Monday, December 24, 2012

प्रिय तुम डरो मत, तुम दुर्गा, चंडी, और काली हो

प्रियतम,

याद हैं तुम्हे दिल्ली की वो ताजातरीन बलात्कार की घटना, कितना उद्धेलित कर दिया था ना उस घटना ने तुम्हे, रोक नहीं पायी थी तुम अपने आँसुओ को, सरोवर समुन्द्र स विशाल बन गया था तुम्हारे आंसू की धार से। लेकिन प्रिय तुम्हे समझना होगा की स्त्री आज भी उतनी ही हैं विचलित है, जितना हुआ करती थी सतयुग, द्वापर और त्रेता में। याद हैं तुम्हे अहिल्या का, पत्थर की बन रह गयी थी बेचारी उफ़ तक नहीं किया, और बन गयी पत्थर की उस पाप के लिए जिसको उसने किया ही नहीं। क्योंकि नारी तब भी सिर्फ सहनशीलता और त्याग की ही ही मूर्ति थी। फिर आया त्रेता, सब ने सोचा राम राज्य हैं । महिलाओं को अब मिलेगा मान-सम्मान लौटेगा उनका खोया हुआ स्वरूप, फिर स पूजी जाएगी महिला उसी रूप में जिसके लिए वो हैं वांछित। लेकिन प्रिय राम ने मर्यादापुरषोत्तम की लाज ही नहीं रखी, दसरथ ने जिस पुत्री को ठुकरा दिया दिया था उसे ना ला सके वापस। फेर लिया मुंह शांता से । और शांता चुप रही क्योंकि उसने सुन रखी थी सती की कहानी अपनी माँ से, ताकती रही बाट लेकिन एक बार भी नहीं मिल सकी अपने भाई या पिता से। सब सह गयी चुपचाप। फिर आयी सीता, लोगो ने सोचा दसरथ ने जो प्यार बेटी को नहीं दिया उससे ज्यादा बहु को मिलेगा, राम-राज्य स्थापति होगा, स्त्रियाँ फिर से सर उठाकर जी सकेगी। लेकिन प्रिय सीता नहीं छोड़ सकी अपनी पति का साथ, या फिर स्त्री होने का बोझ, निभाया उनहोंने स्त्री होने का धर्म ( प्रिय यहाँ धर्म ही कहूँगा क्योंकि शास्त्रों को तो ये लोग अपनी उंगलिया पर नचाते हैं) और चल पड़ी अपने पती के पीछे जंगल तक, लेकिन क्या सिला दिया राम ने उसके सती प्रेम का, पहले ली अग्नि परीक्षा और फिर फ़ेंक दिया जंगल में एक धोबी के कहने पर। क्या यही कहता हैं राज धर्म ? की क्या पत्नी कुछ भी नहीं होती राज के सामने क्या इतना प्रिय था उन्हें अपनी गद्दी। या फिर सीता ने सिर्फ चुकाया था अपने स्त्री होने की कीमत। की क्या इसलिए चढ़ी आग पर ताकि वो एक स्त्री थी। क्या राम ऐसा कुछ कर सकते थे अपने पिता या भाइयो के साथ। नहीं प्रिय क्योंकि स्त्री हमेशा से सहने के लिए होती हैं। कितने रूपों में ना जाने कितने कीमत चुकाती हैं। कभी माँ, कभी बेटी और कभी बहन के रूप में कितने जीवन एक ही जीवन में जीती हैं। और प्रिय द्रोपदी की वो करूण पुकार तो आज भी गूंज रही होगी ना तुम्हारे कानो में की किस तरह उनके ही बंधू बांधवों ने लुट ली थी उनकी अस्मत। किस तरह वो करूण क्रदन नहीं सुनाई दिया था भीष्म पितामह और घ्रितराष्ट्र को। क्या हो गया था उस भरी सभा को, क्यों मार गया था लकवा, क्योंकि सिर्फ वो स्त्री थी। प्रिय सोचो क्या होता अगर भगवान् नहीं आते उस पुकार को सुन कर। क्या मिशाल देते लोग, एक राजा सिर्फ इसलिए जुए में हार गया अपने बीवी को क्योंकि वो स्त्री थी। और प्रिय ये तो फिर भी कलयुग हैं। पुण्य जहाँ मंदिरों में भी नहीं रहते हैं। वहां लोगो से क्षमा और मर्यादा की क्या बात करे। प्रियतम उस लड़की ने जो सहा वो उसका नसीब हैं ये कह कर इस जघन्य अपराध को टाला नहीं जा सकता हैं। क्योंकि स्त्री सहती आई हैं, सतयुग, त्रेता और द्वापर से ;अहिल्या, सीता और द्रोपदी के रूप में तो कलियुग की क्या बिसात, ये सोच कर हम चुप नहीं रह सकते। हम लड़ेंगे तब तक जब तक नहीं मिल जाती लडकियों को उनका खोया हुआ सम्मान। प्रिय याद हैं तुम्हे बल, बुद्धि और विद्या की देवी स्त्री हैं। फिर क्यों ये स्त्री इतनी अबला हैं। प्रिय कभी कभी तो लगता हैं की इन्हें भी जरुरत हैं किसी जामवंत की जो हनुमान की तरह याद दिला सके इन्हें इनका भुला हुआ ज्ञान, और बल। बता सके इन्हें की तुम झाँसी की रानी थी जिसने छुड़ाया था अंग्रेजो के छक्के। तुम्ही थी वो मैत्रयी  जिसके आगे पराजित हुए थे शंकराचार्य भी। बस प्रिय जिस दिन इनकी अन्दर की भावना जाग गयी ना उस दिन नहीं कर सकेगा कोई भी हिम्मत इनकी और आँख उठाने का। फिर नहीं होगी बलात्कार की शिकार किसी बस या किस होटल में। फिर नहीं लुटेगी स्त्रियों की अस्मत सरे आम बाज़ार में और कुछ लोग हिजड़ो की तरह खड़े होंगे हाथ बांधे। फिर नहीं बहा सकेगा कोई इनके अस्मत लुटने के बाद घड़ियाली आंसू। फिर नहीं लगेगी बेटियों की बोली। नहीं बिकेगी कोई स्त्री बाज़ार में। नहीं समझी जायेगी स्त्रियाँ मर्दों के पावों की जूतियाँ। और नहीं फैलेगा कोई जनसैलाब इंडिया गेट और जंतर मंतर पर इनके अधिकारों के लिए क्योंकि प्रियतम ये जो इनका हक़ हैं उन्हें किसी संवैधानिक मुहर की जरुरत नहीं हैं, क्योंकि ये खुद तय कर सकती हैं समाज की दशा और दिशा।

प्रिय अंत में इतना ही कहूँगा की तुम्हे अहिल्या, सीता, और द्रोपदी बनने की जरुरत नहीं हैं। तुम्हे जरुरत हैं वक्त के साथ रणचंडी बनने की जिसने ना जाने कितने रक्तबीज का संहार कर दिया। जरुरत हैं झाँसी की रानी बनने की जिसने छुड़ा दिया था अंग्रेजो के छक्के। तभी प्रिय तुम रह सकोगी इस समाज में, जिसमे मनुष्य की खाल में छिपे भेड़िये स्त्रीयों को देखकर उसी प्रकार लार टपकाते हैं जैसे हड्डी को देखकर कुत्ता।

तुम्हारा
प्रिय



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