Monday, April 15, 2013

लंगट सिंह कॉलेज – खंडहर होता इतिहास

आज से सौ वर्ष पूर्व काशी और कलकत्ता के मध्य गंगा के उत्तरी तट पर कोई कॉलेज नहीं था। हाई स्कूल की संख्या नगण्य थी। उस समय उस शिक्षा के घोर अन्धकारच्छन्न युग में उच्‍च शिक्षा के लिए मुजफ्फरपुर में कॉलेज की स्थापना करके बाबू लंगट सिंह ने शिक्षा के लौ को उजागर किया। लंगट सिंह कॉलेज का स्थापत्य लन्दन के ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक कॉलेज की नकल है। इसका नकल ‘दिल्ली विश्वविद्यालय’ के अधीन हिन्दू कॉलेज ने भी किया है। कहने के लि‍ए घोटालेबाज के घर में स्‍कूल खोलनेवाला राज्‍य सरकार इसको विशेष कॉलेज का दर्जा दि‍या है जबकि बिहार को दो केंद्रीय विश्‍वविद्यालय देकर उपकार करनेवाले केंद्र सरकार के लिए ये एक एतिहासिक स्मारक है, लेकिन सच ये है जो कभी भारतीय उच्‍च शिक्षा की बुलंदी पर रहने वाला ये कॉलेज आज अपने अस्तित्‍व के लिए संघर्षरत है। इसकी उपेक्षा की हद ये है जो यूजीसी जैसी संस्‍था को इसका स्थापना वर्ष पता नहीं है। उसकी वेबसाईट पर कॉलेज का स्थापना वर्ष खाली है जबकी नाम भी संक्षिप्‍त में लिखा गया है, जैसे लंगट सिंह का नाम लेने में लज्‍जा आती हो। प्राचीन और एतिहासिक शिक्षा के महल लंगट सिंह कॉलेज का इतिहास और उसकी उपेक्षा पर प्रस्‍तुत है ये विशेष रपट। -सुनील


कहा जाता है मुश्‍कि‍ल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए। ठीक ऐसा हीं कुछ शपथ मांग रहा है बिहार के एतिहासिक और प्राचीन महाविद्यालय में से एक लंगट सिंह कॉलेज। कहने के लि‍ए इसे राज्‍य सरकार ने विशेष कॉलेज का दर्जा दे रखा है और हालहीं में भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण विभाग इसको स्मारक घोषि‍त कर चुका है। लेकिन हकीकत ये है कि ये सुंदर सा भवन अब खंडहर बनता जा रहा है। भवन पर छह से आठ फुट लम्‍बे पेड़ उ‍ग आए है और अगर जानकार का माने तो ये भवन कभी भी ढह सकता है। बिहार में धरोहर के प्रति उदासीनता नयी बात नहीं है। कई धरोहर नष्‍ट हो चुके हैं और कई नष्‍ट होने के कगार पर है। लंगट सिंह कॉलेज भी उसमें से एक कहा जा सकता है।

स्‍मारक बनाने के लिए चला था आंदोलन - इसको दुर्भाग्‍य कहना चाहिये या रोचक तथ्‍य, लेकिन लंगट सिंह कॉलेज सरकार के लिए मात्र गांधी की यात्रा के लिए महत्‍वपूर्ण स्‍थल हैं। सरकार और कॉलेज प्रशासन केवल गांधी से जुड़े पर्यटन स्थल के रूप में इसको विकसित करने की योजना तैयार कर रहा है। पर्यटन के दृष्टि से कॉलेज सुन्दर बने रमणीय बने उसके लि‍ए सरकार से पैसा नहीं मांगा जाता है। ऐसे में इस कॉलेज का इतिहास गाँधी तक जाकर ठहर जाता है। कॉलेज के विकास, इसके गौरवशाली इतिहास की कोई चर्चा कहीं नहीं होती है। लेकिन लंगट सिंह कॉलेज के कूछ उत्साही युवा जो दिल्‍ली आ चुके है और दिल्‍ली के कॉलेज परिसर को देख कर रोमांचित है उस ‘स्टुडेंट इनिसिएटिव फॉर हेरिटेज’ के बैनर तले प्रधानमंत्री से गप कि‍ए और इस कॉलेज की गरिमा और इतिहास से उनको अवगत करायें। एसएचआईसी के कोर्डिनेटर अभिषेक कुमार और उनके दल प्रधानमंत्री से इस कॉलेज के लिए भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग से बात करने का अनुरोध कि‍या। प्रधानमंत्री ने तत्‍काल अनुरोध स्वीकार कर भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण को इस बाबत एक पत्र लिखा जिसमें इस कॉलेज को ऐतिहासिक दर्जा देने की संभावना पर विचार करने के लि‍ए कहा गया। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग इसको धरोहर तो घोषित कर दि‍या, लेकिन इसके संरक्षण के लिए कोई प्रयास अभी तक शुरू नहीं कर सका है। आशंका ये जताई जा रही है जो अगर प्रयास जल्‍द शुरू नहीं हुआ तो भवन ढहने जैसी स्थिति में है और परिसर फि‍र एक खंडहर के संरक्षणक योग्‍य हो जाएगा।

मात्र गांधी तक इसके इतिहास को समेटने की थी साजिश - राजेंद्र बाबू से जुड़े इस कॉलेज को गांधी तक सिमित रखने के पि‍छे कुछ लोग इसे राजनीतिक साजिश करार देते हैं। ये कॉलेज जब खोला गया था तब का बात छोडि़ए अभी भी एक कालेज खोलना कोई आसान काम नहि है। अगर लंगट सिंह इसके लि‍ए सामने नहीं आते तो देश कई विभूति से वंचित रह जाता। 1975 तक भारतीय प्रशासनिक सेवा मे इस कालेज के सबसे ज्‍यादा छात्र सफल होते रहे थे। लंगट सिंह कॉलेज तिरहुत क्षेत्र में मात्र ज्ञान की ज्‍योति नहीं जलायीं बल्कि सांस्कृतिक उत्थान और सामाजिक परिवर्तन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। लेकिन किसने ये सोचा था कि लंगट सिंह का नाम इतिहास के पन्‍नें में स्वर्णाक्षर में तो छोड़िये सामान्‍य स्‍याही तक से नहीं लिखा जाएगा। कॉलेज का चर्चा एलएस कॉलेज से होने लगा और इतिहास केवल गाँधी के चंपारण यात्रा के दौरान गाँधी-कूप तक सिमित हो गया। गाँधी के ऐतिहासिक यात्रा के दौरान कॉलेज परिसर में ठहरना, उनके स्वागत में उमड़ी भीड और छात्र द्वारा गाँधी के बग्घी अपने हाथ से खीचना कॉलेज के लिए ऐतिहासिक महत्व हो गया। वहीं चंपारण यात्रा के सूत्रधार आचार्य जे.बी. कृपलानी, गाँधी को कॉलेज हॉस्टल में ठहराने के कारण बर्खास्त विद्वान आचार्य मलकानी को लोग भुलते गए। राजेंद्र बाबू के कॉलेज के प्राध्यापक के रूप में काम करना, प्राचार्य (Principal) बनना, कॉलेज के वर्तमान स्थल के चयन करने में उनका योगदान किसी के लि‍ए चर्चा का विषय नहीं रहा। ये मांग भी नहीं उठाई गयी जो रामधारी सिंह दिनकर से जुड़ी चीज एक जगह संग्रहित कि‍या जाए, उनके नाम पर कॉलेज में कुछ स्‍थापित किया जाए। कॉलेज की गरिमा बढाने वाले अनेक संस्मरण को एक पुस्‍तकालय में संजोने का विचार तक किसी को नहीं आया। जबकि लगभग पांच दशक तक बिहार नहीं अपितु भारत के प्रतिष्ठाप्राप्त महाविद्यालय में लंगट सिंह कॉलेज क नाम प्रमुखता से लि‍या जाता रहा है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा० राजेंद्र प्रसाद और राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जिस कॉलेज से संबंध रखते है उस कॉलेज का परिचय अगर कोइ ऐसे दे रहा है कि इस जगह गांधी रात बि‍ताए थे तो निश्चित रूप से ये एक साजिश कही जा सकती है।

‘भूमिहार ब्राहमण कॉलेज’ था पहले नाम - 3 जुलाई 1899 को वैशाली और तिरहुत के संधि भूमि में अवस्थित ये महाविद्यालय अपने प्रारंभिक दस वर्ष तक सरैयागंज के निजी भवन में भूमिहार ब्राहमण कॉलेज के नाम से चलता था। जनवरी 1908 में राजेंद्र प्रसाद कलकत्ता विश्वविद्यालय से उच्च श्रेणी में एमए पास कर जुलाई में इस कॉलेज के प्राध्यापक के रूप में नियुक्त हुए। उस समय ये कॉलेज कलकत्ता विश्विद्यालय के अधीन था। ऐसे मे समय समय पर निरीक्षण के लिए कलकत्ता विश्यविद्यालय से अधिकारी आते रहते थे। इसी क्रम में कलकत्ता विश्विद्यालय के वनस्पतिशास्त्र के प्रो० डा० बहल जब ये कॉलेज आयें तो वो इसे देख सख्त नाराजगी व्‍यक्‍त किएं जो कॉलेजक परिसर बहुत छोटा है और वर्ग दुकान के आसपास चल रहा है। उन्‍होने तत्‍काल कॉलेज के लिए पर्याप्‍त जमीन और भवन की व्‍यवस्‍था करने के लिए बोलें। इसके बाद राजेंद्र बाबू अपने कुछ सहयोगी शिक्षक के संग जमीन ढ़ुंढ़ना शुरू किए। आखिरकार खगड़ा गाँव के जमींदार और बाबू लंगट सिंह क सहयोग से कॉलेज के लिए प्रयाप्‍त जमीन मिला। कॉलेज 1915 में सरैयागंज से अपने वर्तमान जगह पर ‘ग्रीर भूमिहार ब्राहमण कॉलेज नाम से स्थान्तरित हो गया। लेकिन स्थानीय लोगों के विरोध के बाद कॉलेज का नाम इसके संस्थापक बाबू लंगट सिंह के नाम पर ‘लंगट सिंह कॉलेज’ राख दि‍या गया।

आप नहीं थे शिक्षित, समाज को बनाए ग्रेजुएट - जानकी वल्लभ शास्त्री, रामबृक्ष बेनीपुरी, शहीद जुब्बा साहनी जैसे अनेक विभूति के नाम मुजफ्फरपुर की प्रतिष्ठा बढाती है। लेकिन सब से बड़े प्रेरणा के स्रोत थे बाबू लंगट सिंह। बाबू लंगट सिंह का जन्म आश्विन महीने में, सन 1851 में धरहरा, वैशाली निवासी अवध बिहारी सिंह के घर हुआ था। निर्धनता के अभिशाप और जीवन का संघर्ष ऐसा रहा की लंगट सिंह साक्षर नहीं हो सके। लंगट सिंह महज 24 वर्ष में जीविका की तलाश के लिए घर से निकल पड़े। पहला काम मिला रेल पटरी के किनारे बिछ रहे टेलीग्राम के खम्‍भे पर तार लगाने की। इस काम में उनके लगन को देखकर आगे काम मिलता गया और वो रेलवे के मामूली मजदूर से जमादार बाबू, जिला परिषद्, रेलवे और कलकत्ता नगर निगम के प्रतिष्ठित ठेकेदार बन गए। उनकी कहानी कोई आधुनिक फिल्‍म के पटकथा से कम नहीं है। साधारण मजदूर से उदार जमींदार के रूप में स्थापित लंगट सिंह आजके युवा के लिए प्ररेणा का स्रोत थे। कलकत्ता के संभ्रांत समाज में उनको हीरो माना जाता था। बंगाली समुदाय से वो इतने घुल-मिल गए थे कि शुद्ध बंगाली लगने लगे थे। स्वामी दयानंद, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, ईश्वरचंद विद्यासागर, सर आशुतोष मुखर्जी आदि के वो समर्थक थे। मंद पड़े विद्यानुराग का वो पवित्र बीज कलकत्ता मे फूटा और आज एलएस. कॉलेज के रूप में वटवृक्ष की भांति खड़ा हुआ।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भी दिए दान - बाबू लंगट सिंह शिक्षा के विस्‍तार के लिए सब कुछ करने के लिए तैयार रहते थे। पं. मदन मोहन मालवीय जी, महाराजाधिराज कामेश्‍वर सिंह, काशी नरेश प्रभुनारायण सिंह, परमेश्वर नारायण महंथ, द्वारकानाथ महंथ, यदुनंदन शाही और जुगेश्वर प्रसाद सिंह जैसे विद्याप्रेमी के संग जुडकर उन्होनें शिक्षा के अखंड दीप को मुजफ्फरपुर हीं में नहीं बल्कि और जगह भी जलाने का काम कि‍यें। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए भी लंगट सिंह ने रुपये दि‍ए थे। कहा जाता है काशी के लिए जो रुपया वो दि‍ए थे वो एल.एस. कॉलेज के भवन निर्माण के लिए रखे थे। अद्भुत मेधा के युग-निर्माता, एक कृति पुरुष बाबू लंगट सिंह को भूलना, तिरहुत को भूल बिहार मे शिक्षा के इतिहास को लिखना कठिन है। आज उनको दिवंगत हुए 100 साल से ज्यादा हो गए लेकिन फिर भी उनके काम उनके सोच और उनके शिक्षा-प्रेम शुभ कर्म करने के लिए प्रेरणा देता है। 15 अप्रैल, 1912 को उनके निधन के साथ तिरहुत में जो शून्य पैदा हुआ वो आज तक नहीं भरा जा सका है। तिरहुत खास कर के मुजफ्फरपुर का इतिहास बिना लंगट सिंह के चर्चा के पूरा नहीं हो सकता है।

कभी था सबसे सुंदर आज हो गया खंडहर - लंगट सिंह कॉलेज का विशाल गैस प्लांट आज कॉलेज के गौरव गाथा का मूक गवाह है। एक जमाना था जब ये विज्ञान संकाय से लेकर पीजी रसायन विभाग तक के सब प्रयोगशाला में निर्बाध गैस आपूर्ति करता था। आज केवल अपना निशान बरकरार रखने की जद्दोजहद में है। विशाल यंत्र की कई चीजें चोरी हो चुकी है। प्रशासनिक उदासीनता के कारण यंत्र के जीर्णोद्धार की चिंता किसी में भी नहीं देखी जा रही है। विद्वान शिक्षक सब चुटकी लेते कहते थे कि‍ यंत्र का स्‍वरूप देखना अब एक ज्ञान का चीज है, ऐसा यंत्र किसी भी महाविद्यालय के पास नहीं है। ये तो अब अपने आप में दर्शनीय और अध्ययन योग्‍य है। दो दशक पूर्व ये यंत्र ठीक था। 1952 में एक एकड़ में इसके लिए गैस प्लांट की स्थापना की गई थी। इसके देखरेख का जिम्मा पीएचईडी पर था। विभाग के तीन कर्मी इसके संचालन के लिए तैनात रहते थे। उनके लिए परिसर में आवास की व्यवस्था भी की गई थी। लेकि‍न धीरे-धीरे यह व्यवस्था चरमरा गयी। देश के महज तीन कॉलेज में से एक ये लंगट सिंह कॉलेज था जिसमें लैब के संचालन के लिए अपने व्यवस्था से गैस का निर्माण किया जाता था। इस जगह केरोसीन तेल के क्रैकिंग से गैस का फॉरमेशन कि‍या जाता था। तत्कालीन प्राचार्य डा.सुखनंदन प्रसाद अंतिम बार इसके जीर्णोद्धार की पहल कि‍ए थे। अगर ठीक से इसको संरक्षित कि‍या जाए तो ये भावी पीढ़ी के लिए अध्ययन में काफी सहायक हो सकता है। वैसे भी कॉलेज के लिए ये अमूल्‍य धरोहर है। लेकिन सवाल उठता है आखिर कब हम धरोहर के प्रति गंभीर बनेगें और अपने धरोहर के संरक्षण करने के लिए सक्रिय होंगे।

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