मिथिला में एक कहावत है–
ज्यों उपजतो पाट, त दखिह ठाठ...। सोन अर्थात जूट मिथिला के किसानों के लिए केवल फसल मात्र नहीं है, अपितु ये इस जगह के संस्कृति का हिस्सा भी है । जूट से संबंध खत्म होनेका मतलब है इस जगह की संस्कृती से संबंध टूटना । कभी ‘’हरा नोट’’ और ‘’गोल्डेन फाइबर’’ के नाम से विख्यात बिहार का जूट आज अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है । सरकार और समाज की अवहेलना और उदारवाद से उपजे प्लास्टिक प्रेम इस ‘’गोल्डेन फाइबर’’ को ‘’गोल्डेन हिस्ट्री’’ मे बदलने ही वाला था कि सरकार ने एक फरमान जारी किया अब खाद्यान और अनाज की पैकेजिंग के लिए जुट का थैला अनिवार्य कर दिया गया है । एक समय था जब विश्व के कुल उत्पादन का 80 फिसदी जूट का उत्पादन अकेला बंगाल करता था । बंगाल में जूट कारोबार जब शुरु हुआ था तब बिहार भी उसका हिस्सा था । बिहार बंगाल से अलग हुआ तथापि बिहार में जूट का रकबा कम नहि हुआ । बिहार में जूट के लिए बाजार भी पर्याप्त था । आजादी के समय विश्व का 80 फिसदी जूट प्रोसेसिंग भारत के कुल 90 जूट मिल में होता था । लेकिन देश के विभाजन ने जूट कारोबार को प्रभावित किया । वैसे अभी भी देश मे समग्र जूट मिल की संख्या 79 है, जिनमे मे से 62 सिर्फ पश्चिम बंगाल में है, सात आंध्रप्रदेश मे, बिहार और उत्तर प्रदेश मे तीन-तीन, असम, ओडिशा, त्रिपुरा और छत्तीसगढ़ में एक–एक है । ‘’गोल्डेन फाइबर’’ से ‘’गोल्डेन हिस्ट्री’’ मे परिणत जूट की यात्रा पर बहुत तार्किक ढंग से प्रकाश देने की कोशिश की है
इसमाद (मैथिली के पहले इपेपर) के पत्रकार
सुनील कुमार झा और
कुमुद सिंह ने ।
18वीं शताब्दी में पटुआ बना जूट
कहने के लिए जूट का मिथिला में कई नाम है, कोई सोन, त कोई इसको पटुआ कहता हैं। लेकिन ‘जूट’ शब्द संस्कृत के ‘जटा’ या ‘जूट’ से निकला दिखाई पड़ता है । यूरोप में 18वीं शताब्दी में सबसे पहले इस शब्द का प्रयोग मिलता है, यद्यपि उस जगह इसका आयात 18वीं शताब्दी के पूर्व “पाट” के नाम से होता रहा है । 1590 में अबुल फजल लिखित आइन-ए-अकबरी जैसे कई दस्तावेज कहते हैं कि जूट का प्रयोग भारत में कपडा के रूप में भी खूब होता था । दस्तावेज के अनुसार भारतीय खास करके मिथिला और बंगाल में सफेद जूट से बने वस्त्र का प्रयोग बहुतायात में होता था । 17वीं शताब्दी में जब अंग्रेज भारत आए, तब ईस्ट इंडिया कंपनी जूट के पहिले वितरक बनें और इसका निर्यात बड़े पैमाने पर शुरु हुआ । इस से पहले भारत में जूट का उत्पादन केवल घरेलू उपयोग के लिए होता था । 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में कंपनी स्कॉटलैंड के डूडी में अपना पहला कारखाना लगाया । इसके साथ ही भारतीय जूट को स्कॉटलैंड के डूडी भेजने के लिए कलकत्ता के हुगली तट पर बंदरगाह बनाया गया । कच्चा माल और सस्ता मजदूर दोनो भारत में उपलब्ध था, ऐसे में मिस्टर जॉर्ज ऑकलैड डूडी नाम के स्कॉटलैंड के जूट कारोबारी को समझ आया जो स्कॉटलैंड में जूट कारखाना मंहगा धंधा है । इसलिए मिस्टर ऑकलैंड की कंपनी ने 1855 में हुगली नदी के तट पर रिशरा में पहला जूट मिल खोला । चार साल बाद मिस्टर जॉर्ज ऑकलैड के देखा-देखी पॉंच और नया मिल चालु हो गया । 1910 तक इसकी संख्या 38 हो गई । 1880 से पहले तक पूरा विश्व जूट के लिए कलकत्ता और डुंडी पर निर्भर रहता था, लेकिन 1880 के बाद जूट फ्रांस, अमेरिका, जमर्नी, बेल्जीयम, इटली, रूस और आस्ट्रीया तक पहुंचि गया । इसी दौरान भारत का जूट उद्योग भी बहुत विस्तार पाया । 1930 में दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह कालकाता के साथ साथ समस्तीपुर के मुक्तापुर में भी एक जूट मिल खोलें तो 1934 में कोलकाता के तीन कारोबारियों के साथ संयुक्त रूप से कटिहार जूट मिल की स्थापना की । रायबहादुर हरदत राय भी 1935 में कटिहार में जूट कारखाना लगाऍं । कटिहार और समस्तीपुर में मुख्य रूप से बोरा निर्माण होता था । हाल के दशक में कटिहार के दोनो मिल बंद हो चुके हैं, वैसे पूर्णिया में इस मिल की दो इकाई अभी भी चालू है, जिसमें से एकट में बोरा तो दुसरों में कपडा बनाने का काम हो रहा है ।
1930 में रामेश्वर जूट मिल से रखी गई थी आधारशिला
बिहार में जूट कारखाना का आधारशिला रखनेवाले दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह थे । 1930 में कामेश्वर सिंह विन्सम इंटरनेशनल लिमिटेड नाम की कंपनी के अंतर्गत कलकत्ता के साथ साथ समस्तीपुर जिला के मुक्तापुर में भी रामेश्वर जूट मिल की स्थापना की गई । तकरीबन 69 एक़ड जमीन पर स्थापित इस औद्योगिक इकाई में स्थापना काल में करीब 5 हजार मजदूर और 150 कर्मी कार्यरत थे । 4 सौ करघा की क्षमता वाले इस मिल में तीन सत्र में कर्मी कार्य का निष्पादन करते थे । उस काल खंड मे कोसी अंचल मजदूर और किसानों के लिए स्वर्णकाल कहलाता था । इस मिल के मजदूर अपने परिवार का भरण-पोषण कर खुशहाली के जिन्दगी जीते थे । मिल का कच्चा माल पूर्णिया, सुपौल, अररिया और किशनगंज समेत राज्य के अन्य जिलों के किसान उपलब्ध कराते थे । आज स्थिति ये चुकी है कि करीब सा़ढे नौ दशक पुराने मिल में कार्यरत मजदूर की संख्या जहॉं ढाई हजार तक पहुंचि गया है वैसे कर्मी की संख्या सिर्फ सवा सौ के आस-पास है ।
कभी मांग पूरा करना था मुश्किल, आज पड़ा हुआ है माल
रामेश्वर जूट मिल का इतिहास कहता है कि अपने सर्वाधिक उत्पादन के बावजूद एक समय था जब ये बाजार का मांग पूरा नहीं कर सकता था, वर्तमान में मिल प्रबंधन के लिए तैयार जूट का बोरा एक समस्या बन गया है । मिल सूत्र के अनुसार फिलहाल जूट मिल में करीब 12 से 13 करोड़ रूपया का तैयार बोरा गोदाम में प़डा है । बाजार में मांग नहि होने के कारण इसका बाजार नही है । मिल के एक पुराने कर्मी रामवतार सिंह कहते हैं कि एैसी स्थिति रातोराति नहीं हुई है । दरअसल 80 के दशक में सरकारी स्तर पर विदेशी कंपनी सब को लाभ पहुंचाने की नीति जूट मिल के लिए संकट को बढ़ा दिया है । आज सरकारी स्तर पर भी विदेशी कंपनी का प्लास्टिक बोरा ध़डल्ले से प्रयोग हो रहा है । जबकि जूट का बोरा गोदाम में पड़ा है । देखा जाए तो पिछले 30 साल में जुट के विकल्प के तरफ बाजार तेजी से बढ़ता गया और धीरे-धीरे भारतीय बाजार जूट से अपने को दूर करता गया । आज बेशक रामेश्वर जूट मिल में निर्मित बोरा की मांग नहीं के बराबर रह गया है, लेकिन रामेश्वर जूट मिल निर्मित बोरा का मांग पंजाब में सर्वाधिक हो रहा है । एसके अलावा हरियाणा, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य से भी भारी मात्रा में जूट के बोरे की मांग की जा रही है । मिल के प्रशासनिक प्रबंधक आरके सिंह का कहना है कि 2012 और 2014 में मिल को भारी आर्थिक क्षति हुई, जब मिल के गोदाम में आग लग गया और करोड़ों से ज्यादा की संपत्ती खाक हो गई । पिछला घटना को छोड़ दे तो भी 19 अप्रैल, 2014 में हुई दुर्घटना में मिल को करीब 7 से 8 करोड़ रूपये का नुकसान हुआ । कभी बिहार के पटुआ से किसान और मजदूर को सोने का भाव देने वाले रामेश्वर जूट मिल आज अपने अस्तित्व रक्षा के लिए संघर्ष कर रहा है । दो साल के अवधि में दो बड़े आपदा का सामना कर चुके कारखाना अपने पुराने तेबर में पुन: तैयार होने का हर संभव प्रयास कर रहा है । लेकिन प्राकृतिक आपदा के संग-संग सरकारी बेरुखी इसके विकास में बाधक बनल हुआ है ।
जूट नगरी था कटिहार
बिहार में तीन में से दो जूट मिल अकेले कटिहार में है । इस कारण से कभी कटिहार को जूट नगरी कहा जाता था । समस्तीपुर में 1930 में स्थापित हुए रामेश्वर जूट मिल के ठीक चार साल बाद 25 जून, 1934 को कलकत्ता के तीन कारोबारी क्रमश: बिनोद कुमार चमरिया, रामलाल जयपुरिया और विजय कुमार चमरिया ने संयुक्त रूप से कटिहार जूट मिल लि. की स्थापना की । इसके कारपोरेट आइडेंटिफिकेशन नंबर (CIN) –u17125wb1934pl007999 और पंजीयन संख्या 007999 था । इस कंपनी का कार्यालय 178, दुसरा तल्ला, महात्मा गांधी रोड, कोलकाता-07, प. बंगाल दर्ज है । 71.07 एकड में अवस्थित इस कारखाना का 30 मैट्रिक टन उत्पादन क्षमता था । इस जगह करीब 5 हजार लोगों को रोजगार मिलता था । इस कारखाना को खुलने के एक साल बाद 1935 में राय बहादुर हरदत राय भी कटिहार में एक जूट मिल की स्थापना की । जो आज राष्ट्रीय जूट विनिर्माण लिमिटेड का उपक्रम है । प्रतिदिन 17 मैट्रिक टन उत्पादन करने वाले इस मिल में करीब 1 हजार लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार मिलता था, जबकि करीब 50 हजार किसान इस मिल से सीधा जुड़ा हुआ था । कहा जाता है जो पाट से ठाठ दिखाने की परंपरा इसी ईलाके के किसान को इन्ही दोनों मिल का दिया हुआ था । मिल बंद हुआ तो पाट और ठाठ दोनो खतम हो गया । आज बेशक कटिहार का परिचय धूमिल हो गया हो, लेकिन कटिहार मिल के उत्पाद का पहचान समस्त भारत में था । बोरा के साथ साथ इस जगह का बना हुआ जूट के अन्य उत्पादों की मांग देश से विदश तक में होती थी । पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों से भी भारी मात्रा में जूट के सामान की मांग की जाती थी । साथ ही नेपाल इसका एक बड़ा बाजार था ।
जिंदगी के आस में मर गया कारखाना
वैसे तो 1947 का विभाजन इस कारोबार को खासा प्रभावित किया, लेकिन बिहार में सत्तर से बदतर होती गई स्थिति । देखा जाय तो देश विभाजन के फलस्वरूप जूट उत्पादन का लगभग तीन चौथाई जूट क्षेत्र पूर्वी पाकिस्तान में चला गया, जबकि जूट मिल सब भारत के हुगली नदी के कछार में कच्चा माल के लिए तरसता रहा । पाकिस्तान और भारत में संबंध लगातार खराब होते गए, जिससे जुट का संबंध कभी जुड़ नही सका । बिहार के जूट उद्योग को कच्चा माल या बाजार की कभी कमी नही रही, लेकिन बंगाल में जूट का संकट बिहार के कारखाना को भी वाम आंदोलन का भेंट चढा दिया । बंगाल के वाम आंदोलन और देश के अराजक राजनीतिक हालात के कारण निजी प्रबंधन कोई ठोस निर्णय लेने में असमर्थ हो गया । कारखानों की हालत दिन ब दिन बदतर होती गेई । तथापि न्यूनतम मजदूरी, पेंशन, भविष्यनिधि, स्वास्थ्य सुविधा में कटौती के वामपंथी नेताओं के आरोप के बावजूद किसान-मजदूर मिल में उत्पादन बढ़ाने के लिए सक्रिय था । अंतत: वामपंथी दल के दबाव में आकर 1980 में सरकार ने एक महत्वपूर्ण कदम उठाया और राष्ट्रीय जूट विनिर्माण निगम (एनजेएमसी) लिमिटेड की स्थापना की । छह जूट मिलों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया । इसमें कटिहार का राय बहादुर हरदत राय मिल भी शामिल था । सन् 1935 में स्थापित इस कारखाना का 18-8-1978 को भारत सरकार के तरफ से अधिग्रिहित किया गया । 20-12-1980 को कारखाना का राष्ट्रीयकरण किया गया । पिछले 35 साल में सरकार कंपनी के पुनरुद्धार के लिए करोडो रूपये खर्च किए । पिछला दशक में भी 1562.98 करोड़ का पैकेज मंजूर हुआ और 6815.06 करोड़ के ऋण का बकाया और ब्याज माफ हुआ । इसके बावजूद छ: के छ: इकाई 6 से लेकर 9 साल से नहीं चल रही है । पुनर्बहाल पैकेज के तहत कटिहार मिल को चालू करबाना था, लेकिन संभव नहि हो सका है । उम्मीद है सरकार की इस नई नीति से मिल चालू हो सके, और अनुमान है कि इस मिल को चालू होने से बिहार में 5 हजार से ज्यादा लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार मिलेगा । दस्तावेज के अनुसार 2004 से 2010 तक उत्पादन ठप (मिल बन्द) था । 2007 में कर्मचारी का स्वेच्छा सेवा निवृति (भी.आर.एस) और 2011 में अधिकारी का स्वेच्छा सेवा निवृति हुआ । 2010 में कारखाना पुनर्जिवित हुआ । 14-2-2011 को कॉन्ट्रेक्टर की बहाली और उत्पादन प्रारम्भ हुआ । लेकिन इस सबके बाद 6-7 जुलाई, 2013 को मध्य रात्रि मे आरबीएचएम जूट मिल में तालाबंदी कर दी गई । मिल से जुड़े रामसेवक राय का कहना है कि पुराने मशीन और एनजेएमसी के मजदूर विरोधी नीति कारण स्थिति बिगड़ता गया । मील के उत्पादन क्षमता में भारी गिरावट आई । जहॉं प्रतिदिन 16-17 मैट्रिक टन उत्पादन होता था वह मुश्किल से 10 मैट्रिक टन हो गया । दुसरे तरफ वामपंथी यूनियन का हो हल्ला भी बढता गया । इसी दबाव के कारण यूनिट हेड डीके सिंह पत्नी के बीमारी का बहाना बनाकर बिना सूचनाके कटिहार से विदा हो गए । चार दिन के बाद मिल के प्रबंधक एसके विश्वास त्यागपत्र देकर चलते बने । लगभग एक महिने तक पूरा मिल श्रम अधिकारी नवीन कुमार सिंह और एक सुरक्षा प्रहरी द्वारा चलता रहा । अंतत: मशीन के मरम्मती और रंग-रौगन का बहाना बनाकर 6-7 जुलाई, 2013 को मध्य रात्रि मे आरबीएचएम जूट मिल में तालाबंदी कर दी गई । ऐसा ही इतिहास कटिहार जूट मिल का भी है । कटिहार जूट मिल लि. को बिहार राज्य वित्तीय निगम 13 सितंबर, 2001 में चलाने में असमर्थ होने पर गोविंद शारदे की कंपनी सनवायो मैन्यूफैक्चर प्रा. लि. को सौंप दिया । राज्य वित्तीय निगम के अधिनियम 1951 के तहत अंडर सेक्सन 29 और 30 के तहत सनवायो मैन्यूफैक्चर प्रा. लि. को कटिहार जूट मिल लि. के 77.07 एकड जमीन बेच दिया । कंपनी के प्रबंधनक श्याम सुंदर बेगानी का कहना है कि कंपनी मांग कम रहने के कारण घाटा मे चल रहल थी, जिस कारण 20 मार्च, 2013 को गोविंद शारदे ने अपने कटिहार जूट को मिल बंद करने का नोटिस लगा दिया । दुसरे तरफ कंपनी के गोदाम में भीषण अगलगी हुआ जिसमें हजार क्विटल के करीब जूट राख हो गया । इससे पूर्व भी इस जगह कुछ छोटे-मोटे अगलगी की घटना हुई थी । कुल मिलाकर मिल लेने वाले ने अपनी पूंजी बीमा और अन्य स्रोतों से निकालने का प्रयास किया, मिल चलाने में उनका प्रयास कम दिखाई दिया । इसका परिणाम ये हुआ कि एक तरफ कंपनी के गेट पर ताला लगा वहीं कंपनी के जमीन पर कब्जा का मामला थाना तक पहुंचि चुका था । कारखाने से ज्यादा कारखाना के जमीन पर आज बहस हो रहा है ।
पाट के पटरी पर विदा हुए किसान
जो पटरी कभी पाट भेजने के लिए बिछाया गया था, वह पटरी पाट उपजाने वाले किसान और पाट से बोरा तैयार करनेवाले मजदूरों को देस से पलायन करने के लिए मजबुर कर चुका था । जूट उपजाने वाले हजार की संख्या में किसान और कामगार हरेक साल रोजगार के तलाश में पलायन करने लगे । सरकारी स्तर पर जूट उपजाने वाले को किस प्रकार का सहयोग दिया जा रहा है इसका अंदाजा महज जूट के न्यूनतम समर्थन मूल्य को देखकर लगाया जा सकता है । कभी ‘’हरा नोट’’ और ‘’गोल्डेन फाइबर’’ के नाम से विख्यात जूट 1984 में 1400 रूपया प्रति क्विंटल था, जबकि 2014 में यानि 30 साल बाद सरकार ने इसका न्यूनतम समर्थन मूल्य महज 1150 रूपया प्रति क्विंटल तय किया है । पिछले 30 साल में न्यूनतम समर्थन मूल्य का ऐसा अवमूल्यन अन्य किसी भी नकदी फसल मे संभवत: नहीं दिखाई देगा । जूट लगाने वाले किसान का दर्द इस से समझा जा सकता है । उल्लेखनीय है कि भारतीय जूट निगम कपड़ा मंत्रालय के तहत एक सार्वजनिक उपक्रम है और ये किसान के लिए कच्चे जूट का समर्थन मूल्य को लागू करने का काम करती है । ये स्थिति तब है जब किसान के हित में हरेक साल कच्चा जूट और मेस्टा के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया जाता है । विभिन्न श्रेणी के मूल्य को तय करते समय निम्न श्रेणी के जूट को हत्सोसाहित किया जाता है और उच्च श्रेणी के जूट को प्रोत्साहन दिया जाता है, ताकि किसान उच्च श्रेणी के जूट के उत्पादन के लिए प्रेरित हो ।
राष्ट्रीय जूट नीति-2005
ऐसा नहि है कि सरकारी अधिकारी के पास जूट पर कहने के लिए कुछ नही है । सरकारी दस्तावेज देखकर कतिपय ऐसा नही समझा जाएगा कि किसान का दर्द सरकार नहीं समझ पा रही है या सरकार को इसका भान नहीं है । सरकारी पदाधिकारी अपने स्तर पर बहुत कुछ नीति तैयार की है लेकिन बिचौलियों और भ्रष्टाचारी के जद में आकर ये योजना सब धरातल पर पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती है । बदलते वैश्विक परिदृश्य में प्राकृतिक रेशा का विकास, भारत में जूट उद्योग की कमी और खूबी, विश्व बाजार में विविध और नूतन जूट उत्पाद के बढ़ते मांग को ध्यान में रखकर सरकार अपना लक्ष्य और उद्देश्य को पुनर्परिभाषित करने और जूट उद्योग को गति प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय जूट नीति-2005 की घोषणा की है ।
इस नीति का मुख्य उद्देश्य सार्वजनिक और निजी भागीदारी से जूट की खेती में अनुसंधान और विकास गतिविधि में तेजी लाना था ताकि जूट किसान अच्छे प्रजाति के जूट का उत्पादन करें और उसका प्रति हेक्टेयर उत्पादन बढ़े साथ ही साथ आकर्षक कीमत भी मिलें । लेकिन बिहार में यह नीति कागज से बाहर अभी तक देखने के लिए भी नहीं मिली है ।
कुछ ऐसा ही हाल जूट प्रौद्योगिकी मिशन का भी है । सरकार जूट उद्योग के सर्वांगीण विकास और जूट क्षेत्र के वृद्धि के लिए ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान पांच साल के लिए जूट प्रौद्योगिकी मिशन की शुरूआत की । 355.5 करोड़ के इस मिशन में भी कृषि अनुसंधान और बीज विकास, कृषि प्रविधि, फसल कटाई और उसके बाद की तकनीकी, कच्चा जूट का प्राथमिक और द्वितीयक प्रस्संकरण और विविध उत्पाद विकास और विपणन -वितरण से संबंधित चार उपमिशन है । इस उपमिशन को कपड़ा और कृषि मंत्रालय मिलकर लागू किए है, लेकिन बिहार के किसान के लिए यह एक सरकारी सपना से ज्यादा कुछ नही है । ऐसे ही जेपीएम अधिनियम बिहार में कहॉं लागू हुआ पता नहि । जूट पैकेजिंग पदार्थ (पैकेजिंग जिंस मे अनिवार्य इस्तेमाल) अधिनियम, 1987 (जेपीएम अधिनियम) नौ मई, 1987 को प्रभाव में आया । इस अधिनियम के तहत कच्चा जूट के उत्पादन , जूट पैकेजिंग पदार्थ और इसके उत्पादन में लगे लोगों के हित में कुछ खास जिंस की आपूर्ति और वितरण में जूट पैकेजिंग अनिवार्य बना दिया गया । एसएसी के सिफारिश के आधार पर सरकार जेपीएम, 1987 के अतंर्गत जूट वर्ष 2010-11 के लिए अनिवार्य पैकेजिंग के नियम को तय किया गया, इसके बाद अनाज और चीनी के लिए अनिवार्य पैकेजिंग का शर्त तय किया गया । तदनुसार , जेपीएम अधिनियम के अंतर्गत सरकारी गजट के तहत आदेश जारी किया गया जो 30 जून, 2011 तक वैध था । उसके बाद सरकार इस तरफ देखने के लिए समय नहीं निकाल पाई । बिहार में प्रौद्योगिकी उन्नयन कोष योजना सेहो असफल रहल । इस योजना का उद्देश्य प्रौद्योगिकी उन्नयन के माध्यम से कपड़ा / जूट उद्योग को प्रतिस्पर्धी बनाना था और उसके प्रतिस्पर्धात्मकता में सुधार लाना था साथ ही साथ उसको संपोषणीयता प्रदान करना छल । जूट उद्योग के आधुनिकीकरण के लिए सरकार 1999 से अब तक 722.29 करोड़ का निवेश कर चुकी है । पॉलिथिन पर प्रतिबंध के बाद उम्मीद है कि जूट के दिन लौटेंगे लेकिन उदारीकरण के इस दौर में नियम को ताक पर राखकर सरकारी स्तर पर जूट की खरीद नहि होती है । ऐसे में जूट श्रमिक की कार्यस्थिति में सुधार का कोई सरकारी दावा झूठ के अलावा कुछ नहीं है । कहने के लिए सरकार जूट उद्योग के श्रमिकों के लाभ के लिए एक अप्रैल, 2010 को गैर योजना कोष के तहत कपड़ा मंत्रालय के अनुमोदन से नया योजना शुरु किए है । जूट क्षेत्र के श्रमिकों के लिए कल्याण योजना जूट मिल और विविध जूट उत्पादों के उत्पादन में लगे छोटे इकाइयों में कार्यरत श्रमिकों को संपूर्ण कल्याण और लाभ के लिए है । इसके अंतर्गत राजीव गांधी शिल्पी स्वास्थ्य बीमा योजना के तर्ज पर इस क्षेत्र के श्रमिक को बीमा सुविधा प्रदान किया जाना था । कहने के लिए राष्ट्रीय जूट बोर्ड इसको लागु किया । लेकिन लाभ किसको मिला इसकी सूची आज तक नहीं बन सकी है । कुल मिलाकर निवेशको के अभाव, सरकार की उपेक्षा और अलाभकारी फसल हो चुकि जूट के किसान अब इस फसल से मुंह मोड़ रहे हैं । अब तो ये बस किसान की जिद और देसी उपयोगिता के बल पर हमारे बीच ‘’गोल्डेन फाइबर’’ समझिए ‘’गोल्डेन हिस्ट्री’’ जैसे है ।
साभार
–
इसमाद ( मैथिली क पहिल ईपेपर )