Tuesday, May 15, 2012

अब बिहार में बहार हैं, काम की किसे परवाह हैं

नालंदा विश्व विद्यालय को दिल्ली ले जाने की आशंका पर अंतरजाल और ब्लॉग जगत पर कई सारे आलेख आये हैं, के के सिंह के और इसमाद ने भी इस खबर को प्रमुखता से स्थान दिया की क्या अब मोतिहारी के बाद नालंदा का नंबर तो नहीं, इसमाद के इस खबर के साथ ही अंतरजाल और इसमाद पर संदेशो की बाढ़ आ गयी, अंतरजाल पर आये कुछ प्रमुख संदेशो को हम यहाँ सीधे-सीधे चस्पा कर रहे हैं ( मोडरेटर).
सम्बंधित खबर - त कि मोतिहारी क बाद नालंदा
                           नालंदा कए दिल्‍ली ल जेबाक मामला स अंतरजाल आओर ब्लॉग जगत मे उबाल

 
ज्ञानेश्वर वात्स्यायन ने लिखा -  नीतीश को भी 'तवज्‍जो' नहीं देती गोपा सब्‍बरवाल, ईश्‍वर ही जानता है नालंदा अंतर्राष्‍ट्रीय विश्‍वविद्यालय का भविष्‍य । वैसे बिहार के वरिष्‍ठ पत्रकार के के सिंह साहब ने अगले वर्ष से शैक्षिक सत्र के शुरु होने की आस जगाई है । लेकिन कहां और कैसे शुरु होगा यह सत्र,कह पाना नामुमकिन है । विवादों में रहीं यूनिवर्सिटी की वाइस चांसलर गोपा सब्‍बरवाल को बिहार आने की फुर्सत ही नहीं मिलती । शायद राजगीर में 'फाइव स्‍टार' की सुविधाओं का इंतजार हो । मैंने दो दिनों पहले इस यूनिवर्सिटी की वेबसाइट www.nalandauniv.edu.in देखी थी । महीनों पहले बनी होगी,यह आप भी देखेंगे,तो पता चलेगा । यहां एपीजे कलाम के बिहार विधान सभा में दिये गये भाषण से लेकर अमर्त्‍य सेन और गोपा सब्‍बरवाल के विचार को भी देख-पढ़ सकते हैं । नीतीश कुमार का भी पेज बना है,लेकिन आप इसे जैसे ही क्लिक करेंगे,संदेश मिलेगा- we are in the process of updating the site....। इसके दो ही अर्थ निकलते हैं, यूनिवर्सिटी को 450 एकड़ भूमि उपलब्‍ध कराने वाले नीतीश कुमार ने या तो अपना संदेश नहीं दिया अथवा उनके संदेश को अपलोड करने लायक अब तक नहीं समझा गया । सच ज्‍यादा बेहतर मैडम सब्‍बरवाल ही जानती होंगी । आपकी जानकारी के लिए मैडम सब्‍बरवाल का पगार मासिक पांच लाख रुपये से अधिक है । यह पगार देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित जेएनयू के वाइस चांसलर से भी अधिक व दिल्‍ली यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर से दोगुणी है । अक्‍तूबर,2010 से ही मैडम यह पगार पा रहीं हैं । पगार को 'टैक्‍स फ्री' कराने की कवायद भी हुई । इतने बड़े पगार के बदले मैडम ने अब तक क्‍या उपलब्धि हासिल की,यह भी बहस का मुद्दा है । और तो और मैडम ने करीबी डा. अंजना शर्मा को पिछले वर्ष 3.30 लाख के वेतन पर ओएसडी नियुक्‍त कराया । यूनिवर्सिटी की गवर्निंग बोर्ड की बैठकों पर अब तक देश-विदेश में करीब तीन करोड़ रुपये फूंके जा चुके हैं । वैसे इन बैठकों की अहमियत पर एतराज नहीं है,लेकिन स्‍थान पर तो सवाल उठेंगे । मैडम सब्‍बरवाल भले जो कुछ कहें,सच तो यही है कि वेबसाइट पर भी उनके दिल्‍ली के आरके पुरम स्थित किराये के दफ्तर का ही महत्‍व दिखता है,राजगीर का नहीं । मैंने शुक्रवार को उनके राजगीर कार्यालय में कुछ जानकारियों के लिए फोन किया था,लेकिन वह रिसीव ही नहीं हुआ । नंबर था-2255330 . मैडम अब तक राजगीर कितने दफे आईं,यह भी जानने की इच्‍छा थी । बहरहाल,कुछ प्रश्‍न हैं,जिनका जवाब आरटीआई के माध्‍यम से यूनिवर्सिटी के मुख्‍य लोक सूचना अधिकारी एस के शर्मा से जानने की कोशिश कर रहा हूं । आज के लिए बस इतना ही...
 
कुमुद सिंह - मूर्तियां कहीं भी कितनी भी विशाल स्‍थापित कर दिया जाए, वो समाधि का स्‍थान नहीं ले सकती। नालंदा नालंदा ही रहेगा पालम इस जन्‍म में नालंदा नहीं बन सकता। वैसे दिल्‍ली का भूगोल पहले ही विदेशियों को भ्रमित कर रही है। जनकपुरी से वैशाली तक सफर एक घंटे का हो चुका है। अब मनमोहन नालंदा भी दिल्‍ली में ही चाहती हैं। लेकिन वो ये नहीं जानते हैं हथेली काट लेने से भाग्‍य की रेखाएं नहीं बदलती।

अतुलेश्वर झा -  हमारे हिसाब से मुख्यमंत्री नितीश कुमार गप्प जयादा हांकते हैं, कारन जितना वो बोलते हैं उसका एक अंश भी नहीं करते हैं। देखिये नए बिहार का निर्माण करते करते वो पुराने बिहार की अस्मिता भी नहीं बचा पा रहे हैं। इसमें गलती हम जनता जनार्दन की ही हैं, हम किसी को भी तुरंत ही भगवान् मान लेते हैं, ये उसी का प्रतिफल हैं

इश्वर चन्द्र - जनाब, अब बिहार में बहार हैं, काम की किसे परवाह हैं.




आशीष झा - भैया जिसके सिर पर प्रधानमंत्री का हाथ हो, वो नीतीश को क्‍या भाव देगी। जहां तक केके सर का सवाल है तो इस मसले पर उन्‍हें लगातार पढ रहा हूं। हमें तो लगता है कि इस विश्‍वविद्यालय का पहला स्‍कूल कागज पर तो बिहार मे लेकिन व्‍यावहारिक रूप से दिल्‍ली के पालम में ही खुलेगा।


कृष्ण कुमार सिंह - जिस दिन से , पूर्व राष्ट्रपति डॉ A PJ , जिन्होंने ऐतिहासिक नालंदा विश्विद्यालय के विनाश पर नालंदा विश्विद्यालय के पुनर्निर्माण का विचार रखा, उस दिन उन्हें विश्वविद्यालय से अलग कर दिया गया जिससे इसकी पुनर्निर्माण की अनिश्चितता उजागर हुई  जी बी युनिवर्सिटी के चेयरमेन प्रो अमर्त्य सेन के मनमानी व अड़ियल रवैये से असहमत होने के कारन डॉ कलाम को युनिवर्सिटी से अलग कर दिया गया, प्रोफेसर सेन की ज्यादा रूचि युनिवर्सिटी के ज्ञान व सिक्षा के दलाली में हैं, जिसके कारण दिल्ली युनिवर्सिटी के एक जूनियर रीडर रैंक के शिक्षक को युनिवर्सिटी में अत्यधिक वेतन पर वीसी के रूप में मनोनीत किया गया, जिससे देश के शिक्षा जगत में हाय तौबा मची हैं, जिसके लिए अमर्त्य सेन में बिहार व बिहारियों को तथा साथ ही साथ देश के तमाम शिक्षाविदो को जमकर भला बुरा कहा केवल उनके अहंकार और केंद्र सरकार के हाथ पर हाथ धरे बैठे होने के कारण इस महत्वकांक्षी विश्वविद्यालय के स्थापना के राह में बाधा आ रही हैं. इस विवादस्पद चयन का मामला यूनियन एक्सटर्नल अफेयर मंत्री इ अहमद ने राज्यसभा में उजागर किया की प्रोफेसर ने किस प्रकार वीसी पद के लिए गोपा का चयन किया. युनियन एक्सटर्नल अफेयर जो की नालंदा युनिवर्सिटी के ग्रन्थ सम्बन्धी मामलो से भी जुड़े हैं, के द्वारा अभी तक इस मामले पर कोई स्पष्टिकरण नहीं दिया गया हैं


Saturday, May 12, 2012

विशेष राज्य की मांग और विकल्प

बिहार के विशेष राज्य के दर्जे की मांग खारिज हो चुकी हैं, होना भी चाहिए आखिर कार केंद्र सरकार ११ राज्यों को पहले से यह दर्जा देकर त्रस्त हैं, अब एक और राज्य को यह दर्जा देकर अपने ऊपर बोझ नहीं बनाना चाहती थी। वैसे भी केंद्र सरकार की नज़र में बिहार एक बोझ ही हैं जो विकास के दर में तो पिछड़ा हैं ही, गाहे बगाहे विशेष राज्य की मांग उठाकर केंद्र सरकार के लिए सरदर्द अलग से बना हुआ हैं
वैसे केंद्र ने जिन तीन कारणों के कारणों बिहार को को इस सूचि से अलग कर दिया उस पर एक बार फिर से गौर फरमाने की जरुरत हैं


क्या हैं विशेष राज्य के दर्जे की मांग -:
१) पर्वतीय और दुर्गम भू-भाग
२) कम जनसँख्या घनत्व या बड़ी संख्या में जनजातीय आबादी
३) सामरिक रूप से पडोसी देशो से लगी सीमाओं पर अवस्थिति
४) आर्थिक और ढांचागत पिछड़ापन
५) वित्तीय संसाधनों का आभाव


केंद्र सरकार ने जिन तीन कारणों को बताया हैं उसके अनुसार हमारे पास दुर्गम और पर्वतीय भू भाग नहीं हैं ; माना की हमारे पास दुर्गम और पर्वतीय भू भाग नहीं हैं, लेकिन उनका क्या जो बाढ़ की चपेट में हरेक साल अपने परिवार में से एक को खो देता हैं
। उनका क्या जो मेहनत से उगाई फसल को उस जल-प्लावन में स्वाहा होते देखता हैं
केंद्र सरकार ने यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया की बिहार के पास वित्तीय संसाधनों की कमी नहीं हैं, और ये भी सच हैं की ग्यारहवी पंचवर्षीय योजना के बाद राज्य की वित्तीय अर्थव्यवस्था सुधरी हुई हैं
, लेकिन क्या केंद्र ने उस अर्थ-व्यवस्था पर एक बार भी नज़र नहीं दौड़ाया जो हरेक साल भुखमरी और कुपोषण का शिकार हो रही हैं
हमारे पास जनसँख्या घनत्व भी कम नहीं हैं और ना ही ये जनजातीय बहुत इलाका हैं, लेकिन उन्हें इस भारी जनसँख्या के बीच खड़े वो भूखे नौनिहाल नज़र नहीं आते हैं जो आज भी आस लगाये हैं की उनके पापा सुदूर प्रदेश से कमाकर उनके लिए मुट्ठी भर अनाज का इंतजाम कर सके, उन्हें वो गरीब किसान नज़र नहीं आता जो अपनी खड़ी फसल सिर्फ इसलिए नहीं काट पाता की उसके पास संसाधनों का आभाव हैं, वो पलायन के शिकार लोग नज़र नहीं आते जो आज भी दिल्ली, मुंबई में बिहारीपन के शिकार हो रहे हैं, जिन्हें आज भी सिर्फ इसलिए पीटा जाता हैं की क्योंकि वो बिहारी हैं और अप्रवाशी हैं

वैसे केंद्र सरकार ने ने यह यह पता लगाने के लिए की बिहार को विशेष राज्य का दर्जा क्यों दिया जाय,  एक अच्छी खासी रकम खर्च की और एक अंतरमंत्रालयी समूह का गठन किया, इस समूह ने अपनी आठ महीनो की मशक्कत के बाद केंद्र को जो रिपोर्ट दी वो कुछ यूँ था " विकाश के मामले में बिहार काफी पिछड़ा हैं, बिहार का मानव विकाश सूचकांक निन्म्तम में से एक हैं
।.......  ढांचागत सुविधाओं खासकर बिजली और, सडको का आभाव, बिहार के विकाश में, खासकर निजी निवेश के अनुकूल माहौल बनाने में बाधक हैं।" इन सबके बावजूद केंद्र सरकार ने इस मांग को एक सिरे से ख़ारिज कर दिया, उनके अनुसार अगर बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिया तो झारखण्ड, उड़ीसा और राजस्थान जैसे राज्यों से भी यह मांग उठने लगेगी। इन सबको देखने के बाद तो ऐसा लगता हैं की बिहार को विशेष राज्य का दर्जा सिर्फ इसके पूरक कारको की वजह से नहीं मिला बल्कि कही न कही ये वजह भी केंद्र सरकार को सता रही थी की और राज्य भी मांग ना उठाने लगे, वैसे केंद्र सरकार के इस फैसले ने शायद उनका मुंह भी अपरोक्ष रूप से बंद कर दिया हैं
आजादी के बाद से ही गुजरात, महाराष्ट्र जैसे समृद्ध राज्यों के मुकाबले बिहार को कम संसाधन मिलता आ रहा हैं, और हमारा पिछड़ा होने का मुख्या कारण ये भी हैं, अच्छा तो यह हो की किसी राज्य को विशेष रियायत की जरुरत ही ना पड़े और अगर हो तो उसमे भेदभाव ही ना हो

मेरा कहना ये नहीं है की बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दो, ना ही ये कहना हैं की बिना विशेष राज्य का दर्जा मिले बिहार में विकाश होगा ही नहीं, मेरा तो बस ये कहना ही की विकल्पों को तो नज़रअंदाज मत करो
। केंद्र के बिहार के विशेष राज्य के दर्जे की मांग को ख़ारिज करना उतना आपत्तिजनक नहीं लगा जितना की उसके लिए कोई विकल्प ना सुझाना। वैसे योजना आयोग और वित्त मंत्रालय की सयुंक्त समिति ने ये सिफारिश भी की हैं की इन्हें विशेष राज्य का दर्जा मत दो लेकिन अतिरिक्त केंद्रीय सहायता तो मिलनी ही चाहिए, लेकिन केंद्र ने इस और भी कोई ध्यान नहीं दिया जो की बड़ा ही दुखद है

Wednesday, May 2, 2012

क्या विलुप्त हो जाएगी "मैथिली"

सुनने में अजीब सा लगे और शायद थोडा बुरा भी, लेकिन भारतीय जन भाषाई सर्वेक्षण की पहली रिपोर्ट से तो कुछ ऐसा ही लगता हैं। करीब तीन सौ से भी अधिक भारतीय भाषा या तो दम तोड़ चुकी हैं या भाषाविदो के आईसीयु में पड़े अपनी अंतिम साँस गिन रही हैं। ना ही मिडिया का ध्यान इस और जा रहा हैं ना ही पश्चिमी सभ्यता के रंग में रंगी युवाओ का। भाषा मानव संचार का मूल आधार हैं, लेकिन फिर भी इस और इस तरह की निर्मोही दृष्टि से ऐसा लगता हैं जैसे 2150 से भी ज्यादा समृद्ध भाषाई क्षेत्र वाले इस देश में इसका कोई महत्व ही ना हो।
कोई ८० वर्ष पहले भारत का पहला भाषाई सर्वेक्षण हुआ था वो भी अंग्रेज अधिकारी जोर्ज ग्रियर्सन की अगुवाई में, जिसके अनुसार मैथिली बिहार और अब के झारखण्ड के कुछ हिस्सों में प्रमुखता से बोली जाने वाली भाषा हैं। जो की अब मानवी स्वार्थ और राजनैतिक कलह के कारण विभिन्न भाषा (जो की क्षेत्र विशेष के आधार पर विकसित हो रही हैं) में बटती जा रही हैं। एक अखंड मैथिली टूट-टूट कर अंगिका, बज्जिका और ना जाने क्या क्या बन गयी हैं। वैसे ग्रियर्सन के बाद इस भाषा की सुध लेने वाला कोई नहीं बचा, कुछ खड़े भी हुए तो राजनैतिक आस्थिरता और कलह के कारण आपस में लड़-लड़ कर कर रह गए। अब करीब आठ दशक बाद भारतीय जन भाषाई सर्वेक्षण ( पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ़ इंडिया) ने उस पर थोडा काम किया हैं और छह खंडो में अपनी पहली रिपोर्ट प्रकाशित की हैं, जो की भारतीय भाषा के कुछ अनछुए पहलु को उजागर करती हैं। सर्वे की अध्यक्ष गणेश देवी के अनुसार भारत की कोई २० प्रतिशत भाषा विलुप्त हो चुकी हैं।अभी तक सिर्फ ग्यारह राज्यों में हुए सर्वेक्षण का यह अधुरा रिपोर्ट बताता हैं की करीब ३१० से ज्यादा भाषा विलुप्त हो चुकी हैं और छह सौ से ज्यदा भाषा अपनी अंतिम पड़ाव में हैं। यह सब देख सुन कर लगता हैं की कहीं अगला नंबर अपना तो नहीं? अटल जी के अथक प्रयासों के फलस्वरूप मैथिली सविंधान में आठवी अनुसूची में जगह पाने में कामयाब तो हो गया लेकिन बहुभाषी संस्कृति के चक्कर में पद कर हम इस भाषा से दूर तो नहीं जा रहे हैं।
जनगणना के अनुसार भी भारतीय भाषा का ग्राफ देखे तो वो भी कम चौकाने वाले नहीं हैं, १९६१ की जनसँख्या के अनुसार १६५२ मातृभाषाए दर्ज की गयी थी जो की १९७१ के जनगणना तक सिर्फ १०९ रह गयी जो की बेहद शर्मनाक हैं। अकेले बिहार और झारखण्ड के वो क्षेत्र जिसे मैथिलो का गढ़ कहा जाता हैं ने अपनी मातृभाषा हिंदी दर्ज करा रखी हैं जबकि उस सूचि से गायब ही हो गयी हैं। हमारे बीच भाषाई अंतराल इतना बढ़ गया हैं की हम किसी भी भाषा ( यहाँ तक की अपनी मातृभाषा) का एक भी वाक्य पूरा-पूरा और सुद्ध-सुद्ध लिख बोल या पढ़ नहीं सकते।
भाषा के सम्बन्ध में मिल रही लगातार चौकाने वाली जानकारी कही ये चेतावनी तो नहीं दे रही की अलग नंबर हमरा हैं। क्या मैथिली भी इतिहास बनकर रह जाएगी, कही ऐसा तो नहीं की मैथिली के बारे भी ऐसा कहा जाए की ये कभी अस्त्तिव, चर्चा और चलन में मौजूद थी ! जरा सोचिये.....?
                        "मैथिल भए क जे नै बजय ये मैथिली"
                   " मोन होए अछि हुनकर कान पकड़ी ऐठ ली"
मेरी ये रचना मैथिली के प्रसिद्ध वेबसाईट इसमाद पर भी प्रकशित हो चुकी हैं देखने के लिए यहाँ क्लिक कर -:

की विलुप्त भ जाएत “मैथिली”