जिस प्रकार से प्रांत के दस हजार से अधिक मास्टर साहब कक्षा पांच की परीक्षा भी पास नहीं कर पाये, उच्च शिक्षा के लिए भी जिस प्रकार से बिहार में हंगामा मच रहा है और केंद्रीय विश्वविद्यालय के लिए जिस प्रकार से राज्य और केंद्र में तनाव देखा जा रहा है, ये सब सोचने के लिए मजबूर कर देता है कि सही में बिहार कभी शिक्षा का केंद्र था और क्या बिहार फिर शिक्षा का केंद्र बन सकता है? क्या नालंदा से जो यात्रा शुरू हुई थी वो यात्रा नालंदा पर जा कर रूकेगी या आगे बढेगी। क्या ‘बेरोजगार पैदा करने की फैक्ट्री’ के नाम से मशहूर हो चुका बिहार का विश्वविद्यालय रोजगार का रास्ता दिखाने में कामयाब हो सकेगा? फिर से उस मुकाम तक पहुचने के लिए ये समझना ज्यादा जरूरी है कि हम उस मुकाम से नीचे कैसे आ गए। क्या बिना उस कारण को समझे बिहार में शिक्षा का विकास का नारा देनेवाले शिक्षा के क्षेत्र में बिहार को फिर से अगली पंक्ति मे खड़ा कर पाएंगे। कुछ ऐसे ही सवालों के उत्तर ढ़ढ़ने की कोशिश की है जो ये समझने में मददगार होगा की बिहार में कैसे कालखंड के संग शिक्षा का स्तर खंडित होता गया।
बिहार, वो जमीन है जहॉं से सत्ता अस्त्र-शस्त्र से ज्यादा ज्ञान से बदलता रहा है। चाणक्य हो या महेश ठाकुर इस जमीन पर कई ऐसे उदाहरण है जिससे ये प्रमाणित होता है जो सत्ता हथियार से नहीं ज्ञान से पाया जाता है। ऐसे में समाज में ज्ञान का प्रसार और सत्ता हमेंशा खतरा का कारण रहता है। बहुत लोगों का मानना है कि मगध को मूर्ख बनाकर उसपर राज करने की नीति के तहत सन् 1123 में बख्तियार खिलीजी नालंदा विश्वविद्यालय को बर्बाद कर बिहार के शिक्षा की संस्कृति को तबाह कर दिया था। मुगल हो या अंग्रेज या फिर आजाद भारत में लोकतांत्रिक नेता सब शिक्षा को केवल गर्त में ले जाने का काम किया है। अंगुली पर गिनने योग्य नाम मिलेगा जो बिहार में शिक्षा के लिए कुछ किया या करने का प्रयास किया।
बख्तियार खिलीजी की यह नीति इतना कारगर साबित हुआ जो बंगाल जीतने के बाद अंग्रेज भी इस इलाके पर उस नीति को जारी रखा। बागी बिहार में शिक्षा का विकास काफी कम गती से हुआ जिससे बिहार देश के और हिस्से से पिछे होता चला गया। 1608 में जब ईस्ट इन्डिया कम्पनी का फरमान लेकर अंग्रेज हॉकिन्स भारत आया था तब उसे इस जमीन का इतिहास बता दिया गया था। 1813 में जारी कंपनी चार्टर के अनुसार देशज भाषा और विज्ञान के विकास के लिए बड़ी राशि जारी हुई, लेकीन बिहार के राशि को कलकत्ता, बांम्बे और मद्रास रेजिडेंसी को दे दिया गया। यूरोपिय ज्ञान और अंग्रेजी पढाई के लिए बिहार में केवल एक स्कूल का चयन हुआ, जो भागलपुर स्कूल था। 1835 में राजा राम मोहन राय और लॉर्ड मैकाले से प्रभावित होकर लॉर्ड बेंटिक बिहार में अंग्रेजी शिक्षा को बढावा देने के लिए प्रयास कियें। बिहारशरीफ और पूर्णिया में अंग्रेज़ी शिक्षा केन्द्र की स्थापना भी हुई। अंग्रेजी को बढाबा देने के लिए इसके जानकार को सरकारी नौकरी में रखा जाने लगा। 1854 में बिहार में शिक्षा की प्रगति के लिए अंग्रेजों ने एक कमेटी गठित किया जिससे शिक्षा की उन्नति पर कार्य होना था, लेकीन इसको दुर्भाग्य कहा जाए या किछु और 1857 के क्रांति के बाद फिर उस कमेटी की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। लोग लड़ाई के बीच पढाई को भुलते चले गए। वैसे दरभंगा महाराज ने उत्तर बिहार के लिए अपने स्तर पर अंग्रेजी स्कूल खोलने की योजना तैयार की थी। जिसके बावजूद 1899-1900 के दौरान बिहार में अवर प्राथमिक स्कूल की संख्या महज 8978 थी। पटना विश्वविद्यालय भी 1917 में जा कर स्थापित हो सका।
आजादी के बाद राजनेता भी अंग्रेजों के रखे नीव पर महल खड़ा करने से पिछे नहीं रहें। उपर से राजनैतिक अराजकता और मुख्यमंत्री के आवाजाही का सबसे ज्यादा असर शिक्षा पर देखा गया। शिक्षा के स्तर में समतलीकरण ऐसा हुआ कि पटना विश्वविद्यालय जो देश के सात पुराने विश्वविद्यालय में से था, उसकी गरिमा तक ख़त्म हो गई। आजादी के बाद बिहार में शिक्षा पर पहला बड़ा चोट हुआ केबी सहाय युग में। 1967 में केबी सहाय शिक्षा के लिए ‘’सब धन 22 पसेरी’’ का फार्मूला अपनाये। सहाय ने बिहार के प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक को तहस-नहस कर दिए। ये बिहार में आजादी के बाद शिक्षा के लिए सबसे खराब समय कहा जा सकता है। उन्होनें राज्य में नये विश्वविद्यालय खोलने के साथ-साथ उसके लिए निजी कालेज को आंख मूंद कर सरकारी मान्यता देते चले गए। इस प्रकार से उन्होनें कॉलेज की प्रतिष्ठा को गर्त मे मिला दिया। उनकी इसी नीति को बाद में जगन्नाथ मिश्र अंतिम मुकाम तक ले गए। ज्ञात हुो जो केबी सहाय के कार्यकाल से पहले बिहार में केवल दो यूनिवर्सिटी थी। उनके कार्यकाल में भागलपुर, रांची और मगध यूनिवर्सिटी बना। इस विश्वविद्यालय के लिए उन्होनें निजी कॉलेज सब को एक तरफ से सरकारी मान्यता देते गए, जिससे कॉलेज के बीच अंतर मिटता गया और अच्छे कॉलेज सबकी स्थिति भी दोयम दर्जे की होती गइ। कॉलेज और विश्वविद्यालय में अराजकता और गुंडागर्दी संयुक्त विधायक दल सरकार और बिहार आन्दोलन के दौरान शुरू हुआ। 1969 में परीक्षा के दैरान चोरी करने की मांग कर रहे छात्र को ‘जिगर का टूकड़ा’ कहकर सत्ता पर पहुंचे महामाया प्रसाद बिहार में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार के मुखिया हुए। उनके मंत्रिमंडल में समाजवादी पार्टी के नेता कर्पूरी ठाकुर शिक्षा मंत्री बने। उन्हाने अपने शासनकाल में एक अजीब सा आदेश पारित किया जिसका नासूर अभी तक बिहार को रूला रहा है। उस आदेश के अनुसार मैट्रिक में पास करने के लिए अंग्रेजी अनिवार्य विषय नहीं रहेगा। उस समय में लोग “पास विदाउट इंगलिश” को कर्पूरी डिविजन नाम दिया फलतः शिक्षा में अंग्रेजी का स्तर इतना गिर गया जो आज तक बिहार की छवि उससे अपने आप को दूर नहीं कर सकी है।
वैसे 1972 में जब कांग्रेस के केदार पाण्डेय की सरकार बनी तो उसने शिक्षा के स्तर को उठाने का प्रयास किया और महामाया बाबू के जिगर के टुकड़े सब को सुधारने के लिए कुछ कठोर निर्णय लिए। पांडेय सरकार विश्वविद्यालय का जिम्मा अपने हस्तगत किए और सख्त आईएएस अधिकारी को कुलपति और रजिस्टार के पद पर बहाल किए। इसका असर भी हुआ। विश्वविद्यालय से गुंडाराज खत्म हुआ। परीक्षा और कक्षा बंदूक के साये में सही लेकिन सुचारू रूप से शुरू हुआ। बिहार में शिक्षा की संस्कृति पटरी पर लौट हीं रही थी, तभी केंद्र सरकार ने राजनीतिक मजबूरी में केदार पांडेय को मुख्यमंत्री पद से हटा दिए। इसके बाद संपूर्ण क्रांति का दौर आ गया और विश्वविद्यालय अध्ययन से ज्यादा राजनीतिक मंच बन गया। शिक्षा की सब व्यवस्था संपूर्ण क्रांति में ध्वस्त हो गया।
बिहार में अगर शिक्षा के समाधी बनाने को श्रेय किसी को दिया जा सकता है तो वो हैं जगन्नाथ मिश्र। जगन्नाथ मिश्र कहने के लिए तो थोड़े-थोड़े दिन के लिए तीन बार मुख्यमंत्री हुए, लेकिन उनकी नीति पीढी दर पीढी प्रभावित करने योग्य रही। वो केबी सहाय के नीति को आगे बढाते गए। जिस कॉलेज के पास भवन तक नहीं था वैसे कॉलेज सबको सरकारी घोषित कर विश्वविद्यालय पर बोझ बढाते गए। साथ हीं साथ अच्छे और बुरे में अंतर इतना मिटा दिए कि कोइ कॉलेज अपने आप को कम आंकने के लिए तैयार नहि रहा। उपर से उर्दू को दुसरे राजभाषा का दर्जा देकर भाषाई शिक्षा को राजनीतिक रंग भी प्रदान कर दिए। बिहार देश का पहला राज्य हो गया जहॉं दुसरे राजभाषा को मान्याता मिली। डॉ साहेब से प्रसिद्ध जगन्नाथ मिश्र अपने तीनो कार्यकाल में शिक्षा विभाग को अपने राजनीति स्वार्थ की पूर्ति के लिए उपयोग करते रहें। उनके कार्यकाल में शिक्षण संस्थान राजनीतिक अखाडा बन गया। डॉ मिश्र टूटपुन्जिया कालेज सब को विस्वविद्यालय का मान्यता देकर उनके शिक्षकों को मनचाहे अच्छे कॉलेज में पदस्थापित करा दिए। जिससे प्रतिष्ठित कॉलेज की पढाई प्रभावित हुई। दुसरा यूनिवर्सिटी बिल में संसोधन करके बिहार के युनिवेर्सिटी सबकी पहचान ख़त्म करा दिए। नए यूनिवर्सिटी बिल में किसी भी यूनिवर्सिटी के कर्मचारी किसी भी यूनिवर्सिटी में अपना स्थानांतरण करवा सकते थे। जग्ग्न्नाथ मिश्र सबसे पहले इस बिल का फायदा उठाए। उन्होनें बिहार विश्वविद्यालय के एलएस कॉलेज से अपना तबादला पटना विश्वविद्यालय के बीएन कॉलेज में करा लिए। इसके साथ हीं अपने कुछ खास लोगों का तबादला भी मनपसंद कॉलेज में करा दिए। इस संशोधन से छोटे कॉलेज के शिक्षक बड़े कॉलेज में चले गये, लेकिन उससे ज्यादा खतरनाक ये रहा जो बहुत अयोग्य शिक्षक बढिया कॉलेज में जाकर उसकी प्रतिष्ठा को खत्म कर दिए। ऐसे बहुत शिक्षक अच्छे कॉलेज पहुंच गए जिन्होनें कभी भी एक भी कक्षा नहीं लिया हो और ना हीं प्रयोगशाला गए हो। इससे योग्य शिक्षक सबमें तनाव बढ़ना शुरू हो गया और वो पढायी कम करते चले गए। जगन्नाथ मिश्र के कार्यकाल में कुर्सी तबादला के लिए भी प्रसिद्ध रहा। उनके कार्यकाल में जब कोइ अच्छे कॉलेज में शिक्षक के लिए जगह नहीं रहता था तब और कॉलेज के लिए आवंटित शिक्षक कोटा में से एक पद उस प्रसिद्ध कॉलेज के लिए दे दिया जाता था। ऐसे उदाहरण देश के किसी और राज्य में मिलना मुश्किल था।
1969 से 1990 तक बिहार में शिक्षा इतना गर्त में पहुंच गया था कि लालूजी के लिए बहुत कुछ करने का स्कोप नहीं रहा। उन्होनें चरवाहा विद्यालय के रूप में दलित समाज के लोगों को आगे उठाने का काम किया, उनका नारा था- घोंघा चुनने वालों, मूसा पकड़ने वालों, गाय-भैंस चराने वालों, शिक्षा प्राप्त करो । लेकिन उनकी ये योजना भी राजनैतिक अस्थिरता और सत्ता परिवर्तन के कारण खटाई में चली गर्इ। शिक्षा का हालत बद स बदतर होता गया। लालूजी के राज में विद्यार्थी पलायन एक नया शब्द आया। उदारवाद के बाद रोजगारपरक शिक्षा के लिए बिहार के छात्र दुसरे राज्य के लिए पलायन शुरू किए, जिससे बिहार को सबसे बड़ी आर्थिक क्षती हुई।
2005 में नीतीश राज आया। विकास के नाम पर मिले वोट से नीतीश ने सब क्षेत्र में विकास की बात की। उम्मीद जगा की शिक्षा के क्षेत्र में भी विकास होगा। लेकिन पिछले आठ वर्षो में शिक्षा के क्षेत्र में कोइ खास काम नहीं दिख रहा है। शिक्षक की नियुक्ति तो हो रही है लेकीन शिक्षा का स्तर नहीं सुधर रहा है, बल्कि एक ऐसा शिक्षित जमात पैदा हो रहा है जो मूर्ख है। हालात ये है की 25 फिसदी से ज्यादा शिक्षक 5वीं के शिक्षक पात्रता परीक्षा में फेल हो गए है। कुल मिलाकर महामाया प्रसाद से लेकर नीतीश कुमार तक पालतुकरण की नीति अपनाकर विश्वविद्यालय को अपना राजनैतिक चारागाह बनाकर रखे हुए है। आंकडे पर गौर करें तो 1970 से लेकर 1980 के बीच बिहार में शिक्षा के लिए सबसे ज्यादा नीतिगत फैसले लिए गए। इस दौरान राज्य में आठ सरकार बनी और सात राज्यपाल बदले गए। चार बार राजभवन सत्ता का केंद्र बना। इस कालखंड में केवल पटना विश्वविद्यालय में 11 कुलपति नियुक्त किए गए। कुल मिलाकर कोइ भी स्थिर रूप से कहीं काम नहीं कर सके। इस दौरान शिक्षा में व्याप्त राजनीति औ गुंडाराज को देख कर जाने माने शिक्षाविद डॉ वीएस झा इतना तक कह गए ‘’बिहार में महाविद्यालय स्थापित करना एक लाभप्रद धंधा है बशर्ते संस्थापक राजनैतिक बॉस हो या जनता के नज़र में उसकी छवि एक दबंग की हो।‘’
वर्तमान शिक्षा की अगर बात करें तो उच्च शिक्षा के लिए बिहार भारत में एक ऐसे राज्य के रूप में जाना जाता है जहॉं के विद्यार्थी पर बाहरी राज्य के गैर सरकारी संस्थान अपनी गिद्ध दृष्टि जमाये रखते है। एक अध्यन में ये दावा किया गया है की सब साल बिहार से लगभग 25 हजार करोड रूपया बाहर जा रहा है। अध्ययन के मुताबिक उच्च शिक्षा के लिए प्रतिवर्ष एक लाख छात्र बिहार से बाहर जाते है। महाराष्ट्र, राजस्थान और कर्नाटक जैसे राज्य की आर्थिक मजबूती में बिहार से गया पैसा एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। यह स्थिति तब है जब भारत के दस प्राचीन विश्वविद्यालय में से तीन बिहार में खंडहर बना है। अध्ययन के अनुसार रहने, खाने, पहनने और अन्य मूलभूत सुविधा पर और राज्य में हो रहे खर्च को छोड़ दे तो भी प्रति छात्र 70,000 रूपया सालाना ( जो की किछु राज्य के इंजीनियरिंग में प्रवेश के लिए सरकारी फीस है) के हिसाब से 700 करोड़ होता है (ज्ञात हो की इसके अलावा संस्थान डोनेशन के नाम पर भी काफी चंदा वसूल लेता है) बिहार से बाहर चला जाता है। इसके अलावा प्रवेश देने के नाम पर शिक्षा के दलाल की उगाही अलग है। बिहार से कुछ इतना ही राशि कोचिंग, गैर सरकारी संस्थान और पब्लिक स्कूल के लिए भी बाहर जा रहा है। वैसे आंकडे बता रहे है कि अभी तक ऐसे कोचिंग संस्थान में ( एकाध को छोड़ दे तो) कोइ छात्र राष्ट्रिय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोइ भी प्रतियोगिता में अव्वल नहीं आ सका है। सरकारी संस्थान की अगर बात करे तो इसमें से ज्यादातर भगवान् भरोसे है। कूछ में व्यवस्था नहीं तो कुछ में शिक्षक नहीं। राज्य के कई कॉलेज में चल रही बीसीए पाठ्यक्रम के लिए कंप्यूटर विभाग को अपना लैब तक नहीं है। कई विभाग में लैब है लेकिन वो बस नाम के लिए है, उसमें कोइ सामान नहीं है। कुछ ऐसा हीं हाल पुस्तकालय सबका है। बिहार के सब विश्वविद्यालय को अपना पुस्तकालय होने का गौरव तो है लेकिन उसकी हालत बद स बदतर हो चुकी है। हवादार कमरे की बात तो छोड़िये धुल धूसरित आलमारी सब से पुस्तक निकालने का प्रयास करना भी कठिन। कई किताब फटे है तो कई पढने योग्य नहीं है। नए किताब के खरीद की तो बात हीं मत कीजिए। कुछ सोधार्थी और दान के फलस्वरूप कुछ पुस्तक नया मिल जाता है। उच्च शिक्षा के प्रसार की हालत ये है की मिथिला विश्वविद्यालय का बंटवारा होने के बावजूद आलम ये है जो मधेपुरा जिले में स्थापित बी.एन. मंडल यूनिवर्सिटी अकेले पाँच जिला का बोझ उठाए है। एक तरफ देश के तकनिकी और उच्च शिक्षा के हजारों संस्थान में ओम्बुड्समैन की नियुक्ति होने की केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री की घोषणा अभी मूर्त रूप नहीं ले पाई है। जो शिकायत का निपटारा और भ्रष्टाचार को रोकनें मे मदद करगी और दुसरी तरफ केंद्रीय विश्वविद्यालय और आईआईटी को लेकर राजनीति भी चिंता क विषय है। ऐसे में केंद्र और राज्य सरकार को बिहार में शिक्षा पर ध्यान देना चाहीए वर्ना बिहार में विकास की रफ़्तार जिस तेजी से बढ रहीं है उससे कदमताल अगर शिक्षा का विकास नहीं करेगी तो यह विकास कभी भी औंधे मुँह गिर सकता है।
मैथिली में पढ़ने के लिए क्लीक कर यहॉं - शिक्षा क मजबूत व्यवस्था आ डराइत सत्ता