Sunday, November 11, 2012

बिना बेटियों के कैसे हो लक्ष्मी पूजा

 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:' । अर्थात जहाँ नारियों की पूजा होती हैं, वहां देवता विराजते हैं। लेकिन जहाँ घरो सिर्फ लडको को ही मान दिया जाता हो, लड़के-लड़कियों में हमेशा विभेद किया जाता हो। घर आँगन को लडकियों के किलकारी से दूर रखा जाता हो। जहाँ लडको के आगमन पर खुशिया मनाई जाती हो और लड़कियों के आगमन पर मातम।जहाँ पती-पत्नी बात बात पर कलह करते हो, हमेशा एक दुसरे से मन-मुटाव रहता हो। हमेशा एक दुसरे की कमिया निकाली जाती हो। जहाँ लडकियाँ बोझ अभिशाप और ना जाने क्या क्या समझी जाती हो, वहाँ  चाहे आसमान से सोना ही क्यों ना बरसे "लक्ष्मी" सर पर पैर रखकर भागती हैं। ऐसी जगहों पर लक्ष्मी कभी निवास नहीं करती।

उत्तर बिहार खासकर बिहार में दिवाली की तैयारी अमूमन दसहरा से ही शुरू हो जाती हैं। घरों की साफ़ सफाई से लेकर रंगाई-पुताई सब शुरू हो जाती हैं। तरह-तरह के आयोजन कर लक्ष्मी और गणेश को मनाया जाता हैं। उनका स्वागत किया जाता हैं, की लक्ष्मी जी आइये, गणेश जी आइये आपका स्वागत हैं। आप हमारे घर पधारकर हमें कृतार्ध कीजिये। हमें धन, धान्य एवं समृधि प्रदान कीजिये। लेकिन हम देवी देवताओं के चक्कर में भूल जाते हैं की घर में जो लक्ष्मी अर्थात बेटी हैं वो उपेक्षा की शिकार हो रही हैं, उसको वो मान सम्मान नहीं मिल पा रहा हैं जो उन्हें मिलना चाहिए। जब घर की ही लक्ष्मी उदास हो तो बाहर के देवी लक्ष्मी कैसे खुश रह सकती हैं।

जी हाँ मिथिला ही नहीं अपितु पुरे भारतवर्ष में बेटियों को लक्ष्मी का दर्जा दिया गया हैं। बेटियों के जन्म के समय चाहे कितना भी मातम हो ये कहकर सांत्वना दी जाती हैं की घर में लक्ष्मी आई हैं। अगर देखा जाय तो बेटी लक्ष्मी का ही रूप होती हैं, इन्हें ये लक्ष्मी या अन्नपूर्णा का दर्जा यूँ ही नहीं दिया जाता। एक स्त्री कठिन परिश्रम के जरिये तिनका-तिनका जोड़कर घर बनाती हैं। घर के साफ़ सफाई से लेकर घर वालों के स्वास्थ का भी पूरा ध्यान अकेले ही रखती हैं। कितनी भी मुसीबते आये अकेले ही झेल लेती हैं, लेकिन अपने परिवार पर जरा सी भी आंच नहीं आने देती हैं। एक अकेले स्त्री एक साथ इतनी भूमिका निभाती हैं की देवी लक्ष्मी भी खुद शर्मिदा हो जाए। एक बेटी, एक पत्नी और एक माँ रूप में एक ही जन्म में कितने जीवन जीती हैं। हमारे यहाँ लड़कियों को ये संस्कार भी दिया जाता हैं की एक सुखी स्त्री का अर्थ हैं उसका सुखी परिवार, फिर बात चाहे मायके की हो या ससुराल की। बेटियां इसलिए लक्ष्मी हैं की वो जहाँ भी जाती हैं उस घर को ऐसा बना देती हैं की वहां से सुख और शांति कभी हटने का नाम नहीं लेती हैं। और पत्नी इसलिए गृहलक्ष्मी हैं की वह ना हो तो घर की कामना करना ही व्यर्थ हैं। परिवार की खुशियों में ही जिसकी ख़ुशी हैं ऐसे बेटी को लक्ष्मी नहीं तो और क्या कहेंगे।

लेकिन आंकड़े आज अलग हैं, लक्ष्मी का ये रूप आज हर घर में तिरस्कृत हो रही हैं। अब बेटी लक्ष्मी नहीं कुल्टा, और कुलाक्षिनी कहलाने लगी हैं। लोग स्त्रियों को आज भी लाचार, अबला और दया की दृष्टि से देखते हैं। जबकि धन, शक्ति और बुद्धि का विभाग आज भी देवियों के पास हैं। आज की लक्ष्मी ना सिर्फ समाज में शोषित हो रही हैं, बल्कि अपने घर में भी तिरस्कृत हो रही हैं। दहेज़ के लिए जलाई जा रही हैं, इज्जत के लिए मौत के घाट  उतारी जा रही हैं। बदनामी के डर  से शिक्षित समाज भी घर की लक्ष्मी को आँगन से बाहर कदम ना रखने पर मजबूर कर रही हैं। अकेले भ्रूण हत्या के मामले भी हम दुनिया से आगे हैं। अब सवाल हैं कैसे जब घर की लक्ष्मी के साथ ही ऐसे व्यवहार किया जाएगा तो बहार से लक्ष्मी कैसे आएगी।

लक्ष्मी पूजा सही अर्थो में स्त्रियों की पूजा हैं। अपने घर की बहु-बेटियों के विकास में अपना योगदान देकर, उनके कार्यो की सराह्कर आप असल मायने में लक्ष्मी की की पूजा कर सकते हैं। अपने घर की बहु बेटियों को जिस दिन से आप आगे बढ़कर साथ देंगे असल मायने में अपने घर की सुख, समृधि, और वैभव को बढ़ने में योगदान देंगे। और असल में लक्ष्मी की पूजा तभी सार्थक होगी जब घर की लक्ष्मी का मान देंगे। तो आइये इस लक्ष्मी पूजा पर हम प्रण लें की स्त्री ही हमारे घर की असल लक्ष्मी हैं। और इनके मान सम्मान और हौसला आफजाई से हमारे घर धन-धान्य, वैभव, और समृधि आएगी।

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