Monday, January 13, 2014

कुड़े के ढ़ेर पर खड़ा उम्मीदों का शहर – पटना

पिछले चंद महिनों से पटना में हूं। अच्छा शहर है। जैसा की हरेक शहर के साथ होता है कुछ अच्छायाँ है तो ढ़ेर सारी बुराइयॉ भी है। तो फिर से शुरू से शुरू करते है अपने पटना की ये कहानी। बात करीब तीन महिनें पुरानी है। एक अभीन्न मित्र के कहने पर पटना आया था। उन्होनें भरोषा दिलाया था कि पटना में पेट पालने का इंतजाम करवा देंगे। तो उत्सुक और ललायीत होकर पटना था। चुकीं पटना में अपना बिहार बसता हैं और दिल्ली में रहूं तो इंडिया में रहने का अहसास होने लगा था इसलिये पटना के लिये कुछ ज्यादा ही उत्सुक था। यहां इंडिया का जिक्र इसलिये क्योंकी दिल्ली अब लगभग अंग्रेजी या अंग्रेजो के सिकंजे में जकड़ गयी है। लोग हिंदी का प्रयोग अब रिक्शेवाले और जुता-पॉलीस करने वाले से भी करना पसंद नही करने लगे है। कुछ तो अंग्रेजी कंपनीयों में काम करनें का असर कुछ अपने आप को उस रंग में ढालने की कोशीश। खैर अपना क्या था मन जब तड़पने लगा तो भाग आया यहाँ वैसे बड़े भाई से भी अभीन्न मित्र ने भरोषा दिलाया था तो इतना तो लाजीमी था कि पेट पालने का जुगाड़ करवा ही देंगे। सो आशा, उत्सुकता, और ललायीत हुए आ गये पटना। अब जब आ गये तो मानव की मुलभुत व्यवस्था जैसा कि अरस्तु साहब कह गये हैं, रोटी, कपड़ा और मकान की खोज शुरू हुई। बाप रे बाप पुछीये मत....। इससे अच्छा तो दिल्ली थी। एकबार किसी मित्र को आवाज भर देने की देर होती थी कि पचास कमरे की लिस्ट सामने आ जाती थी। यहां एक मित्र थे लेकिन थे बड़े पक्के। पुरे एक महीने तक अपने साथ रखा। खिलाया पिलाया, अपने साथ रखा अपने परिवार की तरह। सचमुच उनका स्नेह और प्यार मैं कभी नही भुल पाउंगा। मुझे महसुस ही नहीं हुआ कि मैं अपना पुराना बसेरा, अपने पुराने मित्र सबको छोड़ के आया हूं। इतना प्रेम शायद ही कभी मुझे मिला हो। खैर...उन्होने भी रहने के लिए छत ढ़ढने के लिए एड़ी चोटी का जोड़ लगा दिया लेकिन मकान था कि‍ मिलने का नाम ही नहीं ले रहा था। कुछ मिला भी तो वो मन मिज़ाज को नही भाया। मैं थोड़ा परेशान हो गया। ज्यादा दिनों तक मित्र के यहाँ भी रहना ठीक बात नहीं है। वैसे मित्र ने एक भी बार ये नहीं कहा कि तुम कमरा क्यों नही ढ़ुढते हो वगैरह वगैरह। हमेशा कहते रहें अरे छोड़ि‍ये ना क्या हुआ जो नहीं मिल रहा है। यहाँ क्या दिक्कत हो रही है। काई दिक्कत तो नही है ना...वगैरह...वगैरह। लेकिन क्या करें मानव मन है...हमेशा विलग ही सोचता है। सो जैसे जैसे मित्र तसल्ली देते थे वैसे वैसे कमरा ढ़ुढ़ने की इक्षा और बलवती होती जाती थी। कई जगह देखा, मित्र के एक जान पहचान वाले जिनकी इस इलाके में काफी पकड़ है के साथ कई कई दिनों तक कितने जगह की खाक छानता रहा। कभी घर पंसद नही आए और कभी बहुत पसंद आ भी जाए तो मकान मालीक हम जैसे कथीत बैचलर (बकौल कुमार विश्वास : बैचलर बेचारे अपने मोहल्ले में प्रसीद्ध होते हैं लेकिन पड़ोसी के नज़र में गिद्ध होते है) को कमरा देने के लिए तैयार नही थे। नहीं भैया हमारे घर में बहु बेटीयाँ है, (जैसे हम उनकी इज्ज़त लुटने को आए हो) हम बैचलरों को कमरा नहीं दे सकते। फैमली वालों को ही कमरा मिलेगा। थक-हार कर कभी-कभी तो मन करता था कि शादी ही कर लूं लेकिन फिर मैने दिल को समझाया कि क्यों सात जन्मों तक झान बुझ कर दुख उघार ले रहा है, शादी शादी नही बरबादी है वगैरह, वगैरह। खैर बड़ी मिन्नतों के बाद दिल माना। अगर कोई कमरा मिलता भी जो बैचलर को कमरा देने के लिए तैयार होता तो उनकी शर्त होती थी कि रात नौ बजे के बाद मेन गेट बंद हो जाएगा। हम शाकाहारी है मीट-मछली-मुर्गा कुछ भी नही चलेगा, जोर से म्युजीक नहीं बजेगा, दोस्त घर पर नही आने चाहिए आदि आदि। 

खैर जब हमारी सारी कोशीशे बेकार गयी तो एक साहब ने मुफ्त की सलाह दी भाई साहब यहाँ कमरा ऐसे नही मिलेगा किसी प्रोप्रटी एजेंट से बात करो। वही तुम्हारी नैया पार लगा सकता है। हमने सोचा इतना हुआ तो ये भी ट्राय करके देखा जाय। निकल पड़े टू लेट वाले इस्तेहारो से ढ़ूढ कर नंबर उपर किया और फिर कॉल पर कॉल। कुछ नंबर मिला भी कुछ ने समय भी दिया। हे भगवान। ये प्रोपर्टी डीलर थे या वकील पता ही नहीं चल पा रहा था। इनसे बात करने के लिए भी फीस देनी पड़ी। अरे हाँ । इन्होने पहले तो रजीस्ट्रेशन चार्ज के नाम पर १००० रूपया लिया फिर दो ऐसे सड़े हुए घर दि‍खाए जिसे हम पहले ही रीजेक्ट कर चुकें थे। लो जी हो गयी थई। अब क्या करे हारकर हमने एक मित्र का सहारा लिया और उसके साथ ही सिफ्ट हो गऐ उनके साथ। अब फिलहाल वहीं है और मजे ले रहें है। 

वैसे सच कहू तो दिल्ली जैसी साफ सफाई नहीं है यहाँ लेकिन जैसा की सुनता आया था कि लाइट नही रहती है वैसा कुछ भी नहीं है। बिजली 24 घंटे रहती है। और लोग हेल्पफुल है। हां कुछ अगर ज्यादा है तो वो है राजनीति‍, ऐसा लगता है जैसे लोगों के खुन में ही राजनीति घुसी हुई हो। लोग एकदुसरे को देखना पसंद नही करते है। हमेशा एक दुसरे को नीचा दिखाने की कोशीश में लगे रहते है। और जो सबसे बुरा लगता है वो है यहा के लोक-व्यवहार (मैनर और एटिकेट), यहाँ के लोगों में इसका घोर अभाव है। कहीं भी थूक देना। कही भी हल्का होना लेना। कुड़े की ढ़ेर की तरह कुछ भी कही भी बेतरतीब कर देना यहाँ की खासियत है। और सबसे गन्दी बात ये है कि लोगों को आप कुछ समझा नही सकते है। सीधी और बेतरतीब तरीके से ऐसे जबाव देते है कि आपको कुछ बोलते ही नही बनेगा। मसलन अगर किसी भाई साहब को कहो कि यहाँ मत थुको तो उनका जबाव होगा मैं तो यही थुकूंगा, तुझे चुल है तो तु साफ कर ले। या क्या कर लेगा बे मैं तो यही थुकूंगा आदि आदि। राजधानी होने के बावजूद भी एक भी जगह कुड़े का डब्बा नहीं मिलेगा। नालीयां भरी हुई मिलेगी। मुख्य सड़क से निचे उतरने पर गाँवों से भी बुरी जिदंगी नज़र आएगी। अभी कल की ही बात है हल्की बुंदा बांदी ही ने कैसे यहाँ की पोल खोल दी है। जगह जगह कीचड़ और गंदगी ने जीना यहाँ के लोगों का जीना मुहाल कर दिया है। लोग सड़को पर पैदल चलने से घबराने लगे है, पता नहीं कब पैर स्लीप हो और शरीर नाली के अंदर पड़ा हो। लेकिन फिर भी लोग जी रहे है। एक उम्मीद और एक आश लेकर। शायद वो सोचते है कभी तो उनके सपनों का शहर बनेगा ये पटना। 

अरे हाँ, कुछ मज़ेदार बात तो लिखना भुल ही गया। कुछ प्वाइंट जो हमें पटनीया संस्कृती से परिचय करवाता है।
  • सबसे पहला अगर भैया आपको कमरा चाहिए तो आपका शादी शुदा होना पड़ेगा।
  • आप अगर ऑटो में बैठे है तो आगे पिछे होकर बैठीये या फिर पतले होकर आइये।
  • यहाँ आपको पिज्जा हट, कैफे कॉफी डे, से लेकर बिग-बजार, और विशाल मेगा मार्ट आदि के नाम भी हिंदी में लिखा मिलेगा।
  • यहाँ गोलगप्पा खाने के बाद सुखा दिया जाता है, लोग गोलगप्पे का पानी नहीं मांगते ना ही मीठा पापड़ी।
  • रिक्शे का किराया दस रूपये से कम नहीं होगा। चाहे बैठ कर उतर हीं क्यो ना जाओ।
  • सड़को को नाम विदेशो के तर्ज पर देखने को मिलेगा मसलन एक्जीवीशन रोड, फ्रेजर रोड, आदि आदि।
  • यहाँ अंग्रजी की तो बात ही मत पुछीये हम हिंदी की भी माँ बहन करके बोलते है। मसलन कैइसन आ‍दमी है हो, किरीया खाकर कहते है, आदि आदि।
  • स को श, और श को स कहना यहाँ के लोगो का जन्मसि‍द्ध अघि‍कार है। वैसे र को ड़ और ड़ को र भी बोलने में हम सबसे आगे हैं।
  • लिट्टी चोखा हरेक दस कदम की दुरी पर मिल जाएगा।
  • गोलगप्पा कब पटना आकर फुचका बन गया पता ही नहीं चला।
और भी बहुत कुछ है, याद आने पर कभी आराम से लिखा जाएगा। अभी तो बस इतना ही कह सकते है कुड़े के ढ़ेर पर उम्मीदों की आश लगाया एक शहर है जिसका नाम पटना है। जो अशोक और गुरू गोविन्द सिंह के नाम को अभी भी नहीं भुला सका है। लेकिन याद रखने लायक भी नहीं छोड़ा है।

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