Saturday, January 7, 2017

मैथि‍ली पत्रकारिता का इतिहास

मैथिली में पत्रकारिता का अपना गौरवशाली इतिहास है । हितसाधन से लेकर मिथि‍ला आवाज तक की अपनी विशेषता और विविधता रही है । लेकिन मैथि‍ली पत्रकारिता के इतिहास को संकलित करने का काम बहुत कह ही लोगों ने किया । पंडित चन्द्रनाथ मिश्र "अमर" की ‘’मैथिली पत्रकारिता का इतिहास” और डॉ यॊगानन्द झा की “ मैथिली पत्रकारिता के सौ वर्ष“ के साथ साथ विजय भाष्‍कर लिखि‍त ‘’बिहार मे पत्रकारिता का इतिहास’’ इस विषय में उल्लॆखनीय संदर्भ स्रॊत है । 

सबसे पहले 1905 में मैथि‍ली हितसाधन का प्रकाशन मासिक के रूप में जयपूर में हुआ । संभावनाओं के विपरीत विशाल मैथि‍ली आबादीवाले प्रदेश में इसकी नींव नहीं पड़ी, न ही शुरूआती प्रसार का कार्य यहाँ हुआ । अन्‍य स्‍थान पर ग्रहण कर पल्‍लवित और पुष्‍पि‍त होने के लिए ये बिहार जरूर आई । मैथि‍ली हितसाधन के संपादकीय बोर्ड के प्रमुख थे विद्यावाचस्‍पति मधुसूदन झा । पत्र‍िका ने उँचे आदर्श तय कर रखे थे । सामग्री में व्‍यापक विभिन्‍नता और साहित्‍यि‍क संपन्‍नता थी । फिर भी मैथि‍ली हितसाधन तीन साल से ज्‍यादा नहीं चल पाया । मैथि‍ली प्रकाशन की इस विफलता से पहले ही बनारस के मैथि‍ल विद्वानों का ध्‍यान अपनी ओर खींचा । यहाँ से मैथि‍ल विद्वानों ने 1906 में मिथलिामोद मासिक पत्र की शुरूआत की । इसके संपादक बने महामहोपाध्याय पंडित मुरलीधर झा और अनूप मिश्र एवं सीताराम झा । पंडित मुरलीधर झा ने तब एक समृद्ध पत्रि‍का की नींव रखी । इसकी टिप्‍पणि‍यो, आलोचनाओं, ‍विषय में व्‍यापक विभि‍न्‍नता और व्‍यंगात्‍मक शैली ने मैथि‍ली पाठकों का ध्‍यान बरबस आकृष्‍ट किया और पाठकों के बीच इसने अच्‍छी पैठ बना ली थी । लगभग 14 वर्षो तक निरंतर पंडित मुरलीधर झा इसका संपादन करते रहे । 1920 से 1927 तक इसका संपादन अनूप मिश्र और सीताराम झा ने किया । 1936 में पत्रि‍का को नया स्‍वरूप दिया गया और इसकी नई श्रंखला का संपादकीय दायित्‍व सौंपा गया उपेन्‍द्रनाथ झा को । नए स्‍वरूप में भी पत्रि‍का ने अपनी पुरानी अस्‍मिता कायम रखी । इस पत्रि‍का को टोन शुरू से अंत तक साहित्‍य‍िक ही रहा । 

1908 वह वर्ष है जब मिथि‍ला मिहिर ने प्रकाशन की दुनिया में दस्‍तक दी । बतौर मासिक शुरू हुई इस पत्रि‍का ने तीन वर्षों में अपना स्‍वरूप बदलकर साप्‍ताहिक कर लिया । 1911 से साप्‍ताहिक मिथि‍ला मिहिर का प्रकाशन शुरू हुआ हो गया । यह दरभंगा महाराज की मिल्‍कियत थी । पर 1912 तक आते-आते लगने लगा कि केवल मैथि‍ली भाषा की पत्रि‍का का चलना शायद मुश्‍कि‍ल हो । इसलिए पत्रि‍का को द्व‍िभाषी बनाकर इसमें हिंदी को भी शामिल कर लिया गया और मिथि‍ला मिहिर मैथि‍ली और हिंदी दोनों की पत्रि‍का हो गई । मिथि‍ला मिहिर के साथ किए गए निरंतर प्रयोगों से यह साफ जाहिर है कि प्रबंधकों का आत्‍मविश्‍वास डगमगाने लगा था और दो साल 1930-31 में इसमें अंग्रेजी मिलाकर इसे त्रिभाषी कर दिया गया । आजादी से पूर्व के इतिहास में दो ही पत्रि‍काएँ ऐसी मिलती है जो द्विभाषी से आगे त्रि‍भाषी अवधारणा लेकर सामने आई । इसके पूर्व राममोहन राय बंगाल में बंगदूत के साथ अभि‍नव प्रयोग कर चुके थे, जिसमें एक साथ अंग्रेजी, बँगला, फारसी और हिंदी के प्रयोग किए गए थे । पर 1930-31 के बाद मिथि‍ला मिहिर अपने द्व‍िभाषी स्‍वरूप में लौट आया और 1954 तक निर्बाध चलता रहा । बाद में यह एक और प्रयोग से गुजरा । 1960 में यह सचित्र साप्‍त‍ाहिक के रूप में सामने आया । बिहार की की पत्रकारिता के इतिहास में यह सबसे प्रयोगधर्मी पत्र साबित हुआ । इसके संपादकों में पंडित विष्‍णुकांत शास्‍त्री (1908-12), महामहोपाध्‍याय परमेश्‍वर झा, जगदीश प्रसाद, योगानंद कुमार (1911-19), जनार्दन झा ‘जनसीदान’ (1919-21), कपिलेश्‍वर झा शास्‍त्री (1922-35) और सुरेन्‍द्र झा सुमन (1935-54) शामिल थे । 1970 के दशक में इसके संपादन का जिम्‍मा सुधांशु शेखर चौधरी पर था । पत्रि‍का के कई संग्रहणीय विशेषांक निकले, जिनमें ‘मिथि‍लांक’ (अंक अगस्‍त 1935) मैथि‍ली पत्रकारिता के लिए एक अमुल्‍य योगदान माना जाता है । 

1920 के दशक में मैथि‍ली प्रकाशन के प्रयत्‍न बिहार के अलावा बाहर से भी होते रहे । इससे यह भी पता लगता है कि तब भी मिथि‍ला के लोग बाहर भी काफी संखया में फैले हुए थे । प्रकाशनों की अपेक्षा थी कि बाहर रहने के बावजूद अपनी माटी और बोली से एक समर्पण का भाव उनमें मौजूद होगा । इसी भावनात्‍मक लगाव की अभिव्‍यक्‍त‍ि 1920 में मथुरा से प्रकाशि‍त मिथि‍ला प्रभा में हुई, जिसे रामचंद्र मिश्र जैत ने निकाला । अक्‍तूबर 1929 में अजमेर से मैथि‍ल प्रभाकर का प्रकाशन शुरू हुआ । इन पत्रों का उद्देश्‍य समाज हित मे आवश्‍यक सूचनाओं का आदान-प्रदान करने के साथ मैथि‍ल समाज को अपनी जड़ों से जोड़े रखना था । पर मैथि‍ल लोगों के सरंक्षण के अभाव और उदासीनता ने दोनों पत्रों को असमय बंद होने पर मजबूर किया । मिथि‍ला-प्रभा अगस्‍त 1920 से दिसंबर 1924 तक चली और मैथि‍ल प्रभाकर अक्‍तूबर 1929 से दिसंबर 1930 तक । उत्‍साहजनक पाठकीय संरक्षण के अभाव के बावजूद तत्‍कालीन मैथि‍ल पत्रकारों ने हार नहीं मानी, बल्‍कि‍ उन्‍हें इस दिशा में और कोशि‍श करने के लिए प्रेरित ही किया । पर मैथि‍ली पत्रकारिता को अपेक्षाकृत समृद्ध और समर्थ मैथि‍ल समाज का वह स्‍नेह कभी नहीं मिला, जो अपेक्षि‍त था । बहुत साहस और स्‍वत: स्फूर्त प्रेरणा से मिथि‍ला के दो विद्वानों उदित नारायण लाल राय और नंदकिशोर लाल दास ने 1925 में श्री मैथि‍ली का प्रकाशन शुरू किया । उन्‍होंने तत्‍कालीन समय के हिसाब से लोकप्रिय शैली में पत्रि‍का निकाली और एक पेशेवर रंग-रूप देते हुए पूर्व के विपरीत गैर-साहित्‍यि‍क आलेख भी शामिल किए । पर पत्रि‍का केवल दो साल ही चल पाई । यह दौर ऐसा था जिसमें मैथि‍ली पत्रों के संपादक संभवत: यह तय नहीं कर पा रहे थे कि पत्रों का स्‍वरूप साहित्‍यि‍क रखा जाए या गैर साहित्‍यि‍क ? दोनों तरह की पत्रि‍काऍं पहले निकाली जा चुकी थीं और विफल रही थी । बावजूद इसके 1929 में पंडित कामेश्‍वर कुमार और भोला लाल दास ने 1924 में मिथि‍ला नाम की साहित्‍यि‍क पत्र‍िका का प्रकाशन शुरू किया और इसके शि‍ल्‍प में सामाजिक-सांस्‍कृतिक विषय भी शामिल किए । इसका प्रकाशन लहेरिया सराय, दरभंगा विद्यापति प्रेस से शुरू हुआ । इसके संपादकों ने अवैतनिक काम किया और मिथि‍ला ऐसा पत्र बना, जिसने समाज-सुधार को लक्ष्‍य कर कार्टून का प्रकाशन शुरू किया, पर सामाजिक- सांस्‍कृतिक और साहित्‍य‍िक स्‍वरूपवाली पत्रि‍का भी पाठकीय रुचि परिवर्तन करने में विफल रही और 1931 में इसे बंद कर देना पड़ा । 

बनैली के राजा कुमार कृष्‍णानंद सिंह ने अपने सद्प्रयास से मैथि‍लीं पत्रों को उबारने की एक कोशि‍श की । 1931 में उनके संरक्षण में मिथि‍ला मित्र का प्रकाशन शुरू हुआ, पर इसे उसी साल बंद करना पड़ा । कृष्‍णानंद सिंह ने हिंदी पत्रकारिता को संरक्षण देने में अच्‍छी भुमिका निभाई थी और विशेषांक निकालने के प्रति वे काफी गंभीर रहते थे । इसलिए उनके संरक्षण में निकली हिंदी पत्रि‍का गंगा का पुरातत्‍वांक विशेषांक हो या इस नई-नई मैथि‍ली पत्र‍िका का ‘जानकी-नवमी विशेषांक’, आज तक समृद्ध विरासत के रूप में संरक्षि‍त है । मिथि‍ला-मित्र को प्रकाशन के वर्ष 1931 में ही बंद करना पड़ा, पर पाठकों को यह एक संग्रहणीय विशेषांक दे गया । एक और महत्‍वपूर्ण कोशि‍श हुई बिहार के बाहर से । अजमेर से पंडित रधुनाथ 

प्रसाद मिश्र ‘पुरोहित’ ने मैथि‍ली बंधु की शुरूआत की । पंडित मिश्र ने इस पत्रि‍का का शि‍ल्‍प तय करने में पर्याप्‍त सावधानी बरती । इसके शि‍ल्‍प से ऐसा लगता है कि विफल रहे मैथि‍ल पत्रों का उन्‍होंने व्‍यापक अध्‍ययन किया और अपने हिसाब से कमियों को पूरा करने की कोशि‍श की । पत्रि‍का का फलक व्‍यापक कर इसके शि‍ल्‍प में समाज और संस्‍कृति‍ के अलावा साहित्‍य विषय तो रखे ही गए, इतिहास को भी इसमें शामिल करके पत्रि‍का को अनुसंधान की दृष्‍ट‍ि से महत्‍वपूर्ण बनाया गया । इस पत्रि‍का की स्‍वीकार्यता पहे के मुकाबले बढ़ी, जिससे इस बात को बल मिलता है कि गंभीर और अनुसंधानात्‍मक सामग्री में मैथि‍ली पाठकों ने अपेक्षाकृत ज्‍यादा रूचि ली । इसलिए पहले चरण में यह चार वर्ष (1939-1943) तक आबाध चली । बीच में इसका प्रकाशन दो वर्षों के लिए स्‍थगित करना पड़ा । 1945 में इसका प्रकाशन पुन: शुरू हुआ और दस वर्षों तक देशव्‍यापी मैथि‍ल समाज का प्रि‍य पत्र बना रहा । 

दुसरी ओर बिहार में मैथि‍ल पत्रों को लेकर कोशि‍श जारी रही । भुवनेश्‍वर सिंह भुवन ने 1937 में मुजफ्फरपुर से विभूति का प्रकाशन शुरू किया, जो महज एक साल चला । भोला दास ने 1937 में ही दरभंगा से भारती मासिक का प्रकाशन शुरू किया, जो कुछ ही समय चल पाया । 1938 में अजमेर से मैथि‍ली युवक का प्रकाशन शुरू हुआ, जो 1941 तक चला । आगरा से ब्रज मोहन झा ने जीवनप्रभा 1946 में शुरू की, जो 1950 तक चली । एक क्षणि‍क परिवर्तन पत्रि‍काओं के नामकरण में देखने में आया । पहले मैथि‍ल पहचान के लिए ‘मैथि‍ल’ या ‘मिथि‍ला’ शब्‍द पत्रि‍काओं के नाम के लिए आवश्‍यक समझे जाते थे । उस मिथक को इधर के प्रकाशनों ने विभूति और भारती निकालकर तोड़ने की कोशि‍श की । 

पटना में भी मैथि‍ली पत्रों को लेकर गतिविधि‍याँ बंद नहीं हुई थी । बाबू दुर्गापति सिंह ने संस्‍थापक-संपादक और लक्ष्‍मीपित सिंह ने बतौर प्रबंध-निदेशक के एक सुप्रबंधि‍त माहौल में मिथि‍ला-ज्‍योति का प्रकाशन शुरू किया, पर 1948 में शुरू हुई इस पत्रि‍का को सुप्रबंधन भी 1950 से आगे तक नहीं ले जा पाया । 

पंडित रामलाल झा ने 1937 में मैथि‍ली साहित्‍य पत्रि‍का की शुरूआत की । इस पत्रि‍का ने साहित्‍य समालोचना के क्षेत्र में एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्‍तुत किया । यह पत्रि‍का भी महज दो साल चल पाई । 

दरभंगा से प्रकाशि‍त मासिक वैदेही, कोलकाता से प्रकाशि‍त मासिक मिथि‍ला दर्शन, इलाहाबाद से प्रकाशि‍त मैथि‍ली बाल पत्रि‍का बटुक और मैथि‍ल समाचार पांडू, असम से प्रकाशि‍त संपर्क सुत्र और कानपुर से प्रकाशित मासिक मिथि‍ला दूत मैथि‍ली पत्रकारिता की अपवाद रहीं, जिन्‍होंने दो-तीन दशकों तक अपनी उपस्‍थि‍ती बनाए रखी । इनमें वैदैही का संपादन कृष्‍णकांत, अमर आदि ने ;किया । मिथि‍ला दर्शन के संपादन का दायि‍त्‍व डॉ.प्रबोध नारायण सिन्‍हा और डॉ. नचिकेता पर था । इसके अलावा ऐसे मैथि‍ली पत्रों की संख्‍या दर्जनाधिक थीं, जिन्‍होंने जितना हो सका, अपने पत्रकारिता दायित्‍व का निर्वाह किया । मैथि‍ली पत्राकारिता का इतिहास कम से कम –से-कम इनके उल्‍लेख की तो माँग करता है । इनमें दरभंगा से प्रकाशि‍त और सुरेन्‍द्र झा द्वारा संपादित स्‍वदेश 1948, निर्माण (साप्‍ताहिक) और इजोता (मासिक संपादन सुमन और शेखर) स्‍वेदश दैनिक (संपादक-सुमन), दरभंगा से ही प्रकाशि‍त साप्‍ताहिक जनक (संपादन –भोलानाथ मिश्र), यहीं से प्रकाशि‍त मासिक पल्‍लव (संपादक –गौरीनंदन सिंह), कोलकाता से प्रकाशि‍त साप्‍ताहिक सेवक ( संपादक –शुंभकात झा और हरिश्‍चंद्र मिश्र ‘मिथि‍लेंदू’), दरभंगा से प्रकाशि‍त त्रैमासिक परिषद पत्रि‍का (संपादक – सुमन और अमर), मासिक बाल पत्रि‍का धीया-पुता (संपादन-धीरेन्‍द्र), मासिक मैथिली परिजात (संपादक – रामनाथ मिश्र ‘मिहिर’), कोलकाता से प्रकाशि‍त त्रैमासिक कविता संकलन मैथि‍ली कविता ( संपादक – नचिकेता), मासिक (संपादक –कृति नारायण मिश्र और वीरेन्‍द्र मलिक ), दरभंगा से प्रकाशि‍त साप्‍ताहिक मिथि‍ला वाणी (संपादक –योगेन्‍द्र झा), गाजियाबाद से प्रकाशि‍त मैथि‍ली हिंदी द्व‍िभाषी पत्रिका प्रवासी मैथि‍ली ( संपादक –चिरंजी लाल झा) शामिल है । एक साहित्‍य‍िक डाइजेस्‍ट सोना माटी का प्रकाशन पटना से 1969 में शुरू किया गया । बिहार गजट ने मैथि‍ली पत्रों की असफलता का मुख्‍य कारण पाठकों का अभाव तो बताया ही है, साथ ही इस विरोधाभास पर आशर्च्य व्‍यक्‍त किया है कि उत्‍तरी बिहार और नेपाल की तराई की मैथि‍ली बहुल आबादी क्रय शक्‍त‍िसंपन्‍न शिक्षि‍त मैथि‍ल परिवारों के औधोगिक नगरों, मसलन राँची, धनबाद, जमशेदपुर, राउरकेल, मुंबई, वाराणसी और इलाहाबाद में अच्‍छी उपस्‍थि‍ति के बावजूद किसी मैथि‍ली पत्रि‍का ने स्‍थायित्‍व ग्रहण नहीं किया । दरअसल, मिथिला मिहिर के बंद होने के बाद नयी पीढी मैथिली में अखबार का पन्‍ना कैसा होता है, वो भूल चुकी थी । कोलकाता से प्रकाशि‍त मिथि‍ला समाद ने इस कमी को भरा और लोगों को फिर से मैथि‍ली में समाचार पढने का सुख मिला । फिर सौभाग्‍य मिथि‍ला आया जिसने पहली बार टेलिविजन मैथि‍ली समाचार से लोगों को अवगत किया । फिर मिथि‍ला आवाज का दौर आया । मिथि‍ला में हर्ष ध्वनी हुई । लोगों को पहली बार रंगीन मैथि‍ली अखबार पढ़ने का सुख मिला । लेकिन इसे मैथि‍लों की फूटी किस्‍मत ही कही जाय की अपने आरंभ से मात्र दूसरे वर्ष में इसने दम तोड़ दिया । मैथि‍ली पत्रकारिता का ये अंत था । लोगो को अब कागज पर मैथि‍ली अखबार पढ़ना सपने जैसा हो गया है । हलाँकि वेब मीडिया इसमें कुछ हद तक सफल हो पायी है लेकिन कागज पर अखबार पढ़ने का सुख तीन करोड़ मैथि‍लों को कब तक मिलेगा ये कहना मुश्‍कि‍ल है । 

मैथिली मे वेब पत्रकारिता 

भारत के लगभग समस्त भाषा मे अखबार, पत्रिका के संग संग उसका ऑनलाइन वर्जन भी बाहर आया है । लेकिन मैथिली में वेब पत्रकारिता अभी भी शैशवाकाल में है । मैथिली में दैनिक पत्र के साथ साथ वेब पत्रिका कि‍ वर्तमान स्थिति अति दयनीय एवं चिन्तनीय है । अखबारी रिपोर्ट के अनुसार विश्वमे लगभग तीन करोड़ मैथिली भाषी है । स्वभाविक रुप से इसके पाठक वर्ग की संख्या अधिक होगी । लेकिन स्थिति दुखद है ! विपुल साहित्य भंडार से हम सब गौरवान्वित होते है । प्रतिभाशाली युवा मैथिल हरेक सेक्टर मे अपनी प्रतिभा का लॊहा मना रहा है । उसके बाद भी सूचना प्रौद्योगिकी के इस युगमे मैथिली मे अखबारी प्रकाशन की समस्या यथावत बनी हुई है । पत्र पत्रिका की कमी हमेशा खटक रही है । मि‍थि‍ला समाद और मिथि‍ला आवाज का ऑनलाइन संस्करण का स्थायी स्थगन भी मैथिली वेब पत्रकारिता के इतिहास में बहुत बड़ी छति थी ।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि मैथि‍ली में साहित्‍यि‍क पत्र पत्रि‍का की भरमार रही है । लेकिन ऑनलाइन पत्रकारिता के क्षेत्र में हम अन्‍य भाषाओं की अपेक्षा काफी पीछे छुट गए है । वेब पत्रकारिता की स्थिति और उपस्थिति ना के ही बराबर है । कुछ जोशि‍लो युवा है जो अपनी तकनीनकी और पत्रकारिय ज्ञान को लेकर इंटरनेट पर सक्रि‍य है । मिथि‍ला से लेकर कोलकाता और दिल्‍ली मुंबई के मैथि‍ल इस कार्य मे लगे हैं । मिथिला मैथिली से संबंधित समस्त राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, आर्थिक मुद्दों की बात इन्टरनेट पर ब्लॉगिंग के माध्यम से सामने ला रहे हैं । इतना ही नहि, किछु मिथिला-मैथिली प्रेमी मैथिलीमे न्यूज पॊर्टल भी चला रहे हैं । ऐसे न्यूज पोर्टलों में ई-समाद, मिथिमीडिया, प्राईम न्यूज, मिथि‍ला जिंदाबाद, मिथिला मिरर,ऑनलाईन मिथि‍ला और नव मिथिला कुछ उल्लेखनीय नाम है ।



प्रारंभिक मैथिल ब्लॉगर ई-समाद, मिथिमीडिया, मिथिला मिरर, मिथिला प्राइम, नव मिथिला आदि मैथिली न्यूज पोर्टलों की गतिविधि, इसके उद्देश्य और उपलब्धी की विवेचना के उपरान्त ये बात स्पष्ट है कि इन्टरनेट पर मिथिला में वेब आधारित पत्रकारिता का उज्जवल भविष्य आने वाला है । जिस तरह से युवा वर्ग मैथि‍ली ब्‍लॉगिंग की और आकर्षीत हो रहे हैं इसमें कोई दो राय नहीं है कि आने वाला समय मैथि‍ली वेब पत्रकारिता का स्‍वर्णि‍म युग लाएगा ।

4 comments:

  1. Ye maithil SAMAJ kamjor Lyon hai ye kyon na chahta andolan karna jabki sab jati andolan kar rahi bhai uttar Pradesh Aligarh khair tappal milak fatehpur con.9728721370 pramod maithil

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  2. Sona mati patrika 1969 patna se shuru huei thi. Uske sampadak they Mahesh narayan Bharti bhakta.uske bare mai jankari chahti hun.

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  3. महामहोपाध्याय मनोहर ठाकुर भी मिथिला मिहिर के संपादक थे एक बार देख लीजिए और काशी नरेश के राजपंडित भी थे 1890 से 1930 तक और उनके द्वारा लिखी गई पांडुलिपि आज भी दरभांगा संस्कृत विश्वविद्यालय में सुरक्षित हैं ,,

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