Wednesday, January 29, 2014

पढ़े राहुल गांधी के पहले इंटर्व्यू का फुल टेक्स्ट

अपने दस साल के सार्वजनिक राजनीतिक जीवन में राहुल गांधी ने टाइम्स नाऊ के अरनब गोस्वामी को पहला औपचारिक इंटर्व्यू दिया है. पढ़ें पूरा इंटर्व्यू-

अरनब: राहुल, आपका बहुत धन्यवाद। सांसद के तौर पर आपको 10 साल हो गए हैं, आपने पहला चुनाव 2004 में लड़ा था और यह आपका पहला इंटरव्यू है।
राहुल: यह मेरा पहला इंटरव्यू नहीं है, हां इस तरह अनौपचारिक तौर पर पहली बार इंटरव्यू दे रहा हूं।

अरनब: इतनी देर क्यों लग गई।
राहुल : मैंने इससे पहले भी थोड़ा मीडिया इंटरेक्शन किया है, प्रेस कॉन्फ्रेंस की हैं और बातचीत भी की है। लेकिन मेरा जोर खासतौर पर पार्टी के अंदरूनी काम पर रहा है और इसी काम में मेरी ज्यादा एनर्जी लगी।

अरनब: या फिर आप सीधे किसी के साथ बातचीत करने से हिचकते रहे हैं।
राहुल: बिल्कुल नहीं। मैंने कई प्रेस कॉन्फ्रेंस की हैं, ऐसी कोई बात नहीं है।

अरनब: या फिर ऐसा तो नहीं है कि आप कठिन मुद्दों पर बात करने से हिचक रहे थे? 
राहुल: मुझे कठिन मुद्दे अच्छे लगते हैं, मैं उनका सामना करना चाहता हूं।

अरनब: राहुल गांधी, पहला पॉइंट तो यह है कि आप प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी उम्मीदवारी के सवाल को टालते रहे हैं। मुझे ऐसा लगता है कि राहुल कठिन मुकाबले से डरते हैं? 
राहुल: आप अगर कुछ दिन पहले की एआईसीसीसी में मेरी स्पीच को सुनें, तो साफ मुद्दा है कि इस देश में प्रधानमंत्री किस तरह चुना जाता है। यह चयन सांसदों के जरिए होता है। हमारे सिस्टम में सांसद चुने जाते हैं और वे प्रधानमंत्री चुनते हैं। एआईसीसी की स्पीच में मैंने साफ कहा कि अगर कांग्रेस पार्टी मुझे किसी भी जिम्मेदारी के लिए चुनती है तो मैं तैयार हूं। यह इस प्रक्रिया का सम्मान है। चुनाव से पहले ही पीएम उम्मीदवार का ऐलान का मतलब है कि आप सांसदों से पूछे बिना ही अपने प्रधानमंत्री को चुन रहे हैं, और हमारा संविधान ऐसा नहीं कहता।

अरनब: लेकिन आपने पीएम उम्मीदवार का ऐलान 2009 में किया था। 
राहुल: हमारे पास सरकार चला रहे पीएम थे और उन्हें बदलने का सवाल ही नहीं था।

अरनब: क्या आप नरेंद्र मोदी का सीधा आमना सामना करने से बच रहे हैं। क्या यह डर है कि कांग्रेस के लिए यह चुनाव बेहतर नहीं लग रहा है और राहुल गांधी को हार का डर है? साथ ही यह सोच भी कि राहुल गांधी चुनौती के हिसाब से तैयार नहीं हो पाए हैं और हार का डर है। इसलिए वह नरेंद्र मोदी के साथ सीधे टकराव से बच रहे हैं? आपको इसका जवाब देना चाहिए। 
राहुल: इस सवाल को समझने के लिए आपको यह भी समझना होगा कि राहुल गांधी कौन है और राहुल गांधी के हालात क्या रहे हैं और अगर आप इस बात को समझ पाते हैं तो आपको जवाब मिल जाएगा कि राहुल गांधी को किस बात से डर लगता है और किस बात से नहीं लगता। असली सवाल यह है कि मैं यहां क्यों बैठा हूं? आप एक पत्रकार हो, जब आप छोटे रहे होगे तो आपने सोचा होगा कि मैं कुछ करना चाहता हूं, किसी एक पॉइंट पर आपने जर्नलिस्ट बनने का फैसला किया होगा, आपने ऐसा क्यों किया?

अरनब: इसलिए, क्योंकि मुझे पत्रकार होना अच्छा लगता है। यह मेरे लिए एक प्रफेशनल चैलेंज है। मेरा सवाल है कि आप नरेंद्र मोदी से सीधा आमना-सामना करने से क्यों बच रहे हैं? 
राहुल: मैं इसी सवाल का जवाब देने जा रहा हूं, लेकिन मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि जब आप छोटे थे और पत्रकार बनने का फैसला किया तो क्या वजह थी?

अरनब: जब मैंने पत्रकार बनने का फैसला किया तो मैं आधा पत्रकार नहीं बन सकता था। जब एक बार आपने राजनीति में आने का फैसला कर लिया और पार्टी को आप नेतृत्व भी दे रहे हैं तो आप यह आधे मन से नहीं कर सकते हैं। अब मैं आपसे वही सवाल वापस पूछता हूं, नरेंद्र मोदी तो आपको रोज चैलेंज कर रहे हैं? 
राहुल: आप मेरे सवाल का सीधा जवाब नहीं दे रहे हैं। लेकिन मैं आपको जवाब देता हूं, जिससे आपको मेरे सोचने के बारे में कुछ झलक मिल पाएगी। जैसे अर्जुन के बारे में कहा जाता है कि उन्हें सिर्फ अपना निशाना दिखाई देता था। आपने मुझसे नरेंद्र मोदी के बारे में पूछा, आप मुझसे कुछ और भी पूछ लो। लेकिन मुझे जो बस एक चीज दिखाई देती है वह यह कि इस देश का सिस्टम बदलना चाहिए। मुझे कुछ और नहीं दिखाई देता, मैं और कुछ नहीं देख सकता। मैं बाकी चीजों के लिए अंधा हूं, क्योंकि मैं अपनों को सिस्टम से तबाह होते हुए देखा है, क्योंकि सिस्टम हमारे लोगों के लिए भेदभाव करता है। मैं आपसे पूछता हूं, आप असम से हैं और मुझे यकीन है कि आप भी अपने कामकाज में सिस्टम का यह भेदभाव महसूस करते होंगे। सिस्टम रोज रोज लोगों को दुख देता है और मैंने इसे महसूस किया है। यह दर्द मैंने अपने पिता के साथ महसूस किया, उन्हें रोज इससे टकराते हुए देखा। इसलिए यह सवाल कि क्या मुझे चुनाव हारने से डर लगता है या मैं नरेंद्र मोदी से डरता हूं, कोई पॉइंट ही नहीं है। मैं यहां एक चीज के लिए हूं, हमारे देश में बहुत ज्यादा ऊर्जा है, किसी भी देश से ज्यादा, हमारे पास अरबों से युवा हैं और यह ऊर्जा फंसी है।

अरनब: मैं आपका ध्यान फिर से अपने सवाल की तरफ लाता हूं। जो आप कह रहे हैं वह मैं समझता हूं। लेकिन सीधे तौर पर लेते हैं, नरेंद्र मोदी आपको शहजादा कहते हैं, इस बारे में आपकी क्या राय है? क्या आपको मोदी से हारने का डर है? राहुल इसका प्लीज सीधा जवाब दीजिए। 
राहुल: देश के लाखों युवा यहां के सिस्टम में बदलाव लाना चाहते हैं, राहुल गांधी ये चाहता है कि देश की महिलाओं का सशक्तिकरण हो। हम सुपर पावर बनने की बात करते हैं…

अरनब: मेरा सवाल है कि कांग्रेस के उपाध्यक्ष का बीजेपी के पीएम कैंडिडेट पर क्या नजरिया है। 
राहुल: मुझे लगता है कि हम बीजेपी को अगले चुनाव में हरा देंगे।

अरनब: आपके प्रधानमंत्री मोदी पर आरोप लगाते हैं कि उनके दौर में अहमदाबाद की सड़कों पर मासूमों का नरसंहार हुआ। इस पर आपका क्या नजरिया है? क्या आप इससे सहमत हैं। 
राहुल: प्रधानमंत्री जो कह रहे हैं, वह एक तथ्य है। गुजरात में दंगे हुए और लोग मारे गए। लेकिन असली सवाल है…

अरनब: लेकिन मोदी कैसे जिम्मेदार? 
राहुल: जब वह सीएम थे, तब दंगे हुए।

अरनब: लेकिन मोदी को क्लीन चिट मिल चुकी है। क्या ऐसे में कांग्रेस उन पर हमले जारी रख सकती है? राहुल: कांग्रेस और बीजेपी अलग सोच पर काम करती है। हमारा बीजेपी पर हमला इस पर आधारित है कि देश को लोकतांत्रिक तरीके से आगे बढ़ना चाहिए। इसमें गांवों का, महिलाओं का युवाओं का सशक्तिकरण जरूरी है।

अरनब: लेकिन नरेंद्र मोदी दंगों के लिए कैसे जिम्मेदार हैं, जब उन्हें दंगों के लिए क्लीनचिट मिल चुकी है? राहुल: हमारी पार्टी विचारधारा के आधार पर बीजेपी पर हमले कर रही है। हमारी पार्टी का मानना है कि महिलाएं सशक्त हों, लोकतंत्र हर घर तक पहुंचे। बीजेपी की सोच है कि ताकत केंद्रित रहे और कुछ लोग देश को चलाएं।

अरनब: लेकिन नरेंद्र मोदी 2002 के दंगों के लिए कैसे जिम्मेदार हैं, जब उन्हें कोर्ट और एसआईटी से क्लीनचिट मिल चुकी है। इसलिए राहुल जी आप नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगों पर निजी तौर पर कैसे घसीट सकते हैं? आपको नहीं लगता कि कांग्रेस की यह रणनीति मूलभूत तौर पर गलत है? 
राहुल: हमारी पार्टी की रणनीति साफ है। हमने जो कुछ पिछले पांच-दस सालों में किया है और जैसे लोगों को अधिकार दिए हैं, उसको आप आजादी के आंदोलन से अब तक जोड़ सकते हैं। हमने किसानों को हरित क्रांति दी। लोगों को टेलिकॉम क्रांति दी। सूचना का अधिकार दिया। जो चीजें बंद होती थीं, जिनके बारे में कोई नहीं जानता था। उनके बारे में अब लोग जान सकते हैं।

अरनब: लेकिन आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया? गुजरात दंगों पर आपकी पार्टी मोदी को घेरती रही है। और वह कहते हैं कि मुझे कोर्ट से क्लीन चिट मिल चुकी है। मैं आपसे यह पूछ रहा हूं कि कोर्ट से क्लीन चिट के बाद क्या दंगों पर मोदी को घेरने की रणनीति गलत है? 
राहुल: प्रधानमंत्री ने दंगों पर अपनी स्थिति रखी है। गुजरात में दंगे हुए। लोग मरे। मोदी उस समय राज्य के मुखिया थे। अब असली विचारधारा की लड़ाई यह है और जिसे हम जीतने जा रहे हैं, वह लोगों के सशक्तिकरण की बात है। गुजरात दंगों पर आपका नजरिया अपनी जगह पर है और यह भी जरूरी है कि जो इनके कसूरवार हैं, उन्हें सजा मिले। लेकिन असली सवाल देश की महिलाओं को ज्यादा अधिकार देने का है। हम अभी सुपरपावर बनने की बात करते हैं। लेकिन जब तक औरतों को हक नहीं मिलेगा, हम आधी सुपर पावर ही रहेंगे। मैं चाहता हूं कि देश के युवा पार्टी में लोकतंत्र को आगे बढ़ाएं। मैं चाहता हूं कि हम सब मिलकर सबको साथ लेते हुए भारत निर्माण करें। मैं चाहता हूं कि हम भारत को दुनिया में मैन्युफैक्चरिंग का केंद्र बनाएं। कम से कम चीन की तरह।

अरनब: आप कहते हैं कि गुजरात दंगों के समय मोदी सत्ता में थे, यूपी में दंगों के दौरान अखिलेश रहे। और 1984 के दंगे के दौरान कांग्रेस सत्ता में थी। आपने अपने भाषण में दादी की मौत और उससे उपजे गुस्से का जिक्र किया था। और आपने कहा था कि गुस्से को काबू में रखकर उसे ताकत बनाना चाहिए। उसके बाद नरेंद्र मोदी ने आपकी खूब आलोचना की थी और कहा था कि वह अपनी दादी की मौत पर तो आंसू बहा रहे हैं, लेकिन क्या 1984 के दंगों में मारे गए लोगों के लिए आंसू बहाए? वह आपको बार-बार शहजादा कहते हैं। मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि क्या आपकी पार्टी के लोग 1984 के दंगों में शामिल थे? क्या आप इन दंगों के लिए माफी मांगेंगे जैसे कि मोदी से आप गुजरात दंगों के लिए माफी चाहते हैं? 
राहुल: 1977 में हार के बाद हमें कई लोग छोड़कर चले गए। लेकिन सिख समुदाय हमारी दादी के साथ जुड़ा रहा। सिख इस देश के सबसे उद्यमी लोगों में से हैं और मैं उनका सम्मान करता हूं। हमारे पीएम भी सिख हैं। मेरा अपने विरोधियों जैसा नजरिया नहीं है। जिन लोगों ने दादी की हत्या की वे दो लोग थे। मैं पीछे मुड़कर उस गुस्से को नहीं देखता हूं। वह मेरे लिए खत्म हो चुका है।

अरनब: तो फिर आप 84 के दंगों के लिए माफी क्यों नहीं मांगते? 2009 में तो जगदीश टाइटलर कांग्रेसी उम्मीदवार बनने जा रहे थे, जिनकी उम्मीदवारी को मीडिया में उठे विवाद के बाद वापस लेना पड़ा। 
राहुल: 1984 के दंगों में मासूम लोग मारे गए थे और उनका मारा जाना बहुत भयानक था, जैसा नहीं होना चाहिए। 1984 और गुजरात दंगों में फर्क यह है कि गुजरात दंगों में सरकार शामिल थी।

अरनब: आप ऐसा कैसे कह सकते हैं? उन्हें क्लीन चिट मिली है। 
राहुल: 84 के दंगों के दौरान सरकार दंगे रोकने की कोशिश कर रही थी। मैं तब बच्चा था और मुझे याद है कि सरकार पूरी कोशिश कर रही थी। गुजरात में इसके उलट हुआ। सरकार दंगों को भड़का रही थी। इन दोनों में बहुत फर्क है। मासूम लोगों का मरना कतई सही नहीं है।

अरनब: आरटीआई करप्शन से लड़ने का सबसे बड़ा हथियार है। जैसा कि आपने एआईसीसी की स्पीच में कहा था। आपकी पार्टी के 2008 से 2012 के फंड का 90 फीसदी कैश से आया है। जिसमें से 89.11 फीसदी हिस्सा बेनामी स्रोतो से है। आप अपने घर से शुरुआत क्यों नहीं करते? क्यों कांग्रेस पार्टी के फंड को आरटीआई के तहत नहीं लाते? 
राहुल: मुझे लगता है कि राजनीतिक दल अगर ऐसा मानते हैं तो उन्हें आरटीआई के तहत आना चाहिए। मेरा नजरिया है कि ज्यादा खुलापन हो तो अच्छा है। कानून संसद से बनता है। और राजनीतिक दलों को आरटीआई के तहत लाने के लिए ऐसा ही करना होगा। मेरा यह निजी नजरिया है। …असली सवाल हमारे सिस्टम के अलग-अलग स्तंभों का है। अगर आप किसी एक को आरटीआई में लाते हैं और बाकियों को मसलन जुडिशरी और प्रेस इससे बाहर रहते हैं तो असंतुलन हो सकता है। मैं आरटीआई के दायरे में ज्यादा से ज्यादा चीजों को लाने के पक्ष में हूं और ऐसा करने से असंतुलन नहीं बनेगा।

अरनब: आपकी महाराष्ट्र सरकार ने आदर्श पर बने जुडिशल कमिशन की रिपोर्ट को खारिज कर दिया था। यह सब लोगों के सशक्तिकरण का हिस्सा तो नहीं था। अफसरों को दोषी ठहरा दिया गया, लेकिन नेता बचते दिखे। क्या आप अशोक चव्हाण को बचा रहे हैं? 
राहुल: कांग्रेस पार्टी में जब भी भ्रष्टाचार का मामला आता है तो हम एक्शन लेते हैं। हम लोग ही आरटीआई लाए थे, जो भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बड़ा हथियार है। प्रेस कॉन्फ्रेंस करके मैंने इस मामले में अपनी स्थिति साफ कर दी थी। कांग्रेस पार्टी में जो भी करप्शन का हिस्सा है, सजा दी जाएगी। मैं कहता हूं कि संसद में जो 6 विधेयक फंसे हैं, उन्हें पास किया जाए।

अरनब: लेकिन आपके बोल आपके काम से मेल नहीं खाते राहुल? अशोक चव्हाण की तरह सारे नेता बच जाते हैं। इस मामले में कई एनसीपी के मंत्री भी हैं। अपने फायदे के लिए इन्होंने करगिल के नाम तक का इस्तेमाल किया। 
राहुल: मैंने अपनी स्थिति प्रेस के सामने साफ कर दी है। चाहे जो भी हो उस पर कार्रवाई जरूर होगी। हमने अपने मंत्रियों को भी सजा दी है।

अरनब : यह भी आरोप है कि आप बहुत अच्छे इंसान हैं। आप आलोचना से प्रभावित होते हैं। सुब्रमण्यम स्वामी आपकी डिग्री पर सवाल उठाते हैं। वह कहते हैं कि कैंब्रिज में आपकी एमफिल डिग्री की कोई थीसिस ही नहीं है। किसी ने 110 लाख डॉलर हार्वर्ड मेडिकल स्कूल को देकर आपका एडमशिन कराया। उन्होंने आपकी दोनों डिग्रियों पर सवाल उठाए हैं।
राहुल : क्या आप कैंब्रिज में थे?

अरनब : मैं ऑक्सफर्ड में था? 
राहुल : लेकिन, आपने कैंब्रिज में भी कुछ वक्त बिताया।

अरनब : मैं कैंब्रिज में कुछ समय के लिए विजिटिंग फेलो था। 
राहुल : क्रैंब्रिज में कहां?

अरनब : सिडनी ससेक्स कॉलेज… 
राहुल : मैं कैंब्रिज में ट्रिनिटी में था। मैंने एक साल वहां गुजारा और मैंने वहीं एमफिल किया। आप मेरी डिग्री देखना चाहते हैं तो मैं दिखा सकता हूं।

अरनब : क्या आप सुब्रमण्यम स्वामी को डिग्री दिखाना चाहेंगे? क्या आप उन्हें चैलेंज करेंगे? 
राहुल : उन्होंने शायद मेरी डिग्री देखी है। मैंने हलफनामे दाखिल किए हैं कि मेरे पास ये डिग्रियां हैं। अगर मैं झूठ बोल रहा हूं तो उन्हें कानूनी प्रक्रिया अपनानी चाहिए। इससे ज्यादा मैं क्या करूं? मैं क्यों उन्हें चैलेंज करूं। वह मेरे परिवार पर 40 साल से हमले कर रहे हैं। मैं क्यों उन्हें चुनौती दूं?

अरनब : क्या आप नरेंद्र मोदी के साथ बहस के लिए तैयार होंगे। अगर वह भी तैयार होते हैं? मैं आपसे सीधा सवाल पूछ रहा हूं। क्यों बड़ी पार्टियों के उम्मीदवारों के बीच सीधी बहस नहीं होनी चाहिए। 
राहुल : मैं कांग्रेस पार्टी का ढांचा बनाकर यह बहस ही कर रहा हूं। बहस के लिए आप का स्वागत है। जहां तक मेरा सवाल है तो बहस शुरू हो चुकी है।

अरनब : मैं यह पूछ रहा हूं कि क्या आप तैयार हैं? ताकि मैं मोदी से पूछ सकूं कि वह भी तैयार हैं। 
राहुल : आप बहस शुरू करो, लेकिन असली मुद्दा पार्टी मशीनरी है। और हम ही यह कर रहे हैं। हम 15 सीटों पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं से उम्मीदवार चुनेंगे। राष्ट्रीय बहस शुरू हो चुकी है। एक तरफ कांग्रेस पार्टी है, जो खुलेपन में विश्वास रखती है और दूसरी तरफ विपक्ष है जो सत्ता को केंद्रित रखता है। यह बहस शुरू हो चुकी है और इसी के बारे में सारा चुनाव है।

अरनब : मोदी कहते हैं कि आपको 60 साल दिए। हमें 60 महीने दो… राहुल : मेरा जवाब है कि पिछले 10 साल में हमने देश को सबसे तेज आर्थिक तरक्की दी है। हमने किसी भी सरकार से ज्यादा खुला सिस्टम दिया है। हमने मनरेगा, आधार जैसी व्यवस्थाएं दी हैं। कांग्रेस की सरकार 60 साल से है, इसलिए हम इस रफ्तार से तरक्की कर रहे हैं।

अरनब : आम आदमी पार्टी पर आपकी क्या राय है? आपका नजरिया आम आदमी पार्टी की ओर क्यों बढ़ रहा था? अचानक ऐसा क्यों लगता है कि अब आप उनकी आलोचना कर रहे हैं? जब आपने ऐसा कहा था कि कुछ लोग गंजों को भी कंघी बेच देते हैं, तो क्या आप आम आदमी पार्टी की ओर इशारा कर रहे थे? 
राहुल : कांग्रेस और मैंने युवाओं के बीच जो काम किया है। उससे पार्टी में नई पीढ़ी आएगी। उम्मीदवार चुनने की प्रक्रिया मजबूत होगी। आम आदमी पार्टी के बारे में मैंने यह कहा कि हम उससे कुछ सीख सकते हैं, किस तरह लोगों तक पहुंचा जाए, यह उनसे समझा जा सकता है। लेकिन कुछ ऐसी भी चीजें हैं, जो उनसे नहीं लेनी चाहिए। हमारे पास कांग्रेस की मजबूत बातें हैं और हम उन पर तीन-चार साल से काम कर रहे हैं। हमारी पार्टी की गहरी जड़ें उसकी सबसे बड़ी ताकत हैं और बदलाव के नाम पर हम उन्हें खत्म नहीं कर सकते।

अरनब : पिछले दिनों चिदंबरम ने कहा कि आम आदमी पार्टी को समर्थन देना जरूरी नहीं था? क्या आप उससे सहमत हैं, क्या आपको लगता है कि आपने गलत किया। कृपया सच्चा जवाब दीजिए। 
राहुल : जहां तक मेरा नजरिया है, आप ने दिल्ली में चुनाव जीता और मुझे लगता है कि हमें उनकी मदद करनी चाहिए। हमारी पार्टी को लगा कि उनको अपने को साबित करने का मौका दिया जाना चाहिए। अब हम देख सकते हैं कि वे क्या कर रहे हैं और उन्होंने अपने को किस हद तक साबित किया है।

अरनब : अरविंद केजरीवाल के बारे में आपकी क्या राय है? 
राहुल : वह विपक्ष के कई नेताओं की तरह हैं। हमें बतौर कांग्रेस पार्टी तीन चीजें करनी हैं। पहला, हमें खुद को बदलना होगा, ज्यादा युवाओं को लाना होगा और उन्हें जगह देनी होगी। इसके अलावा हमें मैन्युफैक्चरिंग पर जोर देना होगा। हमने नॉर्थ, साउथ, ईस्ट-वेस्ट कॉरिडोर बनाए हैं और भारत को मैन्युफैक्चरिंग सुपर हाउस बनाना होगा।

अरनब : क्या आप आम आदमी पार्टी को एंटी कांग्रेस वोट बैंक काटने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं? 
राहुल : आपका मतलब है कि क्या हम आप को लेकर आए हैं। मुझे लगता है कि आप कांग्रेस की ताकत को कम करके आंक रहे हैं। यह पार्टी अगर ऐसा चाहे तो भी असर नहीं करेगी। कांग्रेस बहुत पावरफुल सिस्टम है और हमें चुनावों में नए चेहरों को लाने की जरूरत है, जो हम करने जा रहे हैं और हम चुनाव जीतेंगे।

अरनब: क्या आप चुनाव जीतेंगे? अगर ऐसा नहीं हुआ तो इसकी पूरी जिम्मेदारी लेंगे?
राहुल: हां हम चुनाव जीतेंगे। अगर नहीं जीते तो पार्टी उपाध्यक्ष होने के नाते मैं इसकी पूरी जिम्मेदारी लूंगा।

साभार नव भारत टाइम्स डॉट कॉम

Friday, January 17, 2014

मिथिला राज्य आंदोलन - इतिहास और वर्तमान

भारत में प्रस्तावित म‍िथ‍िला राज्य
विष्णु पुराण के मिथि‍ला पुराण अध्याय और चंदा झा लिखि‍त रामायण के आधार पर अलग मिथिला राज्य आंदोलन का आधार बताया जा रहा है। लेकिन जार्ज ग्रीर्यसन के १८९१ में हुए भारतीय भाषा सर्वेक्षण ने इस बात को और बल देने का काम किया। बिहार के २४ जिलें (अररि‍या, बांका, बेगुसराय, भागलपुर, दरभंगा, पूर्वी चम्पारण, जमुई, कटिहार, खगड़ि‍या, किशनगंज, लखीसराय, मधेपुरा, मधुबनी, मुंगेर, मुज्जफरपुर, पुर्णि‍या, सहरसा, समस्तीपुर, शेखपुरा, शि‍वहर, सीतामढ़ी, सुपौल, वैशाली और पश्चिमी चम्पारण) और झारखंड के ६ जिले (देवघर, दुमका, गोड्डा, जामताड़ा, साहेबगंज और पाकुड़) को मिलाकर अलग मिथि‍ला राज्य बनाने का प्रयास किया जा रहा है।

झारखंड राज्य के अलग होने के अगले ही दिन यानी ४ अगस्त २००४ को एक प्रेस कांफ्रेस में बिहार के पूर्व महाधि‍वक्ता एवं भाजपा नेता पं० ताराकांत झा ने अलग मिथि‍ला राज्य हेतु आंदोलन की घोषणा कर दी। भाजपा से निष्कासि‍त होने पर वे मिथिला आंदोलन को समय समय पर हवा देते रहे परन्तु विधान परिषद सदस्य बनते ही उन्होने इस आंदोलन को ठंडे बस्ते में डाल दिया।

वर्तमान में मिथिला राज्य आंदोलन के लिए सबसे सक्रिय और पुरानी संस्था अंतर्राष्ट्रीय मैथि‍ली परिषद है जिसकी कमान मुख्य रूप से डा. धनाकर ठाकुर और डा. कमल नाथ ठाकुर के हाथों में है, वहीं महासचिव के. एन. झा दिल्ली में रहकर भी कार्यकर्ताओं के संग जमीनी रूप से जुड़े हुए हैं।

उधर अखिल भारतीय मिथिला राज्य संघर्ष समिति के अध्यक्ष और विद्यापति सेवा संस्थान के महासचिव वैद्यनाथ चौधरी बैजू भी समय समय पर मिथिला आंदोलन को हवा देते रहते है। इन्होनें मिथिला आंदोलन को धरना, रैली और बैठकों से आगे बढ़ाते हुए साहित्य अकादमी, मिथि‍ला के नाम पर पुरस्कार और अनुदान को बढ़ावा दि‍लाने का भी काम किया है, वैसे इनकी सक्रियता मिथि‍ला के बाहर ज्यादा रहती हैं और पूरे देश के मैथि‍लों को जोड़ने का भी किया इन्होनें किया है।

इसके बाद मिथि‍ला आंदोलन के लिए आगे आए स्व. जयकांत मिश्र और इन्होने मिथि‍ला राज्य संर्घष समिति का गठन किया और मिथि‍ला राज्य आंदोलन को एक नयी आवाज दी। वर्तमान में चुनचुन मिश्र इसके अध्यक्ष एवं उदयशंकर मिश्र इस संस्था के महासचिव हैं।

दिल्ली में प्रवासी मैथिलों को जोड़ने के लिए अखिल भारतीय मिथिला संघ के अध्यक्ष पूर्व सांसद राजेन्द्र प्रसाद यादव एवं महासचिव विजय चंद्र झा की सक्रियता भी दिल्ली में मिथिला आंदोलन को जगाए हुए है।

वहीं यूथ ऑफ मिथिला (अंतर्राष्ट्रीय मैथिली परिषद की दिल्ली इकाई) और वॉईस ऑफ मिथि‍ला के भवेश नंदन और आनंद कुमार झा जमीनी कार्यकर्त्ताओं, युवाओं एवं बुद्धिजीवियों को जोड़ने में जुटे हैं। यह दोनो संस्था समय समय पर दिल्ली में विभीन्न प्रकार के कार्यक्रमों का आयोजन कर दिल्ली में अपनी उपस्थ‍िति और मिथिला आंदोलन को हवा देने का काम कर रही है।

उसके बाद समय समय पर मिथि‍ला राज्य के निर्माण के लिए बहुतो लोग आगे आए कभी मिथि‍लांचल विकास सेना के नाम पर तो कभी दीना भद्री संस्थान, और मिथिला फ़ॉउडेशन आदि के नाम पर लेकिन हाल में ही २२-२५ मार्च तक दिल्ली के जंतर-मंतर पर चार दिनों का आमरण अनशन कर राजीव कुमार झा उर्फ कवि एकांत ने इस आंदोलन को एक नयी जान देने का काम किया। उन्होनें सभी संगठनों से एकजुट और एकसाथ मिलकर आंदोलन को बढ़ावा देने का न्योता दिया ताकी आंदोलन को मजबूत तरीके से पेश किया जा सके और सरकार पर दबाव बनाया जा सके। अभी राजीव जी राइज फॉर मिथि‍ला के नाम से एक नया दल बनाकर आंदोलन को हवा देने में लगे हैं।

अभी हाल में मिथि‍ला राज्य की लड़ाई के लिए जो संस्था सबसे आगे है वो है मिथि‍ला राज्य निर्माण सेना बहुत कम से सबसे ज्यादा जमीनी कार्य, धरणा प्रदर्शन और चक्का जाम कर देश को प्रमुख लोगों का ध्यान अपने और आकर्षि‍त करने का काम किया। इनके ही प्रयासों के फलस्वरूप भाजपा के सांसद कृति आजाद भी मिथि‍ला राज्य आंदोलन के लिए कूद पड़े हैं। चाहे बात रथ यात्रा की हो या जंतर मंतर पर प्रदर्शन की इन्होंने देश के दिग्गज नेताओं को साथ कर आंदोलन का रूख अपनी और करने का काम किया है।


क्यों जरूरी है मिथि‍ला आंदोलन –:

तेलांगाना के अलग राज्य कि मांग ने मिथि‍ला राज्य आंदोलन को और हवा दे दी है। इस बीच केन्द्र सरकार को दस नये राज्यों के गठन के प्रस्ताव का आवेदन मिलने पर सरकार ने मिथिलांचल राज्य की मांग पर विचार करने की बात कह कर आंदोलनकारियों को लड़ाई लड़ने का एक रास्ता व मुद्दा बना दिया। सूत्रों की माने तो गृह मंत्रालय ने अब तक इस संबंध में कोई फैसला नहीं लिया है लेकिन बताया जाता है कि नये राज्य के गठन के संबंध में विभिन्न पक्षों और स्थितियों का अध्ययन कराने के पश्चात ही केन्द्र सरकार कोई निर्णय देगी, जिसका इंतजार इलाके के लोगों को है।

अपनी संस्कृति, अपनी भाषा, अपना व्याकरण, अपनी लिपी और जनसंख्या के लिहाज से मिथिला एक अलग राज्य होना भी चाहिए। बिहार से बाहर, बिहार का मतलब भोजपूरी होता है। जबकि मैथि‍ली बिहार में प्रमुखता से बोली जाने वाली भाषा है। मीडिया ने भी बिहार का महिमामंडन भोजपूरी से ही किया है। इन्हे बिहार के नाम पर गौतम बुद्ध तो दिखाई देतें है लेकिन जनक और माता सीता नहीं दिखायी देतें। यहाँ तक की बिहार गीत में भी मैथि‍ली और मिथि‍ला की उपेक्षा कि गई पुरे बिहार गीत में ना तो कवी विद्यापती है ना हीं माता जानकी। यहाँ तक की विकाश के नाम पर भी मिथि‍ला की उपेक्षा की गई। आज कोई भी कारखाना, विश्वविद्यालय आदि खोलने की मांग होती है तो उसे मगघ क्षेत्र में धकेल दिया जाता है। आई आई टी की बात हो या केन्द्रीय विद्यालय की मिथि‍ला हमेशा से उपेक्षीत रही है और यही कारन है जो अलग मिथि‍ला राज्य के आंदोलन को बढ़ावा दे रही है।

बिहार सरकार के उपेक्षाओं का हाल ये है कि आजादी के समय बिहार के राजस्व का कुल ४९ फीसदी मिथि‍ला क्षेत्र से आता था और जब २००० में झारखंड राज्य का बटवारा हुआ तो यह योगदान घटकर मात्र १२ फीसदी रह गई है। यानी मिथि‍ला इन पसास सालों में करीब चार गुणा गरीब हो गई है। यह सोचने वाली बात है जबकि अन्य क्षेत्र अमीर पर अमीर होते जा रहें है मिथि‍ला क्यों पिछड़ता जा रहा है। क्या इस क्षेत्र का पैसा इसी क्षेत्र में लगाया जाता है। अगर नहीं तो ऐसा क्यों। ये सोचने वाली बात है। क्योंकि अलग मिथि‍ला राज्य के बिना ये संभव नहीं है।

इस तरह बाढ़ भी मिथि‍ला इलाके की प्रमुख समस्या है। लेकिन आजादी से पहले ही लोर्ड वेवेल ने इसके निदान के लिए एक महत्वकांक्षी परियोजना बनाई थी। बाराह क्षेत्र में कोसी पर हाई डैम बनाना था। अनुमान था कि इस परियोजना के पुरा होने से मिथि‍ला क्षेत्र में समृधी आऐगी और बिहार इस भारी विभीषि‍का से बच पायेगा। लेकिन आजादी के बाद बनी बिहार सरकार ने बहाने बनाकर इस परियोजना से अपना हाथ खीच लिया और नतीजा हम सबके सामने है। शायद सरकार को डर था कि बाढ़ के नाम पर जो ये लाखों वोट हमें मिथि‍ला क्षेत्र से आता है वह इसके समृद्ध होने के साथ ही खतम ना हो जाए। यह बिहार सरकार की अनिच्छा का ही परिणाम था कि केन्द्र सरकार भाखड़ा नंगल परियोजना की और उन्मुख हुई और आज पंजाब का काया-कल्प कर गई। आज पंजाब देश में सबसे ज्यादा कृषि‍ उत्पादन के लिए जाना जाता है और उसी पंजाब के खेत में मिथि‍ला के किसान मजदुर बन कर काम करने को मजबूर हो गए है। इधर कोशी बांध परियोजना का पैसा दामोदर घाटी परियोजना में लगाकर मिथि‍ला के साथ एकबार फिर भेदभाव कर दिया गया।

दिल्ली हो मुंबई मिथि‍लावासी हाथ फैलाने को मजबुर है। आज इन मिथिला वासी के ही बदौलत दिल्ली, पंजाब, मुंबई और गुजरात विकाश के नित नये आयाम रच रहा है और मिथि‍ला दर दर कि ठाकरें खा रहा है। इसलिए भी ये जरूरी है कि मिथि‍ला राज्य अलग हो क्योंकी जो सपना मिथि‍ला वासी सोते जागते देखते आ रहें है वो बिना मिथि‍ला राज्य के संभव नहीं है।

क्रमश:
अगले अंक में पढ़गें क्या हुआ अगर मिथ‍िला राज्य हो जाता है अलग।

Monday, January 13, 2014

कुड़े के ढ़ेर पर खड़ा उम्मीदों का शहर – पटना

पिछले चंद महिनों से पटना में हूं। अच्छा शहर है। जैसा की हरेक शहर के साथ होता है कुछ अच्छायाँ है तो ढ़ेर सारी बुराइयॉ भी है। तो फिर से शुरू से शुरू करते है अपने पटना की ये कहानी। बात करीब तीन महिनें पुरानी है। एक अभीन्न मित्र के कहने पर पटना आया था। उन्होनें भरोषा दिलाया था कि पटना में पेट पालने का इंतजाम करवा देंगे। तो उत्सुक और ललायीत होकर पटना था। चुकीं पटना में अपना बिहार बसता हैं और दिल्ली में रहूं तो इंडिया में रहने का अहसास होने लगा था इसलिये पटना के लिये कुछ ज्यादा ही उत्सुक था। यहां इंडिया का जिक्र इसलिये क्योंकी दिल्ली अब लगभग अंग्रेजी या अंग्रेजो के सिकंजे में जकड़ गयी है। लोग हिंदी का प्रयोग अब रिक्शेवाले और जुता-पॉलीस करने वाले से भी करना पसंद नही करने लगे है। कुछ तो अंग्रेजी कंपनीयों में काम करनें का असर कुछ अपने आप को उस रंग में ढालने की कोशीश। खैर अपना क्या था मन जब तड़पने लगा तो भाग आया यहाँ वैसे बड़े भाई से भी अभीन्न मित्र ने भरोषा दिलाया था तो इतना तो लाजीमी था कि पेट पालने का जुगाड़ करवा ही देंगे। सो आशा, उत्सुकता, और ललायीत हुए आ गये पटना। अब जब आ गये तो मानव की मुलभुत व्यवस्था जैसा कि अरस्तु साहब कह गये हैं, रोटी, कपड़ा और मकान की खोज शुरू हुई। बाप रे बाप पुछीये मत....। इससे अच्छा तो दिल्ली थी। एकबार किसी मित्र को आवाज भर देने की देर होती थी कि पचास कमरे की लिस्ट सामने आ जाती थी। यहां एक मित्र थे लेकिन थे बड़े पक्के। पुरे एक महीने तक अपने साथ रखा। खिलाया पिलाया, अपने साथ रखा अपने परिवार की तरह। सचमुच उनका स्नेह और प्यार मैं कभी नही भुल पाउंगा। मुझे महसुस ही नहीं हुआ कि मैं अपना पुराना बसेरा, अपने पुराने मित्र सबको छोड़ के आया हूं। इतना प्रेम शायद ही कभी मुझे मिला हो। खैर...उन्होने भी रहने के लिए छत ढ़ढने के लिए एड़ी चोटी का जोड़ लगा दिया लेकिन मकान था कि‍ मिलने का नाम ही नहीं ले रहा था। कुछ मिला भी तो वो मन मिज़ाज को नही भाया। मैं थोड़ा परेशान हो गया। ज्यादा दिनों तक मित्र के यहाँ भी रहना ठीक बात नहीं है। वैसे मित्र ने एक भी बार ये नहीं कहा कि तुम कमरा क्यों नही ढ़ुढते हो वगैरह वगैरह। हमेशा कहते रहें अरे छोड़ि‍ये ना क्या हुआ जो नहीं मिल रहा है। यहाँ क्या दिक्कत हो रही है। काई दिक्कत तो नही है ना...वगैरह...वगैरह। लेकिन क्या करें मानव मन है...हमेशा विलग ही सोचता है। सो जैसे जैसे मित्र तसल्ली देते थे वैसे वैसे कमरा ढ़ुढ़ने की इक्षा और बलवती होती जाती थी। कई जगह देखा, मित्र के एक जान पहचान वाले जिनकी इस इलाके में काफी पकड़ है के साथ कई कई दिनों तक कितने जगह की खाक छानता रहा। कभी घर पंसद नही आए और कभी बहुत पसंद आ भी जाए तो मकान मालीक हम जैसे कथीत बैचलर (बकौल कुमार विश्वास : बैचलर बेचारे अपने मोहल्ले में प्रसीद्ध होते हैं लेकिन पड़ोसी के नज़र में गिद्ध होते है) को कमरा देने के लिए तैयार नही थे। नहीं भैया हमारे घर में बहु बेटीयाँ है, (जैसे हम उनकी इज्ज़त लुटने को आए हो) हम बैचलरों को कमरा नहीं दे सकते। फैमली वालों को ही कमरा मिलेगा। थक-हार कर कभी-कभी तो मन करता था कि शादी ही कर लूं लेकिन फिर मैने दिल को समझाया कि क्यों सात जन्मों तक झान बुझ कर दुख उघार ले रहा है, शादी शादी नही बरबादी है वगैरह, वगैरह। खैर बड़ी मिन्नतों के बाद दिल माना। अगर कोई कमरा मिलता भी जो बैचलर को कमरा देने के लिए तैयार होता तो उनकी शर्त होती थी कि रात नौ बजे के बाद मेन गेट बंद हो जाएगा। हम शाकाहारी है मीट-मछली-मुर्गा कुछ भी नही चलेगा, जोर से म्युजीक नहीं बजेगा, दोस्त घर पर नही आने चाहिए आदि आदि। 

खैर जब हमारी सारी कोशीशे बेकार गयी तो एक साहब ने मुफ्त की सलाह दी भाई साहब यहाँ कमरा ऐसे नही मिलेगा किसी प्रोप्रटी एजेंट से बात करो। वही तुम्हारी नैया पार लगा सकता है। हमने सोचा इतना हुआ तो ये भी ट्राय करके देखा जाय। निकल पड़े टू लेट वाले इस्तेहारो से ढ़ूढ कर नंबर उपर किया और फिर कॉल पर कॉल। कुछ नंबर मिला भी कुछ ने समय भी दिया। हे भगवान। ये प्रोपर्टी डीलर थे या वकील पता ही नहीं चल पा रहा था। इनसे बात करने के लिए भी फीस देनी पड़ी। अरे हाँ । इन्होने पहले तो रजीस्ट्रेशन चार्ज के नाम पर १००० रूपया लिया फिर दो ऐसे सड़े हुए घर दि‍खाए जिसे हम पहले ही रीजेक्ट कर चुकें थे। लो जी हो गयी थई। अब क्या करे हारकर हमने एक मित्र का सहारा लिया और उसके साथ ही सिफ्ट हो गऐ उनके साथ। अब फिलहाल वहीं है और मजे ले रहें है। 

वैसे सच कहू तो दिल्ली जैसी साफ सफाई नहीं है यहाँ लेकिन जैसा की सुनता आया था कि लाइट नही रहती है वैसा कुछ भी नहीं है। बिजली 24 घंटे रहती है। और लोग हेल्पफुल है। हां कुछ अगर ज्यादा है तो वो है राजनीति‍, ऐसा लगता है जैसे लोगों के खुन में ही राजनीति घुसी हुई हो। लोग एकदुसरे को देखना पसंद नही करते है। हमेशा एक दुसरे को नीचा दिखाने की कोशीश में लगे रहते है। और जो सबसे बुरा लगता है वो है यहा के लोक-व्यवहार (मैनर और एटिकेट), यहाँ के लोगों में इसका घोर अभाव है। कहीं भी थूक देना। कही भी हल्का होना लेना। कुड़े की ढ़ेर की तरह कुछ भी कही भी बेतरतीब कर देना यहाँ की खासियत है। और सबसे गन्दी बात ये है कि लोगों को आप कुछ समझा नही सकते है। सीधी और बेतरतीब तरीके से ऐसे जबाव देते है कि आपको कुछ बोलते ही नही बनेगा। मसलन अगर किसी भाई साहब को कहो कि यहाँ मत थुको तो उनका जबाव होगा मैं तो यही थुकूंगा, तुझे चुल है तो तु साफ कर ले। या क्या कर लेगा बे मैं तो यही थुकूंगा आदि आदि। राजधानी होने के बावजूद भी एक भी जगह कुड़े का डब्बा नहीं मिलेगा। नालीयां भरी हुई मिलेगी। मुख्य सड़क से निचे उतरने पर गाँवों से भी बुरी जिदंगी नज़र आएगी। अभी कल की ही बात है हल्की बुंदा बांदी ही ने कैसे यहाँ की पोल खोल दी है। जगह जगह कीचड़ और गंदगी ने जीना यहाँ के लोगों का जीना मुहाल कर दिया है। लोग सड़को पर पैदल चलने से घबराने लगे है, पता नहीं कब पैर स्लीप हो और शरीर नाली के अंदर पड़ा हो। लेकिन फिर भी लोग जी रहे है। एक उम्मीद और एक आश लेकर। शायद वो सोचते है कभी तो उनके सपनों का शहर बनेगा ये पटना। 

अरे हाँ, कुछ मज़ेदार बात तो लिखना भुल ही गया। कुछ प्वाइंट जो हमें पटनीया संस्कृती से परिचय करवाता है।
  • सबसे पहला अगर भैया आपको कमरा चाहिए तो आपका शादी शुदा होना पड़ेगा।
  • आप अगर ऑटो में बैठे है तो आगे पिछे होकर बैठीये या फिर पतले होकर आइये।
  • यहाँ आपको पिज्जा हट, कैफे कॉफी डे, से लेकर बिग-बजार, और विशाल मेगा मार्ट आदि के नाम भी हिंदी में लिखा मिलेगा।
  • यहाँ गोलगप्पा खाने के बाद सुखा दिया जाता है, लोग गोलगप्पे का पानी नहीं मांगते ना ही मीठा पापड़ी।
  • रिक्शे का किराया दस रूपये से कम नहीं होगा। चाहे बैठ कर उतर हीं क्यो ना जाओ।
  • सड़को को नाम विदेशो के तर्ज पर देखने को मिलेगा मसलन एक्जीवीशन रोड, फ्रेजर रोड, आदि आदि।
  • यहाँ अंग्रजी की तो बात ही मत पुछीये हम हिंदी की भी माँ बहन करके बोलते है। मसलन कैइसन आ‍दमी है हो, किरीया खाकर कहते है, आदि आदि।
  • स को श, और श को स कहना यहाँ के लोगो का जन्मसि‍द्ध अघि‍कार है। वैसे र को ड़ और ड़ को र भी बोलने में हम सबसे आगे हैं।
  • लिट्टी चोखा हरेक दस कदम की दुरी पर मिल जाएगा।
  • गोलगप्पा कब पटना आकर फुचका बन गया पता ही नहीं चला।
और भी बहुत कुछ है, याद आने पर कभी आराम से लिखा जाएगा। अभी तो बस इतना ही कह सकते है कुड़े के ढ़ेर पर उम्मीदों की आश लगाया एक शहर है जिसका नाम पटना है। जो अशोक और गुरू गोविन्द सिंह के नाम को अभी भी नहीं भुला सका है। लेकिन याद रखने लायक भी नहीं छोड़ा है।

Wednesday, January 8, 2014

प्र‍ियतमा के नाम एक खुला पत्र

प्रियतम,

बहुत दिनों से एक बात कहना चाह रहा हूं लेकिन पता नही चल पा रहा था कि‍ कैसे बताउ। एक बात जो बार बार मन को कचोट रहा है वो ये है कि, क्या मैं सच में इतना बुरा गया हूं या ऐसा सिर्फ तुम्हे लग रहा है। प्र‍ि‍य शायद ये बात तुम्हारे समझ में नही आये लेकिन मैं आज भी तुमसे उतना ही प्रेम करता हूं जितना करता आया था। आज भी मेरे दिल में तुम्हारे लिये वही जगह है जो पहले थी। लेकिन प्रिय शायद मैं आज तुम्हे उतना समय नहीं दे पा रहा हूं जितना पहले देता था। या शायद नहीं; पहले भी मैं तुम्हे समय कहाँ दे पाता था वो तो हम एक ही ऑफिस में काम करते थे इसलिये शायद मिल लेते थे या आठ घंटे हम एक दुजे को देख लेते थे। (ये तुम्हारे ही शब्द है, शायद कुछ याद आ जाये). प्रिय मुझे आज भी याद है समय को लेकर हमारे बीच(नहीं..नहीं सिर्फ मेरे) कितना हो-हल्ला, चिल्ल-पो मची रहती थी। तुम्हारी हमेशा शिकायत रहती थी कि मैं तुम्हे समय नहीं दे पाता हूं। बकायदा तुमने तो उंगलीयों पर गिन भी रखा था कि हम कब-कब और कहाँ-कहाँ मिले है। एक-एक दिन वो छोटा सा छोटा लम्हा; पता नहीं तुम्हे इतना याद कैसे रहता है। ये लड़कियाँ होती ही ऐसी है लड़को में नुक्स निकालने और उन्हे निचा दिखाने में मजे लेने वाली। खैर....। एक दिन टेलीफोन पर बात नहीं होने से तुम ऐसे करने लगती थी जैसे मैने कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो, और गुनाह भी ऐसा जिसका प्रायश्चि‍त करना नामुमकीन हो। तुम्हे ऐसे लगता था कि मैं हर पल तुम्हारे पास रहूं तुम्हारे नजरों के सामने...मैं आज तक ये नहीं समझ पाया कि ये तुम्हारा प्यार जताने का नजरीया था या तुम खुद को अनसिक्योर फील करती आ रही थी कि जैसे ही मैं नजरो से ओझल होउंगा कोई और नयी प्रियतमा की तलाश में लग जाउंगा। या मैं एक मिनट के लिये भी नजरो से ओझल होउंगा और अलादिन के जिन्न कि तरह हवा हो जाउंगा।

ये तो रही पुरानी बातें अब नयी बातों पर आता हूं। आजकल हमे पता है कि हम एकदुसरे से दुर है लेकिन तुम हमेंशा मुझे ये क्यों बतलाती रहती हो कि मैं तुमसे दुर हूं? या मैं जानबुझ कर तुमसे अलग हो गया हूं? प्रिय तुम्हे पता है जुदाई का दर्द मेरे अंदर भी है, मुझे भी तुम्हारे पास नहीं होने का गम सताता है। मुझे भी लगता है कि हम साथ होते थे तो अच्छा लगता था; मुझे भी तुम्हे भी। हमे ये भी मालूम है कि पहले कितना भी रूठो अगली सुबह तो मिलना हो ही जाता था जो की अब नही हो पाता है। हम एक दुसरे के चेहरो को देखकर भी संतोष कर लेते थे। समझ जाते थे ‍एक दुसरे को देखकर, उनके चेहरे को पढकर। और जब हम दुर हुये है तो ना वो चेहरा है और ना ही तुम्हारा सामिप्य। तुम्हे शायद पता नहीं है लेकिन मैं भी उतना ही उदास होता हूं जितना की शायद तुम होती होगी हमारी दुरीयों से। लेकिन प्र‍ि‍य तुमने कभी हमारे इस दुख को नहीं समझा हमेंशा मारती रही ताना कि तुम मुझे भूल गये हो या अब मैं याद क्यों आउ तुम तो नयी जगह पर आ गये हो तुम्हे नयी मिल जायेगी वगैरह-वगैरह। और जो तुम्हारा सबसे बेहतरीन राग है, वो है ‘’मिलने कब आ रहे हो’’। प्र‍ि‍य क्या तुमने कभी सोचा है ये 2700 किलोमीटर ‍की दुरी यूं ही तय नही होती, पुरे दो दिन लगते है। और हवाई जहाज से जाने लायक अपनी औकात नहीं हुई है अभी। फिर भी तुम मर्फिन कि सुईयों कि तरह हर रोज हर सुबह, हर दिन कोंच-कोंच कर सुनाती रहती हो कि मैं तुमसे मिलने नही आ रहा हूं। एक मिनट अगर तुम्हारा फोन लेट से उठाउ तो तुम्हे लगता है कि मैं कहीं और(बकौल तुम्हारे शब्दों में किसी और लड़की के साथ) व्यस्त हूं। कभी तुमने ये नहीं सोचा कि कुछ मजबूरीयाँ रही होगी इसलिये फोन नही उठा सके या फोन नही कर सके। लेकिन नहीं...। ऐसा कभी नही हुआ। मेरे हरेक लेट कॉल या कॉल नही करने पर मुझे एक-एक घंटे तक एक्सप्लेनेशन देना पड़ता है लेकिन फिर भी मैं तुम्हे ये नही समझा पाता हूं या तुम समझ नहीं सकती हो कि ऐसा क्यों होता है। तुमने कभी भी मेरे एकबार कहने पर ये नहीं मान लिया कि हां ये बात थी। हमेशा बात को बहस में ही तब्दील करके खत्म किया। चलो मैं इसे भी अपनी ही गलती मानता हूं। मेरे अंदर ही वो काबीलियत नहीं थी कि मैं तुम्हे समझा सकू लेकिन क्या कभी तुमने सोचा है कि प्यार में बहस करना या शक करना क्या जायज है। या एक ही बार में बात मान लेने से दोनो का भला नही हो सकता। या तुम्हे हमेशा ऐसा क्यों लगता है कि मैं झूठ बोल रहां हूं। पहले तो तुम्हे ऐसा नही लगता था। पता नहीं आज-कल तुम्हे क्या हो गया है। प्रेम पर या अपने प्यार पर भरोसा क्यों नहीं रहा।

एक छोटी सी कहानी सुनाता हूं प्लीज इसे उपरोक्त बातों से लिंक मत कर लेना ये बस ऐसे ही है याद आ गया तो सोचा लिख दूं। एक बार कबीर दास से मिलने एक व्यक्ति‍ पहुंचा। बातों ही बातों में उन्होने कबीर जी पुछा कि गुरूदेव एक बात बताइये ‘क्या शादी करनी चाहिये’? जाड़े का समय था कबीर दास जी धुप मे बैठ कर कुछ लिख रहे थे उन्होने बिना उत्तर दिये अपनी धर्मपत्नी को आवाज लगाई जरा लालटेन(लैम्प) जला कर लाना। कबीर की पत्नी ने चुपचाप लालटेन जला कर कबीर के पास लाकर रख दी और अंदर चली गयी। उस व्यक्त‍ि को घोर आश्चर्य हुआ उन्होने कबीर जी से कहा गुरूदेव इतनी धुप है सब कुछ साफ-साफ दिखाई दे रहा है फिर इस लालटेन का क्या प्रयोजन। कबीर जी ने जबाव दिया यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है। पत्नी शांत हो आज्ञाकारी हो और किसी भी बात पर आपस में मतभेद नहीं करती हो तो शादी करनी चाहिये।

मुझे पता है तुम क्या सोच रही होगी इस कहानी को पढ़कर लेकिन प्लीज ऐसा कुछ मत सोचना। हां इतना जरूर कहना चाहुंगा कि मैं रोबोट नहीं बनना चाहता हूं। मुझे इन्सान ही रहने दो। रूटीन में मुझे मत बांधो, मुझे स्वछंद ही जीवन गुजारने दो। मत रखो मुझसे कोई आशा बस अपना लो मुझे। इससे ज्यादा शायद मैं कुछ ना लिख सकू।

तुम्हारा
प्रिय

Monday, January 6, 2014

एक यादगार सफर की कहानी खुद अपनी जुबानी

पता है कल का सफर, शायद ही कभी भुल सकू। एक छोटी सी यात्रा कैसे मजेदार और यादगार बन गयी पता ही नही चला। इस बार नव वर्ष के लिए मामाजी के यहां आया हुआ था। मंशा दो थी, पहला अपने ममेरे भाईयों के संग नव वर्ष ( जैसा कि‍ पिछले कई वर्षों से अपने अनुज भ्राता से सुनता आया हूं की उनके संग नव वर्ष मनाना बेहद मज़ेदार और शानदार होता है) मनाया जाय। और दुसरा अपनी आँख जो पता नही क्यों अब सही तरीके से काम नहीं कर रहा है। दृष्टी दोश का तो नहीं कहा जा सकता हॉ कभी-कभी अत्याधि‍क लाल और आँखों से पानी आने की शि‍कायत रहती है, को अच्छे तरीके से जांच करवाया जाय। मैने सुना था कि नेपाल आँखों के इलाज के लिए एशिया में सबसे बेहतरीन जगह है। खैर...

निकल पड़ा अपने सफर पर और माशा अल्लाह एकदम अजीब, रोमांचक, मजेदार और ना जाने क्या क्या।

हमने पिछली रात ही प्रोग्राम बनाया था कि सुबह जल्दी निकला जाय, लेकिन रात की खुमारी पता नहीं हम युवाओं को सुबह के ८-९ बजे से पहले उतरती हीं नहीं है। तो जैसा की पहले से तय था कि जल्दी उठना है उसको तहस-नहस करके हम १० बजे तक तैयार हुए और चल पड़े अपने यादगार सफर पर।

जैसे ही हम विरपुर, जिला-सुपौल के गोल-चौंक पहुंचे देखा की एक भी ऑटो नहीं है, पुछने पर पता चला कि ऑटो अब बस स्टैंड जो कि करीब एक किलोमीटर दूर है से मिलेगा ठीक है भाई हम वहां भी पहुंचे, जैसे-तैसे एक मैजीक मिला, जैसे-तैसे इसलिए कि हमने करीब १०-२० ऑटो वालो से पुछताछ की उसके बाद जाकर ये मिला। खैर हम भेड़ बकरीयों की तरह उसमें बैठे। भेड़-बकरी इ‍सलिए कि एक सीट पर पता नहीं कितने लोग बैठे थे। खैर...अभी हम कुछ दुर हीं चले थे कि सामने एक व्यापरी जो रास्ते में अपने सोनठी (पटसन निकालने के बाद जो डंठल बच जाता है) का करीब २० बोझा (गट्ठर) लेकर रास्ते में खड़ा था गाड़ी को मजबुरन वहां रूकना पड़ा और फिर चला सोनठी को उस पर चढ़ाने का सिलसिला। दुर से दिखने वाला वो बीस बोझा कब ३०-४० बोझ में बदल गया पता ही नहीं चला। खैर एक एक कर सारे गट्ठरों को उस पर चढ़ाया गया। लो जी हो गया एक घंटा बर्बाद। चढ़ाने के बाद उस गट्ठर का जो असली मालीक था वो और उस व्यापारी में पैसे को लेकर बहस होने लगी। व्यापारी के पास पुरे पैसे नहीं थे और मालीक बिना पैसे के उसे जाने नहीं देना चाहता था। बहस बढ़ी और फिर खींचती गयी। एक घंटे तक हमारे संग गाड़ी के सभी लोग मूकदर्शक बनें रहे। करीब एक घंटे के बहस के बाद मालीक ने गाड़ी ड्राईवर से बोझा उतार देने के लिए कहा। अब ड्राईवर इस बात पे अड़ गया कि हमें तो किराये के पैसे चाहिए। इतनी मेहनत से उसे चढ़ाया है, इतना पसीना बहाया है, हाथ में छाले पड़ गये है। मैं तो बिना पैसे लिए नहीं उतारूंगा। उसके बाद फिर शुरू हुई व्यापारी और ड्राईवर के बिच हि‍ल-हुज्जत। और अंतत: व्यापारी को १०० रूपये देने ही पड़े। खैर कैसे भी हो विवाद खतम हुआ और यात्रा प्रारंभ हुई। अभी मुश्कील से गाड़ी ५ किलोमीटर भी नहीं बढ़ने पाई थी की अचानक गाड़ी रूकी और एक यात्री उतर कर सामने के बैंक में चला गया। मैने सोचा इन्हें यहीं तक जाना था इसलिए ड्राईवर ने गाड़ी रोकी होगी लेकिन जब १० मिनट तक गाड़ी यू हीं यंत्रवत खड़ी रही तो मैने ड्राईवर से पुछा भाई साहब गाड़ी आगे क्यों नहीं बढ़ा रहे हो। उसने कहा क्या बताये भाई साहब... अभी-अभी जो बंदा बैंक गया हुआ है उसी के लिए गाड़ी रोक कर रखा है उसने कहा कि अभी १० मिनट में लौट आउंगा। मैं सन्न रह गया। एक बंदे के लिए गाड़ी के सारे पैसेंजर परेशानी उठा रहें है। ड्राईवर ने कहा क्या करें भाई आज अगर नहीं रुका तो कल से ये मुझे इस रास्ते में रुकने भी नहीं देगा। हो सकता है मारपीट भी करें। मै हतप्रभ। ऐसा ट्रनों में तो हमारें यहाँ होता ही रहता है। धमहरा घाट रूट याद ही होगा आप सबों को किस तरह गोप की मनमानी चलती है। और शायद आपको पता भी होगा भारत में ट्रेन हाइजेक भी सबसे पहले बार हमारे यहां ही हुआ था। हां हां हमारे यहां वर्षों से ऐसा ही होता आया है। वैसे इन छोटे गाड़ीयों में इस तरह की मनमानी पहली बार देख रहा था। उसके बाद तो गाड़ी रूकने का सिलसिला बढ़ता ही गया कभी पान खाने के बहाने कभी चाय के बहाने वगैरह-वगैरह। खैर जैसे-तैसे हम जोगबनी पहुंचे। वहां रिक्शा वालों ने घेर लिया। अपनी मनमानी...अरे भाई कैसे पैदल जाओगे। बॉर्डर तक पैदल ही चलना पड़ेगा। हम रिक्शा पर चढ़े और चल पड़े अभी बॉर्डर पार किये ही थे कि रिक्शा पंक्चर हो गया। लो भैया बढ़ गयी मुश्कीलें वैसे जाड़े की धुप गुनगुनी थी लेकिन फिर भी दूर-दूर तक रिक्शा ठीक होने का कोई निशान नहीं दिखाई दे रहा था। हम पैदल ही आगे बढ़ते रहे और रिक्शा वाले को आगे भेज दिया ताकि वो रिक्शा ठीक करवा सकें। करीब २ किलोमीटर चलने के बाद रिक्शा चालक एक दुकान पर पंक्चर ठीक करवाता मिला। चुंकि‍ भुख भी बहुत लगी थी इसलिए हमलोग भी पास के दुकान में मोमो खाने बैठ गये। मोमो भी ऐसा की जब ऑर्डर दिया तभी तैयार होने गया। खैर मोमो और उसकी चटनी अच्छी थी। हमने मजे लेकर खाया और फिर चल पड़े गंतव्य की और। हम हॉस्पिटल पहुंचे और रिशेप्शन पर पर्चा कटवाया। हमे ये देखकर हैरानी हुई की इतने बड़े अस्पताल की फीस मात्र २२ रूपये थी। अस्पताल में करीब १०० से ज्यादा स्टॉफ थे कैसे मैनैज होता था और खर्चा चलता था ये तो भगवान ही जाने। खैर हमें लगा ऐसा सिर्फ यहीं हो सकता है हमारे यहॉं तो इसी बात के कम से कम १००० रूपये लगते। वैसे आँखों का इलाज तसल्लीबख्स हुआ। करीब ६ चरणों में विभीन्न प्रकार के जांच के बाद डा. ने बताया कि आँख में कोई दोश नहीं है बस ज्यादा देर तक लैपटॉप पे काम करने के कारण आँखे ड्राय हो जा रही है। कुछ दवाई लिखी गयी और रीडींग ग्लास का सुझाव दिया गया। उसके बाद हम बाहर निकले संयोग से वही रिक्शा वाला मिल गया बोले भैया आपके कारण ही बैठा हूं वापस चलेगें क्या। हमने कहा नहीं यार हम आगे विराटनगर बजार तक जाना है कंबल और कुछ मशाले खरीदने है। सुना था कि वहाँ ये दोनो चीजे सस्ती मिलती है। रिक्शा वाला भी तैयार हो गया। बोला जो देने का होगा दे दिजीयेगा हम तो आपको ही लेकर जाएंगे। हमने बार बार पुछा और वो बार बार यही कहता रहा। खैर हमने भी सोचा कि ५० आने के हुए है तो जाने के क्रम में चुकीं बाजार भी जाना था तो ७० रुपये बनेगें। हमने सोचा और बैठ गये। वहां कंबल तो अच्छा मिला लेकिन मशाले ‍के नाम पर सिर्फ इलाइची ही हाथ लग पाया। दुकानदार ने कहा कि भैया इसके अलावा सारा माल भारत से हीं आता है। हम वापस चलें। जोगबनी पहुंचने से पहले ही रिक्शा वाले ने कहा कि भैया हमारी ट्रेन लगी है अगर आप बुरा ना माने तो मैं आपको यहीं उतार देता हूं क्योंकि मुझें यही रिक्शा लगाना है। हमने सोचा चलो बेचारे की ट्रेन छुट जायेगी इससे अच्छा होगा कि यहीं उतर जायें। हम उतरे और जैसा कि तय था ७० रूपया देने लगें। रिक्शा वाला अचानक से पलट गया और १०० रूपया मांगने लगा। हमलोगों ने बहुत कहा कि भाईसाहब इतना नहीं बनता है और हमें इतनी दुर पैदल ही चलना पड़ेगा फिर भी वो नहीं माना। हमने भी सोचा कि शाम हो गयी है हिल-हुज्जत से क्या फायदा दे दो यार। हमने पैसे दिये और चल पड़े आगे की सफर पर पैदल ही। हे भगवान इतना जाम कि पैदल चलना भी मुश्किल हो गया। बड़ी मुश्कीलों से हम जोगबनी बस स्टैंड पहुंचे वहां पहुचने पर ऑटो वाला गायब। एक भी ऑटो नहीं, पता नहीं चल पा रहा था कि कैसे घर पहुंचे। किसी तरह पटना जाने वाली एक बस से बथनाहा तक जाने का जुगाड़ हुआ। बस पर बैठे-बैठे एक घंटे हो गये और बस थी कि खुलने का नाम ही नही ले रही थी। पुछने पर पता चला कि एक यात्री जो पटना जाने वाला है अभी तक नहीं आया है और इसी वजह से ‘बस’ उस श्रीमान के इंतेजार में है। हम रूके रहें। करीब एक घंटे के बाद भी आखि‍रकार जब यात्री नहीं आया तो हार-थक कर बस को चलना ही पड़ा। संवाहक और चालक दोनो फोन कर-करके परेशान हो गये थे। खैर हम बथनाहा पहुंचे। वहां से भी एक भी ऑटो नहीं मिली। हम इन्तजार करते रहें। कुछ देर बाद एक मैजि‍क दिखाई दिया। उस छोटे से मैजिक पर कम से कम ५००० किलो माल लदा हुआ था उपर से लेकर निचे तक ठसाठस। चावल और गुड़ की बोरीयां। आगे की सीट खाली थी लेकिन उसके नीचे भी गुड़ के बोरे रखे हुए थे। खैर किसी तरह हम तीनो जने एक ही सीट पर बैठे। मैजीक चल पड़ी। ५००० किलो के भार से दबी मैजीक जरा से भी गड्ढ़े या मोड़ पर ऐसे लहराती कि लगता जैसे अब गये कि तब गये, जबकी गाड़ी की स्पीड कभी भी २० से ज्यादा नही हुई थी। ३० किलोमीटर का सफर लगभग २ घंटे में तय करने के बाद हम अभी विरपुर से ५ किलोमीटर ही दुर थे कि चालक ने यह कहकर बस रोक दी कि माल उतारना है। लो जी आ गयी शामत। हम समझ रहे थे कि माल विरपुर में उतरना है और ये तो यहीं रोके जा रहा है। खैर हम उतरे और माल उतरना शुरू हुआ। लदे हुए माल का एहसास तब हुआ जब वो उतरने लगा। करीब १ ट्रक का माल अकेले उस मैजीक पर लदा हुआ था। करीब १ घंटे की कड़ी मस्सक्त के बाद ६ लोगों ने उस माल को उतारा। हमने चैन की सांस ली और गाड़ी पर सवार हुए। लेकिन अब बारी ड्रायवर की थी, वो पैसे के हिसाब के लिए मालीक से उलझ पड़ा। उसे किसी जरूरी काम के लिए पैसे चाहिए था और मालीक कह रहा था कि कल आ कर ले जाना। करीब आधे घंटे के बाद ड्रायवर किसी तरह माना और चल पड़ा। अब उस मैजीक की स्पीड देखने लायक थी। २० की रफ्तार से चलने वाली मैजीक अब १०० के रफ्तार से चल रही थी। गड्ढ़ों में ऐसे उछलती की कलेजा मुंह को आ जाता। खैर हम विरपुर पहुंचे और राहत की सांस ली कि चलो कम से कम पहुंच तो गये। अभी हम घर पहुचे ही थे कि दरवाजे पर याद आया कि हम अपनी दवाई उस मुआ मैजीक में ही भुल आये है। लो भैया अब शुरू हुई उस मैजीक की तलाश। संयोग से हमने उस ड्रायवर का नंबर ले लिया था जिससे हमें उसे ढ़ुढ़ने में सहुलियत हुई। अतत: हमे दवाई मिल गया। और उस यादगार सफर को याद करते करते हम घर लौट चले। घर में जिस किसी को भी ये किस्सा सुनाया वही लोट पोट हो गया। इस तरह एक छोटा सा सफर हमारे मन के कोने में ऐसे बसा कि हम शायद कभी इसे भुल नहीं पायेंगे।