एक समय था जब पूर्णिया बिहार प्रान्त के लिए काला पानी के नाम से कुख्यात था। दुर्गम जंगल और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद आदिवासियो ने इस इलाके को स्वर्ग बनाया। लेकिन इन भूमिपुत्रों को आज भू-माफियायों कि नज़र लग गयी हैं। आज यही आदिवासी भू-माफियाओ के वजह से अपने अस्तित्व की लड़ाई के लिए पिछले कई दिनों से हाथो में तीर कमान लिए घूम रहे हैं। पुरे बिहार की पुलिस अब एसटीएफ के संग मिलकर इनका समूल नाश करने में लगी हैं। नाम दिया हैं ऑपरेशन अगस्त-नगर। मंशा हैं आदिवासियों के कब्जाए जमीन को खाली करवा कर वहाँ के भूमि माफियाओ को ऊँचे कीमत पर बेचना। प्रशासन चुप हैं, नेता शांत हैं, शायद सब अपना भला खोज रहे हैं। किसी को फिकर नहीं। और शायद यही एकमात्र कारण हैं कि बिहार में एक दर्जन से ज्यादा आदिवासी विलुप्त हो गए हैं और जो कुछ बचे हैं वो विलुप्ति के कगार पर।
कभी वनों से आच्छादित रहें पूर्णिया में जनसँख्या बढ़ोतरी का यह एक अजीब दुस्प्रभाव हैं। इंसानो ने अपने बढ़ते तादात के कारन जंगल तो साफ़ किये ही; लेकिन ये भूल गए कि इनके साथ जंगल में बसने वाले उन हज़ारो जीवों का भी नुक्सान पहुंचाया। यहाँ बास करने वाली करीब आधा दर्जन आदिवासी जनजातियाँ आज विलुप्ति के कगार पर हैं। एक समय था जब ये आदिवासियों की पहचान जमींदार के रूप में होती थी, लेकिन शिक्षा का अभाव और भोले-भाले होने के कारण भू-माफियायों ने इनका जमकर फायदा उठाया और आज हालत ये हैं की ये जनजातियां यहाँ इक्का दुक्का ही हैं। 1770 में बिहार में पड़े भयानक अकाल के बाद अंग्रेजो के द्वारा आदिवासियों का इस इलाके में पदार्पण हुआ। हट्ठे-कट्ठे शारीर के मालिक इन आदिवासियों के लिए यहाँ की भौगोलिक संरचना काफी मुफीद थी। अंग्रेजो ने इन आदिवासियों को यहाँ सड़क बनाने के काम के लिए लाया था। लेकिन अंग्रेजो का मुख्य उदेश्य दार्जिलिंग में चाय कि खेती और नेपाल से टैक्स वसूली था। ऐसा कहा जाता हैं कि श्रीनगर प्रखंड के जगेली स्थित दस नंबर सड़क आंग्ल-नेपाल युध के समय आदिवासियों ने बनाया था और इसी मार्ग से होकर अंग्रेजो ने नेपाल पर चढ़ाई की थी। अंग्रेजो ने यहाँ आदिवासियों की लगभग एक दर्जन जनजातियां बसाई थी जिसमे संथाली, उरांव, मुंडा, बेदिया, खरवार, लोहरा, माल, पहाड़िया, सूर्या पहाड़िया, खरिया, लोहरा-लोहार, आदि शामिल हैं। पहले यहाँ का पानी काले रंग का होता था, पानी के निकलने कि कहीं व्यवस्था नहीं थी, लोग इस इलाके में आने से कतराते थे, पूरा इलाका जंगल और गंदे पानी से भरा होता था और यही कारन हैं की इस जगह को यहाँ के काला पानी के नाम से जाना जाता था। लेकिन 1934 में आये भयंकर भूकम्प ने इस इलाके के पानी को साफ़ कर दिया और यही बाढ़ का पानी इन आदिवासियों के नसीब को भी इनसे छीन ले गया। गैर आदिवासी इस और आकर्षित होने लगे और धीरे-धीरे गैर आदिवासियों का यहाँ जमावड़ा होने लगा और साथ ही होने लगा जंगल साफ़ होने का सिलसिला। लोग आते गए जंगल कटते गए और साथ ही कटते गए इन आदिवासियों के सर। जंगल साफ़ होने के कारण इन आदिवासियों को अपने भरण-पोषण में काफी दिक्कते आने लगी। प्रकृति की गोद में रहनेवाले ये लोग खुले आसमान के निचे आ गए। ना तो जमीन बची और ना ही बची वो हरे भरे पेड पौधे जिनका उपयोग ये पाने दैनिक जीवन में खाने, पीने और जीने के लिए किया करते थे। हाल के कुछ वर्षो में शहर का विकास हुआ तो जमीन की कीमतें भी आसमान छूने लगी। रोजी रोजगार और शिक्षा के आभाव के कारण भूमि-माफियाओ ने इन भोले भाले आदिवासियों को अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया। अभी हाल ये हैं शहर की आसपास की कई ऐसी जमीन हैं जिनको लेकर आदिवासी और भू-माफियाओं में ठनी हैं।
मानव जाती के इतिहास के अध्ययन में ये जनजातियां जिवंत दस्तावेज कि तरह हैं। इस धरती पर इंसान के विकास के क्रम का आदिवासी हीं सभ्यता का सूत्रधार हैं। हड़प्पा युगीन मिटटी के बर्तनो और आभूषणो को देखकर तो यही लगता हैं कि आदिवासियों ने ही सभ्य समाज की नीव रखी हैं। यही नहीं, वैदिक काल में भी हमें इसकी परंपरा लिखित तौर पर मिलती है। वैदिक ग्रंथो में जो ‘’जन’’ शब्द का उल्लेख है वह जन वाकई जनजाती ही है। वास्तव में आदिवासी शब्द आदि और वासी से मिलकर बना है जिसका अर्थ होता है मूल निवासी। भारत की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा इन आदिवासियों का है। प्राचीन संस्कृत ग्रंथो में इन आदिवासियों को वनवासी भी कहा गया है। ऐेतहासिक और पौराणिक रुप से भगवान शिव भी मूलत: एक आदवासी देवता थे। हड़पा में मिली पशुपित योगी की मुहर इसका एक प्रमुख प्रमाण है। बाद में आर्य ने भी उन्हें देवताओं के त्रयी यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप में स्वीकार किया। आदिवासियों का जिक्र रामायण में भी मिलता हैं, जिसमें राजा गोह और उनके प्रजा चित्रकूट में वनवास के समय श्रीराम की सहायता करती है। आधुनिक युग में एक आदवासी बिरसा मुंडा एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ एक धार्मिक नेता भी थे। महात्मा बुद्ध की शरण में आया अंगुलिमाल डाकू भी एक आदवासी हीं था।
आधुनिकीकरण के कारण आदवासी समूह के पर्यावरण का पतन हो रहा है। जसके प्रति ये आदवासी काफी संवेदनशील हैं। व्यावसायिक वानिकी और गहन कृषि दोनों हीं उन जंगलों के लिए विनाशकारी साबित हुए है, जो कई शताब्दियों से आदवासियों के जीवन यापन का स्त्रोत रहे थे। यही नहीं, पर्यटन ने भी इन आदवासियों के संस्कृति में कील ठोकने का काम किया है। लोककलाएं और उन्हें जीवन देने वाली जनजातियों के समक्ष आज खुद अपने अस्तित्व को बचाए रखने की चुनौती आ खड़ी हुई है।
क्या है अगस्त नगर का मामला - पूर्णिया के हरित इलाके अगस्त नगर कालांतर में आदिवासी बहुल इलाका था जो जनसंख्या वृधि के कारन धीरे धीरे ख़तम होता गया। और अब भू-माफिया इस पर नज़र गड़ाएं हुएं हैं। मिल्लिया एजुकेशनल ट्रस्ट की 120 एकड़ जमीन पर एक नीजी कॅालेज खोलने की योजना बना रहा है। ज्ञात हो की ये जमीन विवादित रही हैं और आदिवासियों का यहाँ पर शुरू से कब्ज़ा रहा हैं। करीब डेढ़ साल से पुलिस की मदद से इस जमीन को खाली करने की कवायद की जा रही हैं पुलिस बीच-बीच में इस जगह कि रेकी भी कर रही थी और आदिवासियों पर जोड़ जबरदस्ती करके वहाँ कि जमीन खाली भी करवा रही थी। इसी बीच आदिवासी कई बार उग्र भी हुए सड़क भी जाम किया और पुलिस के साथ मुठभेड़ भी कि लेकिन कल जो हुआ वो दिल दहला देने वाला था। हज़ारो की संख्या में पहुंची पुलिस ने करीब 50 से ज्यादा घरो में आग लगा दी और मासूम आदिवासियों पर फाइरिंग और आंसू गैस के गोले छोड़े। बुलडोजरों से घरो को तोडा जा रहा हैं और सैकड़ों घरो को बेघर किया जा रहा हैं। आदिवासी पुलिस के आधुनिक हथियारों का मुकाबला तीर और परम्परागत हथियारों से कर रहे हैं। प्रशासन बेखबर हैं और पुलिस दमनकारी निति अपना रही हैं। पूर्णिया के सांसद उदय सिंह उर्फ पप्पू सिंह की माने तो "जिला प्रशासन एवं पुलिस की विफलता का परिणाम है अगस्त नगर का भूमि विवाद। पांच माह बीत जाने के बावजूद इस मुद्दे का हल नहीं होना यही साबित करता है कि प्रशासन इसको लेकर गंभीर नहीं है।"
एक प्रत्यक्षदर्शी चिन्मय सिंह के अनुसार - ''मैं मौजूद था देर रात तक वहाँ। सुनने में सुबह से ही प्रमंडल के सारे आलाधिकारी मुख्यमंत्री के साथ वीडियो कोंफ्रेंसिंग कर बलप्रयोग की अनुमति मांग रहे थे। बारह बजे के बाद शायद अनुमति मिल गयी, क्योंकि अधिकारियों का बड़ा जत्था परोरा रवाना हो गया और साथ में छःजिलों से मगाई गयी पुलिस बल। दस एम्बुलेंस,दो शववाहन,फायर ब्रिगेड की कई गाड़ियां,करीब सात-आठ की संख्या में बुलडोजर, इत्यादि। यहाँ पर पहले से ही बड़ी संख्या (लगभग हज़ार) में स्थानीय ग्रामीण और भाड़े के लठैत बांस बल्लों और लाठी से मुस्तैद होकर (अंगरेजी में कहें तो 'मिलीशिया') प्रशासन का उत्साहवर्धन करने वाले नारे लगा रहे थे। अगस्त्यनगर के आदिवासियों का जत्था इस भीड़ को देखकर पहले तो कुच्छ-कुछ खाली होना शुरू हुआ, लेकिन जब मिलीशिया और पुलिस लगभग डेढ़ सौ मीटर की दूरी पर पहुँच गए, तो 99 प्रतिशत से ज्यादा आदिवासी अपने पारम्परिक हथियारों के साथ भाग गए। नवीन महतो को मैंने खुद अपनी आँखों से भागते देखा।(वहाँ भागने के सिवाय कोई दूसरा विकल्प नहीं था इनके पास) अब सबसे आश्चर्यजनक नज़ारा था। नागरिकों की सेना पुलिस के साथ मिलकर इस बस्ती में आग लगाते हुए। बुलडोजर चल रहे हैं, और चारों तरफ हर चीज़ में आग लगाई जा रही है। सैकड़ों घरों की इस बस्ती को धू-धू कर जलाते हुए लोगों की भीड़ के हाथ जो कुछ आ रहा है, सब लूट कर ले जा रहे हैं। करीब बीस मिनट बीते कि एक तीर कहीं से आकर गिरा। किसी को लगा नहीं। सबका ध्यान उधर गया, एक 20 साल का नौजवान करीब 80 मीटर की दूरी से हज़ार से ज्यादा की भीड़ को अकेले चुनौती दे रहा है।अद्भुत दृश्य था। उसने करीब बीस तीर चलाये, आखिरकार उसे घेरकर पकड़ लिया गया,और इतना पीटा गया कि शायद ही उसकी जान बचे। लेकिन सदर अस्पताल में अभी तक वह ज़िंदा है। इसी तारा कुल सत्रह आदिवासियों को पुलिस ने पकड़ा, किसी को भागते हुए ...तो किसी को लुका छिपी करते हुए। पुलिस ने गोली भी चलाई, जिसमें एक आदिवासी को पैर में गोली लगी। आधिकारिक पुष्टि के अनुसार एक आदिवासी की मौत हुई, जबकि सूत्रों के अनुसार संख्या ज्यादा हैं। मिलीशिया एकदम से मध्ययुगीन परिवेश का नज़ारा करवा रहा था। बाद में पता चला कि आदिवासियों ने कई पुलिसकर्मियों को बंधक बना रखा है, लेकिन मेरी जिलाधिकारी से रात करीब दस बजे घटनास्थल पर ही मुलाक़ात हुई, मेरे बंधक वाले सवाल को उन्होंने पूरी तरह से खारिज करते हुए कहा कि ''ऐसा कुछ भी नहीं है''। अभी फिलहाल अपडेट यह है कि कुल सात पुलिसकर्मी (एक थाना प्रभारी, एक ए एस पी. अन्य सिपाही) घायल हैं, सत्रह आदिवासी हिरासत में हैं। नवीन महतो को आज सुबह वहीं पास के एक गाँव से गिरफ्तार कर लिया गया है।''
भारतीय संवधान के अनुछेद 14(4), 16(4), 46, 47, 48(क), 49, 243(घ)(ड), 244(1), 275, 335, 338, 339, 342 तथा पांचवी अनुसूची के अनुसार अनुसूचित जनजातिय के राजनैतिक, आर्थिक, सांकृतिक तथा शैक्षणिक विकास जैसे कल्याणकारी योजनाओं के विशेष आरक्षण का प्रावधान तथा राज्य स्तरीय जनजातीय सलाहकार परिषद की बात कही गई है परंतु इसे अब तक लागू नही कर पाना वाकई सरकार के लिए चिंता का विषय है। यह सर्वविदित है की आदवासी क्षेत्रों में उपलध खनिज संसाधन से सरकार को अरबों रूपए के राजस्व की प्राप्ति होती है या सीधे शब्दों में कहा जाए तो सरकार के आय के स्त्रोत इन आदवासी क्षेत्रों में उपलब्ध वन संसाधन तथा खनिज संसाधन ही हैं, परंतु इस राजस्व का कितना प्रतिशत हिस्सा उन अनुसूचित क्षेत्रों के राजनैतिक, सामाजिक वा आर्थीक विकास में खपत किया जाता रहा है। अनुसूचित क्षेत्रों में सरकार द्वारा स्थापित उद्योंग-धंधों से प्रभावित परिवारों को दान की जाने वाली मुआवजा राशि की बात हो, विस्थापित परिवार के सदस्य को नौकरी का मुद्दा हो, विस्थापित परिवार के सदस्य के शेयर होल्डिंग तय करने की बात हो तथा अनुसूचित क्षेत्रों के विकास हेतु स्वायत्ता स्थापित करने की बात हो इन सभी मुद्दे पर सरकार को वाकई गंभीरतापूर्वक विचार करने की जररत है, तभी देश के आदवासियों की स्थिति में सुधार हो पाएगा।
साल २००६ के १३ दिसंबर को लोकसभा ने ध्वनि मत से अनुसूचित जाति एवम् अन्य परंपरागत वनवासी(वनाधिकार की मान्यता) विधेयक(२००५) को पारित किया। इसका उद्देश्य वनसंपदा और वनभूमि पर अनुसूचित जाति तथा अन्य परंपरागत वनवासियों को अधिकार देना है।
• यह विधेयक साल २००५ में भी संसद में पेश किया गया था, फिर इसमें कई महत्वपूर्ण बदलाव किए गए जिसमें अनुसूचित जनजाति के साथ-साथ अन्य पंरपरागत वनवासी समुदायों को भी इस अधिकार विधेयक के दायरे में लाना शामिल है।
मूल विधेयक में कट-ऑफ डेट (वह तारीख जिसे कानून लागू करने पर गणना के लिए आधार माना जाएगा) ३१ दिसंबर, १९८० तय की गई थी जिसे बदलकर संशोधित विधेयक में १३ दिसंबर, २००५ कर दिया गया।
• परंपरागत वनवासी समुदाय का सदस्य वनभूमि पर अधिकार अथवा वनोपज को एकत्र करने और उसे बेचने का अधिकार पाने के योग्य तभी माना जाएगा जब वह तीन पीढ़ियों से वनभूमि के अन्तर्गत परिभाषित जमीन पर रहता हो। कानून के मुताबिक प्रत्येक परिवार ४ हेक्टेयर की जमीन पर मिल्कियत दी जाएगी जबकि पिछले विधेयक में २.५ हेक्टेयर जमीन देने की बात कही गई थी।