Monday, January 6, 2014

एक यादगार सफर की कहानी खुद अपनी जुबानी

पता है कल का सफर, शायद ही कभी भुल सकू। एक छोटी सी यात्रा कैसे मजेदार और यादगार बन गयी पता ही नही चला। इस बार नव वर्ष के लिए मामाजी के यहां आया हुआ था। मंशा दो थी, पहला अपने ममेरे भाईयों के संग नव वर्ष ( जैसा कि‍ पिछले कई वर्षों से अपने अनुज भ्राता से सुनता आया हूं की उनके संग नव वर्ष मनाना बेहद मज़ेदार और शानदार होता है) मनाया जाय। और दुसरा अपनी आँख जो पता नही क्यों अब सही तरीके से काम नहीं कर रहा है। दृष्टी दोश का तो नहीं कहा जा सकता हॉ कभी-कभी अत्याधि‍क लाल और आँखों से पानी आने की शि‍कायत रहती है, को अच्छे तरीके से जांच करवाया जाय। मैने सुना था कि नेपाल आँखों के इलाज के लिए एशिया में सबसे बेहतरीन जगह है। खैर...

निकल पड़ा अपने सफर पर और माशा अल्लाह एकदम अजीब, रोमांचक, मजेदार और ना जाने क्या क्या।

हमने पिछली रात ही प्रोग्राम बनाया था कि सुबह जल्दी निकला जाय, लेकिन रात की खुमारी पता नहीं हम युवाओं को सुबह के ८-९ बजे से पहले उतरती हीं नहीं है। तो जैसा की पहले से तय था कि जल्दी उठना है उसको तहस-नहस करके हम १० बजे तक तैयार हुए और चल पड़े अपने यादगार सफर पर।

जैसे ही हम विरपुर, जिला-सुपौल के गोल-चौंक पहुंचे देखा की एक भी ऑटो नहीं है, पुछने पर पता चला कि ऑटो अब बस स्टैंड जो कि करीब एक किलोमीटर दूर है से मिलेगा ठीक है भाई हम वहां भी पहुंचे, जैसे-तैसे एक मैजीक मिला, जैसे-तैसे इसलिए कि हमने करीब १०-२० ऑटो वालो से पुछताछ की उसके बाद जाकर ये मिला। खैर हम भेड़ बकरीयों की तरह उसमें बैठे। भेड़-बकरी इ‍सलिए कि एक सीट पर पता नहीं कितने लोग बैठे थे। खैर...अभी हम कुछ दुर हीं चले थे कि सामने एक व्यापरी जो रास्ते में अपने सोनठी (पटसन निकालने के बाद जो डंठल बच जाता है) का करीब २० बोझा (गट्ठर) लेकर रास्ते में खड़ा था गाड़ी को मजबुरन वहां रूकना पड़ा और फिर चला सोनठी को उस पर चढ़ाने का सिलसिला। दुर से दिखने वाला वो बीस बोझा कब ३०-४० बोझ में बदल गया पता ही नहीं चला। खैर एक एक कर सारे गट्ठरों को उस पर चढ़ाया गया। लो जी हो गया एक घंटा बर्बाद। चढ़ाने के बाद उस गट्ठर का जो असली मालीक था वो और उस व्यापारी में पैसे को लेकर बहस होने लगी। व्यापारी के पास पुरे पैसे नहीं थे और मालीक बिना पैसे के उसे जाने नहीं देना चाहता था। बहस बढ़ी और फिर खींचती गयी। एक घंटे तक हमारे संग गाड़ी के सभी लोग मूकदर्शक बनें रहे। करीब एक घंटे के बहस के बाद मालीक ने गाड़ी ड्राईवर से बोझा उतार देने के लिए कहा। अब ड्राईवर इस बात पे अड़ गया कि हमें तो किराये के पैसे चाहिए। इतनी मेहनत से उसे चढ़ाया है, इतना पसीना बहाया है, हाथ में छाले पड़ गये है। मैं तो बिना पैसे लिए नहीं उतारूंगा। उसके बाद फिर शुरू हुई व्यापारी और ड्राईवर के बिच हि‍ल-हुज्जत। और अंतत: व्यापारी को १०० रूपये देने ही पड़े। खैर कैसे भी हो विवाद खतम हुआ और यात्रा प्रारंभ हुई। अभी मुश्कील से गाड़ी ५ किलोमीटर भी नहीं बढ़ने पाई थी की अचानक गाड़ी रूकी और एक यात्री उतर कर सामने के बैंक में चला गया। मैने सोचा इन्हें यहीं तक जाना था इसलिए ड्राईवर ने गाड़ी रोकी होगी लेकिन जब १० मिनट तक गाड़ी यू हीं यंत्रवत खड़ी रही तो मैने ड्राईवर से पुछा भाई साहब गाड़ी आगे क्यों नहीं बढ़ा रहे हो। उसने कहा क्या बताये भाई साहब... अभी-अभी जो बंदा बैंक गया हुआ है उसी के लिए गाड़ी रोक कर रखा है उसने कहा कि अभी १० मिनट में लौट आउंगा। मैं सन्न रह गया। एक बंदे के लिए गाड़ी के सारे पैसेंजर परेशानी उठा रहें है। ड्राईवर ने कहा क्या करें भाई आज अगर नहीं रुका तो कल से ये मुझे इस रास्ते में रुकने भी नहीं देगा। हो सकता है मारपीट भी करें। मै हतप्रभ। ऐसा ट्रनों में तो हमारें यहाँ होता ही रहता है। धमहरा घाट रूट याद ही होगा आप सबों को किस तरह गोप की मनमानी चलती है। और शायद आपको पता भी होगा भारत में ट्रेन हाइजेक भी सबसे पहले बार हमारे यहां ही हुआ था। हां हां हमारे यहां वर्षों से ऐसा ही होता आया है। वैसे इन छोटे गाड़ीयों में इस तरह की मनमानी पहली बार देख रहा था। उसके बाद तो गाड़ी रूकने का सिलसिला बढ़ता ही गया कभी पान खाने के बहाने कभी चाय के बहाने वगैरह-वगैरह। खैर जैसे-तैसे हम जोगबनी पहुंचे। वहां रिक्शा वालों ने घेर लिया। अपनी मनमानी...अरे भाई कैसे पैदल जाओगे। बॉर्डर तक पैदल ही चलना पड़ेगा। हम रिक्शा पर चढ़े और चल पड़े अभी बॉर्डर पार किये ही थे कि रिक्शा पंक्चर हो गया। लो भैया बढ़ गयी मुश्कीलें वैसे जाड़े की धुप गुनगुनी थी लेकिन फिर भी दूर-दूर तक रिक्शा ठीक होने का कोई निशान नहीं दिखाई दे रहा था। हम पैदल ही आगे बढ़ते रहे और रिक्शा वाले को आगे भेज दिया ताकि वो रिक्शा ठीक करवा सकें। करीब २ किलोमीटर चलने के बाद रिक्शा चालक एक दुकान पर पंक्चर ठीक करवाता मिला। चुंकि‍ भुख भी बहुत लगी थी इसलिए हमलोग भी पास के दुकान में मोमो खाने बैठ गये। मोमो भी ऐसा की जब ऑर्डर दिया तभी तैयार होने गया। खैर मोमो और उसकी चटनी अच्छी थी। हमने मजे लेकर खाया और फिर चल पड़े गंतव्य की और। हम हॉस्पिटल पहुंचे और रिशेप्शन पर पर्चा कटवाया। हमे ये देखकर हैरानी हुई की इतने बड़े अस्पताल की फीस मात्र २२ रूपये थी। अस्पताल में करीब १०० से ज्यादा स्टॉफ थे कैसे मैनैज होता था और खर्चा चलता था ये तो भगवान ही जाने। खैर हमें लगा ऐसा सिर्फ यहीं हो सकता है हमारे यहॉं तो इसी बात के कम से कम १००० रूपये लगते। वैसे आँखों का इलाज तसल्लीबख्स हुआ। करीब ६ चरणों में विभीन्न प्रकार के जांच के बाद डा. ने बताया कि आँख में कोई दोश नहीं है बस ज्यादा देर तक लैपटॉप पे काम करने के कारण आँखे ड्राय हो जा रही है। कुछ दवाई लिखी गयी और रीडींग ग्लास का सुझाव दिया गया। उसके बाद हम बाहर निकले संयोग से वही रिक्शा वाला मिल गया बोले भैया आपके कारण ही बैठा हूं वापस चलेगें क्या। हमने कहा नहीं यार हम आगे विराटनगर बजार तक जाना है कंबल और कुछ मशाले खरीदने है। सुना था कि वहाँ ये दोनो चीजे सस्ती मिलती है। रिक्शा वाला भी तैयार हो गया। बोला जो देने का होगा दे दिजीयेगा हम तो आपको ही लेकर जाएंगे। हमने बार बार पुछा और वो बार बार यही कहता रहा। खैर हमने भी सोचा कि ५० आने के हुए है तो जाने के क्रम में चुकीं बाजार भी जाना था तो ७० रुपये बनेगें। हमने सोचा और बैठ गये। वहां कंबल तो अच्छा मिला लेकिन मशाले ‍के नाम पर सिर्फ इलाइची ही हाथ लग पाया। दुकानदार ने कहा कि भैया इसके अलावा सारा माल भारत से हीं आता है। हम वापस चलें। जोगबनी पहुंचने से पहले ही रिक्शा वाले ने कहा कि भैया हमारी ट्रेन लगी है अगर आप बुरा ना माने तो मैं आपको यहीं उतार देता हूं क्योंकि मुझें यही रिक्शा लगाना है। हमने सोचा चलो बेचारे की ट्रेन छुट जायेगी इससे अच्छा होगा कि यहीं उतर जायें। हम उतरे और जैसा कि तय था ७० रूपया देने लगें। रिक्शा वाला अचानक से पलट गया और १०० रूपया मांगने लगा। हमलोगों ने बहुत कहा कि भाईसाहब इतना नहीं बनता है और हमें इतनी दुर पैदल ही चलना पड़ेगा फिर भी वो नहीं माना। हमने भी सोचा कि शाम हो गयी है हिल-हुज्जत से क्या फायदा दे दो यार। हमने पैसे दिये और चल पड़े आगे की सफर पर पैदल ही। हे भगवान इतना जाम कि पैदल चलना भी मुश्किल हो गया। बड़ी मुश्कीलों से हम जोगबनी बस स्टैंड पहुंचे वहां पहुचने पर ऑटो वाला गायब। एक भी ऑटो नहीं, पता नहीं चल पा रहा था कि कैसे घर पहुंचे। किसी तरह पटना जाने वाली एक बस से बथनाहा तक जाने का जुगाड़ हुआ। बस पर बैठे-बैठे एक घंटे हो गये और बस थी कि खुलने का नाम ही नही ले रही थी। पुछने पर पता चला कि एक यात्री जो पटना जाने वाला है अभी तक नहीं आया है और इसी वजह से ‘बस’ उस श्रीमान के इंतेजार में है। हम रूके रहें। करीब एक घंटे के बाद भी आखि‍रकार जब यात्री नहीं आया तो हार-थक कर बस को चलना ही पड़ा। संवाहक और चालक दोनो फोन कर-करके परेशान हो गये थे। खैर हम बथनाहा पहुंचे। वहां से भी एक भी ऑटो नहीं मिली। हम इन्तजार करते रहें। कुछ देर बाद एक मैजि‍क दिखाई दिया। उस छोटे से मैजिक पर कम से कम ५००० किलो माल लदा हुआ था उपर से लेकर निचे तक ठसाठस। चावल और गुड़ की बोरीयां। आगे की सीट खाली थी लेकिन उसके नीचे भी गुड़ के बोरे रखे हुए थे। खैर किसी तरह हम तीनो जने एक ही सीट पर बैठे। मैजीक चल पड़ी। ५००० किलो के भार से दबी मैजीक जरा से भी गड्ढ़े या मोड़ पर ऐसे लहराती कि लगता जैसे अब गये कि तब गये, जबकी गाड़ी की स्पीड कभी भी २० से ज्यादा नही हुई थी। ३० किलोमीटर का सफर लगभग २ घंटे में तय करने के बाद हम अभी विरपुर से ५ किलोमीटर ही दुर थे कि चालक ने यह कहकर बस रोक दी कि माल उतारना है। लो जी आ गयी शामत। हम समझ रहे थे कि माल विरपुर में उतरना है और ये तो यहीं रोके जा रहा है। खैर हम उतरे और माल उतरना शुरू हुआ। लदे हुए माल का एहसास तब हुआ जब वो उतरने लगा। करीब १ ट्रक का माल अकेले उस मैजीक पर लदा हुआ था। करीब १ घंटे की कड़ी मस्सक्त के बाद ६ लोगों ने उस माल को उतारा। हमने चैन की सांस ली और गाड़ी पर सवार हुए। लेकिन अब बारी ड्रायवर की थी, वो पैसे के हिसाब के लिए मालीक से उलझ पड़ा। उसे किसी जरूरी काम के लिए पैसे चाहिए था और मालीक कह रहा था कि कल आ कर ले जाना। करीब आधे घंटे के बाद ड्रायवर किसी तरह माना और चल पड़ा। अब उस मैजीक की स्पीड देखने लायक थी। २० की रफ्तार से चलने वाली मैजीक अब १०० के रफ्तार से चल रही थी। गड्ढ़ों में ऐसे उछलती की कलेजा मुंह को आ जाता। खैर हम विरपुर पहुंचे और राहत की सांस ली कि चलो कम से कम पहुंच तो गये। अभी हम घर पहुचे ही थे कि दरवाजे पर याद आया कि हम अपनी दवाई उस मुआ मैजीक में ही भुल आये है। लो भैया अब शुरू हुई उस मैजीक की तलाश। संयोग से हमने उस ड्रायवर का नंबर ले लिया था जिससे हमें उसे ढ़ुढ़ने में सहुलियत हुई। अतत: हमे दवाई मिल गया। और उस यादगार सफर को याद करते करते हम घर लौट चले। घर में जिस किसी को भी ये किस्सा सुनाया वही लोट पोट हो गया। इस तरह एक छोटा सा सफर हमारे मन के कोने में ऐसे बसा कि हम शायद कभी इसे भुल नहीं पायेंगे।

No comments:

Post a Comment

आपकी प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित हैं