Friday, December 13, 2013

गाँव छोड़ब नाही, जंगल छोड़ब नाही, माई माटी छोड़ब नाहीं, लड़ाई छोड़ब नाहीं


एक समय था जब पूर्णिया बिहार प्रान्त के लिए काला पानी के नाम से कुख्यात था। दुर्गम जंगल और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद आदिवासियो ने इस इलाके को स्वर्ग बनाया। लेकिन इन भूमिपुत्रों को आज भू-माफियायों कि नज़र लग गयी हैं। आज यही आदिवासी भू-माफियाओ के वजह से अपने अस्तित्व की लड़ाई के लिए पिछले कई दिनों से हाथो में तीर कमान लिए घूम रहे हैं। पुरे बिहार की पुलिस अब एसटीएफ के संग मिलकर इनका समूल नाश करने में लगी हैं। नाम दिया हैं ऑपरेशन अगस्त-नगर। मंशा हैं आदिवासियों के कब्जाए जमीन को खाली करवा कर वहाँ के भूमि माफियाओ को ऊँचे कीमत पर बेचना। प्रशासन चुप हैं, नेता शांत हैं, शायद सब अपना भला खोज रहे हैं। किसी को फिकर नहीं। और शायद यही एकमात्र कारण हैं कि बिहार में एक दर्जन से ज्यादा आदिवासी विलुप्त हो गए हैं और जो कुछ बचे हैं वो विलुप्ति के कगार पर।

कभी वनों से आच्छादित रहें पूर्णिया में जनसँख्या बढ़ोतरी का यह एक अजीब दुस्प्रभाव हैं। इंसानो ने अपने बढ़ते तादात के कारन जंगल तो साफ़ किये ही; लेकिन ये भूल गए कि इनके साथ जंगल में बसने वाले उन हज़ारो जीवों का भी नुक्सान पहुंचाया। यहाँ बास करने वाली करीब आधा दर्जन आदिवासी जनजातियाँ आज विलुप्ति के कगार पर हैं। एक समय था जब ये आदिवासियों की पहचान जमींदार के रूप में होती थी, लेकिन शिक्षा का अभाव और भोले-भाले होने के कारण भू-माफियायों ने इनका जमकर फायदा उठाया और आज हालत ये हैं की ये जनजातियां यहाँ इक्का दुक्का ही हैं। 1770 में बिहार में पड़े भयानक अकाल के बाद अंग्रेजो के द्वारा आदिवासियों का इस इलाके में पदार्पण हुआ। हट्ठे-कट्ठे शारीर के मालिक इन आदिवासियों के लिए यहाँ की भौगोलिक संरचना काफी मुफीद थी। अंग्रेजो ने इन आदिवासियों को यहाँ सड़क बनाने के काम के लिए लाया था। लेकिन अंग्रेजो का मुख्य उदेश्य दार्जिलिंग में चाय कि खेती और नेपाल से टैक्स वसूली था। ऐसा कहा जाता हैं कि श्रीनगर प्रखंड के जगेली स्थित दस नंबर सड़क आंग्ल-नेपाल युध के समय आदिवासियों ने बनाया था और इसी मार्ग से होकर अंग्रेजो ने नेपाल पर चढ़ाई की थी। अंग्रेजो ने यहाँ आदिवासियों की लगभग एक दर्जन जनजातियां बसाई थी जिसमे संथाली, उरांव, मुंडा, बेदिया, खरवार, लोहरा, माल, पहाड़िया, सूर्या पहाड़िया, खरिया, लोहरा-लोहार, आदि शामिल हैं। पहले यहाँ का पानी काले रंग का होता था, पानी के निकलने कि कहीं व्यवस्था नहीं थी, लोग इस इलाके में आने से कतराते थे, पूरा इलाका जंगल और गंदे पानी से भरा होता था और यही कारन हैं की इस जगह को यहाँ के काला पानी के नाम से जाना जाता था। लेकिन 1934 में आये भयंकर भूकम्प ने इस इलाके के पानी को साफ़ कर दिया और यही बाढ़ का पानी इन आदिवासियों के नसीब को भी इनसे छीन ले गया। गैर आदिवासी इस और आकर्षित होने लगे और धीरे-धीरे गैर आदिवासियों का यहाँ जमावड़ा होने लगा और साथ ही होने लगा जंगल साफ़ होने का सिलसिला। लोग आते गए जंगल कटते गए और साथ ही कटते गए इन आदिवासियों के सर। जंगल साफ़ होने के कारण इन आदिवासियों को अपने भरण-पोषण में काफी दिक्कते आने लगी। प्रकृति की गोद में रहनेवाले ये लोग खुले आसमान के निचे आ गए। ना तो जमीन बची और ना ही बची वो हरे भरे पेड पौधे जिनका उपयोग ये पाने दैनिक जीवन में खाने, पीने और जीने के लिए किया करते थे। हाल के कुछ वर्षो में शहर का विकास हुआ तो जमीन की कीमतें भी आसमान छूने लगी। रोजी रोजगार और शिक्षा के आभाव के कारण भूमि-माफियाओ ने इन भोले भाले आदिवासियों को अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया। अभी हाल ये हैं शहर की आसपास की कई ऐसी जमीन हैं जिनको लेकर आदिवासी और भू-माफियाओं में ठनी हैं।

मानव जाती के इतिहास के अध्ययन में ये जनजातियां जिवंत दस्तावेज कि तरह हैं। इस धरती पर इंसान के विकास के क्रम का आदिवासी हीं सभ्यता का सूत्रधार हैं। हड़प्पा युगीन मिटटी के बर्तनो और आभूषणो को देखकर तो यही लगता हैं कि‍ आदिवासियों ने ही सभ्य समाज की नीव रखी हैं। यही नहीं, वैदिक काल में भी हमें इसकी परंपरा लिखित तौर पर मिलती है। वैदिक ग्रंथो में जो ‘’जन’’ शब्द का उल्लेख है वह जन वाकई जनजाती ही है। वास्तव में आदिवासी शब्द आदि और वासी से मिलकर बना है जिसका अर्थ होता है मूल निवासी। भारत की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा इन आदिवासियों का है। प्राचीन संस्कृत ग्रंथो में इन आदिवासियों को वनवासी भी कहा गया है। ऐेतहासि‍क और पौराणि‍क रुप से भगवान शि‍व भी मूलत: एक आदवासी देवता थे। हड़पा में मिली पशुपित योगी की मुहर इसका एक प्रमुख प्रमाण है। बाद में आर्य ने भी उन्हें देवताओं के त्रयी यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप में स्वीकार कि‍या। आदि‍वासियों का जि‍क्र रामायण में भी मिलता हैं, जि‍समें राजा गोह और उनके प्रजा चि‍त्रकूट में वनवास के समय श्रीराम की सहायता करती है। आधुनि‍क युग में एक आदवासी बि‍रसा मुंडा एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ एक धार्मिक नेता भी थे। महात्मा बुद्ध की शरण में आया अंगुलि‍माल डाकू भी एक आदवासी हीं था।

आधुनि‍कीकरण के कारण आदवासी समूह के पर्यावरण का पतन हो रहा है। जसके प्रति‍ ये आदवासी काफी संवेदनशील हैं। व्यावसायि‍क वानि‍की और गहन कृषि‍ दोनों हीं उन जंगलों के लि‍ए वि‍नाशकारी साबि‍त हुए है, जो कई शताब्दि‍यों से आदवासि‍यों के जीवन यापन का स्त्रोत रहे थे। यही नहीं, पर्यटन ने भी इन आदवासि‍यों के संस्कृति‍ में कील ठोकने का काम कि‍या है। लोककलाएं और उन्हें जीवन देने वाली जनजाति‍यों के समक्ष आज खुद अपने अस्त‍ि‍त्व को बचाए रखने की चुनौती आ खड़ी हुई है।

क्या है अगस्त नगर का मामला - पूर्णिया के हरित इलाके अगस्त नगर कालांतर में आदिवासी बहुल इलाका था जो जनसंख्या वृधि के कारन धीरे धीरे ख़तम होता गया। और अब भू-माफिया इस पर नज़र गड़ाएं हुएं हैं। मिल्लिया एजुकेशनल ट्रस्ट की 120 एकड़ जमीन पर एक नीजी कॅालेज खोलने की योजना बना रहा है। ज्ञात हो की ये जमीन विवादित रही हैं और आदिवासियों का यहाँ पर शुरू से कब्ज़ा रहा हैं। करीब डेढ़ साल से पुलिस की मदद से इस जमीन को खाली करने की कवायद की जा रही हैं पुलिस बीच-बीच में इस जगह कि रेकी भी कर रही थी और आदिवासियों पर जोड़ जबरदस्ती करके वहाँ कि जमीन खाली भी करवा रही थी। इसी बीच आदिवासी कई बार उग्र भी हुए सड़क भी जाम किया और पुलिस के साथ मुठभेड़ भी कि लेकिन कल जो हुआ वो दिल दहला देने वाला था। हज़ारो की संख्या में पहुंची पुलिस ने करीब 50 से ज्यादा घरो में आग लगा दी और मासूम आदिवासियों पर फाइरिंग और आंसू गैस के गोले छोड़े। बुलडोजरों से घरो को तोडा जा रहा हैं और सैकड़ों घरो को बेघर किया जा रहा हैं। आदिवासी पुलिस के आधुनिक हथियारों का मुकाबला तीर और परम्परागत हथियारों से कर रहे हैं। प्रशासन बेखबर हैं और पुलिस दमनकारी निति अपना रही हैं। पूर्णिया के सांसद उदय सिंह उर्फ पप्पू सिंह की माने तो "जिला प्रशासन एवं पुलिस की विफलता का परिणाम है अगस्त नगर का भूमि विवाद। पांच माह बीत जाने के बावजूद इस मुद्दे का हल नहीं होना यही साबित करता है कि प्रशासन इसको लेकर गंभीर नहीं है।"
एक प्रत्यक्षदर्शी चिन्मय सिंह के अनुसार - ''मैं मौजूद था देर रात तक वहाँ। सुनने में सुबह से ही प्रमंडल के सारे आलाधिकारी मुख्यमंत्री के साथ वीडियो कोंफ्रेंसिंग कर बलप्रयोग की अनुमति मांग रहे थे। बारह बजे के बाद शायद अनुमति मिल गयी, क्योंकि अधिकारियों का बड़ा जत्था परोरा रवाना हो गया और साथ में छःजिलों से मगाई गयी पुलिस बल। दस एम्बुलेंस,दो शववाहन,फायर ब्रिगेड की कई गाड़ियां,करीब सात-आठ की संख्या में बुलडोजर, इत्यादि। यहाँ पर पहले से ही बड़ी संख्या (लगभग हज़ार) में स्थानीय ग्रामीण और भाड़े के लठैत बांस बल्लों और लाठी से मुस्तैद होकर (अंगरेजी में कहें तो 'मिलीशिया') प्रशासन का उत्साहवर्धन करने वाले नारे लगा रहे थे। अगस्त्यनगर के आदिवासियों का जत्था इस भीड़ को देखकर पहले तो कुच्छ-कुछ खाली होना शुरू हुआ, लेकिन जब मिलीशिया और पुलिस लगभग डेढ़ सौ मीटर की दूरी पर पहुँच गए, तो 99 प्रतिशत से ज्यादा आदिवासी अपने पारम्परिक हथियारों के साथ भाग गए। नवीन महतो को मैंने खुद अपनी आँखों से भागते देखा।(वहाँ भागने के सिवाय कोई दूसरा विकल्प नहीं था इनके पास) अब सबसे आश्चर्यजनक नज़ारा था। नागरिकों की सेना पुलिस के साथ मिलकर इस बस्ती में आग लगाते हुए। बुलडोजर चल रहे हैं, और चारों तरफ हर चीज़ में आग लगाई जा रही है। सैकड़ों घरों की इस बस्ती को धू-धू कर जलाते हुए लोगों की भीड़ के हाथ जो कुछ आ रहा है, सब लूट कर ले जा रहे हैं। करीब बीस मिनट बीते कि एक तीर कहीं से आकर गिरा। किसी को लगा नहीं। सबका ध्यान उधर गया, एक 20 साल का नौजवान करीब 80 मीटर की दूरी से हज़ार से ज्यादा की भीड़ को अकेले चुनौती दे रहा है।अद्भुत दृश्य था। उसने करीब बीस तीर चलाये, आखिरकार उसे घेरकर पकड़ लिया गया,और इतना पीटा गया कि शायद ही उसकी जान बचे। लेकिन सदर अस्पताल में अभी तक वह ज़िंदा है। इसी तारा कुल सत्रह आदिवासियों को पुलिस ने पकड़ा, किसी को भागते हुए ...तो किसी को लुका छिपी करते हुए। पुलिस ने गोली भी चलाई, जिसमें एक आदिवासी को पैर में गोली लगी। आधिकारिक पुष्टि के अनुसार एक आदिवासी की मौत हुई, जबकि सूत्रों के अनुसार संख्या ज्यादा हैं। मिलीशिया एकदम से मध्ययुगीन परिवेश का नज़ारा करवा रहा था। बाद में पता चला कि आदिवासियों ने कई पुलिसकर्मियों को बंधक बना रखा है, लेकिन मेरी जिलाधिकारी से रात करीब दस बजे घटनास्थल पर ही मुलाक़ात हुई, मेरे बंधक वाले सवाल को उन्होंने पूरी तरह से खारिज करते हुए कहा कि ''ऐसा कुछ भी नहीं है''। अभी फिलहाल अपडेट यह है कि कुल सात पुलिसकर्मी (एक थाना प्रभारी, एक ए एस पी. अन्य सिपाही) घायल हैं, सत्रह आदिवासी हिरासत में हैं। नवीन महतो को आज सुबह वहीं पास के एक गाँव से गिरफ्तार कर लिया गया है।''

भारतीय संवधान के अनुछेद 14(4), 16(4), 46, 47, 48(क), 49, 243(घ)(ड), 244(1), 275, 335, 338, 339, 342 तथा पांचवी अनुसूची के अनुसार अनुसूचि‍त जनजाति‍य के राजनैति‍क, आर्थिक, सांकृति‍क तथा शैक्षणि‍क वि‍कास जैसे कल्याणकारी योजनाओं के वि‍शेष आरक्षण का प्रावधान तथा राज्य स्तरीय जनजातीय सलाहकार परि‍षद की बात कही गई है परंतु इसे अब तक लागू नही कर पाना वाकई सरकार के लि‍ए चिं‍ता का वि‍षय है। यह सर्ववि‍दि‍त है की आदवासी क्षेत्रों में उपलध खनि‍ज संसाधन से सरकार को अरबों रूपए के राजस्व की प्राप्ति‍ होती है या सीधे शब्दों में कहा जाए तो सरकार के आय के स्त्रोत इन आदवासी क्षेत्रों में उपलब्ध वन संसाधन तथा खनि‍ज संसाधन ही हैं, परंतु इस राजस्व का कि‍तना प्रति‍शत हि‍स्सा उन अनुसूचि‍त क्षेत्रों के राजनैति‍क, सामाजि‍क वा आर्थीक वि‍कास में खपत कि‍या जाता रहा है। अनुसूचि‍त क्षेत्रों में सरकार द्वारा स्थापि‍त उद्योंग-धंधों से प्रभावि‍त परि‍वारों को दान की जाने वाली मुआवजा राशि‍ की बात हो, वि‍स्थापि‍त परि‍वार के सदस्य को नौकरी का मुद्दा हो, वि‍स्थापि‍त परि‍वार के सदस्य के शेयर होल्डिंग तय करने की बात हो तथा अनुसूचि‍त क्षेत्रों के वि‍कास हेतु स्वायत्ता स्थापि‍त करने की बात हो इन सभी मुद्दे पर सरकार को वाकई गंभीरतापूर्वक वि‍चार करने की जररत है, तभी देश के आदवासि‍यों की स्थिति में सुधार हो पाएगा।
साल २००६ के १३ दिसंबर को लोकसभा ने ध्वनि मत से अनुसूचित जाति एवम् अन्य परंपरागत वनवासी(वनाधिकार की मान्यता) विधेयक(२००५) को पारित किया। इसका उद्देश्य वनसंपदा और वनभूमि पर अनुसूचित जाति तथा अन्य परंपरागत वनवासियों को अधिकार देना है।

• यह विधेयक साल २००५ में भी संसद में पेश किया गया था, फिर इसमें कई महत्वपूर्ण बदलाव किए गए जिसमें अनुसूचित जनजाति के साथ-साथ अन्य पंरपरागत वनवासी समुदायों को भी इस अधिकार विधेयक के दायरे में लाना शामिल है।

मूल विधेयक में कट-ऑफ डेट (वह तारीख जिसे कानून लागू करने पर गणना के लिए आधार माना जाएगा) ३१ दिसंबर, १९८० तय की गई थी जिसे बदलकर संशोधित विधेयक में १३ दिसंबर, २००५ कर दिया गया।

• परंपरागत वनवासी समुदाय का सदस्य वनभूमि पर अधिकार अथवा वनोपज को एकत्र करने और उसे बेचने का अधिकार पाने के योग्य तभी माना जाएगा जब वह तीन पीढ़ियों से वनभूमि के अन्तर्गत परिभाषित जमीन पर रहता हो। कानून के मुताबिक प्रत्येक परिवार ४ हेक्टेयर की जमीन पर मिल्कियत दी जाएगी जबकि पिछले विधेयक में २.५ हेक्टेयर जमीन देने की बात कही गई थी।

Thursday, November 28, 2013

शिक्षा की मजबूत व्‍यवस्था और डरावनी सत्ता



जिस प्रकार से प्रांत के दस हजार से अधिक मास्‍टर साहब कक्षा पांच की परीक्षा भी पास नहीं कर पाये, उच्च शिक्षा के लि‍ए भी जि‍स प्रकार से बिहार में हंगामा मच रहा है और केंद्रीय विश्वविद्यालय के लिए जिस प्रकार से राज्‍य और केंद्र में तनाव देखा जा रहा है, ये सब सोचने के लि‍ए मजबूर कर देता है कि सही में बिहार कभी शिक्षा का केंद्र था और क्‍या बिहार फि‍र शिक्षा का केंद्र बन सकता है? क्‍या नालंदा से जो यात्रा शुरू हुई थी वो यात्रा नालंदा पर जा कर रूकेगी या आगे बढेगी। क्‍या ‘बेरोजगार पैदा करने की फैक्ट्री’ के नाम से मशहूर हो चुका बिहार का विश्वविद्यालय रोजगार का रास्‍ता दि‍खाने में कामयाब हो सकेगा? फि‍र से उस मुकाम तक पहुचने के लिए ये समझना ज्‍यादा जरूरी है कि हम उस मुकाम से नीचे कैसे आ गए। क्‍या बिना उस कारण को समझे बिहार में शिक्षा का विकास का नारा देनेवाले शिक्षा के क्षेत्र में बिहार को फि‍र से अगली पंक्ति मे खड़ा कर पाएंगे। कुछ ऐसे ही सवालों के उत्‍तर ढ़ढ़ने की कोशिश की है जो ये समझने में मददगार होगा की बिहार में कैसे कालखंड के संग शिक्षा का स्‍तर खंडित होता गया।


बिहार, वो जमीन है जहॉं से सत्‍ता अस्‍त्र-शस्‍त्र से ज्‍यादा ज्ञान से बदलता रहा है। चाणक्‍य हो या महेश ठाकुर इस जमीन पर कई ऐसे उदाहरण है जिससे ये प्रमाणित होता है जो सत्‍ता हथियार से नहीं ज्ञान से पाया जाता है। ऐसे में समाज में ज्ञान का प्रसार और सत्‍ता हमेंशा खतरा का कारण रहता है। बहुत लोगों का मानना है कि मगध को मूर्ख बनाकर उसपर राज करने की नीति के तहत सन् 1123 में बख्तियार खिलीजी नालंदा विश्वविद्यालय को बर्बाद कर बिहार के शिक्षा की संस्कृति को तबाह कर दिया था। मुगल हो या अंग्रेज या फि‍र आजाद भारत में लोकतांत्रिक नेता सब शिक्षा को केवल गर्त में ले जाने का काम किया है। अंगुली पर गिनने योग्‍य नाम मिलेगा जो बिहार में शिक्षा के लिए कुछ किया या करने का प्रयास किया।
बख्तियार खिलीजी की यह नीति इतना कारगर साबित हुआ जो बंगाल जीतने के बाद अंग्रेज भी इस इलाके पर उस नीति को जारी रखा। बागी बिहार में शिक्षा का विकास काफी कम गती से हुआ जिससे बिहार देश के और हिस्‍से से पि‍छे होता चला गया। 1608 में जब ईस्ट इन्डिया कम्पनी का फरमान लेकर अंग्रेज हॉकिन्स भारत आया था तब उसे इस जमीन का इतिहास बता दि‍या गया था। 1813 में जारी कंपनी चार्टर के अनुसार देशज भाषा और विज्ञान के विकास के लि‍ए बड़ी राशि जारी हुई, लेकीन बिहार के राशि को कलकत्‍ता, बांम्बे और मद्रास रेजिडेंसी को दे दिया गया। यूरोपिय ज्ञान और अंग्रेजी पढाई के लिए बिहार में केवल एक स्‍कूल का चयन हुआ, जो भागलपुर स्‍कूल था। 1835 में राजा राम मोहन राय और लॉर्ड मैकाले से प्रभावित होकर लॉर्ड बेंटिक बिहार में अंग्रेजी शिक्षा को बढावा देने के लिए प्रयास कियें। बिहारशरीफ और पूर्णिया में अंग्रेज़ी शिक्षा केन्द्र की स्थापना भी हुई। अंग्रेजी को बढाबा देने के लिए इसके जानकार को सरकारी नौकरी में रखा जाने लगा। 1854 में बिहार में शिक्षा की प्रगति के लिए अंग्रेजों ने एक कमेटी गठित किया जिससे शिक्षा की उन्नति पर कार्य होना था, लेकीन इसको दुर्भाग्य कहा जाए या किछु और 1857 के क्रांति के बाद फि‍र उस कमेटी की तरफ किसी का ध्‍यान नहीं गया। लोग लड़ाई के बीच पढाई को भुलते चले गए। वैसे दरभंगा महाराज ने उत्‍तर बिहार के लिए अपने स्‍तर पर अंग्रेजी स्‍कूल खोलने की योजना तैयार की थी। जि‍सके बावजूद 1899-1900 के दौरान बिहार में अवर प्राथमिक स्‍कूल की संख्‍या महज 8978 थी। पटना विश्‍वविद्यालय भी 1917 में जा कर स्‍थापित हो सका।


जादी के बाद राजनेता भी अंग्रेजों के रखे नीव पर महल खड़ा करने से पि‍छे नहीं रहें। उपर से राजनैतिक अराजकता और मुख्‍यमंत्री के आवाजाही का सबसे ज्‍यादा असर शिक्षा पर देखा गया। शिक्षा के स्‍तर में समतलीकरण ऐसा हुआ कि‍ पटना विश्वविद्यालय जो देश के सात पुराने विश्वविद्यालय में से था, उसकी गरिमा तक ख़त्म हो गई। आजादी के बाद बिहार में शिक्षा पर पहला बड़ा चोट हुआ केबी सहाय युग में। 1967 में केबी सहाय शिक्षा के लिए ‘’सब धन 22 पसेरी’’ का फार्मूला अपनाये। सहाय ने बिहार के प्राथमिक से लेकर उच्‍च शिक्षा तक को तहस-नहस कर दि‍ए। ये बिहार में आजादी के बाद शिक्षा के लि‍ए सबसे खराब समय कहा जा सकता है। उन्‍होनें राज्‍य में नये विश्‍वविद्यालय खोलने के साथ-साथ उसके लि‍ए निजी कालेज को आंख मूंद कर सरकारी मान्यता देते चले गए। इस प्रकार से उन्‍होनें कॉलेज की प्रतिष्‍ठा को गर्त मे मिला दिया। उनकी इसी नीति को बाद में जगन्‍नाथ मिश्र अंतिम मुकाम तक ले गए। ज्ञात हुो जो केबी सहाय के कार्यकाल से पहले बिहार में केवल दो यूनिवर्सिटी थी। उनके कार्यकाल में भागलपुर, रांची और मगध यूनिवर्सिटी बना। इस विश्‍वविद्यालय के लिए उन्‍होनें निजी कॉलेज सब को एक तरफ से सरकारी मान्यता देते गए, जिससे कॉलेज के बीच अंतर मिटता गया और अच्‍छे कॉलेज सबकी स्थिति भी दोयम दर्जे की होती गइ। कॉलेज और विश्‍वविद्यालय में अराजकता और गुंडागर्दी संयुक्त विधायक दल सरकार और बिहार आन्दोलन के दौरान शुरू हुआ। 1969 में परीक्षा के दैरान चोरी करने की मांग कर रहे छात्र को ‘जिगर का टूकड़ा’ कहकर सत्‍ता पर पहुंचे महामाया प्रसाद बिहार में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार के मुखिया हुए। उनके मंत्रिमंडल में समाजवादी पार्टी के नेता कर्पूरी ठाकुर शिक्षा मंत्री बने। उन्‍हाने अपने शासनकाल में एक अजीब सा आदेश पारि‍त किया जिसका नासूर अभी तक बिहार को रूला रहा है। उस आदेश के अनुसार मैट्रिक में पास करने के लि‍ए अंग्रेजी अनिवार्य विषय नहीं रहेगा। उस समय में लोग “पास विदाउट इंगलिश” को कर्पूरी डिविजन नाम दिया फलतः शिक्षा में अंग्रेजी का स्तर इतना गिर गया जो आज तक बिहार की छवि उससे अपने आप को दूर नहीं कर सकी है।


वैसे 1972 में जब कांग्रेस के केदार पाण्डेय की सरकार बनी तो उसने शिक्षा के स्‍तर को उठाने का प्रयास किया और महामाया बाबू के जिगर के टुकड़े सब को सुधारने के लिए कुछ कठोर निर्णय लिए। पांडेय सरकार विश्वविद्यालय का जिम्मा अपने हस्तगत कि‍ए और सख्त आईएएस अधिकारी को कुलपति और रजिस्टार के पद पर बहाल किए। इसका असर भी हुआ। विश्वविद्यालय से गुंडाराज खत्म हुआ। परीक्षा और कक्षा बंदूक के साये में सही लेकिन सुचारू रूप से शुरू हुआ। बिहार में शिक्षा की संस्कृति पटरी पर लौट हीं रही थी, तभी केंद्र सरकार ने राजनीतिक मजबूरी में केदार पांडेय को मुख्‍यमंत्री पद से हटा दिए। इसके बाद संपूर्ण क्रांति का दौर आ गया और विश्‍वविद्यालय अध्‍ययन से ज्‍यादा राजनीतिक मंच बन गया। शिक्षा की सब व्यवस्था संपूर्ण क्रांति में ध्‍वस्‍त हो गया।


बिहार में अगर शिक्षा के समाधी बनाने को श्रेय किसी को दिया जा सकता है तो वो हैं जगन्नाथ मिश्र। जगन्नाथ मिश्र कहने के लिए तो थोड़े-थोड़े दिन के लिए तीन बार मुख्‍यमंत्री हुए, लेकिन उनकी नीति पीढी दर पीढी प्रभावित करने योग्‍य रही। वो केबी सहाय के नीति को आगे बढाते गए। जिस कॉलेज के पास भवन तक नहीं था वैसे कॉलेज सबको सरकारी घोषित कर विश्‍वविद्यालय पर बोझ बढाते गए। साथ हीं साथ अच्‍छे और बुरे में अंतर इतना मिटा दिए कि कोइ कॉलेज अपने आप को कम आंकने के लिए तैयार नहि रहा। उपर से उर्दू को दुसरे राजभाषा का दर्जा देकर भाषाई शिक्षा को राजनीतिक रंग भी प्रदान कर दि‍ए। बिहार देश का पहला राज्य हो गया जहॉं दुसरे राजभाषा को मान्‍याता मिली। डॉ साहेब से प्रसिद्ध जगन्‍नाथ मिश्र अपने तीनो कार्यकाल में शिक्षा विभाग को अपने राजनीति स्‍वार्थ की पूर्ति के लिए उपयोग करते रहें। उनके कार्यकाल में शिक्षण संस्‍थान राजनीतिक अखाडा बन गया। डॉ मिश्र टूटपुन्जिया कालेज सब को विस्वविद्यालय का मान्यता देकर उनके शिक्षकों को मनचाहे अच्‍छे कॉलेज में पदस्‍थापित करा दिए। जिससे प्रतिष्ठित कॉलेज की पढाई प्रभावित हुई। दुसरा यूनिवर्सिटी बिल में संसोधन करके बिहार के युनिवेर्सिटी सबकी पहचान ख़त्म करा दिए। नए यूनिवर्सिटी बिल में किसी भी यूनिवर्सिटी के कर्मचारी किसी भी यूनिवर्सिटी में अपना स्थानांतरण करवा सकते थे। जग्ग्न्नाथ मिश्र सबसे पहले इस बिल का फायदा उठाए। उन्‍होनें बिहार विश्‍वविद्यालय के एलएस कॉलेज से अपना तबादला पटना विश्‍वविद्यालय के बीएन कॉलेज में करा लिए। इसके साथ हीं अपने कुछ खास लोगों का तबादला भी मनपसंद कॉलेज में करा दिए। इस संशोधन से छोटे कॉलेज के शिक्षक बड़े कॉलेज में चले गये, लेकिन उससे ज्‍यादा खतरनाक ये रहा जो बहुत अयोग्‍य शिक्षक बढिया कॉलेज में जाकर उसकी प्रतिष्‍ठा को खत्‍म कर दि‍ए। ऐसे बहुत शिक्षक अच्‍छे कॉलेज पहुंच गए जिन्‍होनें कभी भी एक भी कक्षा नहीं लिया हो और ना हीं प्रयोगशाला गए हो। इससे योग्‍य शिक्षक सबमें तनाव बढ़ना शुरू हो गया और वो पढायी कम करते चले गए। जगन्‍नाथ मिश्र के कार्यकाल में कुर्सी तबादला के लिए भी प्रसिद्ध रहा। उनके कार्यकाल में जब कोइ अच्‍छे कॉलेज में शिक्षक के लिए जगह नहीं रहता था तब और कॉलेज के लिए आवंटित शिक्षक कोटा में से एक पद उस प्रसिद्ध कॉलेज के लिए दे दिया जाता था। ऐसे उदाहरण देश के किसी और राज्‍य में मिलना मुश्किल था।


1969 से 1990 तक बिहार में शिक्षा इतना गर्त में पहुंच गया था कि लालूजी के लिए बहुत कुछ करने का स्‍कोप नहीं रहा। उन्‍होनें चरवाहा विद्यालय के रूप में दलित समाज के लोगों को आगे उठाने का काम किया, उनका नारा था- घोंघा चुनने वालों, मूसा पकड़ने वालों, गाय-भैंस चराने वालों, शिक्षा प्राप्त करो । लेकिन उनकी ये योजना भी राजनैतिक अस्थिरता और सत्ता परिवर्तन के कारण खटाई में चली गर्इ। शिक्षा का हालत बद स बदतर होता गया। लालूजी के राज में विद्यार्थी पलायन एक नया शब्‍द आया। उदारवाद के बाद रोजगारपरक शिक्षा के लिए बिहार के छात्र दुसरे राज्‍य के लिए पलायन शुरू कि‍ए, जिससे बिहार को सबसे बड़ी आर्थिक क्षती हुई।


2005 में नीतीश राज आया। विकास के नाम पर मिले वोट से नीतीश ने सब क्षेत्र में विकास की बात की। उम्‍मीद जगा की शिक्षा के क्षेत्र में भी विकास होगा। लेकिन पिछले आठ वर्षो में शिक्षा के क्षेत्र में कोइ खास काम नहीं दि‍ख रहा है। शिक्षक की नियुक्ति तो हो रही है लेकीन शिक्षा का स्‍तर नहीं सुधर रहा है, बल्कि एक ऐसा शिक्षित जमात पैदा हो रहा है जो मूर्ख है। हालात ये है की 25 फिसदी से ज्‍यादा शिक्षक 5वीं के शिक्षक पात्रता परीक्षा में फेल हो गए है। कुल मिलाकर महामाया प्रसाद से लेकर नीतीश कुमार तक पालतुकरण की नीति अपनाकर विश्वविद्यालय को अपना राजनैतिक चारागाह बनाकर रखे हुए है। आंकडे पर गौर करें तो 1970 से लेकर 1980 के बीच बिहार में शिक्षा के लिए सबसे ज्‍यादा नीतिगत फैसले लि‍ए गए। इस दौरान राज्‍य में आठ सरकार बनी और सात राज्‍यपाल बदले गए। चार बार राजभवन सत्‍ता का केंद्र बना। इस कालखंड में केवल पटना विश्‍वविद्यालय में 11 कुलपति नियुक्‍त किए गए। कुल मिलाकर कोइ भी स्थिर रूप से कहीं काम नहीं कर सके। इस दौरान शिक्षा में व्याप्त राजनीति औ गुंडाराज को देख कर जाने माने शिक्षाविद डॉ वीएस झा इतना तक कह गए ‘’बिहार में महाविद्यालय स्थापित करना एक लाभप्रद धंधा है बशर्ते संस्थापक राजनैतिक बॉस हो या जनता के नज़र में उसकी छवि‍ एक दबंग की हो।‘’


र्तमान शिक्षा की अगर बात करें तो उच्च शिक्षा के लिए बिहार भारत में एक ऐसे राज्‍य के रूप में जाना जाता है जहॉं के विद्यार्थी पर बाहरी राज्‍य के गैर सरकारी संस्थान अपनी गिद्ध दृष्टि जमाये रखते है। एक अध्यन में ये दावा किया गया है की सब साल बिहार से लगभग 25 हजार करोड रूपया बाहर जा रहा है। अध्‍ययन के मुताबिक उच्च शिक्षा के लिए प्रतिवर्ष एक लाख छात्र बिहार से बाहर जाते है। महाराष्ट्र, राजस्थान और कर्नाटक जैसे राज्‍य की आर्थिक मजबूती में बिहार से गया पैसा एक महत्‍वपूर्ण हिस्‍सा बन चुका है। यह स्थिति तब है जब भारत के दस प्राचीन विश्वविद्यालय में से तीन बिहार में खंडहर बना है। अध्‍ययन के अनुसार रहने, खाने, पहनने और अन्‍य मूलभूत सुविधा पर और राज्‍य में हो रहे खर्च को छोड़ दे तो भी प्रति छात्र 70,000 रूपया सालाना ( जो की किछु राज्‍य के इंजीनियरिंग में प्रवेश के लिए सरकारी फीस है) के हिसाब से 700 करोड़ होता है (ज्ञात हो की इसके अलावा संस्थान डोनेशन के नाम पर भी काफी चंदा वसूल लेता है) बिहार से बाहर चला जाता है। इसके अलावा प्रवेश देने के नाम पर शिक्षा के दलाल की उगाही अलग है। बिहार से कुछ इतना ही राशि कोचिंग, गैर सरकारी संस्थान और पब्लिक स्कूल के लि‍ए भी बाहर जा रहा है। वैसे आंकडे बता रहे है कि अभी तक ऐसे कोचिंग संस्थान में ( एकाध को छोड़ दे तो) कोइ छात्र राष्ट्रिय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोइ भी प्रतियोगिता में अव्‍वल नहीं आ सका है। सरकारी संस्थान की अगर बात करे तो इसमें से ज्यादातर भगवान् भरोसे है। कूछ में व्यवस्था नहीं तो कुछ में शिक्षक नहीं। राज्य के कई कॉलेज में चल रही बीसीए पाठ्यक्रम के लि‍ए कंप्यूटर विभाग को अपना लैब तक नहीं है। कई विभाग में लैब है लेकिन वो बस नाम के लिए है, उसमें कोइ सामान नहीं है। कुछ ऐसा हीं हाल पुस्तकालय सबका है। बिहार के सब विश्वविद्यालय को अपना पुस्तकालय होने का गौरव तो है लेकिन उसकी हालत बद स बदतर हो चुकी है। हवादार कमरे की बात तो छोड़ि‍ये धुल धूसरित आलमारी सब से पुस्‍तक निकालने का प्रयास करना भी कठिन। कई किताब फटे है तो कई पढने योग्‍य नहीं है। नए किताब के खरीद की तो बात हीं मत कीजिए। कुछ सोधार्थी और दान के फलस्वरूप कुछ पुस्‍तक नया मिल जाता है। उच्‍च शिक्षा के प्रसार की हालत ये है की मिथिला विश्‍वविद्यालय का बंटवारा होने के बावजूद आलम ये है जो मधेपुरा जिले में स्थापित बी.एन. मंडल यूनिवर्सिटी अकेले पाँच जिला का बोझ उठाए है। एक तरफ देश के तकनिकी और उच्च शिक्षा के हजारों संस्थान में ओम्बुड्समैन की नियुक्ति होने की केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री की घोषणा अभी मूर्त रूप नहीं ले पाई है। जो शिकायत का निपटारा और भ्रष्‍टाचार को रोकनें मे मदद करगी और दुसरी तरफ केंद्रीय विश्वविद्यालय और आईआईटी को लेकर राजनीति भी चिंता क विषय है। ऐसे में केंद्र और राज्‍य सरकार को बिहार में शिक्षा पर ध्यान देना चाहीए वर्ना बिहार में विकास की रफ़्तार जिस तेजी से बढ रहीं है उससे कदमताल अगर शिक्षा का विकास नहीं करेगी तो यह विकास कभी भी औंधे मुँह गिर सकता है।



मैथिली में पढ़ने के लिए क्‍लीक कर यहॉं - शिक्षा क मजबूत व्‍यवस्‍था आ डराइत सत्‍ता

Monday, October 21, 2013

चीनी उद्योग - मीठी यादें, तीखी सच्चाई


एक समय था जब देश के चीनी उत्पादन का 40 फीसदी चीनी बिहार से आता था, अब यह मुश्किल से 4 फीसदी रह गया है। आजादी से पहले बिहार में 33 चीनी मिलें थीं, अब 28 रह गई हैं। इसमें से भी 10 निजी प्रबंधन में चल रही हैं। जिनमें बगहा और मोतिहारी की स्थिति जर्ज़र हो  चुकी है। जहाँ सकरी का अस्तित्व मिट चुका है और रैयाम चीनी मिल अपनी दुर्दशा पर आँशु बहा रहा  है वहीँ सबसे पुराना लोहट चीनी मिल अपने उद्धारक का इन्तेजार कर रहा है। क्या है बिहार में चीनी मीलों का इतिहास और वर्तमान की शोधपरक रिपोर्ट में पत्रकार नीलू कुमारी और सुनील कुमार झा ने कई पहलूओं और कारणों पर प्रकाश डाला है। यह आलेख निश्चित रूप से आपकी जिज्ञासा शांत करेगा। - समदिया 

शर्करा से चीनी तक - चीनी का प्रयोग भारत में कब से हो रहा है ये शायद अभी ज्ञात नहीं हो पा रहा है लेकिन अथर्ववेद और रामायण में एक से कही ज्यादा बार इसका प्रयोग (चीनी शब्द संस्कृत के शर्करा, और प्राकृत के सक्कर शब्द से व्युत्पित हुआ है ) ये दिखाता है की चीनी भारत में करीब ३००० वर्ष पुराना है। मनू, चरक और सूश्रुत संहिता में इसका उल्लेख दवाओं के रूप में किया गया है। मैगस्थनीज और चाणक्य के अर्थशास्त्र (321 से 296 ईपू) में भी इसका उल्लेख है। एक चीनी एनस्कालोपिडिया में यह रिकॉर्ड है की सम्राट ताई सुंग (६२७ से ६५० AD ) के शासनकाल के दौरान चीनी सरकार ने चीनी छात्रो के एक बैच को बिहार भेजा था, ताकि वो गन्ना और चीनी के विनिर्माण की खेती की विधि का अध्यन कर सके। उस वक्त भारत का पूर्वी हिस्सा चीनी उत्पादन में माहारथ हासिल कर चुका था और विदेशों में निर्यात करने लगा था। लेकिन 1453 में इंडोनेशिया पर तुर्क शासन के बाद निर्यात पर अतिरिक्त कर का बोझ बढने से इसके कारोबार पर प्रतिकूल असर पडा। और धीरे धीरे यह कारोबार दम तोड दिया। इधर विदेशों में चीनी की मांग बढती रही। 

नील से ईख तक का सफर - 1792 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने विदेशो में उठ रही चीनी की माँग को देखते हुए अपना एक प्रतिनिधि मंडल भारत भेजा। चीनी उत्पादन की संभावनाओं का पता लगाने के लिए लुटियन जे पीटरसन के नेतृत्व में भारत आया प्रतिनिधिमंडल ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि बंगाल प्रसिडेंसी के तिरहुत ईलाके में न केवल जमीन उपयुक्त है, बल्कि यहां सस्ते मजदूर और परिवहन की सुविधा भी मौजूद है। उस वक्त यह ईलाका नील की खेती के लिए जाना जाता था। इस रिपोर्ट के आने के बाद नील की खेती में मुनाफा कम देख ईलाके के किसान भी ईख की खेती को अपनाने लगे। इधर, ईख पैदावार के साथ ही 1820 में चंपारण क्षेत्र के बराह स्टेट में चीनी की पहली शोधक  मिल स्थापित की गयी। मिस्टर स्टीवर्ट की अगुवाई में 300 टन वाले इस कारखाने में ईख रस से आठ फीसदी तक चीनी का उत्पादन होता था। यहां उत्पादित चीनी तिरहुत ईलाके के लोगों को देखने के लिए भी नहीं मिलता था और सारा माल पंजाब समेत पश्चिमी भारत में भेज दिया जाता था। 1877 आते आते पश्चिमी तिरहुत के 5 हजार हैक्टेयर वाली नील की खेती सिमट कर 1500 हैक्टेयर में रह गयी और 2 हजार हैक्टेयर में ईख की खेती शुरू हो गयी। 1903 आते आते ईख ने तिरहुत से नील को हमेशा के लिए विदा कर दिया।   

आधुनिक चीनी मिलों का आगमन-  तिरहुत का र्ईलाका परिस्कृत चीनी का स्वाद 19वीं शताब्दी में चख पाया, जब यहां चीनी उद्योग का विकास प्रारंभ हुआ। १९०३ से तिरहुत में आधुनिक चीनी मिलों का आगमन शुरू हुआ। 1914 तक चंपारण के लौरिया समेत दरभंगा जिले के लोहट और रैयाम चीनी मिलों से उत्पादन शुरू हो गया। 1918 में न्यू सीवान और 1920 में समस्तीपुर चीनी मिल शुरू हो गया। इस प्रकार क्षेत्र में चीनी उत्पादन की बडी ईकाई स्थापित हो गयी, लेकिन सरकार की उपेक्षा के कारण इसका तेजी से विकास नहीं हो पाया। प्रथम विश्व युद्ध के समय इनकी कुछ प्रगति अवश्य हुई, लेकिन ये विदेशी प्रतियोगी के आगे टिकी नहीं । 1929 तक भारत में यह कारोबार संकटग्रस्त हो गया और देश में चीनी मीलों की संख्या घटकर सिर्फ 32 रह गयी, जिनमें पांच तिरहुत क्षेत्र से थे। 


संरक्षण का उठाया फायदा – तिरहुत चीनी उद्योग की यह अवस्था नहीं हुई होती यदि 1920 की चीनी जाँच समिति द्वारा इसके संरक्षण की सिफारिस की गई होती। बाद में सम्राजीय कृषि गवेषणा परिषद् ने ईख उत्पादकों के हितो की रक्षा के लिए चीनी उद्योग को संरक्षण देने की सिफारिश की। फलतः 1932 में पहली बार 7 वर्षो के लिए इस उद्योग को संरक्षण दिया गया। तिरहुत ने इस मौके का भरपूर फायदा उठाया और यहां जिस तीव्रता से इस उद्योग का विकास हुआ वह संरक्षण की सार्थकता को सिद्ध करता है। चार वर्ष के भीतर ही चीनी मीलों की संख्या 7 से बढ़कर 17 हो गयी। चीनी का उत्पादन 6 गुना बढ़ गया, आयात किये गए चीनी यंत्रों का मुल्य 8 गुना बढ़ गया। संरक्षण प्रदान करने के 6 वर्ष के भीतर ही चीनी आयात में साढ़े आठ करोड़ रूपये की कमी हो गयी और केवल 25 लाख रूपये के चीनी का आयत भारत में किया गया। चीनी कंपनियों द्वारा दिया जाने वाला लाभांश जो 1923 और 31 के बीच औसतन 11.2% था बढ़कर 1932 में  19.5% हो गया और 1934 में 17.2% हो गया। 

चीनी मामले में आत्म निर्भर – 1937 में चीनी प्रशुल्क बोर्ड ने चीनी उद्योग को दो साल और संरक्षण देने की सिफारिश की। बोर्ड की सिफारिश मंजूर होने के बाद तिरहुत में चीनी की बढती उत्पादकता से 1938 -39 में भारत ना केवल चीनी के मामले में आत्मनिर्भर हो गया था, अपितु अतिरिक्त उत्पादन भी करने लगा था। उद्योग को दिया गया संरक्षण इसका प्रमुख कारण था। दूसरा कारण ये भी था कि दूसरे विश्व युद्ध के कारण कच्चा माल तथा यंत्रों की लागत अत्यंत कम हो गयी थी जो इस उद्योग के प्रसार में सहायक सिद्ध हुआ। लेकिन 1937 में विश्व के 21 प्रमुख चीनी उत्पादक देशो में हुए एक अंतरराष्ट्रीय समझौते से संरक्षण का लाभ प्रभावित हुआ। इस समझौते में निर्यात का कोटा तय हुआ और वर्मा को छोड़कर समुद्र के रास्ते अन्य किसी भी देश में चीनी का निर्यात करने के लिए भारत पर 5 वर्षो के लिए रोक लगा दी गयी। इसके कारण 1942 तक बिहार सहित पूरे भारत में अति उत्पादकता की समस्या पैदा हो गयी। इसलिए कई चीनी मिले निष्क्रिय हो गयी।

आधिपत्य को लेकर बढा तनाव – चीनी की अधिकता से उत्पन्न परिस्थिति का सामना करने के लिए चीनी उत्पादकों ने चीनी संघ की स्थापना की, ताकि चीनी के मूल्य के ह़ास को रोका जा सके। यह संघ अपने सदस्य कारखानों के द्वारा चीनी के बिक्री को सुनिश्चित करने लगा। 
1966-67 तक बिहार के निजी मिल मालिकों ने चीनी कंपनियों पर पूरी तरह अपना कब्जा जमा लिया और ऐसी नीति अपनाने लगे ताकि चीनी पर से सरकार का नियत्रण पूर्ण रूप से खत्म हो जाये। इस कारण चीनी मीलों पर मालिकों और सरकार के बीच टकराव बढने लगे। 1972 में केंद्र सरकार द्वारा चीनी उद्योग जाँच समिति की स्थापना की। चीनी उद्योग की स्थिति और समस्या की जांच कर यह समिति 1972 के आखिरी सप्ताह में सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी। समिति ने सरकार को चीनी कारखानों का अधिग्रहण करने का सुझाव दिया। फलस्वरूप 1977 से 85 के बीच 15 से ज्यादा चीनी मिलों का अधिग्रहण बिहार सरकार ने किया। इसमें समस्तीपुर (समस्तीपुर शुगर सेन्ट्रल शुगर लिमिटेड ), रैयाम ( तिरहुत कोपरेटिव शुगर कंपनी लिमिटेड ), गोरौल( शीतल शुगर वर्क्स लिमिटेड), सिवान ( एस.के.जी. शुगर लिमिटेड), गुरारू ( गुरारू चीनी मिल), न्यू सिवान ( न्यू सिवान शुगर एंड गुर रिफ़ाइनिग कम्पनी), लोहट ( दरभंगा शुगर कंपनी लिमिटेड), बिहटा ( साउथ बिहार शुगर मिल लिमिटेड), सुगौली( सुगौली शुगर वर्क्स लिमिटेड), हथुआ ( एस.के.जी. शुगर लिमिटेड), लौरिया (  एस.के.जी. शुगर लिमिटेड), मोतीपुर ( मोतीपुर शुगर फेक्टरी ), सकरी ( दरभंगा शुगर कंपनी लिमिटेड), बनमनखी ( पूर्णिया कोपरेटिव शुगर फेक्टरी लिमिटेड), वारिसलीगंज (वारिसलीगंज कोपरेटिव शुगर मिल लिमिटेड),  का अधिग्रहण किया गया। 

और बढती गयी मीलों की दुर्दशा - इन मिलों को चलाने के लिए बिहार स्टेट शुगर कॉर्पोरेशन लिमिटेड की स्थापना 1974 ई० में हुई थी, जो चीनी मिलो के घाटे को नियत्रित कर इसे सुचारू रूप से प्रबंधन करने का काम करता, लेकिन इनमें से ज्यादातर इकाई कीमतों में गिरावट और इनपुट लागत में वृद्धि के दवाब को नहीं झेल सकी। फलस्वरूप एक के बाद एक यूनिट बंद होते चले गये। 1996-97 के पेराई सीज़न के बाद इसको पुनर्जीवित करना बंद हो गया और सारी इकाई बंद पड़ गये। घाटे का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन इकाइयों पर किसानो का 8.84 करोड़ रुपया और कर्मचारियों का 300 करोड़ रुपया बकाया था। 1990 आते आते तिरहुत के ईख की खेती कुछ जिलों तक सिमट कर रह गयी और हजारों हैक्टेयर में गेहूं की खेती शुरू हो गयी। 1997 आते आते गेहूं ने तिरहुत से ईख को नकदी फसल के रूप में विदा कर दिया।   
सरकार ने रखे हथियार - फरवरी 2006 में बिहार सरकार आखिरकार हथियार रख दिये और यह स्वीकार कर लिया कि वो बंद मिलों को चलाने में असमर्थ है। 1977 में चीनी मिलो के घाटे को नियत्रित कर इसे सुचारू रूप से प्रबंधन करने का दावा झूठा साबित हुआ। मिलों को फिर से चालू करने के लिए सरकार ने गन्ना विकास आयुक्त की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय बैठक बुलायी। इसमें समिति ने राय दी कि बिहार स्टेट शुगर कॉर्पोरेशन लिमिटेड के बंद पड़े चीनी मीलों को पुनर्जीवित करने के लिए एक वित्तीय सलाहकार को नियुक्त किया जाय, जो इन बंद पड़े चीनी मिलो के पुनरुद्धार के लिए कोई सटीक योजना बना सके। इसके तहत एसबीआई कैपिटल को यह काम सौंपा गया। समिति ने अंततः इन इकाइयों के लिए निविदा आमंत्रित करने का फैसला किया और निजी निवेशको आमंत्रित किया कि वो इन बंद पड़े चीनी मिलो को पुनरुद्धार / पुनर्गठन / लीज़ पर ले सके। शुरुआत से ही निवशकों की दिलचस्पी ना के बराबर रही। पिछले साल भी दिसंबर में टेंडर भरने के आखिरी दिन तक तीन चीनी मिलों के लिए सिर्फ छह आवेदन ही मिले हैं। 

पुनरुद्धार के नाम पर मिट गया अस्त्तिव - एसबीआई कैपिटल ने परिसंपत्तियों का मूल्यनिर्धारण, परिचालन और वित्तीय मापदंडों के आधार पर बिहार सरकार को एक संक्षिप्त रिपोर्ट दिया। इसके अनुसार बंद पड़ी १५ मीलों में से १४ मीलों को ही केवल फिर से चलाने का सुझाव दिया जबकि सकरी मिल को विलोप करने की बात कही गयी समिति के अनुसार लोहट और रैयाम  के बीच स्थित होने के कारण इस मिल के लिए गन्ना अधिकार क्षेत्र उपलब्ध नहीं सकता है। अतः इसके ११५  एकड़ जमीन को किसी अन्य कार्य के लिए आवंटित किया जाना चाहिए। लोहट के मुनाफे से १९३३ में स्थापित ७८२ टीएमटी क्षमता वाले इस मिल के वजूद को खत्म कर दिया गया। इस प्रकार बिहार के चीनी मीलों के इतिहास में सकरी पहली इकाई रही जो केवल बंद ही नहीं हुई बल्कि उसे हमेशा के लिए खत्म कर दिया गया।  सरकार के इस पहल से ऐसा भी नहीं की अन्य मिलें पुनर्जीवित हो गयी सकरी और रैयाम को महज़ 27.36 की बोली लगाकर लीज़ पर लेने वाली कंपनी तिरहुत इंडस्ट्री ने नई मशीन लगाने के नाम पर रैयाम चीनी मिल के सभी साजो सामान बेच चुकी है। २००९ में २०० करोड़ के निवेश से अगले साल तक  रैयाम मिल को चालु कर देने का दावा करने वाली यह कम्पनी मिल की पुरानी सम्पति को बेचने के अलावा अब तक कोई सकारात्मक पहल नहीं कर सकी। वैसे बिहार सरकार ने अब तक कुल ५ मीलों को निजी हाथों में सौंपा है जिनमे से केवल दो सुगौली और लौरिया चीनी मिल एक बार फिर चालू हो पाई है जबकि रैयाम और सकरी मीलों का भविष्य निजी हाथों में जाने के वाबजूद अंधकारमय है। 

इथेनॉल ने बढा दी मुश्किल - निवेशकों की रुचि चीनी उत्पादन में कम ही रही, वे इथेनॉल के लिए चीनी मिल लेना चाहते थे, जबकि राज्य सरकार को यह अधिकार नहीं रहा। क्योंकि 28 दिसंबर, 2007 से पहले गन्ने के रस से सीधे इथेनॉल बनाने की मंजूरी थी। उस समय बिहार में चीनी मिलों के लिए प्रयास तेज नहीं हो सका, जब प्रयास तेज हुआ तब दिसंबर, 2007 को गन्ना (नियंत्रण) आदेश, 1996 में संशोधन किया गया, जिसके तहत सिर्फ चीनी मिलें ही इथेनॉल बना सकती हैं। इसका सीधा असर बिहार पर पड़ा है। मुश्किलें यहीं से शुरू होती हैं। ऐसे में बंद चीनी मिलों को चालू करा पाना एक बड़ी चुनौती आज भी है। जानकारों का कहना है की राज्य सरकार पहले पांच साल के कार्यकाल में निवेशकों का भरोसा जीतने का प्रयास करती रही। अब जब निवेशकों की रुचि जगी है, तब केंद्र ने गन्ने के रस से इथेनॉल बनाने की मांग को खारिज कर राज्य में बड़े निवेश को प्रभावित कर दिया है। जो निवेशक चीनी मीलों को खरीदने के शुरुआती दौर में इच्छा प्रकट की थी वो भी धीरे धीरे अपने प्रस्ताव वापस लेते चले गये। 

फिर चाहिए संरक्षण – पिछले पेराई मौसम में 5.07 लाख टन के रिकार्ड उत्पादन के बावजूद चीनी मिलों को करीब 250 करोड का घाटा सहना पड रहा है। बिहार में गन्ने से चीनी की रिकवरी की दर 9.5 फीसदी से घटकर 8.92 फीसदी हो गयी है। बिहार में चीनी का उत्पादन मूल्य करीब 3600 प्रति क्विटल है, जबकि चीनी का मूल्य घटकर 2950 प्रति क्विटंल हो गया है। छोआ का दाम राज्य सरकार ने 187 रुपये तय कर रखा है जबकि उत्तरप्रदेश में इसकी कीमत 300 से 325 रुपये प्रति क्विंटल है। इसी प्रकार स्प्रीट की कीमत बिहार में महज 28 रुपये प्रति लीटर है जबकि उत्तरप्रदेश में 33 से 35 रुपये प्रति लीटर है। ऐसे में बिहार शूगर मिल एसोसिएशन ने सरकार से कैश सब्सिडी 17 की जगह 30 रुपये प्रति क्विंटल करने की मांग की है। ऐसे में बिहार के चीनी उद्योग को एकबार फिर संरक्षण की जरुरत हैं। चीनी उद्योग को लेकर बिहार की मीठी यादें यह विश्वास दिलाती है कि आज की कडवी सच्चाई कल एक नयी तसवीर बनकर सामने आयेगी।
साभार - इसमाद.कॉम
मैथिली में पढ़े इस खबर को - चीनी उद्योग : मिठगर स्‍मरण, तितगर सच्‍चाई 

Monday, June 10, 2013

नीतीश – बाजीगर या सौदागर

दयू ने फिलहाल भाजपा के संबंधो को क्‍लीन चीट तो दे दी है। लेकिन नीतीश के तेवर ये साफ बता रहे है कि ये दौर मुश्‍कीलों से भरा है, और डगर भी आसान नहीं है। जदयू के कार्यकारीणी के बैठक में एक तरफ तो नीतीश ने भाजपा से मोहब्‍बत की बात कर दी है, लेकिन उनके तेवर बता रहें है कि आने वाला समय कुछ नए समीकरण लाएगा।
हले हीं चुनावी दृष्‍टीकोण से हुए प्रशासनिक फेर बदल ने जदयू की मुश्‍कीलें और बढ़ा दी है। भाजपा के मंत्री को कौन कहे शुशील मोदी के लिस्‍ट तक को तरहीज नहीं दी गई है। एसडीओ और एसडीएम में भाजपा की और से जितने भी नाम दिए गए उनकी पोस्‍टींग नहीं हुई। चुनाव में डीएम और एसडीओ का पद काफी महत्‍वपूर्ण होता है क्योंकी यही दो अधिकारी होते है जा रिटर्निग अधिकारी होते है। ऐसे में भाजपा की सुची को पूरी तौर पर खारीज करना गठबंधन के जड़ो को हिलने का संकेत है। हलांकी भाजपा भी पूरी तरह से ये बात समझने लगी है और इसपर मंथन भी चल रहा है। लेकिन भाजपा के लिए तो स्थिती अब पछताए होत का वाली हो गई है। हलॉंकी जदयू के कार्यकारीणी बैठक में ये संभावना प्रबल थी कि गठबंधन टूट सकता है लेकिन ऐन मौके पर नीतीश की बाजीगरी ने इसे पूरी तरह ध्‍वस्‍त कर दिया।
वैसे पार्टी  के एक बड़े नेता की माने जदयू दबाव की राजनीति खेल रहा है। ना उनके लिए आसान है कि वो भाजपा का साथ छोड़ दे ना भाजपा के लिए। वो बस ये चाहती है कि भाजपा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री पद के उम्‍मीदवार की कर दें। लेकिन फिलहाल भाजपा इनसे बचना चाहती है। क्‍योंकी नरेन्‍द्र मोदी के नाम की धोषणा से भाजपा को मध्‍यप्रदेश, उत्‍तर प्रदेश और बिहार जहॉं मुस्‍लीम वोट लोकसभा का निर्णायक सीट है पूरी तौर पर खोना पड़ेगा और इसकी भारपाई सिर्फ उग्र हिन्‍दू वोट से ही की जा सकती है जा फिलहाल नरेन्‍द्र मोदी के बस का नहीं है।
धर बिहार में जहां भाजपा ने सभी सिटों पर अपनें उम्‍मीदवार उतारने की घोषणा की है वहीं जदयू अलग चुनाव लड़ने का फैसला कर एक तीर कई निशाना लगा रही है। एक तो कांग्रेस का राजद और लोजपा से गठबंधन ना हो, दुसरा बिहार में लालू के माय समीकरण को तोड़कर सबसे बड़ी पार्टी बनने की सोच रही है।
दयू के अनुसार सवर्ण के लिए उन्‍होने ऐसा कुछ भी नहीं किया है कि वो उन्‍हे या उनकी पार्टी को पूरी तरह नकार दें। भुमीहार को सत्‍ता और प्रशासन में जिम्‍मेदारी देकर हमने उन्‍हे अपनी और कर हीं लिया है। रही बात ब्राहमणों की तो उसे भी भाजपा से तोड़ने की तैयारी चल रही है। मिथिलांचल से संजय झा को अजमाया जा रहा है। संजय झा के स्‍थानीय होने के साथ हीं नेता विहीन समाज में संभावना दिख रही है। अगर नीतीश का ये तूरूप का ये पत्‍ता चल गया तो शायद कुछ बात बन सके। वैसे मिथिलांचल के नेता कृती आजाद के वचनों से भी जदयू आहत में है, उन्‍होने दरभंगा में कहा था कि अगर मोदी नाम पर गठबंधन टूट भी जाए तो आगे देखेंगे। फिलहाल जदयू के पास राजपूतो के लिए कुछ भी नही है। और शायद यह भी बड़ी वजह कि महाराजगंज लोकसभा के उपचुनाव के लिए अभी ता कोई उम्‍मीदवार सामने नही आया है। वैसे पी. के. शाही का नाम तो उछाला जा रहा है लेकिन जदयू का एक बड़ा वर्ग मानता है कि इससे राजपूत और भूमीहार में फिर 36 के आंकड़े हो जाए। वैसे नीतीश अब आक्रामक राजनीति की तैयारी मे लगा गए है और उनकी टीम इस बात से आस्‍वस्‍त है कि गठबंधन टूटने के बाद भी उनके सेहत पर कोइ फर्क नहीं पड़ेगा। उनका मानना है सवर्ण अभी भी लालू के खोप से बाहर नहीं निकला है इसलिये वो उन्‍हे वोट देंगे ही। साथ ही साथ दलित भी उनके साथ है वही भाजपा के अलग होने से मूसलमान का भी एक बड़ा वोट बैंक उनके हाथ लगेगा।
वैसे राजनीति चिंतको की माने तो नीतीश ये सब गठबंधन तोड़ने के लिए नहीं कर रहा है, उनका एक हीं मकसद है मोदी को रोकना और शायद हद तक वो उसमें कामयाब भी हो गये है। जदयू के महासचिव ने कार्यकारीणी की बैठक में साफ कह दिया है कि पार्टी धर्म-निरपेक्षता की नीति‍ से कभी भी समझौता नहीं करेगी।
राम जन्‍मभूमी के मुद्दे के बाद जब हालात बदले तो 1996 में अटल जी, आडवानी जी, जार्ज फर्नांडीस और नीतीश कि बैठक में भाजपा ने तीनो विवादस्‍पद मुद्दे राम जन्‍मभूमी, समान नागरीक संहिता और अनुच्‍छेद 377 को छोड़ा तो हम साथ आए। वैसे भाजपा नेताऔ की माने तो नीतीश अगर अलग हो गए तो उनकी स्‍थिती माया मिलें ना राम जैसी हो जाएगी। एक तो महाराजगंज लोकसभा का उपचुनाव जदयू को बिना भाजपा के संभव नहीं होगा। दुसरा युथ में नरेन्‍द्र मोदी का क्रेज है और फिर वो अति पिछड़ा है। एक अति पिछड़ा को प्रधानमंत्री बनने से रोकने की बात भाजपा गॉंव-गॉव में फैला देगी जो नीतीश के लिए कम खतरनाक नहीं होगा।

नीतीश के ये तेवर जदयू और भाजपा दोनो के लिए गले की हड्डी बन चुकी है। एक तरफ मोदी भाजपा की जरुरत है ता जदयू मजबूरी। हलांकी इसकी उम्‍मीद कम है कि भाजपा आडवानी को प्रधानमंत्री मान लेगी क्‍योंकी आक्रामक राज‍नीति के मुड मे फिलहाल भाजपा नहीं है और आडवानी के मानने पर यह समस्‍या भी खत्‍म हो जाएगी।

Monday, April 15, 2013

लंगट सिंह कॉलेज – खंडहर होता इतिहास

आज से सौ वर्ष पूर्व काशी और कलकत्ता के मध्य गंगा के उत्तरी तट पर कोई कॉलेज नहीं था। हाई स्कूल की संख्या नगण्य थी। उस समय उस शिक्षा के घोर अन्धकारच्छन्न युग में उच्‍च शिक्षा के लिए मुजफ्फरपुर में कॉलेज की स्थापना करके बाबू लंगट सिंह ने शिक्षा के लौ को उजागर किया। लंगट सिंह कॉलेज का स्थापत्य लन्दन के ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक कॉलेज की नकल है। इसका नकल ‘दिल्ली विश्वविद्यालय’ के अधीन हिन्दू कॉलेज ने भी किया है। कहने के लि‍ए घोटालेबाज के घर में स्‍कूल खोलनेवाला राज्‍य सरकार इसको विशेष कॉलेज का दर्जा दि‍या है जबकि बिहार को दो केंद्रीय विश्‍वविद्यालय देकर उपकार करनेवाले केंद्र सरकार के लिए ये एक एतिहासिक स्मारक है, लेकिन सच ये है जो कभी भारतीय उच्‍च शिक्षा की बुलंदी पर रहने वाला ये कॉलेज आज अपने अस्तित्‍व के लिए संघर्षरत है। इसकी उपेक्षा की हद ये है जो यूजीसी जैसी संस्‍था को इसका स्थापना वर्ष पता नहीं है। उसकी वेबसाईट पर कॉलेज का स्थापना वर्ष खाली है जबकी नाम भी संक्षिप्‍त में लिखा गया है, जैसे लंगट सिंह का नाम लेने में लज्‍जा आती हो। प्राचीन और एतिहासिक शिक्षा के महल लंगट सिंह कॉलेज का इतिहास और उसकी उपेक्षा पर प्रस्‍तुत है ये विशेष रपट। -सुनील


कहा जाता है मुश्‍कि‍ल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए। ठीक ऐसा हीं कुछ शपथ मांग रहा है बिहार के एतिहासिक और प्राचीन महाविद्यालय में से एक लंगट सिंह कॉलेज। कहने के लि‍ए इसे राज्‍य सरकार ने विशेष कॉलेज का दर्जा दे रखा है और हालहीं में भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण विभाग इसको स्मारक घोषि‍त कर चुका है। लेकिन हकीकत ये है कि ये सुंदर सा भवन अब खंडहर बनता जा रहा है। भवन पर छह से आठ फुट लम्‍बे पेड़ उ‍ग आए है और अगर जानकार का माने तो ये भवन कभी भी ढह सकता है। बिहार में धरोहर के प्रति उदासीनता नयी बात नहीं है। कई धरोहर नष्‍ट हो चुके हैं और कई नष्‍ट होने के कगार पर है। लंगट सिंह कॉलेज भी उसमें से एक कहा जा सकता है।

स्‍मारक बनाने के लिए चला था आंदोलन - इसको दुर्भाग्‍य कहना चाहिये या रोचक तथ्‍य, लेकिन लंगट सिंह कॉलेज सरकार के लिए मात्र गांधी की यात्रा के लिए महत्‍वपूर्ण स्‍थल हैं। सरकार और कॉलेज प्रशासन केवल गांधी से जुड़े पर्यटन स्थल के रूप में इसको विकसित करने की योजना तैयार कर रहा है। पर्यटन के दृष्टि से कॉलेज सुन्दर बने रमणीय बने उसके लि‍ए सरकार से पैसा नहीं मांगा जाता है। ऐसे में इस कॉलेज का इतिहास गाँधी तक जाकर ठहर जाता है। कॉलेज के विकास, इसके गौरवशाली इतिहास की कोई चर्चा कहीं नहीं होती है। लेकिन लंगट सिंह कॉलेज के कूछ उत्साही युवा जो दिल्‍ली आ चुके है और दिल्‍ली के कॉलेज परिसर को देख कर रोमांचित है उस ‘स्टुडेंट इनिसिएटिव फॉर हेरिटेज’ के बैनर तले प्रधानमंत्री से गप कि‍ए और इस कॉलेज की गरिमा और इतिहास से उनको अवगत करायें। एसएचआईसी के कोर्डिनेटर अभिषेक कुमार और उनके दल प्रधानमंत्री से इस कॉलेज के लिए भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग से बात करने का अनुरोध कि‍या। प्रधानमंत्री ने तत्‍काल अनुरोध स्वीकार कर भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण को इस बाबत एक पत्र लिखा जिसमें इस कॉलेज को ऐतिहासिक दर्जा देने की संभावना पर विचार करने के लि‍ए कहा गया। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग इसको धरोहर तो घोषित कर दि‍या, लेकिन इसके संरक्षण के लिए कोई प्रयास अभी तक शुरू नहीं कर सका है। आशंका ये जताई जा रही है जो अगर प्रयास जल्‍द शुरू नहीं हुआ तो भवन ढहने जैसी स्थिति में है और परिसर फि‍र एक खंडहर के संरक्षणक योग्‍य हो जाएगा।

मात्र गांधी तक इसके इतिहास को समेटने की थी साजिश - राजेंद्र बाबू से जुड़े इस कॉलेज को गांधी तक सिमित रखने के पि‍छे कुछ लोग इसे राजनीतिक साजिश करार देते हैं। ये कॉलेज जब खोला गया था तब का बात छोडि़ए अभी भी एक कालेज खोलना कोई आसान काम नहि है। अगर लंगट सिंह इसके लि‍ए सामने नहीं आते तो देश कई विभूति से वंचित रह जाता। 1975 तक भारतीय प्रशासनिक सेवा मे इस कालेज के सबसे ज्‍यादा छात्र सफल होते रहे थे। लंगट सिंह कॉलेज तिरहुत क्षेत्र में मात्र ज्ञान की ज्‍योति नहीं जलायीं बल्कि सांस्कृतिक उत्थान और सामाजिक परिवर्तन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। लेकिन किसने ये सोचा था कि लंगट सिंह का नाम इतिहास के पन्‍नें में स्वर्णाक्षर में तो छोड़िये सामान्‍य स्‍याही तक से नहीं लिखा जाएगा। कॉलेज का चर्चा एलएस कॉलेज से होने लगा और इतिहास केवल गाँधी के चंपारण यात्रा के दौरान गाँधी-कूप तक सिमित हो गया। गाँधी के ऐतिहासिक यात्रा के दौरान कॉलेज परिसर में ठहरना, उनके स्वागत में उमड़ी भीड और छात्र द्वारा गाँधी के बग्घी अपने हाथ से खीचना कॉलेज के लिए ऐतिहासिक महत्व हो गया। वहीं चंपारण यात्रा के सूत्रधार आचार्य जे.बी. कृपलानी, गाँधी को कॉलेज हॉस्टल में ठहराने के कारण बर्खास्त विद्वान आचार्य मलकानी को लोग भुलते गए। राजेंद्र बाबू के कॉलेज के प्राध्यापक के रूप में काम करना, प्राचार्य (Principal) बनना, कॉलेज के वर्तमान स्थल के चयन करने में उनका योगदान किसी के लि‍ए चर्चा का विषय नहीं रहा। ये मांग भी नहीं उठाई गयी जो रामधारी सिंह दिनकर से जुड़ी चीज एक जगह संग्रहित कि‍या जाए, उनके नाम पर कॉलेज में कुछ स्‍थापित किया जाए। कॉलेज की गरिमा बढाने वाले अनेक संस्मरण को एक पुस्‍तकालय में संजोने का विचार तक किसी को नहीं आया। जबकि लगभग पांच दशक तक बिहार नहीं अपितु भारत के प्रतिष्ठाप्राप्त महाविद्यालय में लंगट सिंह कॉलेज क नाम प्रमुखता से लि‍या जाता रहा है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा० राजेंद्र प्रसाद और राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जिस कॉलेज से संबंध रखते है उस कॉलेज का परिचय अगर कोइ ऐसे दे रहा है कि इस जगह गांधी रात बि‍ताए थे तो निश्चित रूप से ये एक साजिश कही जा सकती है।

‘भूमिहार ब्राहमण कॉलेज’ था पहले नाम - 3 जुलाई 1899 को वैशाली और तिरहुत के संधि भूमि में अवस्थित ये महाविद्यालय अपने प्रारंभिक दस वर्ष तक सरैयागंज के निजी भवन में भूमिहार ब्राहमण कॉलेज के नाम से चलता था। जनवरी 1908 में राजेंद्र प्रसाद कलकत्ता विश्वविद्यालय से उच्च श्रेणी में एमए पास कर जुलाई में इस कॉलेज के प्राध्यापक के रूप में नियुक्त हुए। उस समय ये कॉलेज कलकत्ता विश्विद्यालय के अधीन था। ऐसे मे समय समय पर निरीक्षण के लिए कलकत्ता विश्यविद्यालय से अधिकारी आते रहते थे। इसी क्रम में कलकत्ता विश्विद्यालय के वनस्पतिशास्त्र के प्रो० डा० बहल जब ये कॉलेज आयें तो वो इसे देख सख्त नाराजगी व्‍यक्‍त किएं जो कॉलेजक परिसर बहुत छोटा है और वर्ग दुकान के आसपास चल रहा है। उन्‍होने तत्‍काल कॉलेज के लिए पर्याप्‍त जमीन और भवन की व्‍यवस्‍था करने के लिए बोलें। इसके बाद राजेंद्र बाबू अपने कुछ सहयोगी शिक्षक के संग जमीन ढ़ुंढ़ना शुरू किए। आखिरकार खगड़ा गाँव के जमींदार और बाबू लंगट सिंह क सहयोग से कॉलेज के लिए प्रयाप्‍त जमीन मिला। कॉलेज 1915 में सरैयागंज से अपने वर्तमान जगह पर ‘ग्रीर भूमिहार ब्राहमण कॉलेज नाम से स्थान्तरित हो गया। लेकिन स्थानीय लोगों के विरोध के बाद कॉलेज का नाम इसके संस्थापक बाबू लंगट सिंह के नाम पर ‘लंगट सिंह कॉलेज’ राख दि‍या गया।

आप नहीं थे शिक्षित, समाज को बनाए ग्रेजुएट - जानकी वल्लभ शास्त्री, रामबृक्ष बेनीपुरी, शहीद जुब्बा साहनी जैसे अनेक विभूति के नाम मुजफ्फरपुर की प्रतिष्ठा बढाती है। लेकिन सब से बड़े प्रेरणा के स्रोत थे बाबू लंगट सिंह। बाबू लंगट सिंह का जन्म आश्विन महीने में, सन 1851 में धरहरा, वैशाली निवासी अवध बिहारी सिंह के घर हुआ था। निर्धनता के अभिशाप और जीवन का संघर्ष ऐसा रहा की लंगट सिंह साक्षर नहीं हो सके। लंगट सिंह महज 24 वर्ष में जीविका की तलाश के लिए घर से निकल पड़े। पहला काम मिला रेल पटरी के किनारे बिछ रहे टेलीग्राम के खम्‍भे पर तार लगाने की। इस काम में उनके लगन को देखकर आगे काम मिलता गया और वो रेलवे के मामूली मजदूर से जमादार बाबू, जिला परिषद्, रेलवे और कलकत्ता नगर निगम के प्रतिष्ठित ठेकेदार बन गए। उनकी कहानी कोई आधुनिक फिल्‍म के पटकथा से कम नहीं है। साधारण मजदूर से उदार जमींदार के रूप में स्थापित लंगट सिंह आजके युवा के लिए प्ररेणा का स्रोत थे। कलकत्ता के संभ्रांत समाज में उनको हीरो माना जाता था। बंगाली समुदाय से वो इतने घुल-मिल गए थे कि शुद्ध बंगाली लगने लगे थे। स्वामी दयानंद, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, ईश्वरचंद विद्यासागर, सर आशुतोष मुखर्जी आदि के वो समर्थक थे। मंद पड़े विद्यानुराग का वो पवित्र बीज कलकत्ता मे फूटा और आज एलएस. कॉलेज के रूप में वटवृक्ष की भांति खड़ा हुआ।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भी दिए दान - बाबू लंगट सिंह शिक्षा के विस्‍तार के लिए सब कुछ करने के लिए तैयार रहते थे। पं. मदन मोहन मालवीय जी, महाराजाधिराज कामेश्‍वर सिंह, काशी नरेश प्रभुनारायण सिंह, परमेश्वर नारायण महंथ, द्वारकानाथ महंथ, यदुनंदन शाही और जुगेश्वर प्रसाद सिंह जैसे विद्याप्रेमी के संग जुडकर उन्होनें शिक्षा के अखंड दीप को मुजफ्फरपुर हीं में नहीं बल्कि और जगह भी जलाने का काम कि‍यें। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए भी लंगट सिंह ने रुपये दि‍ए थे। कहा जाता है काशी के लिए जो रुपया वो दि‍ए थे वो एल.एस. कॉलेज के भवन निर्माण के लिए रखे थे। अद्भुत मेधा के युग-निर्माता, एक कृति पुरुष बाबू लंगट सिंह को भूलना, तिरहुत को भूल बिहार मे शिक्षा के इतिहास को लिखना कठिन है। आज उनको दिवंगत हुए 100 साल से ज्यादा हो गए लेकिन फिर भी उनके काम उनके सोच और उनके शिक्षा-प्रेम शुभ कर्म करने के लिए प्रेरणा देता है। 15 अप्रैल, 1912 को उनके निधन के साथ तिरहुत में जो शून्य पैदा हुआ वो आज तक नहीं भरा जा सका है। तिरहुत खास कर के मुजफ्फरपुर का इतिहास बिना लंगट सिंह के चर्चा के पूरा नहीं हो सकता है।

कभी था सबसे सुंदर आज हो गया खंडहर - लंगट सिंह कॉलेज का विशाल गैस प्लांट आज कॉलेज के गौरव गाथा का मूक गवाह है। एक जमाना था जब ये विज्ञान संकाय से लेकर पीजी रसायन विभाग तक के सब प्रयोगशाला में निर्बाध गैस आपूर्ति करता था। आज केवल अपना निशान बरकरार रखने की जद्दोजहद में है। विशाल यंत्र की कई चीजें चोरी हो चुकी है। प्रशासनिक उदासीनता के कारण यंत्र के जीर्णोद्धार की चिंता किसी में भी नहीं देखी जा रही है। विद्वान शिक्षक सब चुटकी लेते कहते थे कि‍ यंत्र का स्‍वरूप देखना अब एक ज्ञान का चीज है, ऐसा यंत्र किसी भी महाविद्यालय के पास नहीं है। ये तो अब अपने आप में दर्शनीय और अध्ययन योग्‍य है। दो दशक पूर्व ये यंत्र ठीक था। 1952 में एक एकड़ में इसके लिए गैस प्लांट की स्थापना की गई थी। इसके देखरेख का जिम्मा पीएचईडी पर था। विभाग के तीन कर्मी इसके संचालन के लिए तैनात रहते थे। उनके लिए परिसर में आवास की व्यवस्था भी की गई थी। लेकि‍न धीरे-धीरे यह व्यवस्था चरमरा गयी। देश के महज तीन कॉलेज में से एक ये लंगट सिंह कॉलेज था जिसमें लैब के संचालन के लिए अपने व्यवस्था से गैस का निर्माण किया जाता था। इस जगह केरोसीन तेल के क्रैकिंग से गैस का फॉरमेशन कि‍या जाता था। तत्कालीन प्राचार्य डा.सुखनंदन प्रसाद अंतिम बार इसके जीर्णोद्धार की पहल कि‍ए थे। अगर ठीक से इसको संरक्षित कि‍या जाए तो ये भावी पीढ़ी के लिए अध्ययन में काफी सहायक हो सकता है। वैसे भी कॉलेज के लिए ये अमूल्‍य धरोहर है। लेकिन सवाल उठता है आखिर कब हम धरोहर के प्रति गंभीर बनेगें और अपने धरोहर के संरक्षण करने के लिए सक्रिय होंगे।

Monday, April 1, 2013

गर रूठो तुम मैं मनाउ

रूठना शायद महिलाओं के चारित्रिक विकास की एक कड़ी हैं। इतनी मज़बूत कड़ी की ये ना हो तो महिलाओं का शारीरिक और मानसिक विकास ही रुक जाए।

एक सम्पूर्ण औरत अपने जीवन काल में कितने बार रूठती हैं ये शायद उनको भी पता नहीं होगा। ना ही अभी तक किसी वैज्ञानिक ने इस बारे में कोई अटकले, कयास या कोई सार्थक प्रयास किया हैं। मुझे तो लगता हैं की रूठने को नापने का पैमाना ना तो अभी तक बना हैं ना ही कभी आगे बन सकता हैं।

लेकिन एक बात तो साफ़ हैं की यह जितनी तेजी से फ़ैल रहा हैं और छूत की तरह एक से होते हुए दुसरे तक पहुँच रहा हैं से इस आंकलन को टाला नहीं जा सकेगा की आने वाले समय में  महिलायें इस बिमारी से पेट से ही ग्रसित होकर आएगी।

वैसे अगर देखा जाय तो यह अनुमान भी काफी हद तक सत्य हैं बच्चे जन्म के साथ ही रूठने लगते हैं, कभी दूध के लिए तो कभी टाफी के लिए और ये बिमारी युवावस्था की अग्रसर होते होते और भी भयानक और छूत की तरह  लगती हैं। मेरा तो यहाँ तक मानना हैं की  आर्थिक मंदी और डांवाडोल अर्थव्यवस्था के लिए कही हद तक ये रूठना फैक्टर भी जिम्मेदार हैं। रूठे हुए को मानने के लिए ये दुखियारी माँ बाप या बेचारा पती या बोयफ्रैंड उनकी जरुरतो को पूरा करने में लगा रहता हैं वो भी बिना फायदे नुक्सान की चिंता किये। 

वैसे मेरे हिसाब से बिना फायदे नुक्सान के हमेशा इनकी हरेक बात मानना और इनकी जरुरतो को पूरा करना ही आपको इस भयानक बिमारी से बचा सकता हैं। वैसे चिकित्सा विज्ञान में इस समय तक इस बीमारी के लिए कोई भी इलाज़ नहीं आ पाया हैं। नहीं इस पर कोई शोध चल रहा हैं। इलाज़ सिर्फ एक हैं, इनकी जायज़ नाजायज़ मांग को आप आँख बंद करके पूरा करते रहे।

आशिक मिजाज़ मजनुओ और पतियों के संग उन दुखियारी माँ-बाप से भी विनम्र निवेदन हैं की अगर आपके आस-पास या नाते रिश्तेदार में इस प्रकार के रोग के चिन्ह मिलते हैं तो अभी से सावधान हो जाए, आपकी जरा सी चुक आपको हिटलर से जानी लीवर बना सकती हैं और आपकी जरा सी लापरवाही आपको पालतू कुत्ता बनाकर जीवन भर इनके कदमो को चाटने और इनके पीछे दुम हिलाकर चलने को मजबूर कर सकती हैं। सावधान!

Thursday, March 21, 2013

हैप्पी बर्थडे टू यू बिहार



आज बिहार को अलग हुए पुरे १०१ साल हो गए हैं आजादी का जश्न सब पर चढ़ कर बोल रहा हैं। लोग ऐसे प्रतिक्रिया कर रहे हैं जैसे हम कभी गुलाम ही ना हो। सुशासन का असर हरेक गली चौराहे पर दिख रहा हैं। लोग जश्ने आज़ादी में झूम रहे हैं। पटना की गलियाँ सोनू निगम के पोस्टरों से सराबोर हैं। होली का रंग भी कही ना कहीं इस आवेश में दब गया लगता हैं। लोग उत्साहित हैं और जोश में भी, लेकिन इन जोश और खरोश में हम बिहार के विभाजन का सही अर्थ को नहीं समझ पाए हैं। ये आलेख शायद आपको इतिहास के उस पन्नो से रूबरू करा सके जिसकी आपको तलाश हैं - समदिया

वैसे तो बिहार की प्रशासनिक पहचान का अंत होना 1765 में ही शुरू हो गया था जब ईस्ट इंडिया कम्पनी को इसकी दीवानी मिली थी। उसके बाद यह महज एक भौगोलिक इकाई बन गया, अगले सौ सवा सौ सालों में बिहारी एक सांस्कृतिक पहचान के रूप में तो रही लेकिन इसकी बिहार का प्रांतीय या प्रशासनिक पहचान मिट सा गया। बिहार का इतिहास संभवतः सच्चिदानन्द सिन्हा से शुरू होता है क्योंकि राजनीतिक स्तर पर सबसे पहले उन्होंने ही बिहार की बात उठाई थी। कहते हैं, डा. सिन्हा जब वकालत पास कर इंग्लैंड से लौट रहे थे तब उनसे एक पंजाबी वकील ने पूछा था कि मिस्टर सिन्हा आप किस प्रान्त के रहने वाले हैं। डा. सिन्हा ने जब बिहार का नाम लिया तो वह पंजाबी वकील आश्चर्य में पड़ गया। इसलिए क्योंकि तब बिहार नाम का कोई प्रांत था ही नहीं। उसके यह कहने पर कि बिहार नाम का कोई प्रांत तो है ही नहीं, डा. सिन्हा ने कहा था, नहीं है लेकिन जल्दी ही होगा। यह घटना फरवरी, 1893 की बात है। उसके बाद एक से एक ऐसे हादसे होते गए जिसने बिहारी अस्मिता को झंकझोर कर रख दिया , एक समय ऐसा भी आया जब बिहारी युवाओं (पुलिस) के कंधे पर ‘बंगाल पुलिस’ का बिल्ला लटकाए बिहार की जमीन पर काम करना पड़ता था। उस समय बिहार की आवाज बुलंद करने के लिए चंद ही लोग थे, जिनमे महेश नारायण, अनुग्रह नारायण सिंह, नंदकिशोर लाल, राय बहादुर और कृष्ण सहाय आदि प्रमुख थे। ना कोई अखबार था ना कोई पत्रकार बिहार से प्रकशित एक मात्र अखबार 'द बिहार हेराल्ड' था जो बिहारियों के हित के लिए बात करता था। तमाम बंगाली अखबार बिहार पृथक्करण का विरोध करते थे, कुछ बिहारी पत्रकार बिहार हित की बात तो करते थे लेकिन अलग बिहार के मुद्दे पर एकदम अलग राय रखते थे। बिहार को अलग राज्य के पक्ष में जनमत तैयार करने या कहें की माहौल बनाने के उद्देश्य से 1894 में डॉ. सिन्हा ने अपने कुछ सहयोगियों के साथ ‘द बिहार टाइम्स’ अंग्रेज़ी साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया। स्थितियां बदलते देख बाद में ‘बिहार क्रानिकल्स’ भी बिहार अलग प्रांत के आन्दोलन का समर्थन करने लगा। 1907 में महेश नारायण की मृत्यु के बाद डॉ. सिन्हा अकेले हो गए। इसके बावजूद उन्होंने अपनी मुहिम को जारी रखा। और 1911 में अपने मित्र सर अली इमाम से मिलकर केन्द्रीय विधान परिषद में बिहार का मामला रखने के लिए उत्साहित किया। 12 दिसम्बर 1911 को ब्रिटिश सरकार ने बिहार और उड़ीसा के लिए एक लेफ्टिनेंट गवर्नर इन कौंसिल की घोषणा कर दी। धीरे धीरे उनकी मुहीम रंग लाइ और 22 मार्च 1911 को बिहार बंगाल से अलग हो स्वतंत्र राज्य हो गया।

1911 में बिहार के बंगाल से अलग होने के एक सौ एक बरस होने वाले हैं. आज भी इतिहास के इस मोड का बिहार की ओर से इतिहास के इस पहलु को दिखाने का अभाव है। क्या कारण था कि बिहार को बंगाल से अलग लेने का निर्णय ब्रिटिश सरकार ने लिया ... इस प्रश्न का एक उत्तर यह दिया जाता है कि ब्रिटिश सरकार बंगाल के टुकडे करके उभरते हुए राष्ट्रवाद को कमजोर करना चाहती थी। पहले उसने बंग-विभाजन के द्वारा ऐसा करने की कोशिश की और फिर बाद में बंगाल से बिहार और उडीसा को अलग करके यही दोहराया। वैसे बंग विभाजन का जो विरोध बंगाल ने किया उतना विरोध बिहार विभाजन के समय नहीं हुआ, यह लगभग स्वाभाविक था क्योंकि बिहार को पृथक राज्य बनाने के लिए हुए आन्दोलन के पीछे सच्चिदानंद सिन्हा एवं महेश नाराय़ण समेत अन्य आधुनिक बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में इसका शंखनाद हुआ था।

"बिहार बिहारियों के लिए" का विचार सर्वप्रथम मुंगेर के एक उर्दू अखबार मुर्घ -इ- सुलेमान ने पेश किया था.एक अन्य पत्र कासिद ने भी इसी तरह के वक्तव्य प्रकाशित किए. इसी दशक में बिहार के प्रथम हिन्दी पत्र- बिहार बन्धु जिसके संपादक केशवराम भट्ट थे ने भी इस तरह के विचार को आगे बढाया. तब से लेकर 1994 तक विविध रूपों में यह विचार व्यक्त होता रहा जिसका ही एक प्रतिफलन बिहार का बंगाली विरोधी आन्दोलन था जो बिहार के प्रशासन और शिक्षा के क्षेत्र में बंगालियों के वर्चस्व के विरोध के रूप में उभरा. एल. एस. एस ओ मैली से लेकर वी सी पी चौधरी तक विद्वानों ने बिहार के बंगाल के अंग के रूप में रहने के कारण बढे पिछडेपन की चर्चा की है. इस चर्चा का एक सुंदर समाहार गिरीश मिश्र और व्रजकुमार पाण्डेय ने प्रस्तुत किया है. इन चर्चाओं में यह कहा गया है कि अंग्रेज़ बिहार के प्रति लापरवाह थे और बिहार लगातार उद्योग धंधे से लेकर शिक्षा, व्यवसाय और सामाजिक क्षेत्र में पिछडता जा रहा था। चूँकि बिहार में बर्धमान के राजा या कासिमबाजार के जमींदार की तरह के बडे जमींदार नहीं थे यहाँ के एलिट भी उपेक्षित ही रहे. दरभंगा महाराज को छोडकर बिहार के किसी बडे जमींदार को अंग्रेज महत्त्व नहीं देते थे। जिस क्षेत्र में विदेशियों के साथ व्यापार का इतना महत्त्वपूर्ण सम्पर्क था उसका बंगाल के अंग के रूप में रहकर जो हाल हो गया था उससे यह निष्कर्ष निकालना स्वाभाविक था कि बिहार को बंगाल के भीतर रहकर प्रगति के लिए सोचना असंभव था।

बिहार को बंगाल प्रेसिडेंसी से अलग कर एक अलग राज्य का निर्माण 1870 से ही शुरू हो गया था जब बिहार के पढ़े लिखे लोगों को ये समझ में आना शुरू हो गया की स्कूल, कॉलेज से लेकर अदालत और किसी भी सरकारी दफ्तरों की नौकरियों में बंगालियों का वर्चस्व अनैतिक है और जनतंत्र के खिलाफ भी। बिहार के प्रथम समाचार पत्र बिहार बन्धु में इस आशय के पत्र और लेख प्रकाशित हुए जिसमें यहाँ तक कहा गया कि बंगाली ठीक उसी तरह बिहारियों की नौकरियाँ खा रहे हैं जैसे कीडे खेत में घुसकर फसल नष्ट करते हैं! सरकारी मत इससे अलग था उनके अनुसार बंगाली; बिहारियों की नौकरियों पर बेहतर अंग्रेज़ी ज्ञान के कारण कब्ज़ा जमाए हुए हैं। 1872 में , बिहार के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर जॉर्जे कैम्पबेल ने लिखा था कि चूंकि बिहार का शासन बंगाल से बंगाली अधिकारियों द्वारा नियंत्रित किया जाता है, इसलिए हर मामले में अंग्रेजी में पारंगत बंगालियों की तुलना में बिहारियों के लिए असुविधाजनक स्थिति बनी रहती है। सरकारी द्स्तावेज़ों और अंग्रेज़ों द्वारा लिखित समाचार पत्रों के लेखों में भी यही भाव ध्वनित होता था. यह बात खास तौर पर कही जाती थी कि शिक्षित बंगाली रेल की पटरियों के साथ साथ पंजाब तक नौकरियाँ पाते गये। कलकत्ता से प्रकशित एक पत्र के सम्पादकीय में इस बात का विश्लेषण खास तौर किया गया गया लिखा गया की बिहार के लगभग सभी सरकारी नौकरियाँ बंगाली के हाथों में हैं. बडी नौकरियाँ तो हैं ही छोटी नौकरियों पर भी बंगाली ही हैं। जिलेवार विश्लेषण करके पत्र में लिखा गया कि भागलपुर, दरभंगा, गया, मुजफ्फरपुर, सारन, शाहाबाद और चम्पारन जिलों के कुल 25 डिप्टी मजिस्ट्रेटों और कलक्टरों में से 20 बंगाली हैं. कमिश्नर के दो सहायक भी बंगाली हैं. पटना के 7 मुंसिफों ( भारतीय जजों) में से 6 बंगाली हैं. और यही स्थिति सारन की भी है जहां 3 में से 2 बंगाली हैं। छोटे सरकारी नौकरियों में भी यही स्थिति है। मजिस्ट्रेट , कलक्टर, न्यायिक दफ्तरों में 90 प्रतिशत क्लर्क बंगाली हैं। यह स्थिति सिर्फ जिले के मुख्यालय में ही नहीं हैं, सब-डिवीजन स्तर पर भी यही स्थिति है. म्यूनिसिपैलिटी और ट्रेजेरी दफ्तरों में बंगाली छाए हुए हैं। इस प्रकार के आँकडे देने के बाद पत्र ने अन्य प्रकार की नौकरियों का हवाला दिया था. पत्र के अनुसार दस में से नौ डॉक्टर और सहायक सर्जन बंगाली हैं. पटना में आठ गज़ेटेड मेडिकल अफसर बंगाली हैं. सभी भारतीय इंजीनियर के रूप में कार्यरत बंगाली हैं. एकाउंटेंट, ओवरसियर एवं क्लर्कों में से 75 प्रतिशत बंगाली ही हैं. संपादकीय का सबसे दिलचस्प हिस्सा वह था जिसमें यह उल्लेख किया गया था कि जिस दफ्तर में बिहारी शिक्षित व्यक्ति कार्यरत है उसको पग पग पर बंगाली क्लर्कों से जूझना पडता हैं और उनकी मामूली भूलों को भी सीनियर अधिकारियों के पास शिकायत के रूप में दर्ज कर दिया जाता हैं। सम्पादकीय का निष्कर्ष था कि बिहार की नौकरियों को बंगाली आकांक्षाओं की सेवा में लगा दिया गया है।

बंगालियों के बिहार में आने के पहले नौकरियों में कुलीन मुसलमानों और कायस्थों का कब्ज़ा था। स्वाभाविक था कि बंगालियों के खिलाफ सबसे मुखर मुसलमान और कायस्थ ही थे। यहीं से 'बिहार बिहारियों के लिए' का नारा उठा, पहले कुलीन मुसलमानों ने इसे मुद्दा बनाया और बाद में कायस्थों ने। अंग्रेज़ी शिक्षा के क्षेत्र में बिहार ने बहुत कम तरक्की की थी, सबकुछ कलकत्ता से ही तय होता था इसलिए बिहार में कॉलेज भी कम ही खोले गये. यह बहुत प्रचारित नहीं है कि जब कॉलेज खोलने का निर्णय किया गया तो ब्रिटिश कम्पनी सरकार ने तय किया था कि बंगाल प्रेसिडेंसी में दो कॉलेज खोले जाएं- एक अंग्रेजी शिक्षा के लिए कलकत्ता में और एक संस्कृत शिक्षा के लिए तिरहुत अंचल में क्योंकि पारम्परिक संस्कृत शिक्षा केन्द्र के रूप में तिरहुत प्रसिद्ध था। यह बंगाल के प्रसिद्ध भारतियों को पसंद नहीं आया और प्रयत्न करके संस्कृत कॉलेज भी कलकत्ता में ही खोला गया। बिहार में बडे कॉलेज के रूप में पटना कॉलेज था जिसकी स्थापना 1862-63 में की गयी थी. इस कॉलेज में बंगाली वर्चस्व इतना अधिक था कि 1872 में जॉर्ज कैम्पबेल ने यह निर्णय लिया कि इसे बंद कर दिया जाए। वे इस बात से क्षुब्ध थे कि 16 मार्च 1872 को कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में उपस्थित 'बिहार' के सभी छात्र बंगाली थे! यह सरकारी रिपोर्ट में उद्धृत किया गया है कि "हम बिहार में कॉलेज सिर्फ प्रवासी बंगाली की शिक्षा के लिए खुला नहीं रखना चाहते". इस निर्णय का विरोध बिहार के बडे लोगों ने किया. इन लोगों का कथन था कि इस कॉलेज को बन्द न किया जाए क्योंकि बिहार में यह एकमात्र शिक्षा केन्द्र था जहाँ बिहार के छात्र डिग्री की पढाई कर सकते थे।

बिहार की सरकारी नौकरियों में बंगाली वर्चस्व पर कई सरकारी रिपोर्टों में प्रमुखता से लिखा गया। यहाँ तक की एक रिपोर्ट ऐसी भी थी जिसमे ये कहा गया की बिहारी ;बंगाली के रहमोकरम पर हैं जो नौकरी वो नहीं करना चाहते वो बिहारियों को मिल जाती हैं। इस रिपोर्ट ने तहलका मचा दिया अंतत: सरकार जगी और सरकारी आदेश दिए गए कि जहाँ-जहाँ रिक्त स्थान हैं उनमें उन बिहारियों को ही नौकरी पर रखा जाए जिन्हें शिक्षा का सुयोग मिला है। आदेश में कई जगहों पर यह स्पष्ट कहा जाता था कि इसे बंगालियों को नहीं दिया जाए। इसी तरह के कुछ आदेश उत्तर पश्चिम प्रांत में भी दिए गये थे. इस तरह के सरकारी विज्ञापन भी समाचार पत्रों में छपा करते थे जिसमें स्पष्ट लिखा होता था- "बंगाली बाबु आवेदन न करें". बिहार में भी 1870 और 1880 के दशक में कई सरकारी आदेश दिए गये थे जिसमें यह कहा गया था कि बिहारियों को ही इन नौकरियों में नियुक्त किया जाए।

बिहार के कई समाचार पत्रों में इस आशय के कई लेख और पत्र प्रकाशित होते रहे जिसमें यह कहा जाता था कि बिहार की प्रगति में बडी बाधा बंगालियों का वर्चस्व है. नौकरियों में तो बंगाली अपने अंग्रेज़ी ज्ञान के कारण बाजी मार ही लेते थे बहुत सारी जमींदारियां भी बंगालियों के हाथों में थी।

इसमें संदेह नहीं कि बंगालियों के प्रति सरकारी विद्वेष के पीछे सिर्फ स्थानीय लोगों के प्रति उनका लगाव नहीं था. विभिन्न कारणों से बंगाल में चल रही गतिविधियों से जुडने के कारण बिहार में भी बंगाली समाज सामाजिक और राजनैतिक रूप से सजग था. उनके प्रभाव से शांत समझा जाने वाला प्रदेश बिहार भी अंग्रेज़ विरोधी राष्ट्रवादी आन्दोलन से जुडने लगा था. कई इतिहासकारों का मत है कि बंगालियों के प्रति बिहारियों के मन में विद्वेष को बढाने में सरकार की एक चाल थी. वे नहीं चाहते थे कि राष्ट्रीय और क्रांतिकारी विचारों का जोर बिहार में बढे.

इसमें संदेह नहीं कि बिहार में बंगाली नवजागरण का प्रभाव पडा था और बिहार के बंगाली राजनैतिक और बौद्धिक क्षेत्र में आगे बढे हुए थे. शैक्षणिक, स्वास्थ्य, सार्वजनिक संगठन तथा समाज सुधार के क्षेत्र में बंगाली समाज बिहार में बहुत सक्रिय था. यह नहीं भूला जा सकता कि भूदेव मुखर्जी जैसे बंगाली बुद्धिजीवी-अधिकारी के कारण ही हिन्दी को बिहार में प्रशासन और शिक्षा के माध्यम के रूप में स्वीकृति मिल सकी। बिहार में प्रेस के क्षेत्र में क्रांतिकारी भूमिका प्रदान करने वाले दो महापुरूषों- केशवराम भट्ट और रामदीन सिंह को आज बिहार के पत्रकार भुला ही चुके हैं। इन सबके बावजूद यह मानना ही पडेगा कि बिहार के बहुत सारे शिक्षित लोगों को यह लगता था कि बंगाल के साथ होने के कारण और प्रशासन का कलकत्ता से नियंत्रण होने के कारण बिहारियों के प्रति सरकार पूरी तरह से न्याय नहीं कर पाती। और यही एक खास वजह थी जिसने बिहार को अलग करने में खास भूमिका निभाई।

बंगाल से बिहार के अलग होने की प्रशासनिक भूमिका के दशकों पहले से बिहार के पढ़े-लिखो के बीच बंगाली वर्चस्व के विरूद्ध भाव सक्रिय होने लगे थे. इस भाव का एक प्रकाशन अल- पंच में 1889 में प्रकाशित नज़्म में मिला था जिसका शीर्षक था- 'सावधान ! ये बंगाली है". ऐसे ही भाव की एक और प्रस्तुति 1880 में 'बिहार के एक शुभ-चिंतक' का पत्र है जिसमें बंगालियों की तुलना दीमकों से की गई है जो बिहार की फसल (नौकरियों) को 'खा रहे हैं'. बुद्धिजीवियों के बीच बंगाली वर्चस्व के प्रति इस भाव के कारण ही इस बात के लिए समर्थन पैदा होने लगा कि बंगाल के साथ रहकर बिहारियों की स्वार्थ -रक्षा संभव नहीं हैं।

1890 के दशक में बिहार की पत्र पत्रिकाओं में (खासकर बिहार टाइम्स में ) इस आशय के लेख नियमित रूप से छपने लगे जिसमें बिहार की दयनीय स्थिति के प्रति सचेतनता और परिस्थिति के प्रति आक्रोश व्यक्त किया गया था। बिहार टाइम्स ने लिखा था कि बिहार की आबादी 2 करोड 90 लाख है और जो पूरे बंगाल को एक तिहाई राजस्व देते हैं उसके प्रति यह व्यवहार अनुचित है। इस पत्र ने विभिन्न क्षेत्रों में बिहारियों के प्रतिनिधित्व को लेकर जो तथ्य सामने रखे उसे ध्यान में रखने पर बंगाल में बिहार की उपेक्षा की सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। ऐसे अनेक कारण थे जो बिहार के क्षेत्र में बिहारियों की उपेक्षा को दिखाते थे जैसे - बंगाल प्रांतीय शिक्षा सेवा में 103 अधिकारियों में से सिर्फ 3 बिहारी थे, मेडिकल एवं इंजीनियरिंग शिक्षा की छात्रवृत्ति सिर्फ बंगाली ही पाते थे, कॉलेज शिक्षा के लिए आवंटित 3.9 लाख में से 33 हजार रू ही बिहार के हिस्से आता था, बंगाल प्रांत के 39 कॉलेज (जिनमें 11 सरकारी कॉलेज थे) में बिहार में सिर्फ 1 था, कल-कारखाने के नाम पर जमालपुर रेलवे वर्कशॉप था (जहाँ नौकरियों में बंगालियों का वर्चस्व था) , 1906 तक बिहार में एक भी इंजीनियर नहीं था और मेडिकल डॉक्टरों की संख्या 5 थी।

ऐसे हालात में बिहारी प्रबुद्धों द्वारा बिहार को पृथक राज्य बनाए जाने का समर्थन दिया जाने लगा और स्वदेशी आन्दोलन के उपरांत हालात ऐसे हो गये कि कांग्रेस के 1908 के अपने प्रांतीय अधिवेशन में बिहार को अलग प्रांत बनाए जाने का समर्थन किया गया। कुछ प्रमुख मुस्लिम नेतागण भी सामने आये जिन्होंने हिन्दू मुसलमान के मुद्दे को पृथक राज्य बनने में बाधा नहीं बनने दिया। इन दोनों बातों से अंग्रेज शासन के लिए बिहार को अलग राज्य का दर्जा दिए जाने का मार्ग सुगम हो गया। अंतत: वह घडी आयी और 12 दिसंबर 1911 को बिहार को अलग राज्य का दर्जा मिल गया और आखिरकार 145 बर्ष बाद बिहार को उसका सम्मान प्राप्त हो गया।

बिहार के इतिहास में 12 दिसंबर 1911 का दिन मील का पत्थर साबित हुआ। इसी दिन ब्रिटिश सरकार ने भारत की राजधानी कलकत्ता से स्थानांतरित कर दिल्ली ले जाने की घोषणा की। बिहार को बंगाल से अलग कर गर्वनर इन काउंसिल के शासन वाला राज्य घोषित कर दिया। इसके बाद 22 मार्च 1912 को की गयी उद्घोषणा के द्वारा बंगाल से अलग कर बिहार को नए राज्य का दर्ज मिला । जिसमें भागलपुर, मुंगेर, पूर्णिया एवं भागलपुर प्रमंडल के संथाल परगना के साथ-साथ पटना, तिरहुत, एवं छोटानागपुर को शामिल किया गया। सर चाल्र्स स्टूबर्स बेले, के.सी.एस.आई. राज्य के प्रथम राज्यपाल तथा उपराज्यपाल नियुक्त किए गए। 29 दिसंबर 1920 को बिहार राज्य को राज्यपाल वाला प्रांत बनने का गौरव प्राप्त हुआ। महामहिम रायपुर वासी सत्येन्द्र प्रसन्नो सिन्हा राज्य के प्रथम भारतीय राज्यपाल नियुक्त किए गए। मार्च 1920 में लेजिस्लेटिव काउंसिल भवन की स्थापना की गयी। सात फरवरी 1921 को सर मुडी की अध्यक्षता में प्रथम बैठक आयोजित की गयी जो आज बिहार विधानसभा कहलाता है। बिहार के अंतिम राज्यपाल सर जेम्स डेविड सिफटॉन हुए। वर्ष 1935 में बिहार विधान परिषद भवन का निर्माण शुरू किया गया। गर्वमेंट आफ इंडिया एक्ट 1935 में निहित प्रावधानों के अनुसार एक अप्रैल 1937 को प्रांतीय स्वायत्ता का श्रीगणोश हुआ। जिसके तहत द्विसदनीय व्यवस्था की शुरूआत हुई। इसके तहत बिहार विधानसभा व विधान परिषद प्रस्थापित किया गया। इसके तहत 22-29 जनवरी 1937 की अवधि में बिहार विधानसभा का चुनाव संपन्न हुआ। 20 जुलाई 1937 को डा. श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में प्रथम सरकार का गठन हुआ। उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में चुना गया। 22 जुलाई 1937 को विधानमंडल का प्रथम अधिवेशन हुआ। स्वाधीनता के बाद 15 अगस्त 1947 को श्री जयरामदास दौलत राम प्रथम राज्यपाल नियुक्त किए गए। पुन: बिहार विधानसभा के चुनाव के बाद 29 अप्रैल 1952 को श्रीकृष्ण सिंह मुख्यमंत्री के रूप में चुने गए।

यहाँ एक रोचक तथ्य बतलाना चाहूँगा की "बंगाल से अलग होने के बाद जब पटना को बिहार की राजधानी बनाने का फैसला लिया गया, तो इस शहर में आधारभूत संरचनाओं का घोर अभाव था। इसे तैयार करने में समय लगता, जबकि सरकार पटना से चलना था। ऐसे में दरभंगा के महाराजा रामेश्‍वर सिंह ने पटना के छज्‍जू बाग को खरीदा और वहां अस्‍थायी तौर पर विधानसभा और सचिवालय का निर्माण कराया। उस वक्‍त अगर ऐसा नहीं किया जाता तो बिहार-उडीसा की संयुक्‍त राजधानी पटना की जगह भुवनेश्‍वर बन सकता था। उस अस्‍थाई भवन में विधानसभा तक तक चला जब तक नया भवन तैयार नहीं हो गया। उस अस्‍थाई विधानसभा भवन में आज पटना उच्‍च न्‍यायालय के प्रधान न्‍यायधीश का आवास है।" आज जब बिहार बदल रहा हैं और बिहारी भी तो दुख की बात यह है कि बिहार की राजधानी पटना बनाने में अहम भूमिका निभानेवाले रामेश्‍वर सिंह को सौ साल गुजर जाने के बाद भी न तो बिहार याद करता है और न ही राजधानी पटना।

बिहार अलग हुआ और अपने आप पर इतराता चाणक्य के कदमो पर चलता दिन-दुनी रात तरक्की करने लगा। इस बीच बहुत से उतार चढ़ाव आये। कई राजनीती समीकरण बदले, कई बार इमरजेंसी हुई। जगन्नाथ और लालू ने मिलकर कई बार राज्य का बलात्कार किया। राज्य कई बार गर्त में गिरा और कई बार बुलंदी को छुआ। लालू राज के बुरे साल को झेलने के बाद नितीश का सुशासन भी बिहार ने देखा। बिहार हमेशा से एक ऐसे प्रदेश के रूप में पहचाना जा रहा हैं जो अपने आप को बदलने की बजाय देश और दुनिया को बदलने में तल्लीन रहता हैं। आज जब बिहार बदल रहा हैं, बिहार और बिहारी के बारे में सोच रहा हैं, कृषि से ज्यादा उधोग धंधे के बारे में सोच रहा हैं, चाणक्य को छोड़कर चार्वाक के बारे में सोचने लगा हैं, बिहारी संस्कृति को भुलाकर पश्चिमी रंग में रंगने लगा हैं उस समय बस एक ही टीस दिल में उठती हैं ... क्या सचमुच ये वही नालंदा विश्वविद्यालय वाला बिहार हैं जिसने आज बिहार को शिक्षा मित्र के चुंगल में धकेल दिया हैं।

रेफरेंस -:
द जर्नल आफ बिहार रिसर्च सोसाइटी, पटना
दैनिक जागरण, 18 मार्च 2010, पटना , सम्पादकीय पृष्ठ
पुस्तक -: बिहार - सृजन से शताब्दी वर्ष

Friday, March 1, 2013

प्रिय तुम बहुत याद आती हो

प्रिय,

हम अलग हैं एक दुसरे से बहुत दिनों से। विछोह का दर्द दोनो तरफ उठ रहा हैं। जितना तुम तड़प रही हो उससे कहीं ज्यादा तड़प इस दिल में भी उठता हैं। रोता मैं भी हूँ, लेकिन आंसू खुद ही पोछना पड़ता हैं। सवाल ये नहीं हैं की यहाँ पर आंसू पोछने वाला कोई नहीं हैं, सवाल ये हैं की मैं उन्हें समझा नहीं सकता की प्रियतम से बिछड़ने का गम क्या होता हैं।

इस भीड़ भाड़ में ना तो समय मिलता हैं ना ही फुर्सत। मोबाइल कुछ कसर जरुर पूरी करता हैं लेकिन कमबख्त अरमान हैं जो पुरे ही नहीं होते। जी ही नहीं भरता और दिल भी। दिल ... कैसे भरेगा ये ... ये तो तुम्हारे पास हैं वहां ............बहुत दूर ..... तुम्हारे दिल के नज़दीक। प्रिय तुम्हारे ही धड़कन से धड़कता हूँ मैं। तुम हो तो मैं हूँ और बिना तुम्हारे मेरा भी नहीं हैं कोई वजूद।

प्रिय मुझे पता हैं तुम्हारी बेकरारी भी उतनी ही होगी जितना व्याकुल हूँ मैं। ठीक किसी विरहे की तरह तुम भी तड़प कर रही होगी मेरा इन्तेजार। चातक की तरह राह ताकती होगी तुम मेरा। मोबाइल के हरेक रिंग पर चमक जाती होगी तुम्हारी आँखे। दरवाजे की आहट पर उठ जाती होगी तुम्हारी नज़र। ध्यान होता होगा तुम्हारा उन चप्पलो की खडखडाहट पर जो हौले होले दस्तक देती हैं दरवाजे पर किसी अपने का। और फिर निराश हो जाती होगी ठीक किसी मोरनी की तरह जों धुएँ से भरे आसमान को सावन की घटा समझकर झुमने लगती हैं और फिर निराश हो जाती हैं धुवां छटने के बाद।

प्रिय मैं आऊंगा जल्द ही अपना वादा पूरा करने। आऊंगा जल्द ही क्योंकि मुझे पता हैं जी नहीं पाओगी तुम हमारे बिना और रह नहीं पाऊंगा मैं तुम्हारे बिना।

नारी अब स्वयंसिद्धा बनकर उभर रही हैं

प्रियतम,

तुम्हे पता हैं समाज किस कदर तेजी से बदल रहा हैं? इतना जितना नाभिकीय विस्फोट के समय परमाणु भी नहीं टकराते होंगे आपस में। अब महिलायें भी आगे आ रही हैं, पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर। अब वो भी ढूंढ़ रही हैं बराबरी का हक़ पुरुषो के वनिस्पत। अब वो भी आगे बढ़ रही हैं वक्त की रफ़्तार के संग नए स्वरुप में नए परिवेश में।

अब महिलाए चुप होकर नहीं सहती अपने पती और स्वसुर का रौब। अब वो खुद लेती हैं फैसला बनवास में  जाने का। चाहे दशरथ पुत्र वियोग में अपना प्राण क्यों ना त्याग दे। चाहे राम शोकाकुल हो वन में सन्यासी क्यों न बन जाए। अब वो नहीं सहती विमाता का क्रोध संताप। अब अग्नि परीक्षा भी नहीं देती महिलाए। मना कर देती हैं आप ही, रावण जैसे महापंडित पर नहीं लगने देती व्यभिचार का आरोप। अब राम के ना होने पर खुद ही संभाल लेगी राज पाट नहीं करती इन्तजार किसी भरत जैसे अनुज का चरण पादुका पर रोकर समय बिताने का  ।

अब किसी अहिल्या को पत्थर का नहीं बनना पड़ता अब वो स्वयं को सिद्ध करने के लिए भगवान् को भी उतार सकती हैं धरती पर। अब नहीं सहती वो किसी की टेढ़ी नज़र चाहे देवराज ही क्यों ना तान रखे हो भृकुटी उस पर।

प्रिय अब द्रोपदी भी किसी कृष्ण के चीर की मोहताज़ नहीं हैं। वो खुद कर सकती हैं अपने लाज की रक्षा। संभाल सकती हैं अपना आँचल वक्त के समय और लड़ सकती हैं किसी शेरनी की तरह दुश्मनों से। अब भगवान् भी दुहाई देते हैं महिलाओं की।

दामिनी अब बन गयी हैं मिशाल। बन गयी हैं निर्भया और दे गयी हैं शक्ति उन लाखो भुजाओं को जो अब खुलकर कर  सकती हैं हैवानो से अपनी रक्षा। प्रिय अब महिलायें लाज का गहना या प्रतिरूप से ऊपर उठ चुकी हैं। अब भारत माँ भी गर्व से अपनी बेटी की पीठ थपथपा सकती हैं, क्योंकि नारी अब सचमुच बदल रही और स्वयंसिद्धा बनकर उभर रही हैं।


Monday, January 28, 2013

प्रिय तुम मुस्कुराती रहो

प्रिय,

इस तरह गुस्से से लाल होना कहाँ सीखा आपने? पल में इतने सारे रंग, इतने सारे भाव की खुद गिरगिट भी शर्मा जाए आपको देखकर। ये आपके अन्दर की नैसर्गिक कला हैं या सिखा हैं तुमने इन मगरमच्छो से भरी दुनिया में रहकर। तुम्हारा वो मुखचन्द्रकमल जो कभी चाँद को भी मात दे देता था आज अस्ताचलगामी सूरज की तरह हो गया था। वो रोद्ररूप, रणचंडी सा विशाल मुख क्रोध के कारण कितना कुरूप हो जाता हैं पता भी हैं तुम्हे। ऐसा भयावह की रक्तबीज भी गश खा के गिर जाय हमारी क्या मजाल हैं।
प्रिय तुम जब गुस्सा करती हो तो अच्छा लगता हैं लेकिन जब तुम क्रोध आता हैं ना तो तुम बिलकुल कुरूप हो जाती हो ठीक किसी चाँद की तरह जो पूर्णिमा के बाद सीधा अमावास देख लिया हो। प्रिय क्या क्रोध करना जरुरी हैं, क्या जरुरी हैं अपने इस मुख कमल को अनार की फुल की तरह बनाना।
प्रिय तुम हँसते हुए कितनी सुन्दर दिखती हो पता भी हैं तुम्हे। मन मयूर सा नाच उठता हैं तुम्हारे हँसते हुए चेहरे को देखकर। ऐसा लगता हैं जैसे बच्चे को मिल गया हो उसका सबसे बेहतरीन खिलौना। प्रिय आपका वो शांत चेहरा मुझे शकुन देता हैं तन्हाई में भी। जब भी मुझे परेशानी होती हैं या फिर होता हूँ उदास तुम्हारा वो हँसता मुस्कुराता चेहरा याद कर लेता हूँ और बस भर जाती हैं मेरे अन्दर एक नई चेतना एक नै स्फूर्ति। प्रिय तुम हमेशा मुस्कुराती रही ताकि खिल सके फुल बागों में और गा सके पंक्षी और नाच सके मोर। प्रिय तुम हमेशा मुस्कुराती रहे ताकि जी संकू मैं और जिन्दा रह सको तुम।

तुम्हारा
प्रिय

Thursday, January 17, 2013

एक छोटे सफ़र की छोटी दास्तान

Indian railway information

प्रिय,
याद हैं तुम्हे वो लोकल ट्रेन सहरसा से पटना के बीच की कितना हिलती थी यार, कभी कभी तो लगता था आगे वाला डब्बा हमें छोड़ कर आगे ना चले जाए। मालगाड़ी से भी ज्यादा हिचकोले खाती वो ट्रेन का डब्बा जब धगड़ धगड़ करके चलता तो एक मीठा सा डर और अजीब सा आनंद आ जाता था ना तुम्हे किस कदर चिपक के बैठ जाती थी तुम मुझसे। तुम्हारा सामीप्य और भी अधिक गहरा जाता था ना उन चंद घंटो में। तुम्हारी उँगलियों की वो छुअन मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ। वो गुदगुदाता एहसास, वो अजीब सी ख़ुशी कैसे भूल पाऊंगा। अब भी वो यादे किसी काली-सफ़ेद चलचित्र की तरह धुंधली धुंधली सी मेरे यादो में चलती रहती हैं। प्रिय ना तो अब वो छूअन हैं ना ही वो एहसास और अब पैसेंजर ट्रेन की शांति भी अजीब सी धक्का मुक्की में बदल गयी हैं। गाड़ियों की वो मंथर गति अब तेज रफ़्तार की ट्रेन में बदल गयी हैं। छुक छुक करता धुवां अब बिजली के तारों में उलझ कर रह गयी हैं, अब ना तो वो शांति हैं ना शुकून। पटरियों के साथ लगे वो पेड़ भी औधोगीकरण की मार से बेहाल हो दम तोड़ चुके हैं। अब सुबह सुबह ट्रेन में आँख खुलने से चिड़ियों की चहचाहट नहीं सुनाई देती अब बस सुनाई देती हैं ट्रेन का कोरस। अब पटना के पुल से गुजरते हुए या सिमराही घाट से गुजरते हुए गंगा का शुकून भी नहीं मिलता, जैसी मैली गंगा कातर भाव से कह रही हो अब नहीं सहा जाता। प्रिय कितना बदल गया हैं हमारा गाँव, एक छोटा सा क़स्बा जो कभी कोशी के किनारे शांत सा पड़ा रहता था गाड़ियों की धुक-धुक और धुल मिटटी से दब गया हो जैसे। अब आम कोल्ड स्टोरेज से आने लगे हैं, आम की मिठास कोल्ड स्टोरेज की बदबू में दबकर रह गयी हैं। अब रेलगाडी भी रेलगाड़ी नहीं रही अब तो वो पेलमपेल गाडी हो गयी हैं। हा हा हा मुझे पता हैं तुम हँसोगी ये शब्द सुनकर लेकिन अब कुछ ऐसा ही हैं अब, एक 72 सीट वाले डब्बो में हजारो लोग सफ़र करने लगे हैं। दूधिये का आंतक तो अलग ही हैं, अगर इन भीड़ से बचकर अगर कहीं खडकी के पास बैठ भी गए तो दूध और घास की गट्ठर ही दिखाए देंगे। ताज़ी हवा उन हजारो लोगो के पसीनो में दब कर रह जाती हैं। प्रिय कैसे बताऊँ तुम्हे मैं उस यात्रा को, कितना तकलीफदेह और दुखदाई हैं लेकिन फिर भी लोग सफ़र करते हैं इस आश में की उनकी जन्मभूमि पुकार रही होती हैं उन्हें हौले हौले से। और यही शब्द जैसे भर देता हो उनके अन्दर एक अलग जोश एक अलग जज्बा और यही उन्माद उसे जिन्दा रखता हैं उन अंसख्य लोगो के बीच और बस इसलिए नहीं निकल पाती उसी जान उससे क्योंकि मातृभूमि होती हैं उनके आँखों के करीब। प्रिय फिर कभी मिलो तो हम जरुर घूमेंगे फिर से उस मजेदार सफ़र में ... मैं और तुम सिर्फ मैं और तुम।

तुम्हारा प्रिय
 

Thursday, January 3, 2013

एक ख़त दामिनी के नाम

प्रिय दामिनी,

मुझे पता हैं, मेरे पिछले ख़त की तरह ये ख़त भी तुम्हे नहीं मिलेगा फिर भी मैं ये ख़त लिख रहा हूँ। दामिनी मुझे पता हैं की आजकल तुम बैकुंठ में विराज स्वर्गलोक का आनंद ले रहे होंगी। लेकिन फिर भी अगर समय मिले और ये ख़त मिले तो पूरा जरुर पढना। दामिनी मुझे पता हैं अब ब्रह्मषि नारद भी मर्त्यलोक का चक्कर नहीं लगाते, भूलोक का कृत्य देखकर अब वो भी लजाने लगे हैं लेकिन फिर भी लिखे जा रहा हूँ।
दामिनी बस ये पूछना चाहता था की क्यों इस तरह रात के अँधेरे में तुम हमें छोड़कर चली गयी। क्या इतना भी नहीं सोचा की कैसे जियेगा तुम्हारा ये भाई तुम्हारे बिन। बहन मुझे पता हैं पूस की ये रात तुम्हारे लिए दुष्कर और दुसहः था तुम्हारे लिए और उससे भी दुसहः था तुम्हारा वो दर्द जो उन पापियों ने दिया था तुम्हे, लेकिन इस तरह लाखो लोगो के आशाओं पर तुषारापात कर तुम्हे विदा नहीं लेनी चाहिए।
प्रिय बहन मुझे ये भी पता हैं की तुम नहीं जीना नहीं चाहती थी इस दुष्ट संसार में, सोच रही होंगी तुम की कैसे ढोंउगी मैं अपना ये अपवित्र देह। लेकिन बहन तुम क्यों भूल गई की गंगा कभी अपवित्र नहीं होती चाहे क्यों ना बहा दी जाए उसमे दुनिया जहान की गंदगी। क्यों तुम भूल गयी थी तुम पवित्र थी आज भी उतनी ही जितना थी पहले। एकदम गंगा की तरह साफ़ और निर्मल। बहन क्या दुष्टों की दुनिया से इस तरह मुँह छिपाकर अँधेरी रात में विदा लेना कायरता नहीं हैं। क्यों नहीं रुकी तुम इस दुनिया में उस दुष्टों के संहार के लिए, क्यों भूल गयी तुम की अनाथ हो जायेगी वो सारी अबला तुम्हारे बिन जिसके अरमान जगे थे तुम्हारे मुहीम से। हाँ बहन! तुम्हे पता हैं कितना आंदोलित हुआ हैं ये देश तुम्हारे साथ हुए अन्याय पर, कितना रोया हैं, कितना दर्द हुआ हैं, लेकिन दामिनी जो भी हो तुमने झंकझोर कर रख दिया उनकी आत्मा को, जो  कल तक  लाज की गठरी और चूड़ियाँ पहने घर में बैठी थी समाज और सरकार के डर से वो अब बाहर आ रही हैं; हक़ और इन्साफ के लिए।

प्रिय बहन तुम्हे पता हैं, तुम्हारी ये शहादत बेकार नही जाने वाली, देश की दामिनी अब जाग गयी हैं। जम्मू की खबर तो तुम्हे मिल ही गयी होगी किस तरह तुम्हारी बहादुर बहन ने गुंडों के को मुंह तोड़ जवाब दिया था। अब वो सब भी मुंह छिपाकर जुल्म और अत्याचार को नहीं सहती बल्कि सीना चौड़ा कर उसका सामना करने लगी हैं और ये सब सिर्फ तुम्हारे कारण हो पाया हैं।
प्रिय दामिनी एक बात और जो मैं तुमसे पूछना चाहता था - कभी मौका मिले तो पूछना उस भगवान् से की उसे तुम्हारी दारुण पुकार क्यों नहीं सुनाई दी थी। क्या हो गया था उस समय भगवान् को देश के लाखो लोग हाथो में मोमबत्ती लिए तुम्हारी सलामती की दुवा कर रहे थे? क्या उन लाखो लोगो की दुवा भी नहीं पहुँच पायी थी उन तक, अगर हाँ तो फिर क्यों नहीं भेज किसी हनुमान को तुम्हारे पास संजीवनी लेकार। या फिर देखने और सुनने की शक्ति कम हो गयी हैं उनकी। क्या वैद्धराज भी आकस्मिक छुट्टी पर चले गए थे जो नहीं कर पाए उनका इलाज़ सही समय पर। ऐसे कुछ सवाल हैं जिसे तुम जरुर पूछना।

अंत में, प्रिय मुझे पता हैं तुम खुद नहीं रहना चाहती थी इस जालिम समाज में जो जिन्दगी के बाद भी कदम-कदम पर तुम्हे उस गलती के लिए उलाहना देते जो तुमने किया ही नहीं था। बहन बस इतना कहना चाहूँगा की ये क्रांति की मशाल जो तुमने जलाई थी उसे खतम मत होने देना, और अगले जनम अगर मनुष्य देश मिले तो मेरी बेटी बनकर आना।