कल श्रीराम सेंटर में सुन्दर संयोग नाटक की प्रस्तुति के बाद, मैलोरंग ने अपने सम्मान/पुरष्कार की घोसना कर दी हैं। ज्ञात
हो की मैलोरंग वर्ष २००५ से रंगकर्म और रंगमंच में अपने विशेष सहयोग के
लिए ये पुरष्कार देते आ रहे हैं। ये पुरष्कार हैं 'ज्योतिरीश्वर सम्मान',
'रंगकर्मी प्रमिला झा सम्मान', और 'रंगकर्मी श्रीकांत मंडल सम्मान'। इस बार
के सम्मान के लिए अंतिम सूचि तैयार हो चुकी हैं। और अंतिम रूप से चयनित
प्रतिभागी रहे हैं... ! ज्योतिरीश्वर सम्मान से नवाजा गया हैं, मैथिली के
सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और निर्देशक महेंद्र मलंगिया को, वही रंगकर्मी प्रमिला
झा सम्मान के लिए अनीता झा (जनकपुर, नेपाल) को सम्मानित किया गया और
श्रीकांत मंडल सम्मान के लिए निलेश दीपक को चुना गया हैं। इस बार के तीनो
पुरष्कार के लिए मुख्या चयनकर्ता थे मैलोरंग के अध्यक्ष देवशंकर नवीन,
प्रसिद्द रंगकर्मी प्रेमलता मिश्रा, और मेलोरंग रेपर्टरी के चीफ मुकेश झा।
चयनकर्ताओ ने ढेर सारे प्रतिभागियों के बीच इन तीनो के नामो की घोषणा की जो
निश्चित रूप से काबिले तारीफ़ हैं। चयनकर्ता को आभार संग ही संग चयनित
प्रतिभागी को बहुत बहुत बधाई।
Monday, August 27, 2012
दिल्ली में हुआ 'सुन्दर संयोग'
- सुन्दर संयोग का मंचन
- नए कलाकारों ने दी अद्भुत प्रस्तुति
- मलंगिया महोत्सव की घोसना
आशा के अनुरूप श्रीराम सेंटर खचाखच भरा हुआ था, दर्शको की भीड़ दिल्ली में मैथिल स्वर को गुंजायमान कर रही थी की मंच पर अवतरीत हुए संतोष....नट की भूमिका में आये संतोष को देख दर्शक अपनी हंसी रोक ना सके और पूरा ऑडिटोरियम हंसी की झंकार से धमक उठा। रही सही कसर नटी बने प्रवीण ने पूरा कर दिया, प्रवीण के हरेक ठुमके और हरेक इशारे पर हंसी का फुव्वारा और तालियों की गडगडाहट गूंजती थी। इन दोनों के मनोरंजन ने दर्शको को पेट पकड़कर लोट-पोट होने पर विवश कर दिया। फिर एक एक कर मंच पर बांकी कलाकार आये, अनिल मिश्रा, नीरा, ज्योति और बबिता ने भी अपनी सुन्दर आदकारी से दर्शको का मन मोह लिया। मुख्य भूमिका में सुन्दर बने अमर जी राय और सरला बनी सोनिया झा ने कमाल का अभिनय किया। ज्ञात हो की अमरजी राय ने मैलोरंग से ही अपनी कैरियर की शुरुआत की थी २००६ में काठक लोक से रंगमंच पर आये अमरजी राय मैलोरंग द्वारा निर्देशित जल डमरू बाजे में मुख्य भूमिका में थे। पिछले वर्ष स्कॉलरशिप मिलने के कारण एक वर्ष के अभिनय प्रसिक्षण के लिए आप मध्यप्रदेश गए और अभिनय की बारीकियो से अवगत हो पुनः मैथिली रंगमंच की और मूड गए, प्रसिक्षण के बाद 'सुन्दर संयोग' उनका पहला नाटक हैं। वहीँ सरला इससे पहले हिंदी रंगमंच के साथ जुडी थी और कुछ छोटे-छोटे अभिनय करती थी। मैथिली रंगमंच पर उनका ये पहला प्रयास हैं। लेकिन अपने पहले ही प्रयास में वो दर्शको के दिल में उतर गयी और अपनी पहली परीक्षा में शत-प्रतिशत पास हुई। सरोजनी की भूमिका में बबिता प्रतिहस्त ने भी अच्छा अभिनय किया, ज्ञात हो की बबिता का ये पहला अभिनय था रंगमंच पर। वैसे प्रकास जी की ये खासियत रही हैं की वो नए से नए कलाकारों से भी अच्छा अभिनय करवा लेते हैं, एक मंजे निर्देशक होने के सारे गुण इनमे विद्यमान हैं।
स्त्री समस्या को समाहित किये सुन्दर संयोग का ये मंचन सचमुच में अद्भुत रहा। अंत तक दर्शक अपने कुर्सी से चिपके रहे। बधाइयों का ताँता लगा रहा। अंत में हरेक बार की तरह जैसा की मैलोरंग में होता आया हैं। अपने एक नाटक के सम्पति के बाद दुसरे नाटक के मंचन की घोसना... प्रकाश जी ने समय और दिन तो नहीं बताया लेकिन ये अवस्य सुनिश्चित किया की अक्टूबर में उनका अगला मंचन होगा। साथ ही मलंगिया महोत्सव की भी पुनः घोषणा की जो २४-३० दिसम्बर तक होगा। एक शब्द में कहू तो सुन्दर रहा 'सुन्दर संयोग'।
Wednesday, August 15, 2012
हमें नहीं चाहिए ऐसी स्वतंत्रता
हमें नहीं चाहिए ऐसी स्वतंत्रता
जिसमे लाल किले पर एक गुलाम नेता का भाषण हो
जो इशारो पर चलता हो ‘मैडम’ जी के
जिसमे लाल किले पर एक गुलाम नेता का भाषण हो
जो इशारो पर चलता हो ‘मैडम’ जी के
हमें नहीं चाहिए ऐसी स्वतंत्रता
जो नहीं देती हो बराबरी हर नागरीक के सम्मान की
जो आज भी छुआछूत और आरक्षण में बंधी हो
जो नहीं देती हो बराबरी हर नागरीक के सम्मान की
जो आज भी छुआछूत और आरक्षण में बंधी हो
हमें नहीं चाहिए ऐसी स्वतंत्रता
जहाँ जीने का हक़ सिर्फ अमीरों को हो
गरीबो को सिर्फ पिसने का फरमान
जहाँ जीने का हक़ सिर्फ अमीरों को हो
गरीबो को सिर्फ पिसने का फरमान
हमें नहीं चाहिए ऐसी स्वतंत्रता
जो मरीजों को नहीं दे सके दवा
जो भूखो को नहीं दे सके दो वक्त की रोटी
जो मरीजों को नहीं दे सके दवा
जो भूखो को नहीं दे सके दो वक्त की रोटी
हमें नहीं चाहिए ऐसी स्वतंत्रता
जिसकी ध्वजा किसी पकिस्तान के डोर से बंधी हो
और कोई और रंग खीच रहा हो केसरिया, सफ़ेद के बीच
जिसकी ध्वजा किसी पकिस्तान के डोर से बंधी हो
और कोई और रंग खीच रहा हो केसरिया, सफ़ेद के बीच
हमें नहीं चाहिए ऐसी स्वतंत्रता
जहाँ जीना दुस्वार हो और
मरने की इज़ाज़त ना मिले
जहाँ जीना दुस्वार हो और
मरने की इज़ाज़त ना मिले
हमें नहीं चाहिए ऐसी स्वतंत्रता
जहाँ कलम सिर्फ दलाली में लिखते हो
और मिडिया हो राजनेताओ की गुलाम
जहाँ कलम सिर्फ दलाली में लिखते हो
और मिडिया हो राजनेताओ की गुलाम
हमें चाहिए ऐसी स्वतंत्रता
जो कभी सपना देखा था
गाँधी, भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस और राजीव गाँधी ने
जो कभी सपना देखा था
गाँधी, भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस और राजीव गाँधी ने
की हरे-भरे गाँव में
खेतो के बीच
लहराता हो तिरंगा
उसी शान से जैसे
हमने पहली दफे लहराया था
मुल्क के आजाद होने पर
खेतो के बीच
लहराता हो तिरंगा
उसी शान से जैसे
हमने पहली दफे लहराया था
मुल्क के आजाद होने पर
जय हिंद – जय भारत
Monday, August 13, 2012
कल और आज
बहुत पहले
होता था एक गाँव
जहाँ सूरज के उगने से पहले
लोग उठ जाते थे
और देर रात तक
अलाव के निचे चाँद
को निहारते थे
बहुत पहले
रमजान में राम और
दीपावली में अली होता था
सब मिल के मानते थे
होली, दिवाली, ईद और बकरीद
फागुन का रंग सब पर बरसता था
नहीं होता था कोई
सम्प्र्यादायिक रंग
ना ही होता था दंगे
और उत्पातो का भय
बहुत पहले
भ्रष्ट नेताओ की
नहीं होती थी पूजा
ना ही बहाए जाते थे
किसी अपनों के मौत पर
घडियाली आँशु
बहुत पहले
सुदर दिखती थी लडकियां
होता था सच्चा प्यार
सच्चे मन से
लोग जानते थे प्रेम की परिभाषा
बहुत पहले
पैसा सब कुछ नहीं होता था
लोग समझते थे मानवता
और समाज की सादगी
और अब
उठते हैं हम दिन ढलने के बाद
और अलाव की जगह ले ली हैं हीटर ने
अब चाँद बादलो में नहीं दीखता
जैसे छुप गया हो
आलिशान महल के पीछे
और अब
रमजान और होली
हिन्दू मुसलमानों का
होकर रह गया हैं
साम्प्रदायिकता का रंग
सर चढ़ कर बोलने लगा हैं
अब
साधुओ के भेष में चोर-उचक्के
घूमते हैं
शहर भर में होता है रक्तपात
और दंगाई घूमते है खुले-आम
होती हैं भ्रष्ट नेताओं के पूजा
नैतिकता के नाम पर
सुख चुकी हैं आंशुओ की धार
अब
बदल गई हैं प्रेम की परिभाषा
नहीं करता कोई सच्चा प्यार
खत्म हो गयी वफ़ा की उम्मीद
हीर-राँझा और शिरी-फ़रियाद
किस्सों में भी अच्छे नहीं लगते
अब
पैसा ही सब कुछ होता हैं
संबंध और मानवता से भी बड़ा
खत्म हो गयी समाज से सादगी
और खत्म हो गया आदमी
आदमियत के संग ...
होता था एक गाँव
जहाँ सूरज के उगने से पहले
लोग उठ जाते थे
और देर रात तक
अलाव के निचे चाँद
को निहारते थे
बहुत पहले
रमजान में राम और
दीपावली में अली होता था
सब मिल के मानते थे
होली, दिवाली, ईद और बकरीद
फागुन का रंग सब पर बरसता था
नहीं होता था कोई
सम्प्र्यादायिक रंग
ना ही होता था दंगे
और उत्पातो का भय
बहुत पहले
भ्रष्ट नेताओ की
नहीं होती थी पूजा
ना ही बहाए जाते थे
किसी अपनों के मौत पर
घडियाली आँशु
बहुत पहले
सुदर दिखती थी लडकियां
होता था सच्चा प्यार
सच्चे मन से
लोग जानते थे प्रेम की परिभाषा
बहुत पहले
पैसा सब कुछ नहीं होता था
लोग समझते थे मानवता
और समाज की सादगी
और अब
उठते हैं हम दिन ढलने के बाद
और अलाव की जगह ले ली हैं हीटर ने
अब चाँद बादलो में नहीं दीखता
जैसे छुप गया हो
आलिशान महल के पीछे
और अब
रमजान और होली
हिन्दू मुसलमानों का
होकर रह गया हैं
साम्प्रदायिकता का रंग
सर चढ़ कर बोलने लगा हैं
अब
साधुओ के भेष में चोर-उचक्के
घूमते हैं
शहर भर में होता है रक्तपात
और दंगाई घूमते है खुले-आम
होती हैं भ्रष्ट नेताओं के पूजा
नैतिकता के नाम पर
सुख चुकी हैं आंशुओ की धार
अब
बदल गई हैं प्रेम की परिभाषा
नहीं करता कोई सच्चा प्यार
खत्म हो गयी वफ़ा की उम्मीद
हीर-राँझा और शिरी-फ़रियाद
किस्सों में भी अच्छे नहीं लगते
अब
पैसा ही सब कुछ होता हैं
संबंध और मानवता से भी बड़ा
खत्म हो गयी समाज से सादगी
और खत्म हो गया आदमी
आदमियत के संग ...
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