Wednesday, November 28, 2012

एक राजा जो निरंकुश नहीं था



डॉ सर कामेश्वर सिंह और डॉ राजेंद्र प्रसाद
महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह, खंड्वाला, दरभंगा पर जमींदार की हैसियत से साशन करने वाले अंतिम वंशज था। महामहोपाध्याय महेश ठाकुर ने 1576 इ0 में मुग़ल वंश के राजा अकबर से तिरहुत पर राज करने का आदेश लिया था। उसके बाद वो राजा और महाराजा से सम्बंधित होने लगे। शोत्रीय समुदाय से मैथिल समुदाय में आने के कारण उनको अपना टाइटल ठाकुर से बदल कर सिंह करना पड़ा। इस वंश के आखिरी महाराजा सर कामेश्वर सिंह ( 1907-1962) हुए। वह बिना किसी कारण के मरे हालाँकि उनकी विधवा महारानी कामसुन्दरी उर्फ़ कल्याणी देवी अभी भी जिन्दा हैं। उन्होंने किसी भी वारिस को गोद नहीं लिया।

दरभंगा किसी समय में भारत की सबसे बड़ी जमींदारी थी। इसका विस्तार 2400वर्ग मील था, जिसमे 7500 गाँव पूर्ण रूप से और 800 गाँव आंशिक रूप से जुड़े थे। इसमें 6000 से ज्यादा स्टाफ इस पुरे जमींदारी की देख-रेख के लिए थे। इस जमींदारी की रूचि व्यापार में भी थी। इनके खुद के 14 विभिन्न उत्पादों जैसे एविएशन, पब्लिशिंग, प्रिंटिंग, सुगर, कॉटन, जुट, बैंकिंग, शिपिंग, और शेयर ट्रेडिंग आदि के उधोग थे जिनसे सालाना आय 50 करोड़ आती थी।

महाराजा के वंश में सभी पढ़े लिखे समझदार और परोपकारी थे। इनके परोप्कारो के लाभार्थी में भारतीय कांग्रेस, बीएचयु, कलकत्ता विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, मिथिला विश्वविद्यालय, पटना चिकित्सा विश्वविद्यालय,एवं अस्पताल, दरभंगा विश्वविद्यालय, मुज्जफरपुर नगरपालिका, मुजफ्फरपुर न्यायालय आदि हैं। इसके अलावा सैकड़ो इंस्टिट्यूट और हज़ारो व्यक्तिगत उपकार भी इनके खाते में हैं।

महाराजाधिराज के व्यक्तिगत रूप से किये गए कार्य निम्न हैं।
चिट्ठी, चित्र, भाषण और आलेखों से महाराजाधिराज दरभंगा का व्यक्तित्व का पता चलता हैं, वह भारत के सबसे बड़े जमींदार बने साथ ही साथ वह एक बड़े उधोगपति भी थे जिनके अधिकार में चीनी, सूती, लोहा और इस्पात, विमानन, और प्रिंट मीडिया जैसे 14 से अधिक उधोग थे। दरभंगा राज 2500 वर्ग मील में फैला था जिसमे 4595 गाँव थे जो बिहार और बंगाल के 18 सर्किल में फैला हुआ था। 7500 से अधिक अधिकारी इनके राजकाज को सँभालते थे, जबकि 12000 से अधिक गाँवों में इनके शेयर थे।

महाराजाधिराज ना केवल सिर्फ एक बड़े जमींदार और उधोगपति थे बल्कि मिथिला के शिक्षा और विकास के लिए एक उपयुक्त व्यक्ति भी थे। एक हाथ से जहाँ उन्होंने शिक्षा के लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, बिहार विश्वविद्यालय, और कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, मिथिला रिसर्च इंस्टिट्यूट दरभंगा के निर्माण में बहुत बड़ी राशि दान की वहीँ राजनैतिक पार्टियों जैसे कांग्रेस पिछड़े वर्ग के नेता तथा स्वयमसेवी संस्था  जैसे YMCA और YWCA के बराबर और वृहत दान दिए। एक तरफ जहाँ उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में वायुसेना को तीन लड़ाकू विमान दिए थे वही दूसरी तरफ उन्होंने सिख और हिन्दू सैनिको को 5-5 हज़ार रूपये त्यौहार मनाने के लिए दिए थे। साथ ही साथ 50 एम्बुलेस सेना के मेडिकल टीम को दिया था। जीवन के हरेक डगर में वो हरेक का साथ देते थे। उनके द्वारा लाभार्थी व्यक्तियों में डा0 राजेंद्र प्रसाद, मौलाना अबूल कलाम आजाद, सुभाष चन्द्र बोस, महत्मा गाँधी, महाराजा ऑफ़ जयपुर, रामपुर के नवाब, और दक्षिण अफ्रीका के स्वामी दयाल सन्यासी शामिल हैं।

स्वतंत्रा सेनानी और बिहार विधान सभा के सदस्य जानकी नंदन सिंह कहते हैं की एक बार जब महत्मा गाँधी, मालवीय जी और डा0 राजेंद्र प्रसाद जी के साथ दान लेने के लिए दरभंगा आये तो उन्होंने महाराजाधिराज से एक लाख रूपये दान की अपेक्षा की थी, लेकिन उस समय वो हतप्रभ रह गए जब उन्हें सात लाख का चेक मिला। वो लोग भी महाराजाधिराज के दान देने के प्रवृति के कायल हो गए।

वह एक अच्छे राजनेता भी थे वो दो 1931 और 1934 में राज्य-परिषद् के सदस्य चुने गए। साथ ही एक बड़े अंतर से 1937 में परिषद् के सदस्य चुने गए। वे संविधान सभा, कुछ समय के लिए राज्य सभा और उसके बाद 1962 में अपनी मृत्यु तक राज्य सभा के सदस्य बने।

महराजधिराज के बारे में कुछ रोचक तथ्य :-
  • 1931 में  लन्दन में हुए गोलमेज सम्मेलन के सबसे कम उम्र के प्रतिनिधि
  • 24 साल की उम्र में भारत के सबसे कम उम्र के विधायक
  • 1932 से राज्य परिषद, संविधान सभा के अंतरिम संसद और राज्य सभा के सदस्य 1962 तक
  • चर्चिल की भतीजी से महात्मा गांधी की पहली प्रतिमा बनवाएं और फिर प्रदर्शन के लिए भारत की वायसराय के समक्ष प्रस्तुत 1940 में प्रस्तुत किया
  • 1942 में ब्रिटिश सरकार ने स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ लड़ने के लिए महाराजाधिराज से मदद मांगी थी और महाराजाधिराज ने  किसी भी प्रकार से मदद करने को  इनकार कर दिया था
  • स्वतंत्रता संघर्ष के लिए कांग्रेस को कई लाख रूपये दान दिए
  • दक्षिण अफ्रीका में स्वामी भवानी दयाल सन्यासी को रंगभेद के खिलाफ संघर्ष में काफी मदद किये
  • व्यक्तिगत स्तर पर लाभार्थियों में महात्मा गांधी, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सुभाष चन्द्र बोस, मौलाना आजाद, बाबू जगजीवन राम, और कई अन्य नेता थे.
  • 1936-37 में कांग्रेस की मदद करने के लिए किरायेदारी अधिनियम और अन्य नियमो में सुधार किये
  • YWCA को भारत और मिश्र में पैसे और इमारतों के रूप में बहुत बड़ी राशि दान दियें
  • बीएचयू, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, PMCH, बिहार विश्वविद्यालय, कलकत्ता विश्वविद्यालय को बहुत बड़ी राशि दान दियें 
  • दरभंगा में संस्कृत विश्वविद्यालय की भूमि, भवन और पुस्तकालय के लिए दान दिए
  • मिथिला अनुसंधान संस्थान की पुस्तकालय, भूमि , दरभंगा की स्थापना के लिए और विशाल राशि दान दिए
  • भूदान आन्दोलन में  बिनोवा भावे जी को 1,15,000 एकड़ भूमि दान किये 
  • 4497 गांवों में से 1950 में पंडित नेहरु के अनुरोध पर कोई मुआवजा लिए बिना अपनी जमींदारी की
  • अपने साशन के समय बिहार चीनी, जूट और कागज मिलों के एक नंबर था
  • 1948 में दरभंगा विमानन कंपनी की स्थापना की जो भारत में दूसरा निजी विमानन कंपनी थी
  • बिहार में किरायेदारों के अधिकारों के लिए अंत तक लड़े
  • 'दरभंगा कप' पोलो के खेल में कलकत्ता में सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार हैं 
  • सन् 1935 में उन्होंने संतोष के महाराजा संग फुटबॉल के  पहले ऑल इंडिया एसोसिएशन के साथ आयोजन करवाया

Sunday, November 18, 2012

लोक आस्था का महापर्व "छठ"

कहते हैं दुनियाँ उगते सूरज को हमेशा पहले सलाम करती हैं, लेकिन बिहार के लोगो के लिए ऐसा नहीं हैं। बिहार के लोकआस्था से जुड़े पर्व "छठ" का पहला अर्घ्य डूबते हुए सूरज को दिया जाता हैं। यह ना केवल बिहारियों की खासियत हैं बल्कि इस पर्व की परंपरा भी की लोग झुके हुए को पहले सलाम करते हैं, और उठे हुए को बाद में। लोक आस्था का कुछ ऐसा ही महापर्व हैं "छठ"


सामूहिकता का हैं प्रतीक - सामूहिकता के मामले में बिहारियों का यह पर्व पूरी दुनिया में कहीं नहीं मिलेगा। एक ऐसी मिशाल जो ना केवल आस्था से भरा हैं, बल्कि भेदभाव मिटाकर एक होने का सन्देश भी दे रहा हैं। एक साथ समूह में नंगे बदन जल में खड़े हो भगवान् भाष्कर की अर्चना सभी भेदभाव को मिटा देती हैं। भगवान् आदित्य भी हर सुबह यहीं सन्देश लेकर आते हैं, की किसी से भेदभाव ना करो, इनकी किरणे महलों पर भी उतनी ही पड़ती हैं जितनी की झोपडी पर। इनके लिए ना ही कोई बड़ा हैं ना ही कोई छोटा, सब एक सामान हैं। भगवान्  सूर्य सुख और दुःख में एक सामान रहने का सन्देश भी देता हैं। इन्ही भगवान् सूर्य की प्रसन्नता के लिए हम छठ पूजा मनाते हैं।
मैया हैं छठ फिर क्यों होती हैं सूर्य की पूजा  - दीपावली के ठीक छः दिन बाद षष्ठी तिथि को होने के कारण इसे छठ पर्व कहते हैं। व्याकरण के अनुसार छठ शब्द स्त्रीलिंग हैं इस वजह से इसे भी इसे छठी मैया कहते हैं। वैसे किवदंती अनके हैं कुछ लोग इन्हें भगवान् सूर्य की बहन मानते हैं तो कुछ लोग इन्हें भगवान् सूर्य की माँ, खैर जो भी आस्था का ये पर्व हमारे रोम रोम में बसा होता हैं। छठ का नाम सुनते ही हमारा रोम-रोम पुलकित हो जाता हैं और हम गाँव की याद में डूब जाते हैं।
दुनिया का सबसे कठिन वर्त - चार दिनों यह व्रत दुनिया का सबसे कठिन त्योहारों में से एक हैं, पवित्रता की इतनी मिशाल की व्रती अपने हाथ से ही सारा काम करती हैं। नहाय-खाय से लेकर सुबह के अर्घ्य तक व्रती पुरे निष्ठा का पालन करती हैं। भगवान् भास्कर को 36 घंटो का निर्जल व्रत स्त्रियों के लिए जहाँ उनके सुहाग और बेटे की रक्षा करता हैं। वही भगवान् सूर्य धन, धान्य, समृधि आदि पर्दान करता हैं।
नहाय खाय - 17 नवंबर ( इस दिन व्रती कद्दू की सब्जी, चने की दाल, और अरवा चावल का भात खाती हैं)
खरना - 18 नवंबर ( दिनभर उपवास रखकर व्रती खीर-रोटी खायेंगी, इसके बाद 36 घंटे का उपवास शुरू हो जाता हैं )
संध्या अर्घ्य - 19 नवंबर ( जल में खड़े होकर अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ दिया जाएगा)
प्रातः अर्घ्य - 20 नवंबर ( उदयीमान सूर्य को अर्घ्य के साथ लोक आस्था का महापर्व छठ का समापन )

क्या हैं पौराणिक कथा - पौराणिक कथा के अनुसार महाभारत काल में अपना राज्य गवां चुके पांडवों की दुर्दशा देखकर दुखी द्रोपदी को रहा नहीं गया, और उन्होंने भगवान कृष्ण की सलाह पर सूर्यदेव की पूजा की थी। इसके बाद ही पांडवों को अपना राज्य वापस मिला था। एक अन्य कथा के अनुसार भगवान् श्रीराम के लंका विजय से लौटने के बाद माँ सीता ने कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्टी तीथी को सूर्य की उपासना की थी जिससे उन्हें सूर्य जैसा तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई।

औरंगाबाद के देब में हैं इसका जीता जागता उदहारण - औरंगाबाद जिले के देब का सूर्य मंदिर भारत सहित दुनिया में प्रसिध हैं। कहते हैं जब मुग़ल शासक औरंगजेब पुरे भारत के मंदिरों को गिरता हुआ यहाँ आया तो इस सूर्य मंदिर को भी तोड़ने का आदेश दिया। लेकिन मंदिर के भक्तो ने इसे ना तोड़ने का आग्रह किया। एवं इससे जुड़े मान्यता एवं शक्ति औरंगजेब को बताई। इस पर औरंगजेब ने कहा की अगर सूर्य देव में शक्ति हैं तो वह मंदिर के प्रवेश द्वार को पूरब से पश्चिम करके दिखाएँ। अगर ऐसा हुआ तो वह मंदिर को नहीं तोड़ेंगे। कहते हैं रातभर में ऐसा ही हुआ। यह देखकर औरंगजेब भी इनके शक्ति के आगे नतमस्तक हो गए और मंदिर को बिना तोड़े ही वहां चले गए।

आस्था के नाम पर होने लगा व्यापार - छठ पर्व का त्यौहार अंग देश से शुरू हुआ था, इस वजह से इस पूजा में वहां होने वाले फलों, और सामग्रियों की विशिष्ठता रहती थी जैसे उत्तर पूर्व भारत में गन्ना, निम्बू, सिंघारे आदि प्रचुर मात्र में मिलता था जिससे लोग प्रसन्न होकर सूर्य की सेवा में अर्पित करते थे, लेकिन बाजारवाद के साथ ये त्यौहार भी बदलने लगा हैं। देशी खुसबू से दूर होता ये त्यौहार ग्लोबलाइजेशन की भेंट चढ़ता जा रहा हैं। अब लोग बांस के सूप की जगह पीतल, ताम्बा, सोने और चांदी के सूप का प्रयोग करने लगे हैं। फलो का भी रंग बदल गया और काजू बादाम के संग अनके तरह की मिठाई आ गई हैं। और आस्था का यह त्यौहार फैशन और अंतर्राष्ट्रीय मार्किट की सोभा बनती जा रही हैं।

Sunday, November 11, 2012

बिना बेटियों के कैसे हो लक्ष्मी पूजा

 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:' । अर्थात जहाँ नारियों की पूजा होती हैं, वहां देवता विराजते हैं। लेकिन जहाँ घरो सिर्फ लडको को ही मान दिया जाता हो, लड़के-लड़कियों में हमेशा विभेद किया जाता हो। घर आँगन को लडकियों के किलकारी से दूर रखा जाता हो। जहाँ लडको के आगमन पर खुशिया मनाई जाती हो और लड़कियों के आगमन पर मातम।जहाँ पती-पत्नी बात बात पर कलह करते हो, हमेशा एक दुसरे से मन-मुटाव रहता हो। हमेशा एक दुसरे की कमिया निकाली जाती हो। जहाँ लडकियाँ बोझ अभिशाप और ना जाने क्या क्या समझी जाती हो, वहाँ  चाहे आसमान से सोना ही क्यों ना बरसे "लक्ष्मी" सर पर पैर रखकर भागती हैं। ऐसी जगहों पर लक्ष्मी कभी निवास नहीं करती।

उत्तर बिहार खासकर बिहार में दिवाली की तैयारी अमूमन दसहरा से ही शुरू हो जाती हैं। घरों की साफ़ सफाई से लेकर रंगाई-पुताई सब शुरू हो जाती हैं। तरह-तरह के आयोजन कर लक्ष्मी और गणेश को मनाया जाता हैं। उनका स्वागत किया जाता हैं, की लक्ष्मी जी आइये, गणेश जी आइये आपका स्वागत हैं। आप हमारे घर पधारकर हमें कृतार्ध कीजिये। हमें धन, धान्य एवं समृधि प्रदान कीजिये। लेकिन हम देवी देवताओं के चक्कर में भूल जाते हैं की घर में जो लक्ष्मी अर्थात बेटी हैं वो उपेक्षा की शिकार हो रही हैं, उसको वो मान सम्मान नहीं मिल पा रहा हैं जो उन्हें मिलना चाहिए। जब घर की ही लक्ष्मी उदास हो तो बाहर के देवी लक्ष्मी कैसे खुश रह सकती हैं।

जी हाँ मिथिला ही नहीं अपितु पुरे भारतवर्ष में बेटियों को लक्ष्मी का दर्जा दिया गया हैं। बेटियों के जन्म के समय चाहे कितना भी मातम हो ये कहकर सांत्वना दी जाती हैं की घर में लक्ष्मी आई हैं। अगर देखा जाय तो बेटी लक्ष्मी का ही रूप होती हैं, इन्हें ये लक्ष्मी या अन्नपूर्णा का दर्जा यूँ ही नहीं दिया जाता। एक स्त्री कठिन परिश्रम के जरिये तिनका-तिनका जोड़कर घर बनाती हैं। घर के साफ़ सफाई से लेकर घर वालों के स्वास्थ का भी पूरा ध्यान अकेले ही रखती हैं। कितनी भी मुसीबते आये अकेले ही झेल लेती हैं, लेकिन अपने परिवार पर जरा सी भी आंच नहीं आने देती हैं। एक अकेले स्त्री एक साथ इतनी भूमिका निभाती हैं की देवी लक्ष्मी भी खुद शर्मिदा हो जाए। एक बेटी, एक पत्नी और एक माँ रूप में एक ही जन्म में कितने जीवन जीती हैं। हमारे यहाँ लड़कियों को ये संस्कार भी दिया जाता हैं की एक सुखी स्त्री का अर्थ हैं उसका सुखी परिवार, फिर बात चाहे मायके की हो या ससुराल की। बेटियां इसलिए लक्ष्मी हैं की वो जहाँ भी जाती हैं उस घर को ऐसा बना देती हैं की वहां से सुख और शांति कभी हटने का नाम नहीं लेती हैं। और पत्नी इसलिए गृहलक्ष्मी हैं की वह ना हो तो घर की कामना करना ही व्यर्थ हैं। परिवार की खुशियों में ही जिसकी ख़ुशी हैं ऐसे बेटी को लक्ष्मी नहीं तो और क्या कहेंगे।

लेकिन आंकड़े आज अलग हैं, लक्ष्मी का ये रूप आज हर घर में तिरस्कृत हो रही हैं। अब बेटी लक्ष्मी नहीं कुल्टा, और कुलाक्षिनी कहलाने लगी हैं। लोग स्त्रियों को आज भी लाचार, अबला और दया की दृष्टि से देखते हैं। जबकि धन, शक्ति और बुद्धि का विभाग आज भी देवियों के पास हैं। आज की लक्ष्मी ना सिर्फ समाज में शोषित हो रही हैं, बल्कि अपने घर में भी तिरस्कृत हो रही हैं। दहेज़ के लिए जलाई जा रही हैं, इज्जत के लिए मौत के घाट  उतारी जा रही हैं। बदनामी के डर  से शिक्षित समाज भी घर की लक्ष्मी को आँगन से बाहर कदम ना रखने पर मजबूर कर रही हैं। अकेले भ्रूण हत्या के मामले भी हम दुनिया से आगे हैं। अब सवाल हैं कैसे जब घर की लक्ष्मी के साथ ही ऐसे व्यवहार किया जाएगा तो बहार से लक्ष्मी कैसे आएगी।

लक्ष्मी पूजा सही अर्थो में स्त्रियों की पूजा हैं। अपने घर की बहु-बेटियों के विकास में अपना योगदान देकर, उनके कार्यो की सराह्कर आप असल मायने में लक्ष्मी की की पूजा कर सकते हैं। अपने घर की बहु बेटियों को जिस दिन से आप आगे बढ़कर साथ देंगे असल मायने में अपने घर की सुख, समृधि, और वैभव को बढ़ने में योगदान देंगे। और असल में लक्ष्मी की पूजा तभी सार्थक होगी जब घर की लक्ष्मी का मान देंगे। तो आइये इस लक्ष्मी पूजा पर हम प्रण लें की स्त्री ही हमारे घर की असल लक्ष्मी हैं। और इनके मान सम्मान और हौसला आफजाई से हमारे घर धन-धान्य, वैभव, और समृधि आएगी।

Friday, November 9, 2012

मैं, तुम, और वो - एक प्रेम कहानी

दोस्तों नमस्कार आज मैं आप लोगो के सामने एक  प्रेम कहानी रखने जा रहा हूँ। अब जैसा की लाजिमी हैं कहानी प्रेम की हैं तो एक लड़का और लड़की तो होगी ही, तो पहले हम क्यों ना पात्र  परिचय करवा दूँ। इस कहानी में दो लोग हैं एक हैं "मैं" और एक  "तुम", चलो मान लेते हैं की, 'मैं' जो हैं वो एक लड़का हैं और 'तुम' जो हैं वो एक लड़की हैं।

पात्र परिचय -:

मैं -: 'मैं' एक मैंगो मेन  हैं, जो किताबे पढता हैं, कहानी लिखता हैं, घंटो अकेले बात करता हैं, अपने आप में खोये हुए हर वक्त कुछ सोचता रहता हैं। कभी खुद से बाते करता हैं, कभी खुद से शिकायत करता हैं, जो यमुना किनारे बैठा रहता हैं;घंटो अकेले, कभी भीड़ में खो जाता हैं पुराने सूटकेस की तरह, कभी भीड़ से अलग दीखता हैं नए गिटार की तरह, एक ओल्ड फैशन लड़का जो गुरुदत्त को देखता हैं और गुलाम नवी को सुनता हैं। ध्रुपद और धमार भी जिसे बहुत पसंद हैं। जो मूंगफली खाता हैं, और दूध पीता हैं। साफ़ शब्दों में कहे तो "मैं" एक मैंगो मेन  हैं यानी आम आदमी।

तुम -: 'तुम' एक महत्वाकांक्षी लड़की हैं, जो नए फैशन की हैं, जिसे शॉपिंग पसंद हैं, नए कपडे और ज्वेलरी जिसे खुद से भी ज्यादा प्यारे हैं। जो हिरोइनों  की नक़ल करना चाहती हैं। जो ब्रिटनी और शकीरा से भी आगे निकलना चाहती हैं। जिसे सिर्फ इस मतलब हैं की वो क्या हैं, लोग उसे किस नजरो से देख रहा हैं। वो सुन्दर दिखना चाहती हैं और सुन्दर। शायद अपने आप से भी। उसे नए ज़माने की चीज़े पसंद हैं, आइसक्रीम, पिज़्ज़ा, बर्गर, और हॉटडॉग उसे बहुत पसंद हैं। पता नहीं लेकिन कभी कभी वो वोडका भी पी लेती हैं। फुल टू  नए ज़माने की जिसे सिर्फ और फैशन पसंद हैं। कोस्टा की कॉफी, डोमिनोज का पिज़्ज़ा उसके प्रिय हैं। चलने की लचक, और बोलने की अदा सब अलग हैं उसकी, एकदम अलग।
वो -: वो सिर्फ एक छलावा हैं, एक ऐसा छलावा जिसने "मैं" और "तुम" की जिन्दगी में वो तूफ़ान ला दिया जिसकी उसने अपेक्षा भी नहीं की थी।

प्रेम कहानी -: इस प्रेम कहानी में पुराने ज़माने की तरह कोई राजा या रानी नहीं हैं, ना ही शिरी और फरहाद की तरह कोई पहाड़ तोड़कर नदी ला रहा हैं। ये कहानी हैं बस एक ऑफिस के दो लोगो की जो एक दुसरे के संग रहते रहते पता नहीं कब प्यार कर बैठे। ये घटना हैं 2 दिसंबर 2010 की हैं, आम आदमी ने अपने पुराने ऑफिस को छोड़कर एक नए ऑफिस को ज्वाइन किया। नए लोग नया काम। नए संगी साथी। पुराने सब छुट गए, बढ़ते वक्त के साथ। 'मैं' को नया काम मिला, दो नए प्रोजेक्ट, दो नए प्रोसेस, सोचा चलो काम में इतना मशगुल हो जाऊंगा की पुराने दोस्तों की याद नहीं सताएगी, लेकिन मैं गलत था, कहने को तो दो प्रोसेस थे लेकिन काम कुछ भी नहीं। पूरा दिन खाली बैठना पड़ता था। उसके कुछ दिनों बाद "मैं" के सामने वाली प्रोसेस में एक लड़की आई "तुम" जैसा की पहले ही लिख चूका हूँ, तुम बिलकुल वैसी ही थी। संयोगवश दोनों साथ ही में बैठते थे। नया ऑफिस दोनों के लिए नया था। और दोनों नए एक दुसरे के दोस्त बन गए। और ये दोस्ती पता नहीं कब प्यार में बदल गई, पता ही नहीं चला ना 'तुम' और ना हीं 'मैं' को। दोनों एक दुसरे को टूट कर चाहने लगे....रुकिए शायद मैं गलत था, टूटकर तो सिर्फ "मैं" चाहता था। तुम के लिए तो ये प्यार सिर्फ खेल था एक ऐसा खेल जो दिलो के संग खेला जाता हो। हम साथ में ऑफिस जाने और साथ में ऑफिस से आने लगे। कुछ दिनों बाद हम दोनों ने एक दुसरे को प्रपोज कर दिया। दिन था 11 दिसंबर। प्यार का इज़हार रविवार के दिन हुआ था वो भी सन्देश में हम दोनों दूर थे एक दुसरे से बहुत दूर। लेकिन कहते हैं न प्रेम किसी स्थान विशेष में नहीं बांध सकता, ठीक यही हुआ हमारे साथ। एक दुसरे से बहुत दूर होते हुए भी एक दुसरे के हो गए। फिर हम साथ साथ ऑफिस जाने लगे आने लगे, एक दुसरे के संग टाइम स्पेंड करने लगे, बड़े अच्छे  दिन थे कमबख्त, बड़े अच्छे  दिन थे। लेकिन कहते हैं ना अच्छे दिन ज्यादा दिन तक नहीं चलते, कुछ ऐसा ही हुआ मेरे साथ अचानक से मेरे प्यार को नज़र लग गई, कोई और आ गया शायद उसकी जिन्दगी में, या पता नहीं क्या हो गया, वो अचानक से एक दुसरे लड़के की तारीफे करने लगे, वो होता तो ऐसा करता, वो होता तो वैसा करता, उसे मेरी बहुत फिकर रहती थी। वो मेरे कहे बिना ही मेरी जरूरते समझ जाता था वगैरह-वगैरह... ! फिर तो हमदोनो के बीच "हम" कम और वो ज्यादा रहने लगा। उसे ये पसंद हैं, वो रहता तो मेरे लिए ये लाता, उसे और मुझे लाल और काला रंग पसंद हैं वगैरह-वगैरह। फिर क्या किसी भी मैंगो मेन को ये बुरा लगेगा की उसके रहते उसकी प्रेमिका किसी और के गुण गाये। "मैं" को भी बहुत बुरा लगा, वो भी एक मैंगो मेन था उसके पास भी एक दिल था जो सिर्फ उसके लिए धडकता था।  एक दिन 17 मार्च'2011 को उसने एक लड़के के बारे में बताया एक लड़का था मेरी जिन्दगी में नाम उसका "वो" हैं। "वो" मुझे बहुत प्यार करता था, वो मेरा ख्याल रखता था, वो ऐसा ,हैं वो वैसा है......
"मैं" को बुरा तो लगा लेकिन उसने सोचा की क्यों न वो "वो" से ज्यादा प्यार "तुम" को करने लगे ताकि वो "वो" को भूल सके। उसने उसे और प्यार करना शुरू कर दिया। तुम के लिए "मैं" ने अपने पुराने दोस्तों को छोड़ दिया नए ऑफिस में जो उसके दोस्त बने थे उससे किनारा कर लिया। "मैं" को यह भी पसंद नहीं था की "मैं" ऑफिस में किसी और लड़की से बात करे जबकि वो सारी लड़कियां उसे भाई बोलती थी। फिर भी "तुम" की ख़ुशी के लिए मैं ने वो सब छोड़ दिया। अपने दोस्त, अपने, रिश्तेदार, अपने घर और यहाँ तक की खुद को भी। "मैं" को लगा की हो सकता हैं की उसके प्यार में ही कोई कमी हैं। उसे ही बदलना चाहिए उसे ही कुछ ऐसा करना चाहिए की "तुम" सिर्फ उसकी बन कर रह जाए। लेकिन "मैं" को क्या पता था की "तुम" के मन में क्या चल रहा हैं। और एक दिन आखिरकार वो दिन भी आया जब "मैं" के सारे अरमान टूट-टूट कर बिखर गए। एक झटके में उसने अपने प्यार का महल गिरा दिया। एक शब्द ने उस सारी दुनिया में आग लगा दिया जिसके सपने वो सजा कर बैठा था। उसने अपने पुराने दोस्त से 'पैच-अप' कर लिया हैं। वो अब वापस लौट आया हैं और मुझे कभी ना छोड़कर जाने के साथ पहले से भी ज्यादा प्यार करने का वादा किया हैं। मैं जा रही हूँ। और इसी शब्द के साथ "तुम" चली गई। "मैं" की सपने की दुनिया चूर-चूर हो गयी। वो एक शब्द "मैं जा रही हूँ" तुम के कानो में पिघले शीशे की तरह बन कर गिरा। मैं टूट चूका था, हद से ज्यादा, अपने आप से, खुद से, और दुनिया से। उसे बेगानी लग रही थी ये प्यार मोहब्बत की बाते, ये इश्क का नाम, नफरत हो गयी थी उसे खुद से और दुनिया से। फिर जैसा की हरेक प्रेम कहानी में होता हैं, मजनू वाला हाल हो गया "मैं" का, ना किसी से ज्यादा बोलना, ना कुछ सुनना, सिर्फ खुद में रहना और खुद की सुनना... लेकिन कहते हैं न भगवान् जब एक रास्ता बंद करता हैं तो दूसरा खोल देता हैं, ठीक ऐसा ही हुआ "मैं" के साथ उसने कलम उठा ली, और उकेर दी अपने दिल के जज्बात कोरे कागज़ पर, पाट दिया अपने अरमानो को काले, नीले कलम से, डूब गया वो लेखन और कविता में। कहते हैं ना इश्क में सब शायर बन जाते हैं, लेकिन "मैं" इश्क के बाद शायर बन गया। कई कहानियाँ  और कई आलेख लिख डाले, कुछ तो अच्छे  अखबारों में प्रकाशित भी हो गए, और इस तरह से मशगुल हो गया वो अपनी दुनिया में की भूल गया अपनी पिछली जिन्दगी। पुनर्जनम लिया जैसे उसने और अपने जज्बातों को कागज़ पर सज़ा कर खुश हो गया। और इसी तरह ख़तम हो गई "मैं" की प्रेम कहानी।

"मैं" और "तुम" आपके हर घर हर शहर में हैं, हर गली नुक्कड़ पे आपको एक "मैं" और "तुम" दिखाई पड़  जाएंगे, जो किसी "वो" के इन्तजार में होंगे। "वो" आज भी हैं हमारे बीच ही जो "तुम" को "मैं" से छीन ले रहा हैं। अगर आपके साथ भी कुछ ऐसा ही लग रहा हैं तो सावधान हो जाइए , क्योंकि "वो" जब आता हैं तो "मैं" की कोई अहमियत नहीं रह जाती। "मैं" बेचारा अकेला सा सिर्फ कहानी ही लिखता रह जाता हैं, और "तुम" आज भी "वो" के साथ अपने जिन्दगी के हसीन सपने देखने में व्यस्त हो जाती हैं। लेकिन क्या पता अगला नंबर उस "वो" का हो जो "तुम" के लिए अपने आप को "मैं" समझ रहा हो। क्या पता उस "वो" के लिए भी कोई दुसरा "वो" तैयार हो रहा हो। जरा सोचिये....?

Monday, November 5, 2012

देखा हैं हमने

पत्थरों को रोते देखा हैं हमने
सपनो को बदलते देखा हैं हमने

देखा हैं दिन का ढलता सूरज
और देखा हैं रातो के शुरू को भी

कोरे कागज़ पे निशा देखे हैं हमने
और देखा हैं शिकन हँसते चेहरे पर

हंसी चेहरे के गम को देखा है हमने
और रोया है हमने खुश होने पर

छलकती आँखों को देखा हैं काजल के तले
सिसकते होंठो को देखा हैं भींचते हुए

मुस्कुराते हैं लोग मतलब की दुनिया में
कई चेहरों को देखा हैं, एक चेहरे के पीछे

खोलो खोलो अपनी आँखे

खोलो खोलो अपनी आँखे,
कुछ लाया हूँ मैं तुम्हारे लिए,

जो हैं तुमसे भी प्यारा,
तुमसे भी अच्छा.

एक चुटकी धुप
सूरज से मांगकर

एक मुट्ठी रौशनी
किरणों से मांगकर

कुछ आँशु पत्थर दिल के
एक हंसी मासूम दिल से

दो मोती सीपियो से
दो बूंद बादलो से

अच्छा लगे तो और मांग लेना
मैं लाया हूँ सिर्फ तुम्हारे लिए

खोलो-खोलो अपनी आँखे
कुछ लाया हूँ मैं तुम्हारे लिए.