Wednesday, January 8, 2014

प्र‍ियतमा के नाम एक खुला पत्र

प्रियतम,

बहुत दिनों से एक बात कहना चाह रहा हूं लेकिन पता नही चल पा रहा था कि‍ कैसे बताउ। एक बात जो बार बार मन को कचोट रहा है वो ये है कि, क्या मैं सच में इतना बुरा गया हूं या ऐसा सिर्फ तुम्हे लग रहा है। प्र‍ि‍य शायद ये बात तुम्हारे समझ में नही आये लेकिन मैं आज भी तुमसे उतना ही प्रेम करता हूं जितना करता आया था। आज भी मेरे दिल में तुम्हारे लिये वही जगह है जो पहले थी। लेकिन प्रिय शायद मैं आज तुम्हे उतना समय नहीं दे पा रहा हूं जितना पहले देता था। या शायद नहीं; पहले भी मैं तुम्हे समय कहाँ दे पाता था वो तो हम एक ही ऑफिस में काम करते थे इसलिये शायद मिल लेते थे या आठ घंटे हम एक दुजे को देख लेते थे। (ये तुम्हारे ही शब्द है, शायद कुछ याद आ जाये). प्रिय मुझे आज भी याद है समय को लेकर हमारे बीच(नहीं..नहीं सिर्फ मेरे) कितना हो-हल्ला, चिल्ल-पो मची रहती थी। तुम्हारी हमेशा शिकायत रहती थी कि मैं तुम्हे समय नहीं दे पाता हूं। बकायदा तुमने तो उंगलीयों पर गिन भी रखा था कि हम कब-कब और कहाँ-कहाँ मिले है। एक-एक दिन वो छोटा सा छोटा लम्हा; पता नहीं तुम्हे इतना याद कैसे रहता है। ये लड़कियाँ होती ही ऐसी है लड़को में नुक्स निकालने और उन्हे निचा दिखाने में मजे लेने वाली। खैर....। एक दिन टेलीफोन पर बात नहीं होने से तुम ऐसे करने लगती थी जैसे मैने कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो, और गुनाह भी ऐसा जिसका प्रायश्चि‍त करना नामुमकीन हो। तुम्हे ऐसे लगता था कि मैं हर पल तुम्हारे पास रहूं तुम्हारे नजरों के सामने...मैं आज तक ये नहीं समझ पाया कि ये तुम्हारा प्यार जताने का नजरीया था या तुम खुद को अनसिक्योर फील करती आ रही थी कि जैसे ही मैं नजरो से ओझल होउंगा कोई और नयी प्रियतमा की तलाश में लग जाउंगा। या मैं एक मिनट के लिये भी नजरो से ओझल होउंगा और अलादिन के जिन्न कि तरह हवा हो जाउंगा।

ये तो रही पुरानी बातें अब नयी बातों पर आता हूं। आजकल हमे पता है कि हम एकदुसरे से दुर है लेकिन तुम हमेंशा मुझे ये क्यों बतलाती रहती हो कि मैं तुमसे दुर हूं? या मैं जानबुझ कर तुमसे अलग हो गया हूं? प्रिय तुम्हे पता है जुदाई का दर्द मेरे अंदर भी है, मुझे भी तुम्हारे पास नहीं होने का गम सताता है। मुझे भी लगता है कि हम साथ होते थे तो अच्छा लगता था; मुझे भी तुम्हे भी। हमे ये भी मालूम है कि पहले कितना भी रूठो अगली सुबह तो मिलना हो ही जाता था जो की अब नही हो पाता है। हम एक दुसरे के चेहरो को देखकर भी संतोष कर लेते थे। समझ जाते थे ‍एक दुसरे को देखकर, उनके चेहरे को पढकर। और जब हम दुर हुये है तो ना वो चेहरा है और ना ही तुम्हारा सामिप्य। तुम्हे शायद पता नहीं है लेकिन मैं भी उतना ही उदास होता हूं जितना की शायद तुम होती होगी हमारी दुरीयों से। लेकिन प्र‍ि‍य तुमने कभी हमारे इस दुख को नहीं समझा हमेंशा मारती रही ताना कि तुम मुझे भूल गये हो या अब मैं याद क्यों आउ तुम तो नयी जगह पर आ गये हो तुम्हे नयी मिल जायेगी वगैरह-वगैरह। और जो तुम्हारा सबसे बेहतरीन राग है, वो है ‘’मिलने कब आ रहे हो’’। प्र‍ि‍य क्या तुमने कभी सोचा है ये 2700 किलोमीटर ‍की दुरी यूं ही तय नही होती, पुरे दो दिन लगते है। और हवाई जहाज से जाने लायक अपनी औकात नहीं हुई है अभी। फिर भी तुम मर्फिन कि सुईयों कि तरह हर रोज हर सुबह, हर दिन कोंच-कोंच कर सुनाती रहती हो कि मैं तुमसे मिलने नही आ रहा हूं। एक मिनट अगर तुम्हारा फोन लेट से उठाउ तो तुम्हे लगता है कि मैं कहीं और(बकौल तुम्हारे शब्दों में किसी और लड़की के साथ) व्यस्त हूं। कभी तुमने ये नहीं सोचा कि कुछ मजबूरीयाँ रही होगी इसलिये फोन नही उठा सके या फोन नही कर सके। लेकिन नहीं...। ऐसा कभी नही हुआ। मेरे हरेक लेट कॉल या कॉल नही करने पर मुझे एक-एक घंटे तक एक्सप्लेनेशन देना पड़ता है लेकिन फिर भी मैं तुम्हे ये नही समझा पाता हूं या तुम समझ नहीं सकती हो कि ऐसा क्यों होता है। तुमने कभी भी मेरे एकबार कहने पर ये नहीं मान लिया कि हां ये बात थी। हमेशा बात को बहस में ही तब्दील करके खत्म किया। चलो मैं इसे भी अपनी ही गलती मानता हूं। मेरे अंदर ही वो काबीलियत नहीं थी कि मैं तुम्हे समझा सकू लेकिन क्या कभी तुमने सोचा है कि प्यार में बहस करना या शक करना क्या जायज है। या एक ही बार में बात मान लेने से दोनो का भला नही हो सकता। या तुम्हे हमेशा ऐसा क्यों लगता है कि मैं झूठ बोल रहां हूं। पहले तो तुम्हे ऐसा नही लगता था। पता नहीं आज-कल तुम्हे क्या हो गया है। प्रेम पर या अपने प्यार पर भरोसा क्यों नहीं रहा।

एक छोटी सी कहानी सुनाता हूं प्लीज इसे उपरोक्त बातों से लिंक मत कर लेना ये बस ऐसे ही है याद आ गया तो सोचा लिख दूं। एक बार कबीर दास से मिलने एक व्यक्ति‍ पहुंचा। बातों ही बातों में उन्होने कबीर जी पुछा कि गुरूदेव एक बात बताइये ‘क्या शादी करनी चाहिये’? जाड़े का समय था कबीर दास जी धुप मे बैठ कर कुछ लिख रहे थे उन्होने बिना उत्तर दिये अपनी धर्मपत्नी को आवाज लगाई जरा लालटेन(लैम्प) जला कर लाना। कबीर की पत्नी ने चुपचाप लालटेन जला कर कबीर के पास लाकर रख दी और अंदर चली गयी। उस व्यक्त‍ि को घोर आश्चर्य हुआ उन्होने कबीर जी से कहा गुरूदेव इतनी धुप है सब कुछ साफ-साफ दिखाई दे रहा है फिर इस लालटेन का क्या प्रयोजन। कबीर जी ने जबाव दिया यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है। पत्नी शांत हो आज्ञाकारी हो और किसी भी बात पर आपस में मतभेद नहीं करती हो तो शादी करनी चाहिये।

मुझे पता है तुम क्या सोच रही होगी इस कहानी को पढ़कर लेकिन प्लीज ऐसा कुछ मत सोचना। हां इतना जरूर कहना चाहुंगा कि मैं रोबोट नहीं बनना चाहता हूं। मुझे इन्सान ही रहने दो। रूटीन में मुझे मत बांधो, मुझे स्वछंद ही जीवन गुजारने दो। मत रखो मुझसे कोई आशा बस अपना लो मुझे। इससे ज्यादा शायद मैं कुछ ना लिख सकू।

तुम्हारा
प्रिय

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