Monday, July 16, 2018

मत्‍युभोज कितना जाएज, कितना नाज़ायज

अब जबकि फेसबुक पर श्राद्ध को लेकर विभिन्‍न प्रकार के विलाप किए जा रहे हैं । मृत्‍युभोज को अनर्गल और अहितकारी बताया जा रहा है उस समय फेसबुक पर धर्मशास्‍त्रों के ज्ञाता और मैथिली और लिपि क अनन्‍य विद्वान पंडित भवनाथ झा ने विष्‍णुपुराण के इन दस श्‍लोकों के तरफ लोगों का ध्‍यान आकृष्‍ट किया है जिससे लोगों को श्राद्ध और मृत्युभोज समझने में आसानी हो - ब्‍लॉगर


विष्णुपुराण (3.14.21-30), वराहपुराण (13.53-58) एवं अन्य धर्मशास्त्रों में श्राद्ध पर होने वाले व्यय का विधान है। यहाँ पर अत्यन्त प्रतिष्ठित विष्णुपुराण से उन दस श्लोकों को उद्धृत किया जाता है जिनमें यह उल्लेख है कि श्राद्ध में व्यय केसे किया जाना चाहिए। ध्यान रहे कि यह निर्देश हमारे पितरों का है जिनकी सन्तुष्टि के लिए श्राद्ध किया जाता है।

पितृगीतांस्तथैवात्र श्लोकास्तांश्च शृणुष्व मे।
श्रुत्वा तथैव भवता भाव्यं तत्रादृतात्मना।।21।।

पितरों के द्वारा कही गयी पितृगीता के श्लोकों को मुझसे सुनें और सुनकर आदरपूर्वक इसी प्रकार का आचरण करें।।21।।

अपि धन्यः कुले जायेदस्माकं मतिमान्नरः।
अकुर्वत् वित्तशाठ्यो यः पिण्डान्नो निर्वपिष्यति।।22।।

क्या हमलोंगों के कुल में ऐसा विचारवाला धन्य व्यक्ति उत्पन्न होगा जो धन का घमण्ड न करता हुआ हमें पिण्ड देगा? 22।।

रत्नं वस्त्रं महायानं सर्वभोगादिकं वसु।
विभवे सति विप्रेभ्यो योस्मानुद्दिश्य दास्यति।।23।।

सामर्थ्य होने पर हमें लक्ष्य कर ब्राह्मणों को रत्न, वस्त्र, विशाल वाहन, सभी प्रकार की भोग्य सामग्रियों का दान करेगा?।।23।।

अन्नेन वा यथाशक्त्या कालेस्मिन् भक्तिनम्रधीः।
भोजयिष्यति विप्राग्र्यांस्तन्मात्रविभवो नरः।।24।।

अथवा इस समय, श्राद्ध के समय, भक्ति से नम्र बुद्धि वाला अपने सामर्थ्य के अनुसार उतना ही विभव वाला व्यक्ति अन्न से ब्राह्मणश्रेष्ठों को भोजन करायेगा।24।

असमर्थोन्नदानस्य धन्यमात्रां स्वशक्तितः।
प्रदास्यति द्रिजाग्रेभ्यः स्वल्पाल्पां वापि दक्षिणाम्।25।।

अन्नदान करने में भी यदि वह समर्थ नहीं है तो अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणश्रेष्ठों को केवल धन दान करेगा, साथ ही, थोड़ी ही सही दक्षिणा भी देगा।25।

तत्राप्यसामथ्र्ययुतः कराग्राग्रस्थितांस्तिलान्।
प्रणम्य द्विजमुख्याय कस्मैचिद् भूप! दास्यति।।26।।

हे राजन्, यदि इतना भी सामर्थ्य न हो तो उंगलि के अगले भाग से तिल (एक चुटकी भर तिल) उठाकर किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को देगा।26।

तिलैः सप्ताष्टभिर्वापि समवेतं जलाञ्जलिम्।
भक्तिनम्रः समुद्दिश्य भुव्यस्माकं प्रदास्यति।।27।।

अथवा सात या आठ तिल से युक्त जल अंजलि में लेकर भक्ति से नम्र होकर हमें लक्ष्य कर धरती पर देगा।27।

यतः कुतश्चित् सम्प्राप्य गोभ्यो वापि गवादिकम्।
अभावे प्रीणयन्नस्माञ्छ्रद्धायुक्तः प्रदास्यति ।।28।।

अथवा इसके अभाव में भी जहाँ कहीं से भी गाय के एक दिन का भोजन संग्रह कर हमें प्रसन्न करते हुए श्रद्धा के साथ गाय को अर्पित करेगा।28।

सर्वाभावे वनं गत्वा कक्षमूलप्रदर्शकः।
सूर्यादिलोकपालानामिदमुच्चैर्वदिष्यति ।।29।।
न मेस्ति वित्तं न धनं न चान्यच्छ्राद्धोपयोग्यं स्वपितृन्नतोस्मि।
तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौ कृतौ भुजौ वर्त्मनि मारुतस्य।।30।।

कुछ भी नहीं रहने पर वन जाकर अपनी काँख दिखाते हुए अर्थात् दोनों हाथ ऊपर उठाकर सूर्य आदि लोकपालों के प्रति जोर से यह कहेगा-
मेरे पास न तो सम्पत्ति है, न अन्न है न ही श्राद्ध के लिए उपयोगी अन्य वस्तुएँ हैं। मैं अपने पितरों के प्रति नतमस्तक हूँ। मेरी इस भक्ति से मेरे पितर तृप्त हों, मैंने वायु के रास्ते अपने दोनो हाथ ऊपर उठा लिए हैं।।29-30।

इत्येतत् पितृभिर्गीतं भावाभावप्रयोजनम्।
यः करोति कृतं तेन श्राद्धं भवति पार्थिव।।31।।

हे राजन्, इस प्रकार, सामर्थ्य एवं अभाव दोनों बातें कहनेवाली पितरों की इस वाणी के अनुसार जो कर्म करते हैं उनके द्वारा श्राद्ध सम्पन्न माना जाता है।31।।

यही अंश वाराहपुराण में भी 13.51 से 13.61 तक अविकल उद्धृत है।

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