भोजपुरी ने विकिपीडिया पर भी प्रमुखता
से अपना स्थान बना लिया हैं। ये मैथिल टेक-सेवी के लिये चितन-मनन का विषय तो हैं ही
साथ-ही-साथ उन करोडो मैथिलो के मुंह पर करारा तमाचा भी हैं जो अभी भी मैथिली को सिर्फ
आपसी द्वेष और मतभेद के कारण अंतरजाल पर अपनी जगह बनाने से रोक रहा हैं।
ऐसा नहीं हैं की मैथिलो ने इसके लिए प्रयास
नहीं किया या मैथिलो ने इंटरनेट का प्रयोग सिर्फ सस्ती और क्षणभंगुर लोकप्रियता पाने
के लिए किया हैं, बहुत से ऐसे मैथिल हैं जिसने मैथिली के ग्लोबलाइजेशन के लिए एडी चोटी
का जोर भी लगाया हैं। लेकिन उनमे से ज्यादातर मैथिली के पैर-खिचो प्रवृति से तंग आकर
अपना हाथ पीछे खीच लिया हैं। हम राजेश रंजन, संगीता कुमारी और उनके टीम के उस योगदान
को नहीं भुला सकते जिसके कारण हमें मैथिली फायरफोक्स का बीटा वर्जन मिला हैं, जिसके
अकथ मेहनत से एक युग का सपना साकार हो गया हैं, और ना ही हम गजेन्द्र ठाकुर के उस सहयोग
को भूल सकते हैं जिसने ना केवल मैथिली को इन्टरनेट पर फैलाने का काम किया बल्कि विकिपीडिया
से निरंतर मैथली के लिए लड़ते आ रहे हैं। लेकिन जिस तरह 'अकेला चना भाड़ नहीं भोड़ सकता'
वैसे ही किसी एक के योगदान से मैथिली ग्लोबल नहीं हो सकती। विगत कुछ दिनों पहले हमने
राजेश रंजन से इस मैथिली मोजिल्ला के भविष्य और मैथली के सुचना-प्रोधोगिकी में स्थान
के बाबत करी थी, उन्होंने एक ही शब्द में कहा की मैथिली एप्लीकेशन का भविष्य इसके प्रयोक्ता
पर निर्भर करता हैं; और प्रयोक्ता जब तक चाहे इसके भविष्य को उज्जवल और अंधकारमय बना
सकता हैं। लेकिन एक सवाल हैं की कब तक और कहा तक, आज के समय में अगर अंतरजाल पर एक
सर्वे करवाया जाय की कितने प्रतिशत मैथिल अंतरजाल पर मैथिल एप्लीकेशन का प्रयोग करते
हैं तो ७० प्रतिशत से ज्यादा का सवाल होगा 'क्या मैथिली में कोई एप्लीकेशन भी हैं?'
प्रयोग की बात तो दूर ही हैं। तिरहुत/मिथिलाक्षर की बात अगर छोड़ भी दे तो देवनागिरी
में भी मैथिली लिखने वालों की संख्या ऊँगली पर ही गिनने को मिलेगी। अब सवाल ये हैं
की क्या हमने इसके प्रचार प्रसार पर ध्यान नहीं दिया अथवा अपनी उन्नती के चक्कर में
भाषा की भाषा की उन्नती भूल गए। सवाल ये भी हैं की क्या अपनी ज्यादा मायने रखती हैं
भाषा की उन्नती के बनिस्पत। साहित्य से लेकर सिनेमा तक, इतिहास से लेकर भूगोल तक, घर
से बाजार तक और कलम से अंतरजाल तक मैथिली सिर्फ और सिर्फ अपनी पैर खिचो प्रवृति का
ही शिकार हुई हैं।
२००३ में मैथिली को संविधान की आठवी अनुसूची में शामिल करवाकर हम
चैन की नींद सोने चले गए की चलो लड़ाई तो अब ख़त्म हो गई, हमने तो जंग जीत लिया। लेकिन हमें कौन समझाए की ये तो जंग की शुरवात हैं वास्तविक जंग तो अभी बांकी हैं। मैथिली ने अभी सिर्फ अपना स्थान लिया हैं पहचान बनाना अभी बांकी हैं।
वैसे कहने को तो मैथिली भोजपुरी से ८०० साल पुरानी हैं, हमारी खुद की लिपि
हैं साहित्य हैं, क्रमानुगत भाषा का विकास हैं और हम सदियों से चले आ रहे
हैं। लेकिन जिस तरह से हम चल रहे हैं क्या
हम निरंतर रह पायेंगे क्या हमारी सतत यात्रा जारी रहेगी या हम पैर-खिचो
प्रवृति की शिकार होकर रस्ते में ही दम तोड़ जाएंगे।
जिस तरह से भोजपुरी दिन दुनी रात चौगुनी तरक्की करते जा रहा हैं।
फूहड़ जाने और बेकार चित्रण के बावजूद विश्व पटल पर छा रहा हैं, जिस तरह से
भोजपुरी गीत-संगीत और सिनेमा व्यवसायिकता के चरम पर हैं, रोज नए-नए चैनल,
अखबार, पत्रिका, और वेबसाईट आते जा रहे हैं और नित नए नए प्रयोग कर सबको
चोकाए जा रहे हैं उस समय क्या हमें अपना फ़र्ज़ याद नहीं आ रहा हैं, क्या
हमें माँ मैथिली की पुकार नहीं सुनाई दे रही हैं, क्या हम सिर्फ अपने
स्वार्थ के लिए माँ मैथिली का दोहन नहीं कर रहे हैं। क्या हम भी उसी रंग में रंगते नहीं जा रहे हैं।
क्या हमारा साफ़-सुथरा संगीत श्रोताओं को रास नहीं आ रहा हैं, क्या हमारा
प्राचीन और सुन्दर साहित्य सिर्फ कागज के डिब्बो तक में ही सिमट कर रहा गया
हैं। जरा सोचिये?
भिखारी
ठाकुर का एक नाटक 'विदेसिया' आता हैं और भारत सहित मरिसस में भी डंका बजा
जाता हैं, लेकिन हम आज भी हरिनाथ झा का पाँच पत्र लिए पटना, दिल्ली,
कलकत्ता और नेपाल ही पच सके हैं, जबकि विस्वपटल पर हम छाये हुए हैं। कारन सिर्फ एक हैं हमारा भाषा के प्रति झुकाव नहीं हैं, हम मैथिली को सिर्फ मनोरंजन और स्वार्थ सिद्धि का जरिया मानते हैं।
हमें मैथिली तभी तक दिखाई देती हैं जब तक हमारी स्वार्थ सिद्धि होती रहती
हैं स्वार्थ सिद्ध हुआ और हम और भाषा के पीछे दौड़ना शुरू कर देते हैं।
आज
भोजपुरी विकिपीडिया पर प्रमुखता से हैं, सविधान की आठवी अनुसूची में आने
की कगार पर हैं, इनके साहित्य और संगीत का चर्चा अंतररास्ट्रीय स्तर पर हैं
और मैं ये सब सुन कर खुश हो रहा हूँ, की चलो कम से कम इसी वजह से तो
प्रतियोगिता बढ़ेगी,कम से कम इसी वजह से तो मैथिलो की आँख खुलेगी, कम से कम
अब तो मैथिल अपने भाषा के सर्वांगीण विकास के बारे में सोच सकेंगे।
वैसे भाषा का विकास सिर्फ कविता, कहानी और नाटक लिख देने से नहीं होगा ना
ही भाषा का विकास साहित्य अकादमी के पुरस्कार प्रप्त कर लेने से होगा, भाषा
का विकास तभी संभव हैं जब हम अपनी पैर खिछु प्रवृति को छोड़, व्यक्तिगत
स्वार्थ से ऊपर उठकर, अपनी भावी पीढियों को इसके सही मूल्यों का बोध करवा
सकेंगे। तभी हमारी मैथिली उस मुकाम तक पहुंचेगी जिसके लिए ये वांछनीय हैं।