी भवानी दयाल सन्यासी को रंगभेद के खिलाफ संघर्ष में काफी मदद किये
  • व्यक्तिगत स्तर पर लाभार्थियों में महात्मा गांधी, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सुभाष चन्द्र बोस, मौलाना आजाद, बाबू जगजीवन राम, और कई अन्य नेता थे.
  • 1936-37 में कांग्रेस की मदद करने के लिए किरायेदारी अधिनियम और अन्य नियमो में सुधार किये
  • YWCA को भारत और मिश्र में पैसे और इमारतों के रूप में बहुत बड़ी राशि दान दियें
  • बीएचयू, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, PMCH, बिहार विश्वविद्यालय, कलकत्ता विश्वविद्यालय को बहुत बड़ी राशि दान दियें 
  • दरभंगा में संस्कृत विश्वविद्यालय की भूमि, भवन और पुस्तकालय के लिए दान दिए
  • मिथिला अनुसंधान संस्थान की पुस्तकालय, भूमि , दरभंगा की स्थापना के लिए और विशाल राशि दान दिए
  • भूदान आन्दोलन में  बिनोवा भावे जी को 1,15,000 एकड़ भूमि दान किये 
  • 4497 गांवों में से 1950 में पंडित नेहरु के अनुरोध पर कोई मुआवजा लिए बिना अपनी जमींदारी की
  • अपने साशन के समय बिहार चीनी, जूट और कागज मिलों के एक नंबर था
  • 1948 में दरभंगा विमानन कंपनी की स्थापना की जो भारत में दूसरा निजी विमानन कंपनी थी
  • बिहार में किरायेदारों के अधिकारों के लिए अंत तक लड़े
  • 'दरभंगा कप' पोलो के खेल में कलकत्ता में सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार हैं 
  • सन् 1935 में उन्होंने संतोष के महाराजा संग फुटबॉल के  पहले ऑल इंडिया एसोसिएशन के साथ आयोजन करवाया

Sunday, November 18, 2012

लोक आस्था का महापर्व "छठ"

कहते हैं दुनियाँ उगते सूरज को हमेशा पहले सलाम करती हैं, लेकिन बिहार के लोगो के लिए ऐसा नहीं हैं। बिहार के लोकआस्था से जुड़े पर्व "छठ" का पहला अर्घ्य डूबते हुए सूरज को दिया जाता हैं। यह ना केवल बिहारियों की खासियत हैं बल्कि इस पर्व की परंपरा भी की लोग झुके हुए को पहले सलाम करते हैं, और उठे हुए को बाद में। लोक आस्था का कुछ ऐसा ही महापर्व हैं "छठ"


सामूहिकता का हैं प्रतीक - सामूहिकता के मामले में बिहारियों का यह पर्व पूरी दुनिया में कहीं नहीं मिलेगा। एक ऐसी मिशाल जो ना केवल आस्था से भरा हैं, बल्कि भेदभाव मिटाकर एक होने का सन्देश भी दे रहा हैं। एक साथ समूह में नंगे बदन जल में खड़े हो भगवान् भाष्कर की अर्चना सभी भेदभाव को मिटा देती हैं। भगवान् आदित्य भी हर सुबह यहीं सन्देश लेकर आते हैं, की किसी से भेदभाव ना करो, इनकी किरणे महलों पर भी उतनी ही पड़ती हैं जितनी की झोपडी पर। इनके लिए ना ही कोई बड़ा हैं ना ही कोई छोटा, सब एक सामान हैं। भगवान्  सूर्य सुख और दुःख में एक सामान रहने का सन्देश भी देता हैं। इन्ही भगवान् सूर्य की प्रसन्नता के लिए हम छठ पूजा मनाते हैं।
मैया हैं छठ फिर क्यों होती हैं सूर्य की पूजा  - दीपावली के ठीक छः दिन बाद षष्ठी तिथि को होने के कारण इसे छठ पर्व कहते हैं। व्याकरण के अनुसार छठ शब्द स्त्रीलिंग हैं इस वजह से इसे भी इसे छठी मैया कहते हैं। वैसे किवदंती अनके हैं कुछ लोग इन्हें भगवान् सूर्य की बहन मानते हैं तो कुछ लोग इन्हें भगवान् सूर्य की माँ, खैर जो भी आस्था का ये पर्व हमारे रोम रोम में बसा होता हैं। छठ का नाम सुनते ही हमारा रोम-रोम पुलकित हो जाता हैं और हम गाँव की याद में डूब जाते हैं।
दुनिया का सबसे कठिन वर्त - चार दिनों यह व्रत दुनिया का सबसे कठिन त्योहारों में से एक हैं, पवित्रता की इतनी मिशाल की व्रती अपने हाथ से ही सारा काम करती हैं। नहाय-खाय से लेकर सुबह के अर्घ्य तक व्रती पुरे निष्ठा का पालन करती हैं। भगवान् भास्कर को 36 घंटो का निर्जल व्रत स्त्रियों के लिए जहाँ उनके सुहाग और बेटे की रक्षा करता हैं। वही भगवान् सूर्य धन, धान्य, समृधि आदि पर्दान करता हैं।
नहाय खाय - 17 नवंबर ( इस दिन व्रती कद्दू की सब्जी, चने की दाल, और अरवा चावल का भात खाती हैं)
खरना - 18 नवंबर ( दिनभर उपवास रखकर व्रती खीर-रोटी खायेंगी, इसके बाद 36 घंटे का उपवास शुरू हो जाता हैं )
संध्या अर्घ्य - 19 नवंबर ( जल में खड़े होकर अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ दिया जाएगा)
प्रातः अर्घ्य - 20 नवंबर ( उदयीमान सूर्य को अर्घ्य के साथ लोक आस्था का महापर्व छठ का समापन )

क्या हैं पौराणिक कथा - पौराणिक कथा के अनुसार महाभारत काल में अपना राज्य गवां चुके पांडवों की दुर्दशा देखकर दुखी द्रोपदी को रहा नहीं गया, और उन्होंने भगवान कृष्ण की सलाह पर सूर्यदेव की पूजा की थी। इसके बाद ही पांडवों को अपना राज्य वापस मिला था। एक अन्य कथा के अनुसार भगवान् श्रीराम के लंका विजय से लौटने के बाद माँ सीता ने कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्टी तीथी को सूर्य की उपासना की थी जिससे उन्हें सूर्य जैसा तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई।

औरंगाबाद के देब में हैं इसका जीता जागता उदहारण - औरंगाबाद जिले के देब का सूर्य मंदिर भारत सहित दुनिया में प्रसिध हैं। कहते हैं जब मुग़ल शासक औरंगजेब पुरे भारत के मंदिरों को गिरता हुआ यहाँ आया तो इस सूर्य मंदिर को भी तोड़ने का आदेश दिया। लेकिन मंदिर के भक्तो ने इसे ना तोड़ने का आग्रह किया। एवं इससे जुड़े मान्यता एवं शक्ति औरंगजेब को बताई। इस पर औरंगजेब ने कहा की अगर सूर्य देव में शक्ति हैं तो वह मंदिर के प्रवेश द्वार को पूरब से पश्चिम करके दिखाएँ। अगर ऐसा हुआ तो वह मंदिर को नहीं तोड़ेंगे। कहते हैं रातभर में ऐसा ही हुआ। यह देखकर औरंगजेब भी इनके शक्ति के आगे नतमस्तक हो गए और मंदिर को बिना तोड़े ही वहां चले गए।

आस्था के नाम पर होने लगा व्यापार - छठ पर्व का त्यौहार अंग देश से शुरू हुआ था, इस वजह से इस पूजा में वहां होने वाले फलों, और सामग्रियों की विशिष्ठता रहती थी जैसे उत्तर पूर्व भारत में गन्ना, निम्बू, सिंघारे आदि प्रचुर मात्र में मिलता था जिससे लोग प्रसन्न होकर सूर्य की सेवा में अर्पित करते थे, लेकिन बाजारवाद के साथ ये त्यौहार भी बदलने लगा हैं। देशी खुसबू से दूर होता ये त्यौहार ग्लोबलाइजेशन की भेंट चढ़ता जा रहा हैं। अब लोग बांस के सूप की जगह पीतल, ताम्बा, सोने और चांदी के सूप का प्रयोग करने लगे हैं। फलो का भी रंग बदल गया और काजू बादाम के संग अनके तरह की मिठाई आ गई हैं। और आस्था का यह त्यौहार फैशन और अंतर्राष्ट्रीय मार्किट की सोभा बनती जा रही हैं।

Sunday, November 11, 2012

बिना बेटियों के कैसे हो लक्ष्मी पूजा

 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:' । अर्थात जहाँ नारियों की पूजा होती हैं, वहां देवता विराजते हैं। लेकिन जहाँ घरो सिर्फ लडको को ही मान दिया जाता हो, लड़के-लड़कियों में हमेशा विभेद किया जाता हो। घर आँगन को लडकियों के किलकारी से दूर रखा जाता हो। जहाँ लडको के आगमन पर खुशिया मनाई जाती हो और लड़कियों के आगमन पर मातम।जहाँ पती-पत्नी बात बात पर कलह करते हो, हमेशा एक दुसरे से मन-मुटाव रहता हो। हमेशा एक दुसरे की कमिया निकाली जाती हो। जहाँ लडकियाँ बोझ अभिशाप और ना जाने क्या क्या समझी जाती हो, वहाँ  चाहे आसमान से सोना ही क्यों ना बरसे "लक्ष्मी" सर पर पैर रखकर भागती हैं। ऐसी जगहों पर लक्ष्मी कभी निवास नहीं करती।

उत्तर बिहार खासकर बिहार में दिवाली की तैयारी अमूमन दसहरा से ही शुरू हो जाती हैं। घरों की साफ़ सफाई से लेकर रंगाई-पुताई सब शुरू हो जाती हैं। तरह-तरह के आयोजन कर लक्ष्मी और गणेश को मनाया जाता हैं। उनका स्वागत किया जाता हैं, की लक्ष्मी जी आइये, गणेश जी आइये आपका स्वागत हैं। आप हमारे घर पधारकर हमें कृतार्ध कीजिये। हमें धन, धान्य एवं समृधि प्रदान कीजिये। लेकिन हम देवी देवताओं के चक्कर में भूल जाते हैं की घर में जो लक्ष्मी अर्थात बेटी हैं वो उपेक्षा की शिकार हो रही हैं, उसको वो मान सम्मान नहीं मिल पा रहा हैं जो उन्हें मिलना चाहिए। जब घर की ही लक्ष्मी उदास हो तो बाहर के देवी लक्ष्मी कैसे खुश रह सकती हैं।

जी हाँ मिथिला ही नहीं अपितु पुरे भारतवर्ष में बेटियों को लक्ष्मी का दर्जा दिया गया हैं। बेटियों के जन्म के समय चाहे कितना भी मातम हो ये कहकर सांत्वना दी जाती हैं की घर में लक्ष्मी आई हैं। अगर देखा जाय तो बेटी लक्ष्मी का ही रूप होती हैं, इन्हें ये लक्ष्मी या अन्नपूर्णा का दर्जा यूँ ही नहीं दिया जाता। एक स्त्री कठिन परिश्रम के जरिये तिनका-तिनका जोड़कर घर बनाती हैं। घर के साफ़ सफाई से लेकर घर वालों के स्वास्थ का भी पूरा ध्यान अकेले ही रखती हैं। कितनी भी मुसीबते आये अकेले ही झेल लेती हैं, लेकिन अपने परिवार पर जरा सी भी आंच नहीं आने देती हैं। एक अकेले स्त्री एक साथ इतनी भूमिका निभाती हैं की देवी लक्ष्मी भी खुद शर्मिदा हो जाए। एक बेटी, एक पत्नी और एक माँ रूप में एक ही जन्म में कितने जीवन जीती हैं। हमारे यहाँ लड़कियों को ये संस्कार भी दिया जाता हैं की एक सुखी स्त्री का अर्थ हैं उसका सुखी परिवार, फिर बात चाहे मायके की हो या ससुराल की। बेटियां इसलिए लक्ष्मी हैं की वो जहाँ भी जाती हैं उस घर को ऐसा बना देती हैं की वहां से सुख और शांति कभी हटने का नाम नहीं लेती हैं। और पत्नी इसलिए गृहलक्ष्मी हैं की वह ना हो तो घर की कामना करना ही व्यर्थ हैं। परिवार की खुशियों में ही जिसकी ख़ुशी हैं ऐसे बेटी को लक्ष्मी नहीं तो और क्या कहेंगे।

लेकिन आंकड़े आज अलग हैं, लक्ष्मी का ये रूप आज हर घर में तिरस्कृत हो रही हैं। अब बेटी लक्ष्मी नहीं कुल्टा, और कुलाक्षिनी कहलाने लगी हैं। लोग स्त्रियों को आज भी लाचार, अबला और दया की दृष्टि से देखते हैं। जबकि धन, शक्ति और बुद्धि का विभाग आज भी देवियों के पास हैं। आज की लक्ष्मी ना सिर्फ समाज में शोषित हो रही हैं, बल्कि अपने घर में भी तिरस्कृत हो रही हैं। दहेज़ के लिए जलाई जा रही हैं, इज्जत के लिए मौत के घाट  उतारी जा रही हैं। बदनामी के डर  से शिक्षित समाज भी घर की लक्ष्मी को आँगन से बाहर कदम ना रखने पर मजबूर कर रही हैं। अकेले भ्रूण हत्या के मामले भी हम दुनिया से आगे हैं। अब सवाल हैं कैसे जब घर की लक्ष्मी के साथ ही ऐसे व्यवहार किया जाएगा तो बहार से लक्ष्मी कैसे आएगी।

लक्ष्मी पूजा सही अर्थो में स्त्रियों की पूजा हैं। अपने घर की बहु-बेटियों के विकास में अपना योगदान देकर, उनके कार्यो की सराह्कर आप असल मायने में लक्ष्मी की की पूजा कर सकते हैं। अपने घर की बहु बेटियों को जिस दिन से आप आगे बढ़कर साथ देंगे असल मायने में अपने घर की सुख, समृधि, और वैभव को बढ़ने में योगदान देंगे। और असल में लक्ष्मी की पूजा तभी सार्थक होगी जब घर की लक्ष्मी का मान देंगे। तो आइये इस लक्ष्मी पूजा पर हम प्रण लें की स्त्री ही हमारे घर की असल लक्ष्मी हैं। और इनके मान सम्मान और हौसला आफजाई से हमारे घर धन-धान्य, वैभव, और समृधि आएगी।

Friday, November 9, 2012

मैं, तुम, और वो - एक प्रेम कहानी

दोस्तों नमस्कार आज मैं आप लोगो के सामने एक  प्रेम कहानी रखने जा रहा हूँ। अब जैसा की लाजिमी हैं कहानी प्रेम की हैं तो एक लड़का और लड़की तो होगी ही, तो पहले हम क्यों ना पात्र  परिचय करवा दूँ। इस कहानी में दो लोग हैं एक हैं "मैं" और एक  "तुम", चलो मान लेते हैं की, 'मैं' जो हैं वो एक लड़का हैं और 'तुम' जो हैं वो एक लड़की हैं।

पात्र परिचय -:

मैं -: 'मैं' एक मैंगो मेन  हैं, जो किताबे पढता हैं, कहानी लिखता हैं, घंटो अकेले बात करता हैं, अपने आप में खोये हुए हर वक्त कुछ सोचता रहता हैं। कभी खुद से बाते करता हैं, कभी खुद से शिकायत करता हैं, जो यमुना किनारे बैठा रहता हैं;घंटो अकेले, कभी भीड़ में खो जाता हैं पुराने सूटकेस की तरह, कभी भीड़ से अलग दीखता हैं नए गिटार की तरह, एक ओल्ड फैशन लड़का जो गुरुदत्त को देखता हैं और गुलाम नवी को सुनता हैं। ध्रुपद और धमार भी जिसे बहुत पसंद हैं। जो मूंगफली खाता हैं, और दूध पीता हैं। साफ़ शब्दों में कहे तो "मैं" एक मैंगो मेन  हैं यानी आम आदमी।

तुम -: 'तुम' एक महत्वाकांक्षी लड़की हैं, जो नए फैशन की हैं, जिसे शॉपिंग पसंद हैं, नए कपडे और ज्वेलरी जिसे खुद से भी ज्यादा प्यारे हैं। जो हिरोइनों  की नक़ल करना चाहती हैं। जो ब्रिटनी और शकीरा से भी आगे निकलना चाहती हैं। जिसे सिर्फ इस मतलब हैं की वो क्या हैं, लोग उसे किस नजरो से देख रहा हैं। वो सुन्दर दिखना चाहती हैं और सुन्दर। शायद अपने आप से भी। उसे नए ज़माने की चीज़े पसंद हैं, आइसक्रीम, पिज़्ज़ा, बर्गर, और हॉटडॉग उसे बहुत पसंद हैं। पता नहीं लेकिन कभी कभी वो वोडका भी पी लेती हैं। फुल टू  नए ज़माने की जिसे सिर्फ और फैशन पसंद हैं। कोस्टा की कॉफी, डोमिनोज का पिज़्ज़ा उसके प्रिय हैं। चलने की लचक, और बोलने की अदा सब अलग हैं उसकी, एकदम अलग।
वो -: वो सिर्फ एक छलावा हैं, एक ऐसा छलावा जिसने "मैं" और "तुम" की जिन्दगी में वो तूफ़ान ला दिया जिसकी उसने अपेक्षा भी नहीं की थी।

प्रेम कहानी -: इस प्रेम कहानी में पुराने ज़माने की तरह कोई राजा या रानी नहीं हैं, ना ही शिरी और फरहाद की तरह कोई पहाड़ तोड़कर नदी ला रहा हैं। ये कहानी हैं बस एक ऑफिस के दो लोगो की जो एक दुसरे के संग रहते रहते पता नहीं कब प्यार कर बैठे। ये घटना हैं 2 दिसंबर 2010 की हैं, आम आदमी ने अपने पुराने ऑफिस को छोड़कर एक नए ऑफिस को ज्वाइन किया। नए लोग नया काम। नए संगी साथी। पुराने सब छुट गए, बढ़ते वक्त के साथ। 'मैं' को नया काम मिला, दो नए प्रोजेक्ट, दो नए प्रोसेस, सोचा चलो काम में इतना मशगुल हो जाऊंगा की पुराने दोस्तों की याद नहीं सताएगी, लेकिन मैं गलत था, कहने को तो दो प्रोसेस थे लेकिन काम कुछ भी नहीं। पूरा दिन खाली बैठना पड़ता था। उसके कुछ दिनों बाद "मैं" के सामने वाली प्रोसेस में एक लड़की आई "तुम" जैसा की पहले ही लिख चूका हूँ, तुम बिलकुल वैसी ही थी। संयोगवश दोनों साथ ही में बैठते थे। नया ऑफिस दोनों के लिए नया था। और दोनों नए एक दुसरे के दोस्त बन गए। और ये दोस्ती पता नहीं कब प्यार में बदल गई, पता ही नहीं चला ना 'तुम' और ना हीं 'मैं' को। दोनों एक दुसरे को टूट कर चाहने लगे....रुकिए शायद मैं गलत था, टूटकर तो सिर्फ "मैं" चाहता था। तुम के लिए तो ये प्यार सिर्फ खेल था एक ऐसा खेल जो दिलो के संग खेला जाता हो। हम साथ में ऑफिस जाने और साथ में ऑफिस से आने लगे। कुछ दिनों बाद हम दोनों ने एक दुसरे को प्रपोज कर दिया। दिन था 11 दिसंबर। प्यार का इज़हार रविवार के दिन हुआ था वो भी सन्देश में हम दोनों दूर थे एक दुसरे से बहुत दूर। लेकिन कहते हैं न प्रेम किसी स्थान विशेष में नहीं बांध सकता, ठीक यही हुआ हमारे साथ। एक दुसरे से बहुत दूर होते हुए भी एक दुसरे के हो गए। फिर हम साथ साथ ऑफिस जाने लगे आने लगे, एक दुसरे के संग टाइम स्पेंड करने लगे, बड़े अच्छे  दिन थे कमबख्त, बड़े अच्छे  दिन थे। लेकिन कहते हैं ना अच्छे दिन ज्यादा दिन तक नहीं चलते, कुछ ऐसा ही हुआ मेरे साथ अचानक से मेरे प्यार को नज़र लग गई, कोई और आ गया शायद उसकी जिन्दगी में, या पता नहीं क्या हो गया, वो अचानक से एक दुसरे लड़के की तारीफे करने लगे, वो होता तो ऐसा करता, वो होता तो वैसा करता, उसे मेरी बहुत फिकर रहती थी। वो मेरे कहे बिना ही मेरी जरूरते समझ जाता था वगैरह-वगैरह... ! फिर तो हमदोनो के बीच "हम" कम और वो ज्यादा रहने लगा। उसे ये पसंद हैं, वो रहता तो मेरे लिए ये लाता, उसे और मुझे लाल और काला रंग पसंद हैं वगैरह-वगैरह। फिर क्या किसी भी मैंगो मेन को ये बुरा लगेगा की उसके रहते उसकी प्रेमिका किसी और के गुण गाये। "मैं" को भी बहुत बुरा लगा, वो भी एक मैंगो मेन था उसके पास भी एक दिल था जो सिर्फ उसके लिए धडकता था।  एक दिन 17 मार्च'2011 को उसने एक लड़के के बारे में बताया एक लड़का था मेरी जिन्दगी में नाम उसका "वो" हैं। "वो" मुझे बहुत प्यार करता था, वो मेरा ख्याल रखता था, वो ऐसा ,हैं वो वैसा है......
"मैं" को बुरा तो लगा लेकिन उसने सोचा की क्यों न वो "वो" से ज्यादा प्यार "तुम" को करने लगे ताकि वो "वो" को भूल सके। उसने उसे और प्यार करना शुरू कर दिया। तुम के लिए "मैं" ने अपने पुराने दोस्तों को छोड़ दिया नए ऑफिस में जो उसके दोस्त बने थे उससे किनारा कर लिया। "मैं" को यह भी पसंद नहीं था की "मैं" ऑफिस में किसी और लड़की से बात करे जबकि वो सारी लड़कियां उसे भाई बोलती थी। फिर भी "तुम" की ख़ुशी के लिए मैं ने वो सब छोड़ दिया। अपने दोस्त, अपने, रिश्तेदार, अपने घर और यहाँ तक की खुद को भी। "मैं" को लगा की हो सकता हैं की उसके प्यार में ही कोई कमी हैं। उसे ही बदलना चाहिए उसे ही कुछ ऐसा करना चाहिए की "तुम" सिर्फ उसकी बन कर रह जाए। लेकिन "मैं" को क्या पता था की "तुम" के मन में क्या चल रहा हैं। और एक दिन आखिरकार वो दिन भी आया जब "मैं" के सारे अरमान टूट-टूट कर बिखर गए। एक झटके में उसने अपने प्यार का महल गिरा दिया। एक शब्द ने उस सारी दुनिया में आग लगा दिया जिसके सपने वो सजा कर बैठा था। उसने अपने पुराने दोस्त से 'पैच-अप' कर लिया हैं। वो अब वापस लौट आया हैं और मुझे कभी ना छोड़कर जाने के साथ पहले से भी ज्यादा प्यार करने का वादा किया हैं। मैं जा रही हूँ। और इसी शब्द के साथ "तुम" चली गई। "मैं" की सपने की दुनिया चूर-चूर हो गयी। वो एक शब्द "मैं जा रही हूँ" तुम के कानो में पिघले शीशे की तरह बन कर गिरा। मैं टूट चूका था, हद से ज्यादा, अपने आप से, खुद से, और दुनिया से। उसे बेगानी लग रही थी ये प्यार मोहब्बत की बाते, ये इश्क का नाम, नफरत हो गयी थी उसे खुद से और दुनिया से। फिर जैसा की हरेक प्रेम कहानी में होता हैं, मजनू वाला हाल हो गया "मैं" का, ना किसी से ज्यादा बोलना, ना कुछ सुनना, सिर्फ खुद में रहना और खुद की सुनना... लेकिन कहते हैं न भगवान् जब एक रास्ता बंद करता हैं तो दूसरा खोल देता हैं, ठीक ऐसा ही हुआ "मैं" के साथ उसने कलम उठा ली, और उकेर दी अपने दिल के जज्बात कोरे कागज़ पर, पाट दिया अपने अरमानो को काले, नीले कलम से, डूब गया वो लेखन और कविता में। कहते हैं ना इश्क में सब शायर बन जाते हैं, लेकिन "मैं" इश्क के बाद शायर बन गया। कई कहानियाँ  और कई आलेख लिख डाले, कुछ तो अच्छे  अखबारों में प्रकाशित भी हो गए, और इस तरह से मशगुल हो गया वो अपनी दुनिया में की भूल गया अपनी पिछली जिन्दगी। पुनर्जनम लिया जैसे उसने और अपने जज्बातों को कागज़ पर सज़ा कर खुश हो गया। और इसी तरह ख़तम हो गई "मैं" की प्रेम कहानी।

"मैं" और "तुम" आपके हर घर हर शहर में हैं, हर गली नुक्कड़ पे आपको एक "मैं" और "तुम" दिखाई पड़  जाएंगे, जो किसी "वो" के इन्तजार में होंगे। "वो" आज भी हैं हमारे बीच ही जो "तुम" को "मैं" से छीन ले रहा हैं। अगर आपके साथ भी कुछ ऐसा ही लग रहा हैं तो सावधान हो जाइए , क्योंकि "वो" जब आता हैं तो "मैं" की कोई अहमियत नहीं रह जाती। "मैं" बेचारा अकेला सा सिर्फ कहानी ही लिखता रह जाता हैं, और "तुम" आज भी "वो" के साथ अपने जिन्दगी के हसीन सपने देखने में व्यस्त हो जाती हैं। लेकिन क्या पता अगला नंबर उस "वो" का हो जो "तुम" के लिए अपने आप को "मैं" समझ रहा हो। क्या पता उस "वो" के लिए भी कोई दुसरा "वो" तैयार हो रहा हो। जरा सोचिये....?

Monday, November 5, 2012

देखा हैं हमने

पत्थरों को रोते देखा हैं हमने
सपनो को बदलते देखा हैं हमने

देखा हैं दिन का ढलता सूरज
और देखा हैं रातो के शुरू को भी

कोरे कागज़ पे निशा देखे हैं हमने
और देखा हैं शिकन हँसते चेहरे पर

हंसी चेहरे के गम को देखा है हमने
और रोया है हमने खुश होने पर

छलकती आँखों को देखा हैं काजल के तले
सिसकते होंठो को देखा हैं भींचते हुए

मुस्कुराते हैं लोग मतलब की दुनिया में
कई चेहरों को देखा हैं, एक चेहरे के पीछे

खोलो खोलो अपनी आँखे

खोलो खोलो अपनी आँखे,
कुछ लाया हूँ मैं तुम्हारे लिए,

जो हैं तुमसे भी प्यारा,
तुमसे भी अच्छा.

एक चुटकी धुप
सूरज से मांगकर

एक मुट्ठी रौशनी
किरणों से मांगकर

कुछ आँशु पत्थर दिल के
एक हंसी मासूम दिल से

दो मोती सीपियो से
दो बूंद बादलो से

अच्छा लगे तो और मांग लेना
मैं लाया हूँ सिर्फ तुम्हारे लिए

खोलो-खोलो अपनी आँखे
कुछ लाया हूँ मैं तुम्हारे लिए.

Tuesday, October 30, 2012

राम नहीं रावण चाहिए


गर्भवती माँ ने बेटी से पूछा क्या चाहिए तुझे? बहन या भाई..!!
बेटी बोली भाई !!
माँ: किसके जैसा?
बेटी: रावण सा….!
माँ: क्या बकती है?
पिता ने धमकाया, माँ ने घूरा, गाली देती है, रावण जैसे भी भाई भी किसी को चाहिए भला??
बेटी बोली, क्यूँ माँ?
बहन के अपमान पर राज्यवंश और प्राण लुटा देने वाला, शत्रु स्त्री को हरने के बाद भी स्पर्श न करने वाला रावण जैसा भाई ही तो हर लड़की को चाहिए आज, छाया जैसी साथ निबाहने वाली गर्भवती निर्दोष पत्नी को त्यागने वाले मर्यादा पुरषोत्तम सा भाई लेकर क्या करुँगी मैं? जिसने अपने प्यारी बहन शांता के लिए एक बार भी भात्रधर्म ना निभाया हो, उस बहन के लिए जिसने त्याग कर दिया था अपने पिता के लिए अपने आपको, और जिसके प्रताप से आये थे राम इस दुनिया में.
और माँ अग्नि परीक्षा, चौदह बरस वनवास, और अपहरण से लांछित बहु की क़तर आहें तुम कब तक सुनोगी और कब तक राम को ही जन्मोगी …..!!!
माँ सिसक रही थी – पिता आवाक था..

Saturday, September 29, 2012

कितना सत्य हैं मैथिली का ग्लोबलाइजेशन

भोजपुरी ने विकिपीडिया पर भी प्रमुखता से अपना स्थान बना लिया हैं। ये मैथिल टेक-सेवी के लिये चितन-मनन का विषय तो हैं ही साथ-ही-साथ उन करोडो मैथिलो के मुंह पर करारा तमाचा भी हैं जो अभी भी मैथिली को सिर्फ आपसी द्वेष और मतभेद के कारण अंतरजाल पर अपनी जगह बनाने से रोक रहा हैं।

ऐसा नहीं हैं की मैथिलो ने इसके लिए प्रयास नहीं किया या मैथिलो ने इंटरनेट का प्रयोग सिर्फ सस्ती और क्षणभंगुर लोकप्रियता पाने के लिए किया हैं, बहुत से ऐसे मैथिल हैं जिसने मैथिली के ग्लोबलाइजेशन के लिए एडी चोटी का जोर भी लगाया हैं। लेकिन उनमे से ज्यादातर मैथिली के पैर-खिचो प्रवृति से तंग आकर अपना हाथ पीछे खीच लिया हैं। हम राजेश रंजन, संगीता कुमारी और उनके टीम के उस योगदान को नहीं भुला सकते जिसके कारण हमें मैथिली फायरफोक्स का बीटा वर्जन मिला हैं, जिसके अकथ मेहनत से एक युग का सपना साकार हो गया हैं, और ना ही हम गजेन्द्र ठाकुर के उस सहयोग को भूल सकते हैं जिसने ना केवल मैथिली को इन्टरनेट पर फैलाने का काम किया बल्कि विकिपीडिया से निरंतर मैथली के लिए लड़ते आ रहे हैं। लेकिन जिस तरह 'अकेला चना भाड़ नहीं भोड़ सकता' वैसे ही किसी एक के योगदान से मैथिली ग्लोबल नहीं हो सकती। विगत कुछ दिनों पहले हमने राजेश रंजन से इस मैथिली मोजिल्ला के भविष्य और मैथली के सुचना-प्रोधोगिकी में स्थान के बाबत करी थी, उन्होंने एक ही शब्द में कहा की मैथिली एप्लीकेशन का भविष्य इसके प्रयोक्ता पर निर्भर करता हैं; और प्रयोक्ता जब तक चाहे इसके भविष्य को उज्जवल और अंधकारमय बना सकता हैं। लेकिन एक सवाल हैं की कब तक और कहा तक, आज के समय में अगर अंतरजाल पर एक सर्वे करवाया जाय की कितने प्रतिशत मैथिल अंतरजाल पर मैथिल एप्लीकेशन का प्रयोग करते हैं तो ७० प्रतिशत से ज्यादा का सवाल होगा 'क्या मैथिली में कोई एप्लीकेशन भी हैं?' प्रयोग की बात तो दूर ही हैं। तिरहुत/मिथिलाक्षर की बात अगर छोड़ भी दे तो देवनागिरी में भी मैथिली लिखने वालों की संख्या ऊँगली पर ही गिनने को मिलेगी। अब सवाल ये हैं की क्या हमने इसके प्रचार प्रसार पर ध्यान नहीं दिया अथवा अपनी उन्नती के चक्कर में भाषा की भाषा की उन्नती भूल गए। सवाल ये भी हैं की क्या अपनी ज्यादा मायने रखती हैं भाषा की उन्नती के बनिस्पत। साहित्य से लेकर सिनेमा तक, इतिहास से लेकर भूगोल तक, घर से बाजार तक और कलम से अंतरजाल तक मैथिली सिर्फ और सिर्फ अपनी पैर खिचो प्रवृति का ही शिकार हुई हैं।

२००३ में मैथिली को संविधान की आठवी अनुसूची में शामिल करवाकर हम चैन की नींद सोने चले गए की चलो लड़ाई तो अब ख़त्म हो गई, हमने तो जंग जीत लिया। लेकिन हमें कौन समझाए की ये तो जंग की शुरवात हैं वास्तविक जंग तो अभी बांकी हैं। मैथिली ने अभी सिर्फ अपना स्थान लिया हैं पहचान बनाना अभी बांकी हैं। वैसे कहने को तो मैथिली भोजपुरी से ८०० साल पुरानी हैं, हमारी खुद की लिपि हैं साहित्य हैं, क्रमानुगत भाषा का विकास हैं और हम सदियों से चले आ रहे हैं। लेकिन जिस तरह से हम चल रहे हैं क्या हम निरंतर रह पायेंगे क्या हमारी सतत यात्रा जारी रहेगी या हम पैर-खिचो प्रवृति की शिकार होकर रस्ते में ही दम तोड़ जाएंगे।
जिस तरह से भोजपुरी दिन दुनी रात चौगुनी तरक्की करते जा रहा हैं। फूहड़ जाने और बेकार चित्रण के बावजूद विश्व पटल पर छा रहा हैं, जिस तरह से भोजपुरी गीत-संगीत और सिनेमा व्यवसायिकता के चरम पर हैं, रोज नए-नए चैनल, अखबार, पत्रिका, और वेबसाईट आते जा रहे हैं और नित नए नए प्रयोग कर सबको चोकाए जा रहे हैं उस समय क्या हमें अपना फ़र्ज़ याद नहीं आ रहा हैं, क्या हमें माँ मैथिली की पुकार नहीं सुनाई दे रही हैं, क्या हम सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए माँ मैथिली का दोहन नहीं कर रहे हैं। क्या हम भी उसी रंग में रंगते नहीं जा रहे हैं। क्या हमारा साफ़-सुथरा संगीत श्रोताओं को रास नहीं आ रहा हैं, क्या हमारा प्राचीन और सुन्दर साहित्य सिर्फ कागज के डिब्बो तक में ही सिमट कर रहा गया हैं। जरा सोचिये?

भिखारी ठाकुर का एक नाटक 'विदेसिया' आता हैं और भारत सहित मरिसस में भी डंका बजा जाता हैं, लेकिन हम आज भी हरिनाथ झा का पाँच पत्र लिए पटना, दिल्ली, कलकत्ता और नेपाल ही पच सके हैं, जबकि विस्वपटल पर हम छाये हुए हैं। कारन सिर्फ एक हैं हमारा भाषा के प्रति झुकाव नहीं हैं, हम मैथिली को सिर्फ मनोरंजन और स्वार्थ सिद्धि का जरिया मानते हैं। हमें मैथिली तभी तक दिखाई देती हैं जब तक हमारी स्वार्थ सिद्धि होती रहती हैं स्वार्थ सिद्ध हुआ और हम और भाषा के पीछे दौड़ना शुरू कर देते हैं।

आज भोजपुरी विकिपीडिया पर प्रमुखता से हैं, सविधान की आठवी अनुसूची में आने की कगार पर हैं, इनके साहित्य और संगीत का चर्चा अंतररास्ट्रीय स्तर पर हैं और मैं ये सब सुन कर खुश हो रहा हूँ, की चलो कम से कम इसी वजह से तो प्रतियोगिता बढ़ेगी,कम से कम इसी वजह से तो मैथिलो की आँख खुलेगी, कम से कम अब तो मैथिल अपने भाषा के सर्वांगीण विकास के बारे में सोच सकेंगे। वैसे भाषा का विकास सिर्फ कविता, कहानी और नाटक लिख देने से नहीं होगा ना ही भाषा का विकास साहित्य अकादमी के पुरस्कार प्रप्त कर लेने से होगा, भाषा का विकास तभी संभव हैं जब हम अपनी पैर खिछु प्रवृति को छोड़, व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर, अपनी भावी पीढियों को इसके सही मूल्यों का बोध करवा सकेंगे। तभी हमारी मैथिली उस मुकाम तक पहुंचेगी जिसके लिए ये वांछनीय हैं।

Monday, August 27, 2012

मैलोरंग सम्मान की घोषणा

कल श्रीराम सेंटर में सुन्दर संयोग नाटक की प्रस्तुति के बाद, मैलोरंग ने अपने सम्मान/पुरष्कार की घोसना कर दी हैंज्ञात हो की मैलोरंग वर्ष २००५ से रंगकर्म और रंगमंच में अपने विशेष सहयोग के लिए ये पुरष्कार देते आ रहे हैं। ये पुरष्कार हैं 'ज्योतिरीश्वर सम्मान', 'रंगकर्मी प्रमिला झा सम्मान', और 'रंगकर्मी श्रीकांत मंडल सम्मान'। इस बार के सम्मान के लिए अंतिम सूचि तैयार हो चुकी हैं। और अंतिम रूप से चयनित प्रतिभागी रहे हैं... ! ज्योतिरीश्वर सम्मान से नवाजा गया हैं, मैथिली के सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और निर्देशक महेंद्र मलंगिया को, वही रंगकर्मी प्रमिला झा सम्मान के लिए अनीता झा (जनकपुर, नेपाल) को सम्मानित किया गया और श्रीकांत मंडल सम्मान के लिए निलेश दीपक को चुना गया हैं। इस बार के तीनो पुरष्कार के लिए मुख्या चयनकर्ता थे मैलोरंग के अध्यक्ष देवशंकर नवीन, प्रसिद्द रंगकर्मी प्रेमलता मिश्रा, और मेलोरंग रेपर्टरी के चीफ मुकेश झा। चयनकर्ताओ ने ढेर सारे प्रतिभागियों के बीच इन तीनो के नामो की घोषणा की जो निश्चित रूप से काबिले तारीफ़ हैं। चयनकर्ता को आभार संग ही संग चयनित प्रतिभागी को बहुत बहुत बधाई।

दिल्ली में हुआ 'सुन्दर संयोग'


  • सुन्दर संयोग का मंचन
  • नए कलाकारों ने दी अद्भुत प्रस्तुति
  • मलंगिया महोत्सव की घोसना
दिल्ली में एक बार फिर मैथिलो की धमक सुनाई दी। श्रीराम सेंटर एक बार फिर गवाह बना मैथिलो के एक सुन्दर समागम का। मौका था मैथिली रंगमंच के सर्वश्रेष्ठ संस्था मैलोरंग ( मैथिली लोक रंग) के द्वारा मैथिली के पहले आधुनिक नाटक 'सुन्दर संयोग' के मंचन का। ज्ञात हो की सुन्दर संयोग मैथिली का पहला आधुनिक नाटक हैं जिसे स्वर्गीय जीवन झा ने १९०५ ई० में लिखा था। इस नाटक को आज के समय के अनुसार ढालने के लिए इसकी पुनर्लेखन की आवश्यकता पड़ी जिसे बखूबी से अंजाम दिया मैथीली के सुप्रसिद्ध नाटकार, रंग निर्देशक और चिन्तक 'महेंद्र मलंगिया' जी ने।
आशा के अनुरूप श्रीराम सेंटर खचाखच भरा हुआ था, दर्शको की भीड़ दिल्ली में मैथिल स्वर को गुंजायमान कर रही थी की मंच पर अवतरीत हुए संतोष....नट की भूमिका में आये संतोष को देख दर्शक अपनी हंसी रोक ना सके और पूरा ऑडिटोरियम हंसी की झंकार से धमक उठा। रही सही कसर नटी बने प्रवीण ने पूरा कर दिया, प्रवीण के हरेक ठुमके और हरेक इशारे पर हंसी का फुव्वारा और तालियों की गडगडाहट गूंजती थी। इन दोनों के मनोरंजन ने दर्शको को पेट पकड़कर लोट-पोट होने पर विवश कर दिया। फिर एक एक कर मंच पर बांकी कलाकार आये, अनिल मिश्रा, नीरा, ज्योति और बबिता ने भी अपनी सुन्दर आदकारी से दर्शको का मन मोह लिया। मुख्य भूमिका में सुन्दर बने अमर जी राय और सरला बनी सोनिया झा ने कमाल का अभिनय किया। ज्ञात हो की अमरजी राय ने मैलोरंग से ही अपनी कैरियर की शुरुआत की थी २००६ में काठक लोक से रंगमंच पर आये अमरजी राय मैलोरंग द्वारा निर्देशित जल डमरू बाजे में मुख्य भूमिका में थे। पिछले वर्ष स्कॉलरशिप मिलने के कारण एक वर्ष के अभिनय प्रसिक्षण के लिए आप मध्यप्रदेश गए और अभिनय की बारीकियो से अवगत हो पुनः मैथिली रंगमंच की और मूड गए, प्रसिक्षण के बाद 'सुन्दर संयोग' उनका पहला नाटक हैं। वहीँ सरला इससे पहले हिंदी रंगमंच के साथ जुडी थी और कुछ छोटे-छोटे अभिनय करती थी। मैथिली रंगमंच पर उनका ये पहला प्रयास हैं। लेकिन अपने पहले ही प्रयास में वो दर्शको के दिल में उतर गयी और अपनी पहली परीक्षा में शत-प्रतिशत पास हुई। सरोजनी की भूमिका में बबिता प्रतिहस्त ने भी अच्छा अभिनय किया, ज्ञात हो की बबिता का ये पहला अभिनय था रंगमंच पर। वैसे प्रकास जी की ये खासियत रही हैं की वो नए से नए कलाकारों से भी अच्छा अभिनय करवा लेते हैं, एक मंजे निर्देशक होने के सारे गुण इनमे विद्यमान हैं।

स्त्री समस्या को समाहित किये सुन्दर संयोग का ये मंचन सचमुच में अद्भुत रहा। अंत तक दर्शक अपने कुर्सी से चिपके रहे। बधाइयों का ताँता लगा रहा। अंत में हरेक बार की तरह जैसा की मैलोरंग में होता आया हैं। अपने एक नाटक के सम्पति के बाद दुसरे नाटक के मंचन की घोसना... प्रकाश जी ने समय और दिन तो नहीं बताया लेकिन ये अवस्य सुनिश्चित किया की अक्टूबर में उनका अगला मंचन होगा। साथ ही मलंगिया महोत्सव की भी पुनः घोषणा की जो २४-३० दिसम्बर तक होगा। एक शब्द में कहू तो सुन्दर रहा 'सुन्दर संयोग'।

Wednesday, August 15, 2012

हमें नहीं चाहिए ऐसी स्वतंत्रता


हमें नहीं चाहिए ऐसी स्वतंत्रता
जिसमे लाल किले पर एक गुलाम नेता का भाषण हो
जो इशारो पर चलता हो ‘मैडम’ जी के
हमें नहीं चाहिए ऐसी स्वतंत्रता
जो नहीं देती हो बराबरी हर नागरीक के सम्मान की
जो आज भी छुआछूत और आरक्षण में बंधी हो
हमें नहीं चाहिए ऐसी स्वतंत्रता
जहाँ जीने का हक़ सिर्फ अमीरों को हो
गरीबो को सिर्फ पिसने का फरमान
हमें नहीं चाहिए ऐसी स्वतंत्रता
जो मरीजों को नहीं दे सके दवा
जो भूखो को नहीं दे सके दो वक्त की रोटी
हमें नहीं चाहिए ऐसी स्वतंत्रता
जिसकी ध्वजा किसी पकिस्तान के डोर से बंधी हो
और कोई और रंग खीच रहा हो केसरिया, सफ़ेद के बीच
हमें नहीं चाहिए ऐसी स्वतंत्रता
जहाँ जीना दुस्वार हो और
मरने की इज़ाज़त ना मिले
हमें नहीं चाहिए ऐसी स्वतंत्रता
जहाँ कलम सिर्फ दलाली में लिखते हो
और मिडिया हो राजनेताओ की गुलाम
हमें चाहिए ऐसी स्वतंत्रता
जो कभी सपना देखा था
गाँधी, भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस और राजीव गाँधी ने
की हरे-भरे गाँव में
खेतो के बीच
लहराता हो तिरंगा
उसी शान से जैसे
हमने पहली दफे लहराया था
मुल्क के आजाद होने पर
जय हिंद – जय भारत

Monday, August 13, 2012

कल और आज

बहुत पहले
होता था एक गाँव
जहाँ सूरज के उगने से पहले
लोग उठ जाते थे
और देर रात तक
अलाव के निचे चाँद
को निहारते थे

बहुत पहले

रमजान में राम और
दीपावली में अली होता था
सब मिल के मानते थे
होली, दिवाली, ईद और बकरीद
फागुन का रंग सब पर बरसता था
नहीं होता था कोई
सम्प्र्यादायिक रंग
ना ही होता था दंगे
और उत्पातो का भय

बहुत पहले

भ्रष्ट नेताओ की
नहीं होती थी पूजा
ना ही बहाए जाते थे
किसी अपनों के मौत पर
घडियाली आँशु

बहुत पहले
सुदर दिखती थी लडकियां
होता था सच्चा प्यार
सच्चे मन से
लोग जानते थे प्रेम की परिभाषा

बहुत पहले

पैसा सब कुछ नहीं होता था
लोग समझते थे मानवता
और समाज की सादगी


और अब

उठते हैं हम दिन ढलने के बाद
और अलाव की जगह
ले ली हैं हीटर ने 
अब चाँद बादलो में नहीं दीखता
जैसे छुप गया हो
आलिशान महल के पीछे

और अब

रमजान और होली
हिन्दू मुसलमानों का
होकर रह गया हैं
साम्प्रदायिकता का रंग
सर चढ़ कर बोलने लगा हैं


  अब

साधुओ के भेष में चोर-उचक्के
घूमते हैं
शहर भर में होता है रक्तपात
और दंगाई घूमते है खुले-आम
होती हैं भ्रष्ट नेताओं के पूजा
नैतिकता के नाम पर
सुख चुकी हैं आंशुओ की धार

  अब

बदल गई हैं प्रेम की परिभाषा
नहीं करता कोई सच्चा प्यार
खत्म हो गयी वफ़ा की उम्मीद
हीर-राँझा और शिरी-फ़रियाद
किस्सों में भी अच्छे नहीं लगते

  अब

पैसा ही सब कुछ होता हैं
संबंध और मानवता से भी बड़ा
खत्म हो गयी समाज से सादगी
और खत्म हो गया आदमी
आदमियत के संग ...

Tuesday, July 24, 2012

शांता तुम बहुत याद आओगी




इतिहास हैं गवाह
एक बेटी थी दशरथ की
जो राम से भी बड़ी थी
बहुत बड़ी,
नाम था शांता
कहते हैं जब वो पैदा हुई थी
अयोध्या की धरती पर
वहां पड़ा था भयंकर अकाल
पुरे बारह वर्षो तक
धरती धुल हो गयी थी.
पानी की एक एक बूंद को
तरस गया था पूरा राज,
पंछी भी छोड़ चुके थे अपने
घोसले को..
और प्रजा कर रही थी त्राहिमाम
दुखी राजा को सलाह दी गयी
उनकी पुत्री ही हैं अकाल का कारण
जब से वो आई हैं
ये हाहाकार लाई हैं
खुली राजा की आँख
राज मोह में भूल गए
पिता का धर्म
बेटी को दान में दे दिया
शृंगी ऋषि को
उसके बाद, कहते हैं
कभी शांता ने मुड़ कर नहीं देखा
अयोध्या को एक बार भी
दशरथ भी डरते थे
उसे बुलाने से
फिर बहुत दिनों तक सुना रहा अवध का आँगन
फिर उसी शान्‍ता के पति शृंगी ऋषि ने
दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ कराया...
दशरथ चार पुत्रों के पिता बन गये...
सं‍तति का अकाल मिट गया...
पुत्र मोह में इस कदर रम गए दशरथ
की फिर ना याद आ सकी शांता
फिर समय का पहिया घुमा
राम हुए बड़े
अपने चारो भाइयो के संग,
राह देखती रही शांता
की आयेंगे
मेरे भाई
लेकिन उनकी आँखे पथरा गयी
राम ने एक बार भी नहीं ली उसकी
खोज-खबर
जबकि कहने को वो थे
मर्यादा पुरषोत्तम ..
शायद वो भी डरते थे
राम राज्य में अकाल पड़ने से
कहते हैं
वन में जाते समय, वो गुजरे थे
शृंगी ऋषि के आश्रम से होकर
लेकिन नहीं पूछा एक बार भी शांता का हाल
शांता जब तक जिन्दा रही
देखती रही आपने भाइयो की बाट
की कभी तो आयेंगे
भरत - सत्रुधन,
राम - लक्षमण
अकेले आने को राजी नहीं थी वो
बचपन में सुन चुकी थी
सती की कहानी
दशरथ से.
जिसने सिखाया था
किस कदर बेटियों को सहना पड़ता हैं
बेटी और सती का संताप
किस तरह देती हैं लड़की बलिदान
कभी बेटी, कभी पत्नी, कभी माँ,
और कभी सती के रूप में

आज जब आया हैं राखी का त्यौहार
शांता तू बहुत याद आई हैं
की क्यों ना मिला तुझे भाइयो का प्यार
क्यों ना मनाया तुमने राखी का त्यौहार
क्यों तुम्हे दान दे दिया गया था
एक निर्जीव जान समझ कर
कैसे एक भाई बन गया
मर्यादा पुरुषोत्तम
जबकि बहन की मर्यादा वो निभा न सके
शांता.........!!!!!!!!!!!!
जब जब भाई-बहन की बात आएगी
शांता तू बहुत  याद आएगी.

Thursday, July 19, 2012

बिहार शिक्षा - इतिहास और वर्तमान सच

उच्च शिक्षा के लिए जिस तरह बिहार में हाय तौबा मच रही हैं, और केंद्रीय विश्वविद्यालय के लिए जिस तरह नितीश जी की जोर आजमाइश चल रही रही हैं, उससे एक बात तो हमें सोचने पर मजबूर कर दिया हैं, की क्या इससे बिहार में शिक्षा के कुछ सुधार होगा?, क्या बिहार में शिक्षा के दिन बहुरेंगे?, क्या 'बेरोजगार पैदा करने की फैक्ट्री' के नाम से मशहूर हमारे विश्वविद्यालयो को छुटकारा मिलेगा? क्या फिर से बिहार शिक्षा में वही मुकाम हासिल कर पायेगा जहाँ कभी ये हुआ करता था। क्या बिहार विकास का का नारा देने वाले शिक्षा के क्षेत्र में भी इसे अगली पंक्ति में खड़ा कर पायेंगे। ऐसे बहुत सारे सवाल हैं....
बिहार में अगर शिक्षा के इतिहास पर अगर एक नज़र डाले तो इसे सिर्फ कुचलने वाले ही मिलेंगे, उँगलियों पर गिनने वाले ही ऐसे मिलेंगे जिसने बिहार में शिक्षा के लिए कुछ काम किया हो।
सन् १२१३ में बख्तावर खिलीजी ने नालंदा विश्वविद्यालय को बर्बाद कर बिहार के शिक्षा की संस्कृति को तबाह ही कर डाला, फिर अंग्रेजो की बारी आई और उसने ऐसी नीति बनाई की बागी बिहार शिक्षा के क्षेत्र में काफी पीछे छुट गया
। अंग्रेजो ने जैसी नीव रखी थी वैसी ही इमारत भी खड़ी हुई और आजादी के बाद राजनैतिक अराजकता और अफरा-तफरी ने इसे गर्त की और धकेल दिया यहाँ तक की पटना विश्वविद्यालय जो की देश का सातवां पुराना विश्वविद्यालय हैं की भी गरिमा ख़त्म हो गयी। रही सही कसर बाद में संयुक्त विधायक दल सरकार और बिहार आन्दोलन ने पूरी कर दी। जगन्नाथ मिश्र, महामाया प्रसाद से लेकर लालू प्रसाद यादव तक पालतुकरण की नीति अपनाकर विश्वविद्यालयो को अपना राजनैतिक चारागाह बना दिया। शिक्षा में व्याप्त राजनीती और गुंडाराज को देखकर जाने माने शिक्षाविद ने डॉ वी एस झा ने तो यहाँ तक कह दिया की " बिहार में महाविद्यालय स्थापित करना एक लाभप्रद धंधा हैं बशर्ते की संस्थापक राजनैतिक बॉस हो या जनता की नज़र में उनकी छवि के गुंडे की हो।"

"एशिया आज जिसे गर्व से प्रदर्शित कर सकता हैं, नालंदा उसका प्रतिनिधि हैं" - न्युयोर्क टाइम्स

१९६७ में जब महामाया प्रसाद मुख्यमंत्री थे और बिहार में पहली बार गैर कोंग्रेसी सरकार बनी थी उस समय समाजवादी पार्टी के नेता कर्पूरी ठाकुर ने जो उस समय शिक्षा मंत्री थे एक अजीब सा आदेश दे दिया उनके अनुसार अब "मैट्रिक में पास होने के लिए अंग्रेजी अनिवार्य विषय नहीं होगी"
। इसे लोगो ने "पास विदाउट इंगलिश" का कर्पूरी डिविजन नाम दिया फलतः शिक्षा में अंग्रेजी का स्तर इतना गिर गया जो आज भी देखने को मिलता हैं
वैसे १९७२ में जब कोंग्रेस के केदार पाण्डेय की सरकार आई तो उन्होंने शिक्षा के गिरते स्तरों की तरफ ध्यान दिया और कर्पूरी राज के जिगर के टुकड़े ( कर्पूरी ठाकुर ने छात्रो के संबोधन के लिए ये नाम दिया था ) को दूर हटाने के लिए और विश्वविद्यालय से गुंडाराज खत्म करने के लिए कुछ ठोस और साहसिक कदम उठाये
। उनकी सरकार ने विश्वविद्यालय का जिम्मा अपने हस्तगत किया और सख्त आई.ए.एस. अधिकारियो को कुलपति और रजिस्टार के पद पर बहाल किया। इससे परीक्षाये और कक्षाए बंदूको के साए में होने लगी और शिक्षा की संस्कृति पटरी पर लौटने लगी। लेकिन शायद बिहार की शिक्षा को किसी की नज़र लग गयी थी या कुछ और इसलिए संपूर्ण क्रांति का दौर आ गया और शिक्षा की व्यवस्था संपूर्ण क्रांति में दब कर रह गयी

"केवल एक विकसित और शिक्षित बिहार ही विकसित भारत का प्रतिनिधि करेगा" - अब्दुल कलाम ( पूर्व राष्ट्रपति )

फिर १९८० में जब जगन्नाथ मिश्र सत्ता में आये तो उन्होंने पहला काम किया उर्दू को राजभाषा का दर्जा देने का
। बिहार देश का पहला ऐसा राज्य बन गया जिसने यह कदम उठाया था। जगन्नाथ मिश्र के इस कदम ने जहाँ मैथिली को बहुत पीछे धकेल दिया वही मुस्लिम के बीच वो हीरो बन गए। आज अगर बिहार में मैथिली की हालत बदतर हैं तो इसका कही कही नहीं ठीकरा जगन्नाथ मिश्र को भी जाता हैं
फिर लालू का दौर आया और उसने चरवाहा विद्यालयों के रूप में दलित समाज के लोगो को आगे उठाने का काम किया,
उस समय का नारा था कि घोंघा चुनने वालों, मूसा पकड़ने वालों, गाय-भैंस चराने वालों, शिक्षा प्राप्त करो लेकिन उनकी भी ये योजना राजनैतिक अस्थिरता और सत्ता परिवर्तन के कारण खटाई में पड़ गयी और शिक्षा की हालत पुनः बदतर हो गयी। 
फिर आया नितीश राज, विकास के नाम पर मिले वोट से लोगो की उम्मीदे जगी, उन्हें एक नया विकाश पुरुष नज़र आया लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में फिर भी उस कदर काम नहीं हुआ जिस कदर होना चाहिए
। बदलते बिहार के परिवेश में या यूँ कहे की नितीश राज में जिस तरह बिहार नित नए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय रिकॉर्ड तोड़ रहा हैं उसमे जनता को शिक्षा के लिए भी कुछ उम्मीदे जगती नज़र आ रही थी। एक तरफ नितीश ने पंचायतो में शिक्षा के लिए शिक्षा मित्रो की नियुक्ति कर रोजगार के अवसर तो बढ़ा दिए लेकिन नियुक्ति के समय हुई धांधली और अनियमितताओ ने शिक्षा के स्तर को इस कदर गिरा दिया की अभी भी कुछ शिक्षक ढंग से सन्डे, मंडे भी नहीं लिख पाते हैं, विद्यर्थियो का क्या हाल होगा ये तो पूछिये ही मत

वर्तमान शिक्षा की अगर मैं बात करू तो उच्च शिक्षा के लिए बिहार पुरे भारत में ऐसा राज्य हैं जहाँ के विद्यार्थियों पर बाहरी राज्यों के गैर सरकारी संस्थान अपनी गिद्ध दृष्टि जमाये रखते हैं
। एक अध्यन के मुताबिक उच्च शिक्षा के लिए प्रतिवर्ष एक लाख छात्र बिहार से बाहरी राज्यों जैसे महाराष्ट्र, राजस्थान, और कर्नाटक आदि में पलायन कर रहे हैं जबकि  कहने को भारत के दस प्राचीन विश्वविद्यालय में से तीन हमारे यहाँ हैं। पलायन कर रहे छात्रो के अगर रहने, खाने, पहनने और मूलभूत सुविधाओ पर हुए खर्च को छोड़ भी दे तो भी प्रति छात्र ७०,००० रूपये सालाना ( जो की कुछेकू राज्यों की इंजीनियरिंग में प्रवेश के लिए सरकार फीस हैं ) के हिसाब से ७०० करोड़ होती हैं (ज्ञात हो की इसके अलावा संस्थान डोनेशन के नाम पर भी काफी चंदा वसूलती हैं) बिहार से बाहर चली जाती हैंइतना ही पैसा प्रवेश दिलाने के नाम पर शिक्षा के दलाल और ठग उगाही कर लेते हैं। इसके अलावा कोचिंग, गैर सरकारी संस्थान, और पब्लिक स्कूलों का यह गढ़ हैं, वैसे आंकड़े बताते हैं की आज तक इन कोचिंग संस्थानों में ( एकाध को छोड़ दे ) कोई भी छात्र राष्ट्रिय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई प्रतियोगिता नहीं झटक सका हैं। सरकारी संस्थानों की अगर बात करे तो इनमे से ज्यादातर भगवान् भरोसे ही हैं। कुछ में व्यवस्थाओ का रोना है तो कुछ में शिक्षको का। राज्य के कई कॉलेज में चल रहे बीसीए पाठ्यक्रम के लिए कंप्यूटर विभाग की अपनी लैब तक नहीं हैं, कई विभागों में लैब तो हैं लेकिन वो भी बस नाम के उनमे ना तो प्रयोगिक सामान हैं ना ही अच्छे केमिकल। यही हाल पुस्तकालयों के संग भी हैं। बिहार के हरेक विश्वविद्यालयो को अपने आप में पुस्तकालय होने का गौरव तो प्राप्त हैं लेकिन इनकी हालत बद से भी बदतर हैं। हवादार कमरे और बैठने की व्यवस्था तो छोड़ दीजिये, धुल धूसरित आलमारियो और चूहे की कतरनों से सजी किताबो ही देखने को मिलती हैं। कुछेकू सोधार्थियो और दान के फलस्वरूप चलने वाले इस पुस्तकालयो में नई किताबो का सर्वथा आभाव रहता हैं। शिक्षा का आलम ये हैं की मधेपुरा जिले में स्थापित बी.एन. मंडल यूनिवर्सिटी अकेले पाँच जिलो का बोझ उठाये हुए हैं
एक तरफ देश की तकनिकी और उच्च शिक्षा के हजार संस्थानों में ओम्बुड्समैन की नियुक्ति की केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री की घोषणा अभी मूर्त रूप नहीं ले सकी हैं। जो शिकायतों के निपटारण  एवं भ्रस्टाचार को रोकने में मदद करेगा, और दूसरी तरफ केंद्रीय विश्वविद्यालयो और आईआईटी को लेकर हो राजनीती जिसके वजह से इसमें देरी हो रही हैं चिंता का विषय हैं। माननीयो को इसपर ध्यान देना चाहिए वर्ना बिहार विकास की रफ़्तार जिस तरह से पटरी पर लौटने के बाद फुल स्पीड से चल रही हैं, कही आगे जाकर शिक्षा के कारण औंधे मुँह न गिर पड़े

Thursday, July 12, 2012

सिर्फ नालंदा का मतलब बिहार नहीं हैं नितीश बाबु

  • नालंदा में बना दिया जायेगा हवाई अड्डा
  • इंडोर शूटिंग रेंज का उद्घाटन
  • विवरेज एंड फ़ूड प्लांट का उद्घाटन
  • पहला आल विमेन कोपरेटिव बैंक
  • २३ हज़ार करोड़ की योजना हुई आवंटित
  • खेती में बनाया अंतर्राष्ट्रीय रिकॉर्ड
  • स्वास्थ सेवा में लगातार दुसरे साल पहले नंबर पर
उपरोक्त खबर बिहार विकास की दास्तान जरुर कह रही हैं लेकिन आपको ताज्जुब होगा की सारी खबर नालंदा से सम्बंधित हैं, मतलब विकास तो हुआ हैं लेकिन किसी एक जिले में ही सिमट कर रह गया हैं। इसे मुख्यमंत्री जी की कृपा कहे या गृह जिला होना का फायदा नालंदा सबमे अव्वल हैं। इधर हाल में ही टाइम्स ऑफ़ इंडिया में एक खबर छपी की महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार दो जिलो में आल विमेन कोपरेटिव बेंक खोल रही हैं, खास बात यह की इसमें से भी एक जिला नालंदा हैं। इस मौके पर एक पत्रकार ने सहकारी मत्री रामाधार सिंह से सवाल किया की इस बार भी नालंदा ही क्यों तो मंत्री जी गोलमोल जवाब देकर चुप हो गए। बोलते भी क्या सुशासन का डंडा जो हैं।

सम्बंधित खबर -: नालंदा मे बना देल जाएत हवाई अड्डा


सच पूछिये तो कोई आश्चर्य नहीं हुआ इस बात से आये दिन आखबार के पन्नो पर यह खबर दिखने को मिल जाती हैं। मुख्यमंत्री के गृह जिला होने का फायदा इस जिले को इतना मिल रहा हैं की आज राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर की सौ से ज्यादा एजेंसी हर क्षेत्र में यहाँ विकास के लिए कार्य कर रही हैं। ऐसा नहीं हैं की नालंदा को यह स्थान लालू और जगन्नाथ के समय में भी मिल रहा था या प्राचीन होने का गौरव यह जिला कांग्रेस के ज़माने में भी ले रहा था, नालंदा में विकास का सफ़र तो नितीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने से शुरू हुआ हैं। आये दिन यह जिला अखबार के सुर्खी का काम करता हैं, चाहे वो हवाई अड्डा के निर्माण प्रस्ताव के लिए हो, या फिर मनरेगा में राष्ट्रीय अवार्ड के लिए, स्वास्थ सेवाओ में लगातार दो सालो तक पहले नंबर पर आने का हो या फिर कृषी के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय रिकॉर्ड तोड़ने का हो। नालंदा सबमे अव्वल हैं।

वैसे आंकड़ो की यह लम्बी कहानी यूँ ही नहीं बनी हैं। मुख्यमंत्री के गृह जिला होने के कारण मंत्रियो की अनवरत कृपा इस जिले पर बरसती रहती हैं, आपको बता दे की खेती में प्रयुक्त होने वाले पॉवर टिलर पुरे देश में सबसे ज्यादा यही पर हैं जो की पुरे बिहार का ७५% हैं। हरेक संस्था अपने विकास के लिए इसी जिले को चुनती हैं, पूछने पर एक संस्था के प्रतिनिधि ने बताया की मुख्यमंत्री के गृह जिला होने के कारण वो सारी सुविधा मिल जाती हैं जिसकी हमें जरुरत होती हैं।

सवाल ये नहीं हैं की नालंदा में विकास क्यों हो रहा हैं, सवाल ये हैं की ये भेदभाव क्यों हो रहा हैं। दरभंगा में हवाई अड्डा रहते हुए भी आई आई टी नहीं बना कहा गया हवाई संपर्क नहीं हैं, मोतिहारी में छोटे रनवे का बहाना बनाकर विश्वविध्यालय नहीं खुला, लेकिन नालंदा में विश्वविद्यालय के लिए हवाई अड्डा बना देना कुछ हज़म नहीं हुआ। एक तरफ कोशी क्षेत्र को हरेक साल बाढ़ की विभीषिका का सामना करना पड़ता हैं और नदी जोड़ो परियोजना की तरफ सरकार का कोई ध्यान नहीं हैं।  कोशी क्षेत्र की एकमात्र लाइफलाइन डुमरी पुल क्षतिग्रस्त हैं और सरकार चैन की नींद सो रही हैं, नालंदा को मॉडल जिला बनाया जा रहा हैं और एतिहासिक दरभंगा को नाकारा जा रहा हैं। क्यों ? क्या बिहार का मतलब सिर्फ नालंदा हैं या नितीश सिर्फ नालंदा जिले के मुख्यमंत्री हैं।

मेरी यह रचना मैथिली के प्रसिद्ध न्यूज़ पोर्टल इसमाद पर भी छाप चुकी हैं पढने के लिए यहाँ क्लिक करे - नीतीश जी अहां बिहारक मुख्‍यमंत्री छी

Saturday, July 7, 2012

अच्छा लगता हैं…

अच्छा लगता हैं
जब लोग कहते हैं
ये बुद्ध की धरती हैं
जिसने सिखाया दुनिया को
अहिंसा का पाठ

अच्छा लगता हैं जब
लोग कहते हैं
यही हुए थे गुरु गोविन्द
जिसने सिखाया अपने
बाजुओ पर भरोसा करना

अच्छा लगता हैं जब
लोग कहते हैं
यही हुई थी सीता
जो थी जगतजननी
वैदेही और जानकी भी

अच्छा लगता हैं
जब लोग कहते हैं
यही हुई थे भगवान् महावीर
जो बने जैनों के चौबीसवे तीर्थकर

अच्छा लगता हैं
जब लोग कहते हैं
यही हुए थे हज़रत मखदूम, बदरुद्दीन और सफरुल
जिनकी रहमत सबको प्यारी थी

अच्छा लगता हैं जब
लोग कहते हैं
ये बिहार हैं
जो सभी धर्मो का सार हैं

Thursday, June 21, 2012

धुल खा रही तालाब सोंद्र्यीकरण की योजना

दरभंगा - एतिहासिक हराही तालाब को आकर्षक पर्यटक स्थल बनाने की परियोजना सरकारी कार्यालयों में धुल खा रही हैं। सोंद्र्यीकरण के लिए राज्य के पर्यटन मंत्रालय ने तालाब को एक आकर्षक पर्यटक स्थल बनाने का निर्णय लिया था जिसे लिए प्रथम चरण में विभाग ने २३ लाख रूपये आवंटित किये थे।
इस पैसो से विभाग ने प्रथम चरण में कुछ काम भी किये जैसे तालाब के पश्चिमी किनारों पर सीढ़ी और घाट का निर्माण ताकि लोगो आसानी से नहा सके। संग ही कुछ पेड़ पौधों भी लगाये, जो सही रख रखाव के ना होने के वजह से दम तोड़ रही हैं।
जबकि के काम पुरे तालाब के सोंद्र्यीकरण के लिए काफी नहीं हैं, राज्य सरकार ने कोई अतिरिक्त धन इस योजना के लिए आवंटित नहीं किये जिसके परिणामस्वरूप अक्टूबर २०१० से ही इसका कार्य रुका पड़ा हैं। सरकारी सूत्रों के अनुसार प्रथम चरण में दिए गए फंड का सही इस्तेमाल नहीं किया गया जिस कारण से इसके अतिरिक्त फंड को रोक कर रखा गया हैं।
जिले के वर्तमान जिला अधीक्षक संतोष कुमार मल ने अपने पहले प्रेस कांफ्रेंस में कहा था की हराही तालाब को शहर का सबसे आकर्षक पर्यटक स्थल बनाया जाएगा। साथ ही यहाँ मोटरबोट की भी सुविधा दी जाएगी ताकि पर्यटक बोटिंग का आनंद ले सके। उन्होंने कहा था की तालाब के बीचो-बीच लकड़ी का के घर बनाया जाएगा ताकि पर्यटक को अपने घर के आस पास जल विहार जैसा आनंद मिल सके। शुरू शुरू में इस योजना को लोगो ने बहुत सराहा था और हर जगह इसकी प्रशंसा भी हुई थी लेकिन तेरह महीने बाद भी ये परियोजना ठंढे बस्ते में पड़ी हुई हैं।
ज्ञात हो की हराही दरभंगा के तीन बड़े तालाबो में से हैं दुसरे और तीसरे नंबर पर दिगी और गंगा सागर तालाब हैं। ललित नारायण मिश्रा जब रेल मंत्री थे तब उन्होंने एक सपना देखा था की इन तीनो तालाबो का भूमिगत मिलान हो जो पर्यटन और बोटिंग के लिए आकर्षक का केंद्र हो।
केंद्र सरकार ने इस बाबत जिला प्रशासन को एक पत्र भी लिखा था की इस परियोजना का एक प्रारूप तैयार कर केंद्र सरकार के पास अनुमोदन के लिए भेजे, लेकिन जिला प्रशाशन के आलसीपन और ललित बाबू की आसमयिक मृत्यु के बाद ये योजना भी ठंढे बस्ते में चली गयी।
हराही तालाब का निर्माण १९३४ में आयें भूकंप के बाद रेलवे स्टेशन के पश्चिम में बसे लोगो की पानी के जरुरत के लिए तात्कालिक दरभंगा महाराज ने किया था। लेकिन आज की तारीख में ये तालाब लोगो के नालो का निकास बनकर रह गया हैं। लोग ना इसका सिर्फ गलत इस्तेमाल कर रहे हैं बल्कि इस अनावश्यक रूप से गन्दा भी कर रहे हैं।
आज हराही तालाब को एक भागीरथी प्रयास की जरूरत हैं ताकि इसका पुनरुत्थान हो सके, जरुरत हैं इसके विकास की ताकि ललित बाबु ने जो सपना देखा था वो साकार हो सके हैं, और इसके लिए हमें किसी जिला प्रशासन, राज्य सरकार या केंद्र सरकार की जरुरुत नहीं बल्कि खुद आगे आना होगा ताकि हमारा दरभंगा फिर से उसी तरह हो सके जिस उचाई पर यह था


Tuesday, May 15, 2012

अब बिहार में बहार हैं, काम की किसे परवाह हैं

नालंदा विश्व विद्यालय को दिल्ली ले जाने की आशंका पर अंतरजाल और ब्लॉग जगत पर कई सारे आलेख आये हैं, के के सिंह के और इसमाद ने भी इस खबर को प्रमुखता से स्थान दिया की क्या अब मोतिहारी के बाद नालंदा का नंबर तो नहीं, इसमाद के इस खबर के साथ ही अंतरजाल और इसमाद पर संदेशो की बाढ़ आ गयी, अंतरजाल पर आये कुछ प्रमुख संदेशो को हम यहाँ सीधे-सीधे चस्पा कर रहे हैं ( मोडरेटर).
सम्बंधित खबर - त कि मोतिहारी क बाद नालंदा
                           नालंदा कए दिल्‍ली ल जेबाक मामला स अंतरजाल आओर ब्लॉग जगत मे उबाल

 
ज्ञानेश्वर वात्स्यायन ने लिखा -  नीतीश को भी 'तवज्‍जो' नहीं देती गोपा सब्‍बरवाल, ईश्‍वर ही जानता है नालंदा अंतर्राष्‍ट्रीय विश्‍वविद्यालय का भविष्‍य । वैसे बिहार के वरिष्‍ठ पत्रकार के के सिंह साहब ने अगले वर्ष से शैक्षिक सत्र के शुरु होने की आस जगाई है । लेकिन कहां और कैसे शुरु होगा यह सत्र,कह पाना नामुमकिन है । विवादों में रहीं यूनिवर्सिटी की वाइस चांसलर गोपा सब्‍बरवाल को बिहार आने की फुर्सत ही नहीं मिलती । शायद राजगीर में 'फाइव स्‍टार' की सुविधाओं का इंतजार हो । मैंने दो दिनों पहले इस यूनिवर्सिटी की वेबसाइट www.nalandauniv.edu.in देखी थी । महीनों पहले बनी होगी,यह आप भी देखेंगे,तो पता चलेगा । यहां एपीजे कलाम के बिहार विधान सभा में दिये गये भाषण से लेकर अमर्त्‍य सेन और गोपा सब्‍बरवाल के विचार को भी देख-पढ़ सकते हैं । नीतीश कुमार का भी पेज बना है,लेकिन आप इसे जैसे ही क्लिक करेंगे,संदेश मिलेगा- we are in the process of updating the site....। इसके दो ही अर्थ निकलते हैं, यूनिवर्सिटी को 450 एकड़ भूमि उपलब्‍ध कराने वाले नीतीश कुमार ने या तो अपना संदेश नहीं दिया अथवा उनके संदेश को अपलोड करने लायक अब तक नहीं समझा गया । सच ज्‍यादा बेहतर मैडम सब्‍बरवाल ही जानती होंगी । आपकी जानकारी के लिए मैडम सब्‍बरवाल का पगार मासिक पांच लाख रुपये से अधिक है । यह पगार देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित जेएनयू के वाइस चांसलर से भी अधिक व दिल्‍ली यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर से दोगुणी है । अक्‍तूबर,2010 से ही मैडम यह पगार पा रहीं हैं । पगार को 'टैक्‍स फ्री' कराने की कवायद भी हुई । इतने बड़े पगार के बदले मैडम ने अब तक क्‍या उपलब्धि हासिल की,यह भी बहस का मुद्दा है । और तो और मैडम ने करीबी डा. अंजना शर्मा को पिछले वर्ष 3.30 लाख के वेतन पर ओएसडी नियुक्‍त कराया । यूनिवर्सिटी की गवर्निंग बोर्ड की बैठकों पर अब तक देश-विदेश में करीब तीन करोड़ रुपये फूंके जा चुके हैं । वैसे इन बैठकों की अहमियत पर एतराज नहीं है,लेकिन स्‍थान पर तो सवाल उठेंगे । मैडम सब्‍बरवाल भले जो कुछ कहें,सच तो यही है कि वेबसाइट पर भी उनके दिल्‍ली के आरके पुरम स्थित किराये के दफ्तर का ही महत्‍व दिखता है,राजगीर का नहीं । मैंने शुक्रवार को उनके राजगीर कार्यालय में कुछ जानकारियों के लिए फोन किया था,लेकिन वह रिसीव ही नहीं हुआ । नंबर था-2255330 . मैडम अब तक राजगीर कितने दफे आईं,यह भी जानने की इच्‍छा थी । बहरहाल,कुछ प्रश्‍न हैं,जिनका जवाब आरटीआई के माध्‍यम से यूनिवर्सिटी के मुख्‍य लोक सूचना अधिकारी एस के शर्मा से जानने की कोशिश कर रहा हूं । आज के लिए बस इतना ही...
 
कुमुद सिंह - मूर्तियां कहीं भी कितनी भी विशाल स्‍थापित कर दिया जाए, वो समाधि का स्‍थान नहीं ले सकती। नालंदा नालंदा ही रहेगा पालम इस जन्‍म में नालंदा नहीं बन सकता। वैसे दिल्‍ली का भूगोल पहले ही विदेशियों को भ्रमित कर रही है। जनकपुरी से वैशाली तक सफर एक घंटे का हो चुका है। अब मनमोहन नालंदा भी दिल्‍ली में ही चाहती हैं। लेकिन वो ये नहीं जानते हैं हथेली काट लेने से भाग्‍य की रेखाएं नहीं बदलती।

अतुलेश्वर झा -  हमारे हिसाब से मुख्यमंत्री नितीश कुमार गप्प जयादा हांकते हैं, कारन जितना वो बोलते हैं उसका एक अंश भी नहीं करते हैं। देखिये नए बिहार का निर्माण करते करते वो पुराने बिहार की अस्मिता भी नहीं बचा पा रहे हैं। इसमें गलती हम जनता जनार्दन की ही हैं, हम किसी को भी तुरंत ही भगवान् मान लेते हैं, ये उसी का प्रतिफल हैं

इश्वर चन्द्र - जनाब, अब बिहार में बहार हैं, काम की किसे परवाह हैं.




आशीष झा - भैया जिसके सिर पर प्रधानमंत्री का हाथ हो, वो नीतीश को क्‍या भाव देगी। जहां तक केके सर का सवाल है तो इस मसले पर उन्‍हें लगातार पढ रहा हूं। हमें तो लगता है कि इस विश्‍वविद्यालय का पहला स्‍कूल कागज पर तो बिहार मे लेकिन व्‍यावहारिक रूप से दिल्‍ली के पालम में ही खुलेगा।


कृष्ण कुमार सिंह - जिस दिन से , पूर्व राष्ट्रपति डॉ A PJ , जिन्होंने ऐतिहासिक नालंदा विश्विद्यालय के विनाश पर नालंदा विश्विद्यालय के पुनर्निर्माण का विचार रखा, उस दिन उन्हें विश्वविद्यालय से अलग कर दिया गया जिससे इसकी पुनर्निर्माण की अनिश्चितता उजागर हुई  जी बी युनिवर्सिटी के चेयरमेन प्रो अमर्त्य सेन के मनमानी व अड़ियल रवैये से असहमत होने के कारन डॉ कलाम को युनिवर्सिटी से अलग कर दिया गया, प्रोफेसर सेन की ज्यादा रूचि युनिवर्सिटी के ज्ञान व सिक्षा के दलाली में हैं, जिसके कारण दिल्ली युनिवर्सिटी के एक जूनियर रीडर रैंक के शिक्षक को युनिवर्सिटी में अत्यधिक वेतन पर वीसी के रूप में मनोनीत किया गया, जिससे देश के शिक्षा जगत में हाय तौबा मची हैं, जिसके लिए अमर्त्य सेन में बिहार व बिहारियों को तथा साथ ही साथ देश के तमाम शिक्षाविदो को जमकर भला बुरा कहा केवल उनके अहंकार और केंद्र सरकार के हाथ पर हाथ धरे बैठे होने के कारण इस महत्वकांक्षी विश्वविद्यालय के स्थापना के राह में बाधा आ रही हैं. इस विवादस्पद चयन का मामला यूनियन एक्सटर्नल अफेयर मंत्री इ अहमद ने राज्यसभा में उजागर किया की प्रोफेसर ने किस प्रकार वीसी पद के लिए गोपा का चयन किया. युनियन एक्सटर्नल अफेयर जो की नालंदा युनिवर्सिटी के ग्रन्थ सम्बन्धी मामलो से भी जुड़े हैं, के द्वारा अभी तक इस मामले पर कोई स्पष्टिकरण नहीं दिया गया हैं