Sunday, January 31, 2021

विद्यापति पदावलीक आधारपर विद्यापतिक भक्ति वर्णन

 


उत्‍तर – महाकवि विद्यापति युग चेतनाक महान कवि तथा मिथिला संस्‍कारक महान भक्‍त छलाह । हुनक जतेक श्रृंगारि‍क तथा अन्‍य मांगलिक गीत सभक प्रचार- प्रसार भेल ताहिसँ कम लोकप्रि‍य हुनक भक्‍ति‍ गीत नहि भेल । अपितु लोकजीवनमे भक्‍तक रूपमे ओ बेस मान्‍य भेलाह । ‘विद्यापति गीतावली’क भक्‍ति‍ विषयक गीतक अध्‍ययन कयलासँ ज्ञात होइत अछि जे कवि मैथिल परम्‍पराक अनुरूप विभिन्‍न देवी-देवताक स्‍तुतिमे गीतक रचना कयने छथि‍ । एक दिसजँ ई गीतावली कविक श्रृंगारिक भावनाक निदर्शन करैत प्रमोपासक, सौंदर्यक –पारखी, माधुर्यक स्रष्‍टा आ सिद्धहस्‍त कलाकारक रूप प्रस्‍तुत करैत अछि तँ आन दिस एक भक्‍त कविक रूपमे शास्‍त्रीय आ लौकिक दुनू मार्गमे सामंजस्‍य स्‍थापित करबैत धर्म आ ईश्‍वरक प्रति समन्‍वयक भावनाक निदर्शन करबैत अछि ।

                  वैदिक परम्‍पराक अनुकूल मिथिला बहुदेवोपासक क्षेत्र थिक । ऋृगवेदमे विभिन्‍न देवक स्‍तुति गायन समानतन्‍मयताक संग भेल अछि मुदा भक्‍ति‍ भावनाक मूल उत्‍स वरूणसूक्‍तकेँ मानल जाइत अछि जकर कालांतरमे एकान्‍ति‍क भक्‍ति‍क रूपमे विकास भेला सहज स्‍वाभाविक अछि जकर सूत्रधार भेलाह महाकवि विद्यापति । हुनक भक्‍ति‍भावनाक व्‍यापक प्रभाव ब्रजभाषा अवधी आदि मध्‍यकालक भक्‍ति‍युगीनमे देखबामे अबैत अछि ।

                  विद्यापति भक्‍ति‍ गीत तीन कोटिमे विभाजित कयल जा सकैत अछि ।  पहिल कोटिक गीत मे शि‍व विषयक नचारी ओ महेशवानी अबैत अछि । दोसर कोटिक गीतमे अबैत अछि शक्‍ति‍ गंगा आ विष्‍णुक स्‍तुति तथा तेसर कोटिमे शान्‍ति‍पदकेँ राखल जा सकैत अछि ।

            यद्यपि विद्यापतिक गंगा स्‍तुति ओ भगवती सम्‍बन्‍धी अनेक गीतक रचना कयलनि जाहिमे हुनक हार्दिक निष्‍ठा व्‍यक्‍त भेल अछि मुदा परिमाण ओ परिणामक दृष्‍टि‍मे हुनक शैव विषयक गीत विशि‍ष्‍ट महत्‍वक अछि । हुनक ‘जय-जय भैरवी असुर भयाउनी’अथवा ‘कनक भूधर-शि‍खर वासिनी’ नामक गीत सबमे भगवतीक लीला-गायन तथा महिमा वर्णन अति विशि‍ष्‍टताक संग भेल अछि मुदा हुनक हार्दिकता शैव गीतहिमे व्‍यक्‍त भेल अछि ।

          विद्यापति शि‍व सम्‍बन्‍धी अनेक महेशवाणी ओ नचारीक रचना कयलनि जे हुनक उत्‍तारार्ध रचना थिक । विद्यापतिक शि‍वगीत मैथिली साहित्‍यक विशि‍ष्‍ट अंग थिक । भारतीय साहित्‍यमे एकरा विद्यापतिक मौलिक देन कहल जाइत अछि । विषयक दृष्‍टि‍मे ई सभटा महेशवाणी थिक आ जाहि भास वा लयमे एकर गायन प्रचलित अछि से नचारी कहबैत अछि । नचारीक सम्‍बन्‍ध नृत्‍यसँ अछि आ देखल जाइत अछि शि‍वभक्‍त महेशवाणीकेँ नाचि-नाचिकेँ गबैत छथि‍ । महेशवाणीक गायनमे ई नचारी ततेक लोक प्रि‍य भेल जे एकरा शि‍वगीतके बामान्‍तर बूझल जाय लागल । एकर प्रचार प्रसार दूर-दूर धरि भेल अछि आ एक गोट नचारीकाराक रूप मे विद्यापतिक निर्देश 15म शताब्‍दीमे जौनपुरवासी लखनसेनि आ 16म शताब्‍दीमे अबुल फजल द्वारा कयल गेल अछि । बंगाल ओ आसाममे नचारी एक प्रकारक छान्‍द‍िक प्रयोगक रूपमे प्रचलित भेल ।

                              महेशवाणीमे शि‍वक पारिवारिक जीवन जे मिथिलाक जीवनकेँ सवर्था अनुकूल अछि तथा हुनक अन्‍य लीला सभक गायन भेल अछि एवं नचारीमे शि‍वक महिमा-वर्णन ओ अपन आत्‍मसमर्पणक निवेदन अछि । एकटा भक्‍तक हृदयक निष्‍ठा ओ आस्‍था, विव्हलता ओ तन्‍मयता तथा दीनता ओ आत्‍मसमर्पणक भावना जे भक्‍ति‍गीतक विशिष्‍टता थिक से विद्यापतिक महेशवाणी ओ नचारी में व्‍यक्‍त भेल अछि ।

                  कविक काव्‍यमे विष्‍णु ओ शक्‍ति‍ गीतक प्रचुरता रहितहुँ शि‍व विषयक गीतक अपन पृथक अस्‍ति‍त्‍व अछि । हिनक शि‍व विषयक गीत वा नचारी मिथिलामे पदावलियोसँ बेसी ख्‍यातिकेँ प्राप्‍त कयने अछि । पदावली तँ विशेषत: स्‍त्रीगण समाजमे गाओल जाइत अछि मुदा पुरूष समाजमे तँ नचारिये प्रसिद्ध अछि । भक्‍त‍िभावक दृष्‍टि‍येँ शिव-विषयक गीतक जे महत्‍व अछि से राधा-कृष्‍ण सम्‍बन्‍धी गीतक नहि । तेँ विद्यापति अपन उत्‍तरार्धमे शिव सम्‍बन्‍धी महेश्‍वाणी ओ नचारी गीतक प्रचुर मात्रामे रचना कयलनिक।

                  शि‍व सम्‍बन्‍धी भक्‍ति‍गीतमे विद्यपतिक हार्दिकता अपन चरम स्‍थि‍तिमे अछि । आइयो मिथिलाक अनेको शि‍वमंदिरमे विद्यापति रचित शिव भक्‍ति‍ गीत महेशवाणी ओ नचारी अनेकानेक कंठसँ सुनबामे अबैत अछि जाहि गीतकेँ गबैत-गबैत शि‍व भक्‍त भाव-विव्‍हल भs जाइत छथि‍ आ ओहि बाटे जे केओ जाइत सुनैत छथि‍ ओ सेहो कुछु कालक लेल रूकिकेँ अकानिकेँ सुनैत भावविव्‍हल भs जाइत छथि‍ ।

       शि‍वजीक जीवन मिथिला ओ मैथिलक जीवनसँ बहुत कुछ साम्‍य रखैत अछि । मिथि‍लान्‍तर्गत डेग-डेग पर शिव-मन्‍दि‍र भेटैत अछि । कोनो न कोनो शुभ अवसर पर महादेवक नचारीसँ गीतक अन्‍त कयल जाइत अछि । मिथिलावासीक तं एहि प्रकारक धारणा रहैक जे गीतक अन्‍तमे जं शिवक नचारी नहि भेलतँ ओ अपूर्णे रहि गेला । एखनो बहुतो स्‍थलपर भक्‍त लोकनि शि‍वलिंगक समक्ष बैसि विद्यापतिक ई गीत बड्ड टानसँ गबैत अछि – कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ । वा शि‍व हो उतरब पर कओन विधि‍ ... आदि ।

        कविकोकिल एकगोट नटक रूपमे शि‍वक केहन विलक्षण वर्णन कयलनि अछि । पार्वति महादेवसँ नचबाक हेतु दुराग्रह करैत छथि‍ आ महादेव अनेक ब्‍याजसँ अपनाकेँ नचबासँ मुक्‍त करय चाहैत छथि‍ । द्रष्‍टव्‍य थि‍क –


आजु नाथ एक बार तं महासुख लाबह हे,  

तोहेँ शि‍व धरू नट बेस कि डमरू बजाबह हे ।

तोहेँ  गौरा कहै छह नाचए, हमे कोना नाचब हे,  

चारि सोच मोहि होए कओन विधि‍ बांचब हे ।


कविकोकिलक शि‍वभक्‍ति‍क वर्णन किछु विशेष महत्‍व रखैत अछि । जकर एक गोट महत्‍वपूर्ण कारण अछि हुनक सामिप्‍य प्राप्‍ति‍ । देखल वस्‍तुक वर्णन जेहन विलक्षण होइत छैक तेहन सुनल वस्‍तुक नहि । तुलसीदासकेँ रामक दर्शन भs गेलनितेँ रामचरित मानसक एतेक महत्‍व । किवदन्‍ती अछि जे शि‍व उगनाक रूपमे विद्यापतिक अनुचर छलाह । जखन विद्यापति एहि गप कs गुप्‍त नहि राखि‍ सकलाह तखन शि‍व अन्‍तर्धान भs गेलाह । आ कविक कण्‍ठ सँ बहरायल – उगना रे मोर कतय गेलाह ।

         विद्यापति रचित उपर्युक्‍त गीत सभमे भक्‍ति‍ भावना जाहि प्रकारें व्‍यक्‍त भेल अछि ताहिसँ लगैत अछि जे कविक आत्‍म समर्पण ओ आसक्‍ति‍ शि‍वक प्रति सर्वाधि‍क अछि । हिनक शि‍व सम्‍बन्‍धी गीतक भाषा सहज, सरल, आ स्‍वाभाविक अछि तथा ओहिमे भावुकताक अतिरेक अछि । हिनक महेशवाणी मे शि‍वक जे लीला आ नचारी मे जे शि‍क जे भक्‍तवत्‍सलता देखाओल गेल अछि ओ अन्‍यत्र भेटब दुर्लभ अछि ।

          विद्यापतिक स्‍तुति परक गीतक स्‍वतंत्र कोटि अछि । एहिमे कवि विद्यापति ने कोनो देवी-देवताक प्रार्थना करैत छथि‍ । फलत: एहिमे आराध्‍यक महिमा ओ भक्‍ति‍क असहायताक रूढ़ि‍ अभिव्‍यक्‍ति‍क पाओल जाइत अछि । भगवतीक वन्‍दना, कुलदेवीक रूपमे शक्‍ति‍क अराधनाक परिपाटी अछि एहि सन्‍दर्भमे प्रस्‍तुत गीत बड़ प्रशस्‍त अछि । देखल जाय – जय-जय भैरवी असुर भयाउनी पशुपति भामिनी माया...

गंगाक प्रति जे कविक आत्‍मीयता छलनि, गंगाक तरवाससँ जे सुखक उपलब्‍धि‍ छलनि पुन: पुन: गंगाक दर्शन-

लाभक जे लालसा छलनि ताहि सभकेँ लेल कविक एकटा पांति द्रष्‍टव्‍य थि‍क –

बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे-छोड़इत निकट नयन बह नीरे

कर जोडि़ बिनमओ विमल तरंगे, पुन: दर्शन होय पुनमति गंगे।

 

कृष्‍णवंदनाक एकटा गीतमे महाकवि कृष्‍णक गुण-कीर्तन करैत हुनक अपूर्व रूप ओ लावण्‍यकेँ देखि‍ विस्‍मि‍त-विमुग्‍ध भs कहैत छथि‍ -

माधव कत तोर करब बड़ाई, 

उपमा तोहर कहब ककरा सँ 

कहितहुँ अधि‍क लजाई ।

एहिमे कृष्‍णक गुण-गरिमाक निरूपण श्रीखण्‍ड, चन्‍द्रमा, मणि‍ कदली आदि समस्‍त प्रसिद्ध उपमा द्वारा कैल गेल अछि । वेदान्‍त परिभाषामे परब्रह्मक जे आत्‍मपरिचय होइत अछि ‘एकोsहं द्वि‍तीयो नास्‍ति‍’ताहिसँ स्‍वर मिलबैत अन्‍तत: कवि कहैत छथि‍ - तोहर सरिस एक तोहेँ माधव मन होइछ अनुमाने ।

            विद्यापतिक भक्‍ति‍गीतक एक विशेष प्रभेद थि‍क शान्‍ति‍पद । सम्‍भवत: जीवनक उत्‍तरार्धमे महाकवि विद्यापतिकेँ सांसारिक जीवनक प्रति निस्‍सारताक भानसँ वैराग्‍य भावनाक जन्‍म भेल । आ तेँओ एक दिस वैराग्‍य जन्‍य निर्वेदक शान्‍ति‍ गीत लिखलनि जाहि मे प्रमुख अछि – तातल सैकत वारि बिन्‍दुसम सुत मित रमनि समाजे । तोहे विसरिम‍न नहि समापल अब मझुहम कोन काजे । माधव हम परिणाम-निरासा ।

                  उपर्युक्‍त विवेच्‍य विषयक आधार पर निष्‍कर्षत: कहि सकैत छी जे विद्यापतिक भक्‍ति‍ वर्णनक गीतमे भक्‍ति‍भावनाक तरलता ओ हार्दिकता, उद्गगार ओ तल्‍लीनता, आंतरिकता ओ निष्‍ठा संग वर्णि‍त भेल अछि जे सिद्ध्‍स कs दैत अछि जे विद्यापति भक्‍ति‍ वर्णनक जे गीत लिखने छथि‍ से भक्‍ति‍भावनाक चर्मोत्‍कर्षपर पहुँचि गेल अछि । तेँ एक शब्‍दमे यैह कहल जा सकैत अछि जे विद्यापतिक भक्‍ति‍ वर्णन बड़ उत्‍कृष्‍ट कोटिक अछि ।

प्रश्नम– साओन भादवक आधार पर चिर-सोहागिनी आ चिर वियोगिनी कविताक भाव निरूपित करू । अथवा – साओन भादवक आधार पर संयोग श्रृंगार आ विप्रलम्भ श्रृंगारक उत्कर्ष देखाउ । अथवा – साओन भादवक आधार पर श्रृंगार रसक उत्कर्षसँ परिचय कराउ ?

 


उत्‍तर – अपन काव्‍य–सम्‍पादकक वैभव ओ अभिव्‍यक्‍ति‍क सामर्थ्‍यक ऐश्‍वर्यसँ परिपूर्ण, अपन कवित्‍व शक्‍ति‍ ओ पांडित्‍यक चम्‍तकारमे संतुलित, बहुमुखी प्रतिभा एवं बहुआयामी रचनात्‍मक व्‍यक्‍ति‍त्‍वक आचार्य, आधुनिक मैथि‍ली विशेषत: काव्‍य साहित्‍यक एकटा विभूतिये नहि अपितु एकटा उपलब्‍धि‍ थिक । प्रकृतिकेँ आलम्‍बन बनाकेँ, प्रकृतिक मानवीकरण करैत रसात्‍मक काव्‍यक सृजनकर्ता रस-सिद्ध कवि प्रो0 सुरेन्‍द्र झा सुमन विरचित साओन भादव (रसात्‍मक ऋतुगीत) चिर-सोहागिनी आ चिर-वियोगिनी शीर्षक कविता श्रृंगार आ विप्रलम्‍भ श्रृंगारक अजस्‍त्र धरि प्रवाहित भेल अछि जे कविक अप्रतिम प्रतिभा, सूक्ष्‍म पर्यवेक्षण, प्रोढ़ कल्‍पना आ विलक्षण अभिव्‍यंजना- शक्‍ति‍क परिचायक नहि तँ आओर की थिक ।

        साओन-भादव हिनक प्रकृति चित्रणमे आत्‍मानुभूतिक व्‍यंजना ओ भाव तथा कल्‍पनाक एहन सामंजस्‍य भेल अछि जाहिसँ काव्‍य अधि‍क प्रभावशाली भs गेल अछि । मानवीय करूणाक आरोपसँ हिनक सूक्ष्‍म भावुकता मूर्तिमान भs उठल आ एतबे नहि प्राकृतिक गयात्‍मक सौन्‍दर्य वर्णन सर्वदा भावुक हृदयकेँ आकर्षि‍त करैत अछि । काव्‍यक स्‍थि‍र गतिविधि‍क चित्रणक उपेक्षा गतिशील क्रिया-कलापक चित्रण-अधि‍क हृदयाकर्षक होइत अछि, तकर प्रमाण प्रस्‍तुत साओन-भादव पोथी पग-पग पर दs रहल अछि । किएकतँ कवि प्रकृति-सुन्‍दरीमे ओहि गतिशीलताक अपन कोमल भाव, तूलिकासँ एहन आह्लादकारी प्रभावोत्‍पादकता भरि देलनि अछि जे तदनुरूप मानवीय वृति ओहि-विधि‍क संग एकाकार होइत एकात्‍मकताक अुनभव करैत अछि । ओ कहैत छथि‍ - काव्‍यकलामे वास्‍तविकता एवं काल्‍पनिकता दुनूक सत्‍य समान सत्‍य थिक । आन देशक साहित्‍यक सम्‍बन्‍धमे वादक युगजे विभाजित भेल हो परंच भारतीय साहित्‍यक वस्‍तुमत्‍ता ओ व्‍यावहारिकता रूढि़ एवं प्रयोग दुनूमे सामंजस्‍य रखैत आयल अछि । स्‍वयं सुमनजी ओहि भावनाक संवाहक छथि‍ तेँ हिनक मन प्राणमे रचल-बसल ई भावना तदनूरूप अभिव्‍यक्‍त होइत चलैत अछि । प्रकृतिसँ उपादान ग्रहण कs ओकरासँ मानवोचित व्‍यवहार करयबाक एहन कला काव्‍य-सर्जनाकलेल रूढ़ अछि । किनतु खासकs सुमनजीमे ई प्रवृति अधिकाधिक देखल जाइत अछि । ई ओहि रूढू सर्जनात्‍मक भावनाक नवीनीकरण एनाकेँ करैत छथि‍ जे मनुष्‍यक शाश्‍वत भावनाक प्रभावमे प्रकृतिके प्रवाहित करैत रसराजत्‍वक प्रति अपन निष्‍ठा पाठकक सम्‍मुख निवेदिन कs दैत छथि‍ ।

           भिन्‍नता ओ विचित्रताकेँ बनौने राखबाक लेल कवि कविताक प्रेरक तत्‍वकेँ विविध दृष्‍टि‍कोणसँ दखैत छथि‍ आ ‘वाक्‍यं रसात्‍मक काव्‍यं’ केँ चरितार्थ करैत छथि‍, ठाम-ठामक प्रकृतिमे मानवीकरणसँ तँ अनेकठाम सहज लालित्‍ययुक्‍त ओ कारूणिक वर्णनसँ । मिथिलाक निष्‍कलुष ओ निर्मल वातावरणमे रहिकs सुमनजी अपन एकान्‍त साधनासँ विभिन्‍न प्रवृतिक अनुकूल मनोरम दृश्‍य सभक आयोजन एहि पोथीमे कयने छथि‍ । हिनक कविता प्राचीनता ओ न‍वीनताक संगम थिक, जाहिमे प्राचीनता छन्‍हि‍ हिनक प्राचीन विषय वस्‍तुक गहन अध्‍यन, अनुशीलन, ऐतिहासिक-पौराणि‍क कथा सभपर पूर्ण अधिकारतँ हिनक नवीनता छन्‍हि‍ समकालीन समाजक प्रति दायित्‍व निर्वाहक प्रति हिनक प्रतिबद्धता, आ हिनक दुनू दृष्‍टि‍कोणक परिचायक थिक ई ‘साओन-भादव पोथी ।

                ई रससिद्ध कवि छथि‍ तेँ सभ रसक रचना करबामे हिनका प्रकृष्‍टता प्राप्‍त छनि । एहि दृष्‍टि‍येँ हिनक ‘साओन-भादव’ ने‍ केवल हिनक रचना-मालामे, अपितु मैथि‍ली साहित्‍यमे अद्वि‍तीय कृति अछि । एहि पोथी मे केवल वर्षाऋृतुकेँ आधार बनाकs एगारहरो रसकेँ पृथक-पृथक शीर्षकक अन्‍तर्गत राखि‍ जे चमत्‍कार देखाओल गेल अछि से सहजहिँ मैथि‍ली काव्‍यक अभिव्‍यंजना क्षमताकेँ, एकर भाव-प्रवणताक शक्‍ति‍-सामर्थ्‍यक बहुत आगु बढ़ा दैत अछि । सभ रसक वर्णन एक रंग मोहक, एक रंग चित्‍ताकर्षक, एक रंग कल्‍पनाशील अछि, कोनो अंशककरोसँ न्‍यून नहि । ते तँ डा0 भीमनाथ झा कहैत छथि‍ - पढ़ैत काल बेर-बेर भान होइछ जेना लगले-लागल कल्‍पनाक राकेट निक्षेपित होइत हो ।

           आब एहिठाम हमरा श्रृंगाररसक उभय पक्ष संयोग श्रंगार ओ विप्रलम्‍भ श्रंगार अन्‍तर्गत साओन-भादवक चिर-सोहागिनी आ चिर-वियोगिनी शीर्षक कविताक भाव निरू‍पित करैत श्रृंगाररसाक उत्‍कर्षक प्रसंगे विचार करबाक अछि ।

        सामाजिक हृदयमे संस्‍काररूपसँ स्थित ‘रति’ स्‍थायी भाव जखन विभाव, अनुभाव एवं संचारीभाव सभसँ अभिव्‍यक्‍त भs आस्‍वादक विषय बनि जाइ‍त अछि तथा ओहिसँ जे आन्‍नद प्राप्‍त होइत अछि से श्रृंगार रस कहबैत अछि ।    

संस्‍कृतक अधि‍कांश आचार्यलोकनि श्रृंगाररसकेँ रसराजक नामसँ अभिहित कए एकरा सर्वप्रमुख स्‍थान प्रदान कयने छथि‍ । नवो रसमे श्रृंगारकेँ प्रमुखतम मानैत ध्‍वनिकारक कथन छन्‍हि‍

श्रृंगार रसोहि संसारिणानियमेन अनुभवविषयत्‍वात् । 

सर्वरसेय: कमनीयतया प्रधान भूत ।।

अन्‍य समस्‍त रसक अपेक्षा श्रृंगाररसक रस विशेष प्रभावोत्‍पादक मोहक एवं आकर्षक होइत अछि । एहि रसक प्रभाव जड़ एवं चेतन, चर एवं अच सभपर देखल जाइत अछि ।

        श्रृंगार दुइ शब्‍दक योगसँ बनल अछि – श्रृंग आ आर । श्रृंगक अ‍र्थ होइत अछि कामोद्रेक एवं आर केर अर्थ होइत अछि गति अथवा प्राप्‍ति‍ । अत: श्रृंगार शब्‍दक अर्थ भेल कामोद्रेकक बुद्धि‍क प्राप्‍ति‍ । आचार्य विश्‍वनाथ श्रृंगारक परिभाषा दैत कहने छथि‍ -

श्रृंगहि मन्‍मथोद्भेदस्‍तदागमन हेतुक: । 

पुरूषप्रमादाभूमि: श्रृंगार इति गीयते ।।

नायक नायिकाक मिलनक आधारपर श्रृंगार रस दुइ प्रकार होइत अछि – संयोग एवं विप्रलम्‍भ ।

संयोग श्रृंगार – नायक-नायिकाक परस्‍पर अनुकूल दर्शन, प्रेमोलाप, स्‍पर्श एवं आलिंगनदिक अनूभूयमान सुखक स्‍थि‍ति संयोग श्रृंगार थिक –

दर्शनस्‍पर्शनादीनि निषेवेते विलासिनी । 

यत्रानुरक्‍तावन्‍योन्‍य संभोगोsयमुदाहत: ।।

एहि साओन-भादव क संयोग श्रृंगारक ‘चिर-सोहागिनी’ शीर्षक कवितामे कवि कोन तरहेँ विभाव, अनुभाव ओ व्‍यभिचारी भावक संयोगसँ रसक निष्‍पति करैत छथि‍, से देखल जाय ।

      साओन भादवक भरल मेघकेँ देखि‍ सहरसा प्रकृति युवतीक ओ वयक हृदयमे बसि जाइत अछि, जाहिसँ विवशभs नव आशा-जिज्ञासा मनकेँ आन्‍दोलित करय लगैत अछि । तड़ि‍तक कटाक्षम, कदम्‍बक पुलकमे, जलदावलीक आकुल-अलकमे प्रेमवासनासँ वासित प्रेयसीक रूप-जीवन सहजहि आकर्षणक केन्‍द्र बनि जाइत अछि । द्रष्‍टव्‍य थि‍क –

‘चिर सोहागिनी प्रकृति प्रि‍या केर, भरल वयस ई साओन-भादव ।

ककर कटाक्ष तड़ि‍त चंचल अछि, ककर पुलक ई नव कदम्‍ब अछि

जल जाल बनि ककर अलख- आकुल, ई पसरल दिग् दिगन्‍त अछि

ततबे नहि केवल शोभे वा हावेभाव नहि प्रकृति-प्रि‍या आकाश पत्रमे वक-पाँतिक रूपमे मोतीसन अक्षरमे प्रेम-पत्र लिखबो आरम्‍भ करैत छथि, जकर आखर नित्‍य-नवीन-प्रेमीक आखि‍एँ पढ़बाक योग्‍य-बारंबार दोहरयबाक योग्‍य अछि । द्रष्‍टव्‍य थि‍क –

ककर बलाका ललित प्रेम-लिपि, गगन-पत्रमे अंकित नित नव

चिर-सुहागिनी प्रकृति प्रिया केर, तरल-वयस ई साओन-भादव ।।

आँखि जतय धरि पाँखि पसारि उड़ैत अछ, एकेरस, एकेदृश्‍य ओकर लब्‍ध-विमुग्‍ध करैत अछि । चंचल स्‍त्रोतस्‍वि‍नी सिन्‍धुक संगमक उल्‍लासमे तरंगित होइत छथि‍, वन-वल्‍लरी समीवर्ती तरूक बाहु-शाखामे लतरैत-चतरैत अछि ओ स्‍वयं सुन्‍दरी वसुन्‍धर वासक सज्‍जा नायिका जकाँ ऋृतुक अनुकूल सुगापंखी साड़ी पहिरी, दुभिक मखमली सेज सजाय, प्रि‍‍यतम प्रतीक्षामे उच्‍छवासित भs उठैत छथि‍ ।

कवि केहन विलक्षणताक संग ‘साओन-भादवक संयोग-श्रृंगारक चिर-सोहागिनी शीर्षक कवितामे विभाव, अनुभाव ओ व्‍यभिचारी भावक संयोग सँ रसक निष्‍पत्‍ति‍ करैत छथि‍ से वासकसज्‍जाक चित्रणसँ स्‍पष्‍ट अछि । एहिठाम वसुधा जे वासकसज्‍जा नायिकाक रूपमे चित्रि‍त छथि‍, आलम्‍बन विभाव छथि‍ । दुभि-सेज आपवसक कारण लोक छाहमे रहिते अछितेँ स्‍थायीभाव होयतैक रति, प्रेमालाप करबा इच्‍छा । उपर्युक्‍त पॉंतिमे देखैत छी जे तरू आ लता रूपमे आलिंगन आ कटाक्ष निक्षेप सेहो चलिये हल अछि तेँ अनुभावो छैक । पुन: सरिताक उमड़व आ सिन्‍धुक संग-संगमे करब व्‍यभिचारी भाव भेल ।

                एहिमे केहन कल्‍पनाक उड़ान अछि । कतेक यर्थाथ चित्र उपस्थित कयल गेल अछि । श्रृंगारक संयोग पक्षक चित्रण करैत श्रृंगाररसक परिपाकमे कवि पूर्ण सफल भेलाह अछि ।

        ततबे नहि दिन नायक रजनी नायिकाक संग मेघक रेशमी चादरि घटाटोप कय तानि एकाकार भs अद्वैत रसानन्‍दक अनुभव कs रहल छथि‍ । मेघक घनान्‍धकरमे रातिमे कोनो भेद नहि अछि । ई पावसक सहज चमत्‍कारक थि‍क – द्रष्‍टव्‍य थिक –

                        दिन-रजनी घन-पट आवृत भय

                        एकाकार, न अछि विभेद लव ।

दिन ओ रजनी रूपी नायक-नायिकाक एकाकार होयब संयागे श्रृंगारक पराकाष्‍ठा थिक । सम्‍पूर्ण कवितामे प्रकृतिक मनोरम मानवीकरण भेल अछि । गगनक पत्रमे प्रेम लिपि अंकन, दुभि-सेजपर हरीतिमाक पट-पहिरि वासक सजजक उपस्‍थि‍ति मनोरम विम्‍बकेँ प्रकट करैत अछि । सम्‍सत ‘चिर-सोहागिनी’ शीर्षक कविताक श्रृंगारमे रचित अछि जाहिमे मिलनजन्‍य मादकता मनोमालिन्‍यकेँ नष्‍ट कयने अछि आ श्रृंगारक संयोग-पक्षक एहन चित्‍ताकर्षक चित्रकेँ उपस्‍थापित कs देने अछि जे श्रृंगारसक अजस्रहार सहजहि टप-टप टपकि रहल अछि, जे श्रृंगाररसक अद्भुत परिपाक नहि कहल जाइत त की कहल जायत ।

        एहन श्रृंगाररसक संयोग श्रृंगारक रसात्‍मक वर्णन अन्‍यत्र भेटब दुर्लभ अछि, जे कविक अप्रतिम प्रतिभा ओ कल्‍पनाशक्‍ति‍क परिचायक अछि । आब जखन श्रृंगार विप्रलम्‍भ श्रृंगार पक्षक अन्‍तर्गत साओन-भादवक ‘चिर-वियोगिनी’ शीर्षक कविता पर दृष्‍टि‍पात करैत छी तँ देखैत छी जे कवि प्रकृति प्रि‍याक वियोगिनी वेशक चित्रण आओर विलक्षणताक संग कयने छथि‍, जे कविक उदारता छियनि जे अपन एहि काव्‍यमे श्रृंगारक दुनू पक्षक मनोरम चित्रण करैत श्रृंगाररसक साकार चित्रकेँ प्रस्‍तुत कयलनि अछि । वियोग श्रृंगारक वियोग, विगलित हृदयक मधुर स्‍वर काव्‍यक रूप ग्रहण करैत अछि आ कवि काव्‍य सर्जनाक लेल प्रस्‍तुत भs जाइत छथि‍ । श्रृंगारक शरीर जँ संयोज तँ वियोग थिक प्राण प्राप्‍ति‍मे अनुराग सीमित-केन्‍द्रि‍त भs जाइछ, किन्‍तु अभावमे असीम ओ व्‍यापक। नख-शिख रूप-कल्‍लोलमे जे जतेक रस-सिन्‍धु उमड़ौक से सभ अॅटि-घटि जाइछ वियोगिनीक आकुल प्रेकाश्रुक एक बिन्‍दुमे । साओन-भादवकेँ सोहागिनी प्रकृतिक भरल वयस कहि,पुन: ओकरे वियोगिनीक सजल आँखि मानल गेल आ एवं रूप जगतसँ भाव-भुवनमे कल्‍पनाक अवतारणा कयल गेल अछि ।

        प्रकृति प्रि‍या वियोगिनीक वेशमे ठाढि़ छथि‍ । हुनक सजल आँखि साओन-भादव रूपमे आकाशकेँ छापि लेने अछि । विरहक तापसँ जे हृदयक भाफ बनल ओ आषाढ़क प्रथम दिवसमे ऋृतुवायुक सहानुभति पाबि घनीभूत भs गेल क्रमश: पावसक पलक पर उतरैत बिन्‍दु-बिन्‍दु जीवन-यौवनके टप-टप गलबय लगाल । मेघ आन किछु नहि करूण रूपे गलि-गलिकय बरसि रहल अछि । हुनकहि व्‍यथा पूर्ण मार्मिक वेदनाक कथा कहि रहल अछि ।

        युग पूर्व तपोवनाससिनी शकुन्‍तला जे पति दुष्‍यन्‍तक स्‍मृति परितापसँ कानल छलीह । आदिकवि वल्‍मीकिक आश्रमक साक्षात कविता मैथि‍ली जे करूणाक आदि स्‍त्रोत बनलि छलीह एवं वृन्‍दावनक प्रेमयोगिनी राधा, जे ब्रजसुन्‍दरक विरह-बहिन मे तपितपि बरकल छलीह – हुनके लोकनिक अश्रुकणकेँ समेटि-बटोरि युग-युगसँ आइ धरि पावसक मेघ बरसि रहल अछि ।

       विप्रलम्‍भ श्रृंगारक शीर्षकमे चिर-वियोगिनी प्रकृति प्रि‍याक आँखि साओन-भादवक ब्‍याजेँ अश्रूपूर्ण अछि । जीवनक स्‍थूल ओ सूक्ष्‍म कायामे प्रकृतिक आच्‍छादन अछि । जीव सुख-दुखक भोक्‍ता थिक । भोग प्रकृति-सम्‍भूत विकारिक परिणाम थिक । एहि कारणें पावसक पुलक वेदना बोझिल अछि तथा जीवन-यौवन टप-टप गलि रहल अ‍छि । ग्रीष्‍मतापित तन विरहताप थिक । ग्रीष्‍मक अर्थे होइत अछि ‘ग्रस्‍यन्‍ति‍ रसान्’ एहि लेल साओन-भादवक चिर-वियोगिनी शीर्षक कविताक निम्‍नपाँति द्रष्‍टव्‍य थि‍क –

विरह-उष्‍म ग्रीष्‍म-तापित तन, प्रथम दिवस आषाढ़क उन्‍मन ।

पावस-पलक वेदना दुर्भर, टप-टप गलइछ जीवन यौवन ।

तकरहि मर्मम व्‍यथा-कथा कहि, रहल गलित भए जलद करूणरस ।

चिर-वियोगिनी प्रकृति प्रिया केर , भरल आँखि ई साओन-भादव ।।

जखन  कवि विप्रलम्‍ब श्रृंगारक वर्णन करs लगैत छथि‍तँ वियोगक कारणेँ अश्रु प्रवाहित होयब स्‍वाभाविके मुदा से अश्रु एहिठाम स्‍वाभाविक नहि रहि जाइत अछि । करूणरसक भरल स्‍त्रोत यथा परित्‍यकता शकुन्‍तला, पतिवत्रा सीता तथा चिर-विरहणी राधा इत्‍यादि सभक अश्रुकण एकत्रि‍त कs साओन-भादव ब्‍याजे वर्षा करबैत छथि‍, जाहिसँ करूणात्‍मक धार फुटि पड़ैत अछि । द्रष्‍टव्‍य थिक –

की अरण्‍य-क्‍नया पतित्‍यक्‍ता, वा वाल्‍मीकि आश्रमक कवित

वृन्‍दावन-योगिनी वियोगिनी, चिर-अनुरक्‍ता तदपि वंचिता ।

संचित कय की तकर अश्रुकण, बिन्‍दु-बिन्‍दु बरिसय घन अनुभव

चिर-वियोगिनी प्रकृति प्रियाकेर, भरल ऑंखि ई साओन –भादव ।

उपर्युकत विवेच्‍य विषयक आधार पर कहि सकैत छी जे जहिना श्रृंगार रसक रसराजत्‍व सर्वविदित अछि, तहिना रससिद्ध कवि ‘सुमन’ जीकेँ सेहो श्रृंगार रस अधिक प्रि‍य छन्‍हि‍ । श्रृंगारक विप्रलम्‍भ स्‍वरूपक जाहि रूपेँ वर्णन कयने छथि‍ ताहिमे कविक हृदयक तल्‍लीनता देखते बनैत अछि । संयोगक सुख अस्‍थायी ओ वियोगक सुख मानव मोन पर स्‍थायी प्रभाव देनिहार होइत अछि । संयोग मोनक बाह्य स्‍तरकेँ स्‍पर्श करैत अछि तँ विायोगमे हृदयक तार झंकृत भs उठैत अछि ।

       वियोगमे प्रेमक प्रवृतिक अधि‍क प्रसार होइत अछि, एतेक धरिजे चराचर जगतसँ आत्‍मीयताक बोध होमs लगैत अछि जाहिसँ वियोगमे वियोगी अपन दु:ख-गाथा-वृक्ष्‍स, पशु-पक्षी तकरो सभकेँ सुनाकय लगैत अछि । निष्‍कर्षत: कहल जा सकैत अछि जे साओन-भादवक चिर-सोहागिनी आ चिर-वियोगिनी शीर्षक कवितामे श्रृंगार आ विप्रलम्‍भ श्रृंगारक अद्भुत भाव निरूपित भेल अछि जे श्रृंगाररसक उत्‍कर्षकेँ प्रतिपादित करैत अछि ।